वज़ीरपुर गरम रोला मज़दूरों की लम्बी हड़ताल के 2 साल होने पर
हड़ताल के सबकों को याद रखो!
सनी सिंह
मज़दूर वर्ग की मुक्ति के दर्शन मार्क्सवाद के अनुसार ज्ञान के तीन स्रोत होते हैं – उत्पादक व्यवहार, वर्ग संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग। हम मज़दूरों के लिए और उनके हिरावल के लिए ज्ञान के तीन स्रोत में से एक स्रोत बेहद महत्वपूर्ण होता है। यह है वर्ग संघर्ष। हड़ताल वर्ग संघर्ष की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति होती है। इसमें मालिक और मज़दूर एक दूसरे के सामने होते हैं। हड़ताल मज़दूरों का मालिकों के ख़िलाफ़ वह हथियार होती है जिसके आगे मालिक-पुलिस-प्रशासन और सरकार भी बेबस हो जाते हैं। रूस में लेना की सोने की खदानों में हुई हड़ताल ने क्रान्ति की आग भड़काई थी तो भारत में मज़दूरों ने सन ’42 से ’47 के बीच अनगिनत देशव्यापी हड़तालों द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के सत्ता छोड़ने की गति तेज़ कर दी थी। आज फ़्रांस के मज़दूर देशभर में हड़ताल पर हैं और सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में बदलावों के ख़िलाफ़ सड़क पर हैं। बेंगलोर, मुन्नार से लेकर गुड़गाँव में मालिकों की मनमानी और शोषण के ख़िलाफ़ मज़दूर अपने इस हथियार का इस्तेमाल करते हैं। वज़ीरपुर में 2014 में गरम रोला फैक्टरियों में शुरू हुई हड़ताल समस्त स्टील मज़दूरों की हड़ताल बन गयी थी। इस हड़ताल के दौरान हुए प्रयोग आज भी मज़दूरों की स्मृतियों में मौजूद हैं। राजा पार्क में मज़दूरों की सभा, सामुदायिक रसोई से लेकर इलाक़े को जाम कर देने वाली हुंकार रैलियाँ आज भी वज़ीरपुर के हर मज़दूर को याद हैं। इस हड़ताल को हुए दो साल बीत चुके हैं, लेकिन जैसे-जैसे समय बीत रहा है और इलाक़े में मालिकों का शोषण बढ़ रहा है, मज़दूर इसके महत्त्व को समझने लगे हैं। मालिकों और दलालों के तमाम कुत्सा-प्रचार के बावजूद मज़दूर अपने संघर्ष के जज़्बे और हड़ताल को याद करते हैं। आज पीछे मुड़कर इस संघर्ष का मूल्यांकन करने पर और आज की परिस्थिति में इसे रखकर देखने पर कुछ सबक उभर कर आते हैं।
2014 की हड़ताल
वज़ीरपुर में हड़ताल की गरम रोला फैक्टरियों से शुरुआत हुई जहाँ मज़दूरों ने वेतन बढ़ोतरी की माँग को लेकर काम ठप्प कर दिया। बाज़ार में बढ़ती कीमतों और मुनाफे़ के बढ़ने के बाद भी मालिक मज़दूरों का वेतन बढ़ाने को तैयार नहीं थे और बार-बार की माँगों की अनसुनी से तंग आकर जून 2014 में मज़दूरों ने अपना वाजिब हक़ माँगने के लिए हड़ताल की परन्तु इस हड़ताल के ख़िलाफ़ इलाक़े के सारे मालिक, दलाल और पुलिस प्रशासन एकजुट हो गये। मज़दूरों का साथ तमाम मज़दूरों ने दिया और गरम रोला के मज़दूरों के साथ ठण्डा रोला, पावर प्रेस, तेज़ाब, पोलिश, रिक्शा, हेवी लेबर के मज़दूर भी आ गये और इलाक़े के सभी आम लोगों ने मज़दूरों का साथ दिया। मज़दूरों ने मिलकर ‘दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन’ बनायी और उसे पंजीकृत करवाने का फैसला लिया। मज़दूरों ने काम के घंटे 8 करने और न्यूनतम वेतन की माँग की। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि ये माँगें मज़दूर वर्ग की राजनीतिक माँगें हैं जो इस व्यवस्था के नग्न शोषण को उघाड़ देती हैं। फैक्टरी मालिकों ने लेबर कोर्ट में हार मान ली परन्तु फैक्टरियों में मज़दूरों के हक़ मानने से इंकार कर दिया। फिर भी लम्बे समय तक फैक्टरियों में 8 घंटे काम चलता रहा। इस हड़ताल के बाद मालिकों ने मज़दूरों का वेतन 1500 बढ़ा दिया। हड़ताल में हम जीते परन्तु मालिक ने हमारी जीत को आंशिक जीत में तब्दील कर दिया। परन्तु यह पहली लड़ाई थी।
इसी वर्ष 2016 में भी गरम रोला और मज़दूरों की माँग पर और यूनियन की चिट्ठी जाने के बाद ज़्यादातर मालिकों ने मज़दूरों का वेतन बढ़ा दिया है या बढ़ाने का वायदा किया है। यह हमारी 2014 की हड़ताल का ही नतीजा है। 2014 के बाद से ही यूनियन के ख़िलाफ़ मालिकों और दलालों ने कुत्सा प्रचार जारी रखा है। हालाँकि 2014 की हड़ताल के दौरान और फिर बाद में हमने दलालों को अपने बीच से निकाल बाहर किया फिर भी दलाल दीमक की तरह अपना काम करने में लगे रहे। अफ़वाहों के ज़रिये यूनियन के प्रति मज़दूरों में अविश्वास पैदा किया गया। कभी यह कह कर कि हड़ताल की वजह से चीन का माल आ रहा है तो कभी फैक्टरियाँ उजड़ने का ख़तरा दिखा कर। हमें एक बात समझ लेनी होगी कि यह व्यवस्था मुनाफ़े के आधार पर चलती है। मुनाफ़ाख़ोरी के पैरों के नीचे मज़दूर की खोपड़ी चूर-चूर भी हो जाती है। मज़दूर वर्ग की यूनियन और हड़ताल ही उसका हेल्मेट बनती है जो मज़दूर के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है। मालिक हर हमेशा मज़दूर से उसके ये हथियार भी छीन लेना चाहता है। यह बात हमें गाँठ बाँध लेनी चाहिए। आज इलाक़े में मज़दूरों की ताक़त पहले के मुकाबले बिखरी हुई है और 2014 में वज़ीरपुर के समस्त मज़दूरों ने जिस एकजुटता का परिचय दिया था वह आज मौजूद नहीं है। हड़ताल के बाद फैक्टरी से कई मज़दूरों को निकाला गया और कई बहादुर मज़दूरों ने काम ख़ुद छोड़ दिया और आज यूनियन उनके केस लेबर कोर्ट में लड़ रही है जिनमें कुछ लोग केस जीतने वाले हैं । लेकिन पिछले दो साल में गरम रोला में ही नहीं कई फै़क्टरियों से मज़दूरों को निकाला गया और मालिकों ने बदसलूकी की जिनके मुक़दमे भी यूनियन लड़ रही है। परन्तु हमें सिर्फ क़ानूनी ताक़त नहीं सड़क पर उतरने की अपनी ताक़त को भी मज़बूत करना होगा। हमें फिर से सभी स्टील मज़दूरों को एकजुट करना होगा। सिर्फ गर्म, ठंडा और हेवी के नाम पर इकट्ठा होने की जगह वज़ीरपुर के सभी मज़दूरों को स्टील मज़दूरों के रूप में एकजुट होना होगा। अगर अपनी इन बातों को समेट कर निचोड़ निकालें तो ये तीन सबक हमें याद रखने होंगे।
पहला सबक – दलालों को अपने बीच से बाहर करो!
यह हमारी हड़ताल का सबसे बुनियादी सबक है। कोई भी संघर्ष चाहे कहीं हड़ताल चल रही हो या न चल रही हो इन दलालों और भितरघातियों की वजह से हारा जाता है। 2014 की हड़ताल में भितरघातियों की भरमार थी। रघुराज और ‘इंकलाबी’ संगठन की दलाली से पूरा वज़ीरपुर वाकिफ़ है। रघुराज लम्बे समय तक हमारी यूनियन में रहा और मज़दूरों के संघर्ष में मिल रहे पैसे को जमा कर रहा था जिससे कि हड़ताली मज़दूरों की रसोई चल सके परन्तु अचानक जब यह पता चला कि पैसा ख़त्म हो गया तो इससे हिसाब माँगा गया जिसे देने से इसने साफ़ मना कर दिया। जब मज़दूरों ने यूनियन पंजीकरण की बात की तो मालिकों की भाषा बोलते हुए इसने यूनियन पंजीकरण के ख़िलाफ़ काम किया। राजा पार्क में रघुराज को धक्के मारकर मज़दूरों ने अपनी सभा से बाहर किया। इसके साथ आजकल कुछ ‘क्रान्तिकारी’ संगठन के लोग घूमते नज़र आते हैं जिन्होंने जगह-जगह मज़दूरों के आन्दोलन को डुबाने का काम किया और पुलिस से लेकर मैनेजमेंट के साथ शर्मनाक समझौते करवाये। यह अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी संगठन कहीं भी स्वतंत्र रूप से मज़दूरों के बीच काम नहीं कर रहा पर ये लोग अकसर रघुराज सरीखे दलालों की पूँछ पकड़कर आन्दोलन में चिपके रहते हैं। इनकी सबसे बड़ी बीमारी राजनीतिक सवाल न उठा पाना है। इस प्रवृत्ति को लेनिन ने अर्थवाद का नाम दिया था। यह प्रवृत्ति मज़दूर आन्दोलन की सबसे बड़ी दुश्मन होती है। हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि मालिक हमेशा इन दलालों और अर्थवादियों के जरिये मज़दूरों को कमज़ोर बनना चाहता है। आज भी रघुराज और उसके साथ अर्थवादी संगठन मज़दूरों के बीच घूमते हैं। इन्हें अपने बीच से खदेड़ कर ही हम अपनी एकता को मज़बूत कर सकते हैं।
दूसरा सबक – अपने बीच की दूरियों को मिटाकर एकता क़ायम करो!
आज जगह-जगह मज़दूर अपनी-अपनी फै़क्टरी की लड़ाई लड़ रहे हैं और अपनी सामूहिक ताक़त से ख़ुद को काटे बैठे हैं। हमें अपनी पेशागत ताक़त यानी गरम, ठंडा, हेवी, प्रेस, पोलिश आदि कामों में लगे तमाम मज़दूरों की सामूहिक ताक़त को मज़बूत बनाना होगा।
तीसरा सबक – अपनी यूनियन से जुड़ो और उसे मज़बूत करो!
एकता हवा में नहीं बनती। मज़दूर जब एक साथ खड़े होते हैं तो उन्हें एक करने का काम उनकी यूनियन करती है जिसमें मज़दूरों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। मज़दूर अपने बीच से चुनाव करके यूनियन की नेतृत्वकारी समिति का गठन करते हैं जो मज़दूरों के आन्देालन का नेतृत्व करती है। आज दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन ही वज़ीरपुर के मज़दूरों की क्रान्तिकारी यूनियन है जिसका गठन मज़दूरों ने अपने बीच से किया था। इलाक़े में प्रवास के चलते बड़ी संख्या में बाहर से मज़दूर आये हैं और उन्हें भी यूनियन से जोड़कर यूनियन को मज़बूत बनाना होगा।
मज़दूर बिगुल, जून 2016
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन