आर्थिक संकट की चपेट में विकसित मुल्कों के मेहनतकश लोग
अमनदीप
वर्ष 2008 में शुरू हुई वैश्विक मन्दी के बाद दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था एक ऐसे संकट की चपेट में है जिसमें से यह अभी तक निकल नहीं सकी है और भविष्य में भी निकल सकने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही। पर पूँजीपति वर्ग अपने संकट का बोझ हमेशा से आम मेहनतकश लोगों पर डालता आया है। वैसे तो संसार की व्यापक मेहनतकश आबादी पूँजीवादी व्यवस्था में सदा महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी आदि समस्याओं से जूझती रहती है पर मन्दी के दौर में ये समस्याएँ और बड़ी आबादी को अपने शिकंजे में ले लेती हैं। बेरोज़गारों की लाइनें और तेज़ी से लम्बी होती हैं और रोज़गारशुदा आबादी की आमदनी में गिरावट आती है। इसी कारण से आज संसार के सबसे विकसित मुल्कों में भी आम लोगों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है। पूँजीवादी व्यवस्था की बिगड़ती हालत को उजागर करते हुए रोज़ नये आँकड़े सामने आ रहे हैं। ब्रिटेन के नामी अखबार ‘गार्जियन’ की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, इटली, स्पेन और जर्मनी में 2008 के संकट के बाद के ‘मन्द मन्दी’ के दौर में लोगों की, ख़ास तौर पर नौजवानों का जीवन स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। इन मुल्कों में 22 से 35 वर्ष आयु की नौजवान मेहनतकश आबादी बेरोज़गारी और कम वेतन के कारण कर्ज़ों में डूबी हुई है। इन्हीं आठ में से पाँच देशों के नौजवान जोड़ों और परिवारों की आमदनी बाकी वर्गों से 20 फ़ीसदी कम है। जबकि इससे पिछली पीढ़ी के लोग 1970 और 1980 के दशक में औसत राष्ट्रीय आमदनी से कहीं ज़्यादा कमाते थे। युद्धों या प्राकृतिक आपदाओं के बाद, पूँजीवाद के इतिहास में यह शायद पहली बार हुआ है जब नौजवान आबादी की आमदनी समाज के बाकी वर्गों से बहुत नीचे गिरी है।
विकसित मुल्कों के लोग अपने भविष्य को लेकर काफी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। ‘इप्सोस मोरी’ नामक ब्रिटिश एजेंसी के सर्वेक्षण के अनुसार 54 फ़ीसदी लोग यह मानते हैं कि आने वाली पीढ़ी की हालत पिछली पीढ़ी से भी बदतर होगी। इसका कारण है कि एक तरफ तो क़ीमतों और किरायों में निरन्तर वृद्धि हो रही है और दूसरी तरफ व्यापक आबादी के लिए रोज़गार के अवसर और वेतन लगातार कम होते जा रहे हैं। सन् 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार विकसित पूँजीवादी देशों में लगभग 3 करोड़ नौजवान शिक्षा और रोज़गार से वंचित हैं। यूनान जो कि इस रिपोर्ट का हिस्सा नहीं है, उसके हालात तो और भी भयानक हैं। यूनान की 60 फ़ीसदी से भी ज़्यादा नौजवान आबादी बेरोज़गार है। मकान की क़ीमतें पिछले 20 वर्षों में किसी भी और समय से ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं। इन देशों में जल्दी ही ऐसे लोगों की गिनती 50 फ़ीसदी से ज़्यादा हो जायेगी जिनके पास अपना घर नहीं है। इस आर्थिक तंगी का असर लोगों के सामाजिक जीवन में भी दिख रहा है। 1980 के मुकाबले एक औरत विवाह करने के लिए 7.1 वर्ष ज़्यादा इन्तज़ार करती है और बच्चा पैदा करने की औसत आयु 4 वर्ष बढ़ गयी है। ज़्यादातर लोग यह जानकर परेशान हैं कि वह सारी उम्र काम करके भी कर्ज़दार रहेंगे और अपना घर नहीं खरीद सकेंगे।
आम तौर पर पूँजीपति वर्ग अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए सापेक्षिक रूप से मज़दूरों और अन्य कामगारों के वेतन कम करता है। उदाहरण के लिए मज़दूरों का वेतन बढ़ाये बिना जब उनके द्वारा तैयार माल की क़ीमत बढ़यी जाती है तो सापेक्षिक रूप में उनका वेतन कम कर दिया जाता है। पर अमेरिका और इटली में निरपेक्ष तौर पर भी वेतन कम हुआ है। अमेरिका में औसत मज़दूरी 1979 में 29,638 यूरो से गिरकर 2010 में 27,757 यूरो हो गयी। फ्रांस, अमेरिका और इटली में नौजवान मेहनतकश लोगों की आमदनी पैंशन ले रहे रिटायर वर्ग से कम है।
‘गार्जियन’ अख़बार के लेखकों ने जिस तरह ये आँकड़े पेश किये हैं, उन्होंने लोगों के ग़ुस्से को ग़रीबी, बेरोज़गारी और ख़राब होती जीवन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार इस आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था से हटाकर इनके मुकाबले पेंशन पर जी रहे रिटायर वर्ग की ओर मोड़ने की कोशिश की है। उन्होंने ‘यूरोपीय केंद्रीय बैंक’ के प्रमुख मारियो द्राघी के हवाले से कहा है कि ”कई देशों में सख़्त श्रम क़ानून पक्की नौकरियों और ज़्यादा वेतन वाले कुछ पुराने लोगों को बचाने के लिए बनाये गये हैं। इसका नुकसान नौजवानों को होता है। जो कम वेतन और ठेके पर काम करने के लिए मजबूर हैं और मन्दी की हालतों में सबसे पहले बेरोज़गार होते हैं”। पक्की नौकरियाँ, ज़्यादा वेतन और सभी के लिए उच्च जीवन स्तर की माँग करने के बजाय नौजवानों को पेंशन ले रहे रिटायर वर्ग के ख़िलाफ़ भड़काया जा रहा है।
यह कोई नयी घटना नहीं है। मौजूदा लुटेरी व्यवस्था इसी तरह काम करती है। आर्थिक संकट के दौर में यह घटना और तेज़ हो जाती है और ज़्यादा स्पष्ट नज़र आती है। असल में दूसरे विश्व युद्ध के बाद मज़दूर इंकलाब के डर से जो सहूलियतें इन मुल्कों की हुकूमतों ने ‘पब्लिक सेक्टर’ खड़ा करके पिछली पीढ़ियों को दी थीं, उससे विकसित देशों की आम आबादी की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हुईं और उनका जीवन स्तर ऊँचा उठा था। पर आज किसी समाजवादी राज और किसी बड़े जन-आन्दोलन की नामौजूदगी की हालत में पूँजीवादी सत्ता आर्थिक संकट से निपटने के लिए जन कल्याण के वे सारे पैकेज, पेंशनें, बेरोज़गारी भत्ते आदि ख़त्म कर रही है और सारे क्षेत्र मुनाफ़ाख़ोर पूँजीपतियों के हाथों में दे रही है। साथ ही इन नीतियों के परिणाम स्वरूप लोगों में पैदा हो रहे आक्रोश को कुचलने के लिए फासीवादियों को सत्ता में तैनात कर रही है।
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट के कारण पूँजी की अपनी चाल में ही समाये हुए हैं। इस समय विश्व पूँजीवादी-साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था भीषण संकट का शिकार है और इसमें से निकलने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही। यह संकट आने वाले समय में और भी गहरा होगा और लोगों की बेचैनी भी बढ़ेगी। इंक़लाबी ताक़तों की कमज़ोरी की हालत में फासीवादियों का उदय हो रहा है। विश्व भर में ये फासीवादी लोगों के ग़ुस्से को धार्मिक अल्पसंख्यकों, कम्युनिस्टों, मज़दूरों और मेहनतकशों के विरुद्ध मोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं। आज ज़रूरी है कि इंक़लाबी ताक़तें मज़दूरों और मेहनतकशों को उनके ऐतिहासिक मिशन से परिचित करवाएं। वह मिशन पूँजीवाद को जड़ से मिटाने के लिए समाजवादी इंकलाब करने का है क्योंकि सिर्फ़ समाजवादी व्यवस्था ही लोगों को इस लुटेरी व्यवस्था की मुसीबतों से आज़ाद कर सकती है।
मज़दूर बिगुल, जून 2016
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