Category Archives: चुनावी नौटंकी

आने वाले चुनाव और ज़ोर पकड़ती साम्प्रदायिक लहर

महँगाई, बेरोज़गारी, बदहाली, भूख-कुपोषण, धनी-ग़रीब की बढ़ती खाई – यह सब कुछ चरम पर है। पर कोई पार्टी इन मुद्दों को हवा दे पाने की स्थिति में नहीं है। पिछले बाईस वर्षों के अनुभव ने यह साफ़ कर दिया है कि नवउदारवाद की नीतियों की जिस वैश्विक लहर ने भारत जैसे देशों के आम लोगों की ज़िन्दगी पर कहर बरपा किया है, उन नीतियों पर सभी चुनावी दलों की आम सहमति है। केन्द्र और राज्य में, जब भी और जितना भी मौक़ा मिला है, इन सभी दलों ने उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों को ही लागू किया है। चुनावी वाम दलों के जोकर भी पीछे नहीं है। उनका “समाजवाद” बाज़ार के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहता है, अपने को अब “बाज़ार समाजवाद” कहता है और कीन्सियाई नुस्खों से नवउदारवादी पूँजीवाद को थोड़ा “मानवीय” चेहरा देने के लिए सत्ताधारियों को नुस्खे सुझाता है।

100 करोड़ ग़रीबों के प्रतिनिधि सारे करोड़पति?

क्या ये करोड़पति और अपराधी आम जनता की कोई चिन्ता करेंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि पूँजीवादी चुनावों के ज़रिए जरिए सत्ता हासिल करने वाले लोग पूँजीवाद की ही सेवा करते हैं और बदले में अपने लिए मेवा पाते हैं। जनता की ज़िन्दगी में बेहतरी लाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। वास्तव में पूँजीवादी जनवाद में सरकार की असली परिभाषा कुछ इस तरह होती है — अमीरों की, अमीरों के लिए, अमीरों के द्वारा। इसमें आम जनता का ज़िक़्र तो बस ज़ुबानी जमाख़र्च के लिए होता है। आम जनता की तक़लीफ़ों को तो सिर्फ़ मज़दूर वर्ग की एक क्रान्तिकारी सरकार ही दूर कर सकती है।

जनता के पास चुनने के लिए कुछ भी नहीं है! सिवाय इंक़लाब के!

लेकिन जब तक पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प पेश नहीं किया जाता तब तक हर चुनाव की नौटंकी में जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस चुनावी मदारी के निशान पर ठप्पा लगाता रहेगा। जनता बिना किसी विकल्प के भी स्वत:स्फूर्त तरीक़े से सड़कों पर उतरती है। लेकिन ऐसे जनउभार किसी व्यवस्थागत परिवर्तन तक नहीं जा सकते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा कुछ समय के लिए पूँजीवादी शासन-व्यवस्था को हिला सकते हैं। लेकिन ऐसी उथल-पुथल से पूँजीवादी व्यवस्था देर-सबेर उबर जाती है। पूँजीवादी व्यवस्था पूरी दुनिया में कई वर्षों से आर्थिक संकट में है और अब यह आर्थिक संकट अपने आपको राजनीतिक संकट के रूप में भी अभिव्यक्त कर रहा है। लेकिन हर जगह संकट विकल्प का है। जिस मज़दूर वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी को पूँजीवाद का विकल्प पेश करना है, वह हर जगह बिखरा हुआ है, विचारधारात्मक और राजनीतिक रूप से कमज़ोर है।

देखो संसद का खेला, नौटंकी वाला मेला

अब फर्ज क़रें कि संसद ठीक से चलती तो क्या होता? जनप्रतिनिधि समझे जानेवाले आधे से अधिक सदस्य तो आते ही नहीं, जो आते वह भी या तो ऊँघते, सोते रहते या निरर्थक बहसबाज़ी और जूतमपैजार करते, और इसी किस्म की एक घण्टे की कार्यवाही पर तक़रीबन 20 लाख रुपये खर्च हो जाते और जब यह सब करने में उन्हें उकताहट और ऊब होती तो वे संसद की कैण्टीन में बाहर की क़ीमत का सिर्फ 10 प्रतिशत देकर तर माल उड़ाते और इस खर्च का बोझ भी मेहनतकश ज़नता पर ही पड़ता। संसद अगर ठीक से चलती भी रहती तो शोषण-उत्पीड़न के नये-नये क़ानून बनते। दिखावे और व्यवस्था का गन्दा चेहरा छिपाने के लिए कुछ कल्याणकारी क़ानून भी बनते जिन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी किसी की नहीं रहती। बेशुमार सुख-सुविधओं और विलासिताओं से चुँधियाये मध्यवर्ग के ऊपरी हिस्से को यह नंगी सचाई दिखायी नहीं पड़ती। संसद और क़ानून की आड़ में मेहनतकशों की हड्डियाँ निचोड़ लिया जाना उसे दिखायी नहीं देता है और न ही उसे उसकी कोई चिन्ता है। अपने में डूबा यह आत्म-सन्तुष्ट वर्ग आसपास की सच्चाइयों से मुँह मोड़कर मीडिया से अपने विचार और राय ग्रहण करता है। ज़ाहिर है सत्ता और संसद के प्रति यह भ्रम का शिकार होता है।

यूपीए सरकार का सादगी ड्रामा

पूँजीपतियों द्वारा की जा रही जनता की लूट पर पर्दा डालने के लिए ये नेता लोगों को मूर्ख बनाने की फिराक में रहते हैं। लेकिन जनता को हमेशा-हमेशा के लिए मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। एक दिन शोषित-उत्पीड़ित जनता उठेगी और उस मंच को ही उखाड़ फेंकेगी, जिस पर देश के हुक्मरान तरह-तरह के ड्रामे करते रहते हैं।

पंजाब में भी जनता बदहाल, नेता मालामाल

पंजाब सरकार खजाना खाली होने की दुहाई दे रही है और जनता पर तरह-तरह के टैक्स लगाने की तैयारी कर रही है। वहीं पंजाब विधानसभा के विधायकों के वेतन, भत्तों तथा अन्य सुविधाओं में बढ़ोत्तरी की तैयारी की जा रही। सभी पार्टियाँ आपस में चाहे जितना भी लड़ें-झगड़ें, लेकिन इस मुद्दे पर सब एक हैं। 11 जुलाई को जब पंजाब विधानसभा में विधायकों के वेतन, भत्ते तथा अन्य सहूलियतों को बढ़ाने का प्रस्ताव रखने वाली रिपोर्ट पेश की गयी तो एक भी पार्टी या विधायक ने विरोध नहीं किया। रिपोर्ट में मुख्यमन्त्री, मन्त्रियों, डिप्टी मन्त्रियों, विरोधी पक्ष की नेता, मुख्य संसदीय सचिवों, स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के वेतनों और भत्तों में भी बढ़ोत्तरी करने की सिफ़ारिश की गई है।

पूँजीवादी लोकतंत्र में ”बहुमत” की असलियत : महज़ 12 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधि हैं देश के नये सांसद

बार-बार यह साबित हो चुका है कि पूंजीवादी जनतंत्र, पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के सिवाय कुछ नहीं होता। इसमें हर पाँच साल बाद लोकतंत्र का फूहड़-नंगा खेल खेला जाता है, जिसमें यह फैसला होता है कि अगले पाँच साल तक मेहनतकश जनता के शोषण का अधिकार किस दल को मिलेगा और कौन-सा दल मालिकों के हित में तमाम नीतियों-काले कानूनों को लागू करेगा। उस पर तुर्रा यह कि इसे अल्पमत पर बहुमत के शासन के रूप में प्रचारित किया जाता है। लेकिन वास्तव में, यह बहुमत पर अल्पमत का शासन होता है और पूँजीपति और उनके पत्तलचाटू बुद्धिजीवी, अखबार, नेता-अभिनेता हमारे इसी ”महान लोकतंत्र” की दुहाई देते नहीं थकते।

20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करने वाले 84 करोड़ लोगों के देश में 300 सांसद करोड़पति

आज चाहे कोई भी चुनावी पार्टी हो, हरेक जनता की सच्ची दुश्मन है। किसी भी तरह की पार्टी या गठबन्‍धन की सरकार बने सभी जनविरोधी नीतियाँ ही लागू कर रहे हैं। पूँजीपति वर्ग की सेवा करना ही उनका लक्ष्य है। आज राज्यसत्ता द्वारा देशी-विदेशी पूँजी के हित में कट्टरता से लागू की जा रही वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की घोर जनविरोधी नीतियों से कोई भी चुनावी पार्टी न तो असहमत है, न ही असहमत हो सकती है। कांग्रेस, भाजपा से लेकर तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियाँ और साथ में मज़दूरों-ग़रीबों के लिए नकली ऑंसू बहाने वाली तथाकथित लाल झण्डे वाली चुनावी कम्युनिस्ट पार्टियाँ सभी की सभी इन्हीं नीतियों के पक्ष में खुलकर सामने आ चुकी हैं। इन पार्टियों के पास ऐसा कुछ भी ख़ास नहीं है जिसके ज़रिये वे जनता को लुभा सकें। वे जनता को लुभाने के लिए जो वायदे करते भी हैं, इन सभी पार्टियों को पता है कि जनता अब उनका विश्वास नहीं करती। आज जनता किसी भी चुनावी पार्टी पर विश्वास नहीं करती। धन के खुलकर इस्तेमाल के बिना कोई पार्टी या नेता चुनाव जीत ही नहीं सकता। वोट हासिल करने के लिए नेताओं की हवा बनाने के लिए बड़े स्तर पर प्रचार हो या वोटरों को पैसे देकर ख़रीदना, शराब बाँटना, वोटरों को डराना-धमकाना, बूथों पर कब्ज़े करने हों, लोगों से धर्म-जाति के नाम पर वोट बटोरने हों – इस सबके लिए मोटे धन की ज़रूरत रहती है। पूँजीवादी राजनीति का यह खेल ऐसे ही जीता जाता है। जैसे-जैसे समय गुज़रता जा रहा है वैसे-वैसे यह खेल और भी गन्दा होता जा रहा है। 14वीं लोकसभा के चुनावों में 9 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति थे जोकि अब की बार 16 प्रतिशत हो गये। यह भी ध्‍यान देने लायक है कि इस बार जब करोड़पति कुल उम्मीदवारों का 16 प्रतिशत थे लेकिन जीत हासिल करने वालों में इनकी गिनती लगभग 55 प्रतिशत है। इस बार विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की औसतन सम्पत्ति इस प्रकार थी : कांग्रेस 5 करोड़, भाजपा 2 से 3 करोड़, बसपा 1.5 से 2.5 करोड। कांग्रेस ने 202 करोड़पतियों को टिकटें दीं, भाजपा ने 129, बसपा ने 95, समाजवादी पार्टी ने 41 करोड़पतियों को लोकसभा के चुनावों में उतारा।

चुनावी नौटंकी का पटाक्षेप : अब सत्ता की कुत्ताघसीटी शुरू

करीब डेढ़ महीने तक चली देशव्यापी चुनावी नौटंकी अब आख़िरी दौर में है। ‘बिगुल’ का यह अंक जब तक अधिकांश पाठकों के हाथों में पहुँचेगा तब तक चुनाव परिणाम घोषित हो चुके होंगे और दिल्ली की गद्दी तक पहुँचने के लिए पार्टियों के बीच जोड़-तोड़, सांसदों की खरीद-फरोख्त और हर तरह के सिद्धान्तों को ताक पर रखकर निकृष्टतम कोटि की सौदेबाज़ी शुरू हो चुकी होगी। पूँजीवादी राजनीति की पतनशीलता के जो दृश्य हम चुनावों के दौरान देख चुके हैं, उन्हें भी पीछे छोड़ते हुए तीन-तिकड़म, पाखण्ड, झूठ-फरेब का घिनौना नज़ारा पेश किया जा रहा होगा। जिस तरह इस चुनाव के दौरान न तो कोई मुद्दा था, न नीति – उसी तरह सरकार बनाने के सवाल पर भी किसी भी पार्टी का न तो कोई उसूल है, न नैतिकता! सिर्फ और सिर्फ सत्ता हासिल करने की कुत्ता घसीटी जारी है।

पाँच क्रान्तिकारी जनसंगठनों का साझा चुनावी भण्डाफोड़ अभियान

देशभर में लोकसभा चुनाव के लिए जारी धमाचौकड़ी के बीच बिगुल मज़दूर दस्ता, देहाती मज़दूर यूनियन, दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा, और स्‍त्री मुक्ति लीग ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और पंजाब के अलग-अलग इलाकों में चुनावी भण्डाफोड़ अभियान चलाकर लोगों को यह बताया कि वर्तमान संसदीय ढाँचे के भीतर देश की समस्याओं का हल तलाशना एक मृगमरीचिका है। ऊपर से नीचे तक सड़ चुकी इस आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को ध्वस्त कर बराबरी और न्याय पर टिका नया हिन्दुस्तान बनाने के लिए आम अवाम को संगठित करके एक नया इन्‍कलाब लाना होगा।