मज़दूर इलाक़े में मज़दूर साथियों के साथ के कुछ अनुभव
शिवार्थ
पिछले दिनों एक साथी कार्यकर्ता के साथ गुडगाँव के अनाज मंडी के करीब स्थित यूनियन कार्यालय पर जाने का मौक़ा मिला। लगातार हो रही बारिश के चलते पहुँचते हुए रात के करीब दस बज चुके थे। ठिकाने पर दैनंदिन कार्यक्रमो में साथियों की भागीदारी संबंधी समीक्षा-समाहार बैठक चल रही थी। सामान्य मध्यवर्गीय जन के लिए ऐसी बैठकें थोड़ी असहज हो सकती हैं। वे न ही शामिल हों तो बेहतर होगा। बातचीत जोर-शोर से जारी थी। सुनते हुए लगा कि क्रान्तिकारी राजनीति का सवाल सिर्फ राज्यसत्ता को पलटने की तैयारी का नहीं बल्कि हर वक़्त खुद को भी बदलने का सवाल होता है। ऐसा करना किसी के लिए भी, चाहे वह एक खाँटी मज़दूर साथी क्यों न हो, आसान नहीं है।
खैर, बातचीत का दौर समाप्त हुआ और बाहर लगातार हो रही बारिश के बीच सब लोगों ने साथ मिलकर चावल और तरी का आनंद लिया। बातचीत तो चलती ही रही और एक-एक करके लोगों ने बिस्तर पकड़ लिया। अभी शायद पूरा उजाला नहीं हुआ था, तभी एक मज़दूर साथी सुबह छह बजे की अपनी शिफ्ट के लिए निकल चुके थे। बाकी साथी भी उठ कर चाय पीते हुए सामूहिक अध्ययन के विषय को लेकर बात कर रहे थे तभी ‘मास्टरनी’ रूपी मकान मालकिन आकर इस ठिकाने पर लगातार लोगों की आवाजाही को लेकर चिंता जाहिर करने लगी। “यह क्या? तुमने तो कहा था कि चार लोग ही आएंगे, यह पाँचवा कहाँ से आ गया?” ज्यादा लोग आयेंगे तो क्या होगा–यह उसे भी नहीं पता था, उसे बस अच्छा नहीं लगा। क्या पता ज़्यादा लोगो के आने से उसका यह घर जल्दी पुराना पड़ जाये, या पता नहीं !! पर यह और साथियों ने भी महसूस किया होगा कि कई बार ऐसा लगता है कि माकन मालिको के लिए घर कोई कोई खाने की वस्तु जैसा होता है। ज्यादा लोग होंगे तो वह जल्दी ख़त्म हो जायेगा! राजनीतिक जगहों पर यह भी एक दैनंदिन कार्यक्रम होता है। मज़दूरों और वह भी राजनीतिक मज़दूरों के समूह से पता नहीं राशन की दूकान के बनिया से लेकर मकान मालिक तक हर कोई चिढा हुआ सा क्यों रहता है। आप अच्छे से बात करिये, वक़्त पर किराया दीजये, साफ़-सुथरा रहिये, सब नाकाफी है। न जाने क्यों ?? जन्माष्टमी से लेकर बर्थडे पार्टी तक लुहेड़े डीजे बजाकर हुल्लड़बाजी करे़, इलाके की महिलाओ पर फब्तियां कसे सब माफ़ है!! बस हमारे जैसे दूर-दराज से आकर फैक्टरियों में काम करने वाले लोग बातचीत करें, और लोगों से मिलें, यह गवारा नहीं।
बाहर मौसम कुछ साफ़ हो चुका था और हम वहाँ से दिल्ली वापस लौटने के लिए मेट्रो की तरफ निकल चुके थे। बारिश दो दिनों में मिलाकर छह-सात घंटे के लिए भी नहीं हुई होगी, लेकिन ऐसा लगा मानो हम बाढ़-प्रभावित क्षेत्र में हो। घुटनों तक पानी लगा हुआ था। बाइक पर सवार लड़के आने-जाने वाले लोगों पर छींटे उड़ाकर जल-क्रीड़ा कर रहे थे। मन तो कर रहा था यही पर ‘मेक इन इण्डिया’ वालों का एक सम्मेलन करा दिया जाये, लेकिन तभी याद आया, कि उन्हें भी सब पता होगा। मास्टरनी मकान मालकिन का चेहरा याद आ रहा था, कि घर की दीवार पर पानी का छींटा देखते ही जिसके होश उड़ जाते हैं, उसे लगातार सड़क पर बहती इन नालियों का पानी क्यों इतना रास आता है ! ‘गऊ-माता’ के गोबर से लेकर हर तरह का कूड़ा-करकट इस पानी में मिलकर हमें अपनी तरफ आकर्षित कर रहा था। बहुत देर तक इस दीवार के सहारे, उस पत्थर पर पैर रखकर इनसे बचने का प्रयास आखिर बेकार साबित हुआ। सभी की तरह हमने भी गंगा नहान पूरा कर लिया।
गुडगाँव, शायद एशिया के सबसे बड़े मॉलों के लिए जाना जाता है, यहाँ पर आपको भारत की सबसे बड़ी मीनारें दिख जायेंगी लेकिन इसी शहर के निम्न-मध्यवर्गीय से लेकर मज़दूर इलाकों तक यह हालत एक सामान्य बात है। हम मेट्रो में जब लौट रहे थे, तो गुडगाँव के गुरुग्राम बनने की बात याद आ गयी। इस बार शायद ‘गऊ-ग्राम’ ठीक रहेगा। गाय जैसा सफ़ेद, उसके मूत्र जैसा स्वास्थ्य-वर्धक और गोबर जैसा पवित्र!!
मज़दूर बिगुल, अगस्त-सितम्बर 2016
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन