Category Archives: चुनावी नौटंकी

चुनावी नौटंकी का पटाक्षेप : अब सत्ता की कुत्ताघसीटी शुरू

करीब डेढ़ महीने तक चली देशव्यापी चुनावी नौटंकी अब आख़िरी दौर में है। ‘बिगुल’ का यह अंक जब तक अधिकांश पाठकों के हाथों में पहुँचेगा तब तक चुनाव परिणाम घोषित हो चुके होंगे और दिल्ली की गद्दी तक पहुँचने के लिए पार्टियों के बीच जोड़-तोड़, सांसदों की खरीद-फरोख्त और हर तरह के सिद्धान्तों को ताक पर रखकर निकृष्टतम कोटि की सौदेबाज़ी शुरू हो चुकी होगी। पूँजीवादी राजनीति की पतनशीलता के जो दृश्य हम चुनावों के दौरान देख चुके हैं, उन्हें भी पीछे छोड़ते हुए तीन-तिकड़म, पाखण्ड, झूठ-फरेब का घिनौना नज़ारा पेश किया जा रहा होगा। जिस तरह इस चुनाव के दौरान न तो कोई मुद्दा था, न नीति – उसी तरह सरकार बनाने के सवाल पर भी किसी भी पार्टी का न तो कोई उसूल है, न नैतिकता! सिर्फ और सिर्फ सत्ता हासिल करने की कुत्ता घसीटी जारी है।

पाँच क्रान्तिकारी जनसंगठनों का साझा चुनावी भण्डाफोड़ अभियान

देशभर में लोकसभा चुनाव के लिए जारी धमाचौकड़ी के बीच बिगुल मज़दूर दस्ता, देहाती मज़दूर यूनियन, दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा, और स्‍त्री मुक्ति लीग ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और पंजाब के अलग-अलग इलाकों में चुनावी भण्डाफोड़ अभियान चलाकर लोगों को यह बताया कि वर्तमान संसदीय ढाँचे के भीतर देश की समस्याओं का हल तलाशना एक मृगमरीचिका है। ऊपर से नीचे तक सड़ चुकी इस आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त कर बराबरी और न्याय पर टिका नया हिन्दुस्तान बनाने के लिए आम अवाम को संगठित करके एक नया इन्‍कलाब लाना होगा।

न कोई नारा, न कोई मुद्दा – चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है

जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम जोड़-तोड़, तीन-तिकड़म और सिनेमाई ग्लैमर की चमक-दमक के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘इंडिया शाइनिंग़ की ही तर्ज़ पर ‘जय हो’ का राग अलापने में लगी हुई है, तो भाजपा उसकी पैरोडी करते हुए यह भूल जा रही है कि पाँच वर्ष पहले वह भी देश को चमकाने के ऐसे ही दावे कर रही थी। विधानसभा चुनावों में आतंकवाद के मुद्दा न बन पाने के कारण भाजपा न तो उसे ज़ोरशोर से उठा पा रही है और न ही छोड़ पा रही है। वरुण गाँधी के ज़हरीले भाषण का पहले तो उसने विरोध किया और फिर वोटों के ध्रुवीकरण के लालच में उसे भुनाने में जुट गयी।

चुनाव? लुटेरों के गिरोह जुटने लगे हैं!

महान हैं मालिक लोग
पहले पाँच साल पर आते थे
पर अब तो और भी जल्दी-जल्दी आते हैं
हमारे द्वार पर याचक बनकर।
मालिक लोग चले जाते हैं
तुम वहीं के वहीं रह जाते हो
आश्‍वासनों की अफीम चाटते
किस्मत का रोना रोते;
धरम-करम के भरम में जीते।
आगे बढ़ो!
मालिकों के रंग-बिरंगे कुर्तें को नोचकर
उन्हें नंगा करो।

बिगुल पुस्तिका – 13 : चोर, भ्रष्ट और विलासी नेताशाही

अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों और पूँजीवादी अख़बारों की कुछ रिपोर्टों, सूचना के अधिकार के तहत विभिन्न सरकारी महक़मों से हासिल की गयी जानकारियों और आर्थिक-राजनीतिक मामलों के बुर्जुआ विशेषज्ञों की पुस्तकों या लेखों से लिये गये थोड़े से चुनिन्दा तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी में भारतीय जनतन्त्र की कुरूप, अश्लील और बर्बर असलियत को पहचानने की एक कोशिश।

गुजरात में मोदी की जीत से निकले सबक

वर्ष 2002 के जनसंहार के बाद मोदी के ‘जीवन्त गुजरात’ में मुसलमानों की क्या जगह है ? वे पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिये गये हैं । उनके मानवीय स्वाभिमान को पूरी तरह कुचलकर उनकी दशा बिल्कुल वैसी बना दी गयी है जैसी भेड़ियों के आगे सहमें हुए मेमनों की होती है । अहमदाबाद, सूरत और बड़ौदा जैसे शहरों में ज्यादातर गरीब मेहनतक़श मुसलमान आबादी ऐसी घनी बस्तियों में सिमटा दी गयी है जहाँ बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक ढंग से मयस्सर नहीं है ।

पंजाब में चुनावी दंगल की तैयारियाँ शुरू : मेहनतकश जनता को इस नौटंकी से अलग क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने के बारे में सोचना होगा!

पंजाब की चुनावी राजनीति मुख्यतः कांग्रेस तथा अकाली दल (बादल) के इर्द–गिर्द ही घूमती है। बाकी छोटी–मोटी पार्टियों को इन्हीं में से किसी न किसी की पूँछ पकड़नी पड़ती है।

यही हाल पंजाब की मेहनतकश जनता का है। कोई सही क्रान्तिकारी विकल्प न होने के चलते उसे इन्हीं दो पार्टियों में से किसी एक को चुनना होता है, जो पाँच साल तक जम कर डण्डा चलाती हैं। इस बार भी चुनावी दंगल में उतरने वाली पार्टियों में से भले कोई भी पार्टी चण्डीगढ़ के तख़्त पर विराजमान हो, जनता का कोई भला नहीं होने जा रहा, बल्कि आने वाले दिनों में मेहनतकश जनता पर और अधिक कहर बरपा होगा। मेहनतकशों को मिलने वाली मामूली सुविधाओं में और अधिक कटौती होगी। वैश्वीकरण–निजीकरण–उदारीकरण का रथ और बेरहमी से मेहनतकशों को रौंदेगा। मज़दूरों तथा अन्य मेहनतकश लोगों को सड़कों पर आना होगा। चुनावी राजनीति से अलग अपने क्रान्तिकारी संगठन खड़े करने होंगे तथा अपनी संगठित ताकत के बल पर अपने हक हासिल करने होंगे।

देश में चल रही भूमण्डलीकरण की काली आंधी के बीच चुनावी मौसम में सरकार खुशनुमा बयार बहाने में जुटी

देश की अर्थव्यवस्था की सेहत भली–चंगी दिखाने वाले जिन चमत्कारी आंकड़ों की गवाही देकर जनता के भीतर खुशनुमा अहसास उड़ेले जा रहे हैं उसके फर्जीवाड़े को उजागर करने के लिए पूंजीवादी अर्थशास्त्र की बारीकियों में जाने की जरूरत नहीं। कोई भी दुरुस्त दिमाग वाला औसत समझ का आदमी आसानी से यह महसूस कर सकता है कि देश मे भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और खुलेपन के नाम पर कोई खुशनुमा बयार नहीं वरन आम जनता की ज़िन्दगी को तबाह–बर्बाद करने वाली काली आंधी चल रही है।