Category Archives: चुनावी नौटंकी

पंजाब में भी जनता बदहाल, नेता मालामाल

पंजाब सरकार खजाना खाली होने की दुहाई दे रही है और जनता पर तरह-तरह के टैक्स लगाने की तैयारी कर रही है। वहीं पंजाब विधानसभा के विधायकों के वेतन, भत्तों तथा अन्य सुविधाओं में बढ़ोत्तरी की तैयारी की जा रही। सभी पार्टियाँ आपस में चाहे जितना भी लड़ें-झगड़ें, लेकिन इस मुद्दे पर सब एक हैं। 11 जुलाई को जब पंजाब विधानसभा में विधायकों के वेतन, भत्ते तथा अन्य सहूलियतों को बढ़ाने का प्रस्ताव रखने वाली रिपोर्ट पेश की गयी तो एक भी पार्टी या विधायक ने विरोध नहीं किया। रिपोर्ट में मुख्यमन्त्री, मन्त्रियों, डिप्टी मन्त्रियों, विरोधी पक्ष की नेता, मुख्य संसदीय सचिवों, स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के वेतनों और भत्तों में भी बढ़ोत्तरी करने की सिफ़ारिश की गई है।

पूँजीवादी लोकतंत्र में ”बहुमत” की असलियत : महज़ 12 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधि हैं देश के नये सांसद

बार-बार यह साबित हो चुका है कि पूंजीवादी जनतंत्र, पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के सिवाय कुछ नहीं होता। इसमें हर पाँच साल बाद लोकतंत्र का फूहड़-नंगा खेल खेला जाता है, जिसमें यह फैसला होता है कि अगले पाँच साल तक मेहनतकश जनता के शोषण का अधिकार किस दल को मिलेगा और कौन-सा दल मालिकों के हित में तमाम नीतियों-काले कानूनों को लागू करेगा। उस पर तुर्रा यह कि इसे अल्पमत पर बहुमत के शासन के रूप में प्रचारित किया जाता है। लेकिन वास्तव में, यह बहुमत पर अल्पमत का शासन होता है और पूँजीपति और उनके पत्तलचाटू बुद्धिजीवी, अखबार, नेता-अभिनेता हमारे इसी ”महान लोकतंत्र” की दुहाई देते नहीं थकते।

20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करने वाले 84 करोड़ लोगों के देश में 300 सांसद करोड़पति

आज चाहे कोई भी चुनावी पार्टी हो, हरेक जनता की सच्ची दुश्मन है। किसी भी तरह की पार्टी या गठबन्‍धन की सरकार बने सभी जनविरोधी नीतियाँ ही लागू कर रहे हैं। पूँजीपति वर्ग की सेवा करना ही उनका लक्ष्य है। आज राज्यसत्ता द्वारा देशी-विदेशी पूँजी के हित में कट्टरता से लागू की जा रही वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की घोर जनविरोधी नीतियों से कोई भी चुनावी पार्टी न तो असहमत है, न ही असहमत हो सकती है। कांग्रेस, भाजपा से लेकर तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियाँ और साथ में मज़दूरों-ग़रीबों के लिए नकली ऑंसू बहाने वाली तथाकथित लाल झण्डे वाली चुनावी कम्युनिस्ट पार्टियाँ सभी की सभी इन्हीं नीतियों के पक्ष में खुलकर सामने आ चुकी हैं। इन पार्टियों के पास ऐसा कुछ भी ख़ास नहीं है जिसके ज़रिये वे जनता को लुभा सकें। वे जनता को लुभाने के लिए जो वायदे करते भी हैं, इन सभी पार्टियों को पता है कि जनता अब उनका विश्वास नहीं करती। आज जनता किसी भी चुनावी पार्टी पर विश्वास नहीं करती। धन के खुलकर इस्तेमाल के बिना कोई पार्टी या नेता चुनाव जीत ही नहीं सकता। वोट हासिल करने के लिए नेताओं की हवा बनाने के लिए बड़े स्तर पर प्रचार हो या वोटरों को पैसे देकर ख़रीदना, शराब बाँटना, वोटरों को डराना-धमकाना, बूथों पर कब्ज़े करने हों, लोगों से धर्म-जाति के नाम पर वोट बटोरने हों – इस सबके लिए मोटे धन की ज़रूरत रहती है। पूँजीवादी राजनीति का यह खेल ऐसे ही जीता जाता है। जैसे-जैसे समय गुज़रता जा रहा है वैसे-वैसे यह खेल और भी गन्दा होता जा रहा है। 14वीं लोकसभा के चुनावों में 9 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति थे जोकि अब की बार 16 प्रतिशत हो गये। यह भी ध्‍यान देने लायक है कि इस बार जब करोड़पति कुल उम्मीदवारों का 16 प्रतिशत थे लेकिन जीत हासिल करने वालों में इनकी गिनती लगभग 55 प्रतिशत है। इस बार विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की औसतन सम्पत्ति इस प्रकार थी : कांग्रेस 5 करोड़, भाजपा 2 से 3 करोड़, बसपा 1.5 से 2.5 करोड। कांग्रेस ने 202 करोड़पतियों को टिकटें दीं, भाजपा ने 129, बसपा ने 95, समाजवादी पार्टी ने 41 करोड़पतियों को लोकसभा के चुनावों में उतारा।

चुनावी नौटंकी का पटाक्षेप : अब सत्ता की कुत्ताघसीटी शुरू

करीब डेढ़ महीने तक चली देशव्यापी चुनावी नौटंकी अब आख़िरी दौर में है। ‘बिगुल’ का यह अंक जब तक अधिकांश पाठकों के हाथों में पहुँचेगा तब तक चुनाव परिणाम घोषित हो चुके होंगे और दिल्ली की गद्दी तक पहुँचने के लिए पार्टियों के बीच जोड़-तोड़, सांसदों की खरीद-फरोख्त और हर तरह के सिद्धान्तों को ताक पर रखकर निकृष्टतम कोटि की सौदेबाज़ी शुरू हो चुकी होगी। पूँजीवादी राजनीति की पतनशीलता के जो दृश्य हम चुनावों के दौरान देख चुके हैं, उन्हें भी पीछे छोड़ते हुए तीन-तिकड़म, पाखण्ड, झूठ-फरेब का घिनौना नज़ारा पेश किया जा रहा होगा। जिस तरह इस चुनाव के दौरान न तो कोई मुद्दा था, न नीति – उसी तरह सरकार बनाने के सवाल पर भी किसी भी पार्टी का न तो कोई उसूल है, न नैतिकता! सिर्फ और सिर्फ सत्ता हासिल करने की कुत्ता घसीटी जारी है।

पाँच क्रान्तिकारी जनसंगठनों का साझा चुनावी भण्डाफोड़ अभियान

देशभर में लोकसभा चुनाव के लिए जारी धमाचौकड़ी के बीच बिगुल मज़दूर दस्ता, देहाती मज़दूर यूनियन, दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा, और स्‍त्री मुक्ति लीग ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और पंजाब के अलग-अलग इलाकों में चुनावी भण्डाफोड़ अभियान चलाकर लोगों को यह बताया कि वर्तमान संसदीय ढाँचे के भीतर देश की समस्याओं का हल तलाशना एक मृगमरीचिका है। ऊपर से नीचे तक सड़ चुकी इस आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त कर बराबरी और न्याय पर टिका नया हिन्दुस्तान बनाने के लिए आम अवाम को संगठित करके एक नया इन्‍कलाब लाना होगा।

न कोई नारा, न कोई मुद्दा – चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है

जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम जोड़-तोड़, तीन-तिकड़म और सिनेमाई ग्लैमर की चमक-दमक के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘इंडिया शाइनिंग़ की ही तर्ज़ पर ‘जय हो’ का राग अलापने में लगी हुई है, तो भाजपा उसकी पैरोडी करते हुए यह भूल जा रही है कि पाँच वर्ष पहले वह भी देश को चमकाने के ऐसे ही दावे कर रही थी। विधानसभा चुनावों में आतंकवाद के मुद्दा न बन पाने के कारण भाजपा न तो उसे ज़ोरशोर से उठा पा रही है और न ही छोड़ पा रही है। वरुण गाँधी के ज़हरीले भाषण का पहले तो उसने विरोध किया और फिर वोटों के ध्रुवीकरण के लालच में उसे भुनाने में जुट गयी।

चुनाव? लुटेरों के गिरोह जुटने लगे हैं!

महान हैं मालिक लोग
पहले पाँच साल पर आते थे
पर अब तो और भी जल्दी-जल्दी आते हैं
हमारे द्वार पर याचक बनकर।
मालिक लोग चले जाते हैं
तुम वहीं के वहीं रह जाते हो
आश्‍वासनों की अफीम चाटते
किस्मत का रोना रोते;
धरम-करम के भरम में जीते।
आगे बढ़ो!
मालिकों के रंग-बिरंगे कुर्तें को नोचकर
उन्हें नंगा करो।

बिगुल पुस्तिका – 13 : चोर, भ्रष्ट और विलासी नेताशाही

अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों और पूँजीवादी अख़बारों की कुछ रिपोर्टों, सूचना के अधिकार के तहत विभिन्न सरकारी महक़मों से हासिल की गयी जानकारियों और आर्थिक-राजनीतिक मामलों के बुर्जुआ विशेषज्ञों की पुस्तकों या लेखों से लिये गये थोड़े से चुनिन्दा तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी में भारतीय जनतन्त्र की कुरूप, अश्लील और बर्बर असलियत को पहचानने की एक कोशिश।

गुजरात में मोदी की जीत से निकले सबक

वर्ष 2002 के जनसंहार के बाद मोदी के ‘जीवन्त गुजरात’ में मुसलमानों की क्या जगह है ? वे पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिये गये हैं । उनके मानवीय स्वाभिमान को पूरी तरह कुचलकर उनकी दशा बिल्कुल वैसी बना दी गयी है जैसी भेड़ियों के आगे सहमें हुए मेमनों की होती है । अहमदाबाद, सूरत और बड़ौदा जैसे शहरों में ज्यादातर गरीब मेहनतक़श मुसलमान आबादी ऐसी घनी बस्तियों में सिमटा दी गयी है जहाँ बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक ढंग से मयस्सर नहीं है ।

पंजाब में चुनावी दंगल की तैयारियाँ शुरू : मेहनतकश जनता को इस नौटंकी से अलग क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने के बारे में सोचना होगा!

पंजाब की चुनावी राजनीति मुख्यतः कांग्रेस तथा अकाली दल (बादल) के इर्द–गिर्द ही घूमती है। बाकी छोटी–मोटी पार्टियों को इन्हीं में से किसी न किसी की पूँछ पकड़नी पड़ती है।

यही हाल पंजाब की मेहनतकश जनता का है। कोई सही क्रान्तिकारी विकल्प न होने के चलते उसे इन्हीं दो पार्टियों में से किसी एक को चुनना होता है, जो पाँच साल तक जम कर डण्डा चलाती हैं। इस बार भी चुनावी दंगल में उतरने वाली पार्टियों में से भले कोई भी पार्टी चण्डीगढ़ के तख़्त पर विराजमान हो, जनता का कोई भला नहीं होने जा रहा, बल्कि आने वाले दिनों में मेहनतकश जनता पर और अधिक कहर बरपा होगा। मेहनतकशों को मिलने वाली मामूली सुविधाओं में और अधिक कटौती होगी। वैश्वीकरण–निजीकरण–उदारीकरण का रथ और बेरहमी से मेहनतकशों को रौंदेगा। मज़दूरों तथा अन्य मेहनतकश लोगों को सड़कों पर आना होगा। चुनावी राजनीति से अलग अपने क्रान्तिकारी संगठन खड़े करने होंगे तथा अपनी संगठित ताकत के बल पर अपने हक हासिल करने होंगे।