रेलवे के निजीकरण के ख़िलाफ़ एकजुट संघर्ष के लिए रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा की ओर से व्यापक सम्पर्क अभियान जारी
बिगुल संवाददाता
रेलवे के निजीकरण के खिलाफ़ संगठित और जुझारू प्रतिरोध खड़ा करने के मक़सद से रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा की ओर से देश के विभिन्न हिस्सों में व्यापक सम्पर्क अभियान चलाया जा रहा है। इलाहाबाद, लखनऊ, गोरखपुर व पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों, दिल्ली, हरियाणा, पटना सहित अनेक शहरों में रेलवे के दफ़्तरों, वर्कशॉपों, रेलवे कालोनियों तथा लाइन पर काम कर रहे रेल कर्मियों के बीच मोर्चा के कार्यकर्ता लगातार पर्चा वितरण, छोटी-छोटी सभाएँ करके और घर-घर, डेस्क-डेस्क सघन सम्पर्क करके अपनी बात को ले जा रहे हैं।
मोर्चा की ओर से कहा जा रहा है कि टुकड़े-टुकड़े में रेलवे के निजीकरण की पिछले ढाई दशक से जारी प्रक्रिया को मोदी सरकार ने बहुत तेज़ कर दिया है और 100 दिन के ऐक्शन प्लान के तहत अन्धाधुन्ध रफ़्तार से निजीकरण की पटरी पर गाड़ी दौड़ा दी है। इसे रोकने के लिए सरकार पर धरना-प्रदर्शन, छोटी रैलियों आदि का बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला। सरकार एक लम्बी तैयारी के बाद इन विभागों को निजी हाथों में बेच रही है और भाजपा निजीकरण के लिए हर हथकण्डा अपनाने को तैयार है – दमन करने से लेकर फूट डालने तक। इसी वजह से कर्मचारियों का विभिन्न यूनियनों में बँटे रहना सरकार के लिए फ़ायदे की चीज़ है। एक तो इससे कर्मचारियों की ताक़त कमज़ोर हो जाती है, दूसरे, सरकार के लिए दमन का डर पैदा करना आसान हो जाता है व ज़रूरत पड़ने पर धन्धेबाज़ यूनियन नेताओं के साथ समझौता कर कुछ आश्वासन देकर आन्दोलन को ख़त्म करने का मौक़ा भी मिल जाता है। तीसरे, रेल का ‘चक्का जाम’ जैसे नारे केवल कहने की बात बन जाते हैं जबकि रेल का ‘चक्का जाम’ जैसे आन्दोलन के जुझारू रूपों को अपनाये बग़ैर निजीकरण की नीतियों के ख़िलाफ़ कोई असरदार लड़ाई लड़ी ही नहीं जा सकती।
गोरखपुर में एकीकृत क्रू लॉबी, टीटीई ऑफ़ि़स, पार्सल, जीआरपी ऑफ़ि़स, यांत्रिक कारख़ाना, रेलवे वर्कशॉप आदि में तथा इलाहाबाद (एनसीआर) तथा प्रयाग (एनआर) में रेलवे के विभिन्न ऑफ़ि़सों और कालोनियों में तथा एनआर व एनसीआर जोन के अन्य रेलवे स्टेशनों पर पर्चा वितरित किया गया। निजीकरण के ख़िलाफ़ रेलवे में काम कर रही मान्यता प्राप्त और ग़ैर-मान्यता प्राप्त यूनियनों के ढुलमुल रवैये को लेकर कर्मचारियों के भीतर ज़बरदस्त ग़ुस्से का माहौल है। कर्मचारियों ने बताया कि मुद्दा चाहे पुरानी पेंशन बहाली का हो, ‘100 दिन एक्शन प्लान’ का हो, हाई स्पीड ट्रेन में पार्सल विभाग की ज़िम्मेदारी को पूरी तरह अमेज़न के हाथों में सौंपने का हो या फिर 55 की उम्र में अनिवार्य सेवानिवृत्ति का, यूनियनें केवल गरमा-गरम भाषणों से आगे बढ़कर कर्मचारियों के जुझारू और उग्र प्रतिरोध का रास्ता नहीं अपना रही हैं। यही वजह है कि सरकार मनमानी करती जा रही है और आनेवाले दिनों में इसकी क़ीमत कर्मचारियों के साथ-साथ आम जनता को भी चुकानी पड़ेगी।
मोदी सरकार के 100 दिन के एक्शन प्लान से पहले ही टुकड़ों-टुकड़ों में रेलवे के निजीकरण की योजना पर अमल जारी था। आज हालत यह हो गयी है कि बहुत सी जगहों पर रेलवे के अनेक अतिमहत्वपूर्ण विभागों में कर्मचारियों की स्वीकृत संख्या में तीस से लेकर 50 प्रतिशत कर्मचारियों की कमी है। ‘100 दिन ऐक्शन प्लान’ लागू होने के पहले से ही निजीकरण का भयंकर रूप रेलवे के तमाम विभागों में आउटसोर्सिंग आदि के रूप में देखने को मिल रहा है। रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा के इस अभियान को रेल कर्मचारियों का व्यापक समर्थन प्राप्त हो रहा है। रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा के कार्यकर्ताओं से अपने विभाग की बदहाल स्थिति से अवगत कराते हुए गोरखपुर पूर्व की क्रू लॉबी में लोको पायलटों ने बताया कि स्वीकृत 265 पदों में से 78 पद ख़ाली पड़े हैं। इसी तरह प्रयाग रेलवे स्टेशन पर स्वीकृत 116 पदों में से 35 पद ख़ाली हैं। फूलपुर जैसे छोटे स्टेशन भी कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं। रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा के कार्यकर्ताओं से बात करते समय लोको पायलटों ने बताया कि यहाँ पर छुट्टी किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं होती, क्योंकि जहाँ ट्रेनों की संख्या बढ़ी हैं, वहीं लोको पायलटों की संख्या घट गयी है। गोरखपुर पूर्व की क्रू लॉबी में महिला लोको पायलटों के लिए अलग से बैठने, विश्राम करने तक की कोई व्यवस्था नहीं है। कर्मचारियों की कम संख्या की वजह से उचित कोआर्डिनेशन न हो पाने पर रेलवे के परिचालन में लगातार दिक़्क़तें आती हैं। ट्रेनों के लेट होने से लेकर ट्रेन दुर्घटनाओं के पीछे कर्मचारियों की कमी बहुत बड़ा कारण है, लेकिन आम जनता को इन बातों की कोई सुसंगत जानकारी नहीं है। कॉर्पोरेट मीडिया सरकार की चरण-वन्दना में लगा हुआ है और वह जानबूझकर इन तथ्यों पर पर्दा डाल देता है। रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने कर्मचारियों से कहा कि आज तमाम तरीक़े की छँटनी-तालाबन्दी के बाद भी रेलवे के कर्मचारियों की संख्या इतनी है कि अगर वे जुझारू प्रतिरोध का रास्ता अपनायें तो सरकार को झुका सकते हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें यूनियन के नेताओं का मुँह जोहने की बजाय उन पर दबाव बनाने और सभी कर्मचारियों को मुद्दों के आधार पर एक साथ आना होगा।
दुर्घटनाओं या ट्रेनों की लेटलतीफ़ी जैसे मामलों में रेलवे की वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ जनता रेल कर्मचारियों को ही दोषी मानते हुए कोसती रहती है। रेल कर्मचारी कामचोर हैं, केवल वेतन लेते हैं, काम नहीं करते – इस तरह की बातें लोगों से अक्सर सुनने को मिलती हैं। अब जबकि तमाम पब्लिक सेक्टर पूँजीपतियों के हाथों बेचने के लिए भाजपा सरकार आमादा है तो मीडिया सरकारी प्रचार तंत्र की भूमिका निभा रहा है। वह किसी भी समस्या के वास्तविक कारणों की पड़ताल किये बिना विभाग के सरकारी होने को ही दोषी ठहरा देता है ताकि निजीकरण के पक्ष में माहौल बनाया जाये। अनेक सरकारी विभागों के निजीकरण के बाद से जनता की समस्याएँ कम होने के बजाय बढ़ गयी हैं, और आगे और भी बढ़ेंगी। लेकिन जनता को सही तरीके से समझाने व संगठित करने के लिए सरकारी विभागों की यूनियनों द्वारा सचेत प्रचार पर जोर नहीं है। ज़्यादातर यूनियनों के नेतृत्व ने निजीकरण की प्रक्रिया का कभी जुझारू प्रतिरोध किया ही नहीं। सरकार इस स्थिति का लाभ उठाकर लोगों के बीच में इन बातों को और गहराई से पैठाने का काम करती है। सरकार यही प्रचारित करती है कि निजीकरण से ये सारी समस्याएँ हल हो जायेंगी।
रेल मज़दूर अधिकार मोर्चा के कार्यकर्ता रेल कर्मियों के बीच अपने प्रचार में इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि उन्हें ख़ुद संगठित रूप में आगे आने के साथ ही व्यापक आबादी को भी अपने साथ लेने पर जोर बढ़ाना पड़ेगा। इस सच्चाई को लोगों के बीच उजागर करके सरकार व कॉर्पोरेट मीडिया की साज़िश को बेनक़ाब करना होगा। साथ ही विभिन्न सरकारी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की मार झेल रहे मज़दूरों-कर्मचारियों के आन्दोलन के साथ ही एकजुटता क़ायम करनी होगी।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2019
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