फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष के समर्थन में और ग़ज़ा में जारी इज़राइली जनसंहार के खिलाफ़ दुनियाभर के इंसाफ़पसन्द नागरिक और मज़दूर सड़कों पर

अंजलि

7 अक्टूबर को ज़ायनवादी इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीन में ज़ारी बर्बर नरसंहार के दो साल पूरे हो जायेंगे। साम्राज्यवादी पश्चिमी ताक़तों की शह पर ज़ारी इस क़त्लेआम में अब तक 66,000 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं जिसमें आधे से ज़्यादा बच्चे और महिलाएँ हैं। इज़रायली बर्बरता का अन्दाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ग़ज़ा के लगभग सभी बाशिन्दे विस्थापित हो गये हैं। आज ग़ज़ा का हर नागरिक गम्भीर खाद्य असुरक्षा और अकाल का सामना कर रहा है। जो लोग बमों, मिसाइलों, गोलियों से बच गये हैं वे इज़रायली नाकेबन्दी की वजह से भूख और दवा-इलाज के अभाव में मर रहे हैं। खाद्य सहायता की कतार में खड़े रहते हुए गोलीबारी में 2456 से अधिक लोग अपनी जान गँवा बैठे हैं। इज़रायली नाकेबन्दी ने ग़ज़ा को आज खुली जेल में तब्दील कर दिया है। दुनिया के तमाम देशों से भेजे जाने वाली राहत सामग्री भी ग़ज़ा के लोगों तक पहुँच नहीं पा रही है।

इसी नाकाबन्दी को तोड़ने के इरादे से ‘ग्लोबल सुमुद फ़्लोटिला’ भी निकला है जिसमें 44 देश की 50 से ज़्यादा नौकाएँ शामिल हैं। इन नावों पर दुनिया भर से ऐक्टिविस्ट, डॉक्टर, कलाकार और राहतकर्मी ग़ज़ा के बच्चों और नागरिकों के लिए ज़रूरी सामान ले जा रहे हैं। इस फ़्लोटिला में ग्रेटा थनबर्ग, हॉलीवुड अभिनेत्री सुज़न सरेण्डन, अभिनेता लियाम कनिंघम, नेल्सन मण्डेला के पौत्र ज्वेलीवेलीले मण्डेला सहित सैकड़ों एक्टिविस्ट शामिल हैं। राहत सामग्री ले जा रहे इंसाफ़पसन्द-न्यायप्रिय लोगों की नावों पर बर्बर इज़रायली सेना कायरतापूर्ण हमले कर रही है। इज़रायली बर्बरों द्वारा ट्यूनीशिया के सिडी बू सईंद बन्दरगाह पर सुमुद फ्लोटिला के नौकाओं को ड्रोन हमले का निशाना भी बनाया गया। इस कायरतापूर्ण हमले के बावजूद नौकाओं पर सवार सभी एक्टिविस्ट पूरी बहादुरी के साथ डटे हुए हैं। अन्यायपूर्ण इज़रायली नाकेबन्दी तोड़ने के लिए चल रही  मुहिम पर इज़रायल द्वारा हमले की यह कोई पहली घटना नहीं है। इसके पहले मई और जून 2025 में क्रमशः एफएफसी नाव ‘कॉन्शेंस’ और ‘मेंडेलिन’ को भी इज़रायली नौसेना ने इन्टरसेप्ट कर दिया था। जुलाई, 2025 में ग़ज़ा के लोगों तक राहत सामग्री पहुँचाने और इज़रायली नाकेबन्दी तोड़ने के मक़सद से एक बड़ा जहाज़ी अभियान फ्रीडम फ्लोटिल्ला ‘हण्डाला’ निकला था, जिसमें कई देशों के सामाजिक कार्यकर्ता, कलाकार आदि शामिल थे। ज्ञात हो कि इस पर इज़रायली सेना ने हमला करके कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया था जिसमें ग्रेटा थनबर्ग भी शामिल थी।

हत्यारी इज़रायली सेना के हमलों से बचने के लिए ग़ज़ा के लोग उन जगहों पर शरण ले रहे हैं जहाँ कोई भी सभ्य इन्सान नहीं रह सकता। अक्टूबर 2023 से लेकर अबतक गज़ा पर इज़रायली ज़ायनवादियों ने 1 लाख टन से ज़्यादा बम बरसाये हैं जो अबतक के युद्धों में इस्तेमाल किये गये विस्फोटकों से सबसे  ज़्यादा है। इतना ही नहीं राहत सामग्री लेने के लिए क़तारों में लगे हज़ारों बच्चों और नागरिकों की हत्या बुज़दिल इज़रायली सेना कर चुकी है। इस बर्बर नरसंहार में इज़रायल को अमेरिका समेत तमाम साम्राज्यवादी पश्चिमी देशों व अरब देशों के शासक वर्ग का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष साथ मिला हुआ है। अपने को सभ्य कहने वाले तमाम पश्चिमी देश इस क़त्लेआम को रोकने की जगह उल्टे इज़रायल को हथियार निर्यात कर रहे हैं और उसकी मदद कर रहे हैं।

आज अगर दुनिया के ज़्यादातर देशों के शासक वर्ग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इज़रायल के साथ खड़े हैं तो दूसरी तरफ हर देश की मेहनतकश अवाम  फ़िलिस्तीन के समर्थन में खड़ी है। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्राज़ील, जापान, मलेशिया, केन्या, सेनेगल, बांग्लादेश, भारत, और अन्य यूरोपीय देश समेत दुनिया भर से इंसाफ़पसन्द लोग हज़ारों की संख्या में फ़िलिस्तीन के समर्थन में सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं और इसके कारण अपने यहाँ के शासकों का दमन झेल रहे हैं। दुनियाभर की अवाम अपने देश में इज़रायल पर प्रतिबन्ध लगाने और उससे हर तरह के सामरिक, व्यापारिक, कुटनीतिक सम्बन्धों को रद्द करने की माँग को लेकर अपने देशों के शासक वर्ग से संघर्ष कर रही है।

हालिया दिनों में फ़िलिस्तीन में जारी इज़रायली नरसंहार के सवाल पर यूनाइटेड नेशन में वोटिंग करायी गयी जिसमें भारत ने फ़िलिस्तीन के समर्थन में वोट किया। हालाँकि भारत का शासक वर्ग इज़रायल के साथ हर तरह के सामरिक, व्यापारिक, कुटनीतिक सम्बन्ध क़ायम किये हुए है। हालिया दिनों में भारत सरकार ने इज़रायल के साथ 3.9 अरब डॉलर का व्यापारिक समझौता किया है जो यही दिखलाता है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार और ज़ायनवादी इज़राइल विचारधारात्मक-राजनीतिक तौर पर भी एक-दूसरे से नज़दीकी रखते हैं। हालाँकि भारत में भी धीरे-धीरे आम लोगों के बीच इज़राइल के ज़ायनवादी सेटलर कलोनियल राज्य की असलियत उजागर हो रही है। भारत में ‘इण्डियन पीपल इन सोलिडैरिटी विथ पैलेसटाइन’ (आईपीएसपी) और ‘बीडीएस इण्डिया’ की ओर से यह मुहिम चलायी जा रही है। विश्व मंच पर तटस्थता की नौटंकी करते हुए फ़िलिस्तीन के पक्ष में वोट करने वाले भारत के शासक फ़िलिस्तीन के पक्ष में उठ रहे आवाज़ों का बर्बर दमन करने पर उतारू है। गोरखपुर, दिल्ली, पुणे, इलाहाबाद जैसे शहरों में फ़ासिस्टों की शह पर आईपीएसपी के कार्यकर्ताओं को पुलिसिया दमन का सामना करना पड़ा और पड़ रहा है। लेकिन बर्बरता और दमन से न तो फ़िलिस्तीनी अवाम का हौसला पस्त हुआ है और न ही दुनिया भर के इंसाफ़पसन्द लोगों का। दमन के बावजूद दुनियाभर से फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के समर्थन में आवाज़ उठ रही हैं।

एक आँकड़ें के अनुसार दुनिया के 40 से अधिक देशों में लाखों लोगों ने फ़िलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन किये है या कर रहे हैं। दुनिया भर के तमाम विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्र सॉलिडेरिटी अभियान चला रहे हैं। तमाम फिल्मकार, लेखक, संगीतकार और कवि अपनी कला के माध्यम से फ़िलिस्तीन के पक्ष में आवाज़ उठा रहे हैं। दुनिया भर में सोशल मीडिया पर #फ्रीफ्रीपैलेस्टाइन, #स्टॉपजेनोसाइड, #सीज़फायरनाउ जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं।

दुनिया का इतिहास बताता है कि हर दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ और राष्ट्रीय मुक्ति के लिए चलने वाले संघषों में मज़दूर वर्ग कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ता रहा है। फ़िलिस्तीन में साम्राज्यवाद की शह पर चल रहे बर्बर नरसंहार के ख़िलाफ़ और फ़िलिस्तीनी जनता की मुक्ति संघर्ष के समर्थन में भी दुनियाभर के मज़दूर सड़कों पर उतर रहे हैं, प्रदर्शन और हड़तालें आयोजित कर रहे हैं।

इसी क्रम में कई यूरोपीय देशों में डॉक मज़दूरों ने ग़ज़ा के साथ एकजुटता ज़ाहिर करते हुए इज़रायल से जुड़े शिपमेण्ट और सप्लाई चेन पर काम को ठप्प कर दिया। इसमें विशेष रूप से बेल्जियम, आयरलैण्ड, इटली, ग्रीस और स्पेन के डॉक मज़दूर संगठन शामिल रहे हैं। फ्रांस और पुर्तगाल की पोस्टल यूनियनें भी इस प्रदर्शन में शामिल रहीं। डॉक मज़दूर संगठनों ने इज़राइल को हथियार या सैन्य सामग्री पहुँचाने वाले पार्सल या शिपमेण्ट को सम्भालने से इन्कार कर दिया। ग्रीस में पीरियस पोर्ट पर डॉक मजदूरों ने ऐसे जहाज़ों को रोका, जिनमें हथियारों की खेप थी। इसी तरह इटली में यूएसबी यूनियन सिण्डिकेट डिबेस ने कई बार ऐलान किया कि वे हथियार लदे जहाज़ों को रोकेंगे. रोम और जिनेवा जैसे बंदरगाहों पर बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए। फ्रांस में डॉक वर्कर्स ने एफ-35 जेट पार्सल को ले जाने वाले जहाज़ को समय से लेट कर दिया और मज़दूरों ने सरकार पर दबाव बनाया कि सरकार हथियारों का निर्यात बन्द करे। इसके अलावा ‘यूरोपियन ट्रेड यूनियन नेटवर्क फॉर जस्टिस इन पैलेस्टाइन’ ने बयान ज़ारी किया कि मज़दूर वर्ग फ़िलीस्तीनी जनता की आज़ादी और न्याय की लड़ाई में उसके साथ खड़ा है। स्वीडन में डॉक वर्कर्स यूनियन एसडीओ ने साफ़ घोषणा की कि इज़रायल के लिए सैन्य सामान लोड-अनलोड नहीं करेंगे। न्याय के पक्ष में बोलने और संघर्ष करने की क़ीमत इन मज़दूरों ने चुकायी भी, हालाँकि तब भी वे डटे रहे। छः दिन तक चले इस आन्दोलन से बौखलाया स्वीडन का शासक वर्ग अब मज़दूर नेताओं को चिन्हित कर उनकों नौकरियों से निलम्बित कर रहा है। आन्दोलन को नेतृत्व दे रहे एसडीयू यूनियन के उपाध्यक्ष को काम से निकाल दिया गया।

मालिक वर्ग मज़दूरों की बढ़ती राजनीतिक चेतना और सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद से किस क़दर भयभीत रहता है इसका एक नमूना स्वीडन के संसद में देखने को मिला। यूरोप के डॉक मज़दूरों का यह संघर्ष स्वीडन के संसद में भी बड़ा मुद्दा बना। संसद में चर्चा का मुख्य विषय ही यही था कि क्या मज़दूरों को अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने की लड़ाई के साथ अन्तरराष्ट्रीय स्तर के मुद्दों में हस्तक्षेप करना चाहिए? मज़दूर साथियों! इस उदहारण से भी हम समझ सकते हैं कि वेतन-भत्ता बढ़ाने समेत ट्रेड यूनियन संघर्ष को केवल आर्थिक मांगों तक सीमित नहीं किया जा सकता है। अर्थवादी संघर्ष से मालिक वर्ग को कोई ख़ास समस्या नहीं होती है। मालिक वर्ग की बौखलाहट उस वक़्त शुरू होती है जब मज़दूर वर्ग आर्थिक लड़ाइयों से आगे बढ़कर राजनीतिक संघर्ष के क्षेत्र में प्रवेश करता है। इसलिए जो भी मज़दूर यूनियन हमें केवल अर्थवादी लड़ाइयों के गोल चक्कर में उलझाये रखती हैं वह मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी कर चुकी हैं। यूरोप के हमारे मज़दूर साथियों ने अपने हालिया संघर्षों के ज़रिये इसी बात को पुनः रेखांकित किया है।

दुनिया भर के मज़दूरों ने ग़ज़ा के साथ अपनी एकजुटता क़ायम करके सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद की अद्वितीय मिसाल पेश की है। हम भारतीय मज़दूरों को भी स्पष्ट समझना चाहिए कि मुक्ति कभी अकेले नहीं मिलती है। दुनिया में जहाँ पर भी लोग न्याय, बराबरी और आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं वे हमारे अपने लोग हैं। अगर हम अपनी मुक्ति के रास्ते तलाश रहे हैं तो हमें समझना होगा कि 1948 से पहले दुनिया के नक़्शे पर इज़रायल जैसा कोई देश था ही नहीं। 20वीं सदी के पहले दशक में मध्य-पूर्व के इलाक़े में कच्चे तेल का अकूत भण्डार मिला जो देखते-देखते कुछ ही वर्षों में पश्चिमी साम्राज्यवादी दैत्यों के लिए सबसे रणनीतिक माल बन गया। इसी माल पर क़ब्ज़ा ज़माने के मक़सद से ब्रिटेन ने ज़ायनवादी हत्यारे गिरोहों को फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर ले जाकर बसाना शुरू किया। साम्राज्यवादी ताकतों ने इन जायनवादी हत्यारों को हथियारों से लैस किया और फिर 1917 से 1948 के बीच हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का क़त्लेआम किया गया और लाखों फ़िलिस्तीनियों को उनके ही वतन से बेदख़ल करने का काम शुरू हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व साम्राज्यवाद का नया चौधरी अमेरिका बना। मौजूदा दौर में आम तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों और विशेष तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवाद की सरपरस्ती में फिलिस्तिनियों के क़त्लेआम को अंजाम दिया जा रहा है। आज यह प्रक्रिया अपने सबसे बर्बर रूप में ज़ारी है।

यही कारण है कि हमें समझना होगा कि पूँजी के जिस जुए के नीचे आज हमारी ज़िन्दगी पिस रही है, वही पूँजी का पिशाच फिलिस्तीनियों को उनके अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मज़बूर कर रहा है। यही पूँजी लाखों फिलिस्तीनियों के बर्बर क़त्लेआम के लिए ज़िम्मेदार है। ऐसे में ग़ज़ा में चल रहे बर्बर नरसंहार का विरोध करना और गज़ा के समर्थन में चल रहे अपने देश में आन्दोलनों को मज़बूत बनाना हमारे सामने एक फ़ौरी कार्यभार है।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2025

 

 

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