भारत में लगातार चौड़ी होती असमानता की खाई और जनता की बर्बादी की कीमत पर हो रहे विकास पर एक नजर ! !
राजकुमार
अनेक आँकड़ों, तथ्यों और मंत्रियों-नेताओं के बयानों से कोई भी यह सोच सकता है कि भारत काफी तेज गति से विकास के ट्रेक पर आगे बढ़ता चला जा रहा है और एकता तथा अखण्डता की एक मिसाल प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन जब असलियत पर नजर जाती है तो विकास की सच्ची तस्वीर सामने आ जाती है जो हवा के एक बुलबुले की तरह है, जहाँ करोड़ों लोगों के जीवन की बर्बादी की कीमत पर कुछ लोगों को विकास के साथ सारे ऐशो-आराम मुहैया कराए जा रहे हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय पूँजीवादी-साम्राज्यवादी वैश्वीकरण नीतियों के अनुरूप योजनाएँ बनाते हुए भारत की सरकार ने पिछले 20 सालों से देश के बाजार को वैश्विक बाजार के लिये लगातार अधिक खुला बनाया है और पूँजी के खुले प्रवाह के लिये निवेश में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू किया है। इन नीतियों को लागू करने के लिये श्रम कानूनों को लगातार लचीला बनाने के नाम पर मज़दूरों के सभी अधिकारों की एक-एक कर तिलाँजलि दे दी गई है। इस “विकास” को हासिल करने के लिये सरकार नीतियों में फेरबदल करते हुए देशी-विदेशी व्यापारिक संस्थाओं और उद्योगपतियों को कई प्रकार की सब्सिडी मुहैया कराती है और कई तरह की छूट देती है। इन नीतियों को लागू करने का परिणाम यह है कि आज ग़रीबों को और अधिक गरीबी में धकेल दिया गया है, मज़दूरों की और ज्यादा दुर्गति हुई है, जनता के कष्ट और बढ़े हैं, और पूरे देश के स्तर पर किसानों में आत्महत्याओं का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। विकास और उन्नति की इन नीतियों का यह परिणाम सामने आया है कि देश के कुल 46 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत, अर्थात 43 करोड़ मज़दूरों को असंगठित क्षेत्र में धकेल दिया गया है जहाँ वे बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के गुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिये मजबूर हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इस पूरे परिवर्तन के दौरान देश में अमीरों-गरीबों के बीच असमानता दो-गुना बढ चुकी है। और ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों की आय निचले स्तर पर जीने वाले 10 प्रतिशत लोगों की आय से 12 गुना अधिक है, जो कि बीस साल पहले 6 गुना थी। इसी के साथ शहरी अमीरों और ग्रामीण अमीरों के बीच भी असमानता मौजूद है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार शहरों में रहने वाले अमीर, ग्रामीण अमीरों से 221 प्रतिशत अधिक खर्च करते हैं। विकास के चलते जनता की दुर्गति का सिलसिला यहीं नहीं थमता, एक सरकारी आँकड़े के अनुसार देश में हर एक घण्टे में दो लोग आत्महत्या करते हैं, जिसमें आदिवासी, महिलाओं और दलितों से सम्बन्धित आँकड़े शामिल नहीं हैं।
देश में उपभोग करने वाली एक छोटी आबादी को चकाचौंध में डूबाने के लिये और अमेरिका-जापान से लेकर यूरोप तक पूरी दुनिया की पूँजी को मुनाफ़े का बेहतर बाज़ार उपलब्ध कराने के लिये जनता के कई अधिकारों को अप्रत्यक्ष रूप से छीना जा चुका है। इसके कई उदाहरण है कि जगह-जगह शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध और अपने अधिकारों के लिये होने वाले मज़दूर आन्दोलनों और जनता की आवाज को दबाने के लिये पुलिस-प्रशासन का इस्तेमाल अब खुले रूप में किया जा रहा है, कश्मीर से लेकर देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में जनता पर सैन्य शासन के साथ ही अब मज़दूर इलाकों में भी मालिकों के कहने पर पुलिस प्रशासन जब चाहे फ़ासीवादी तरीक़े से मज़दूरों का दमन उत्पीड़न कर आतंक फ़ैलाने से बाज नहीं आती। यह सब इसलिये किया जाता है जिससे कि कुछ अमीर लोगों को देश के विकास का हिस्सेदार बनाया जा सके!
एक रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ भारतीय ग़रीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं, जिसका अर्थ है कि वे भुखमरी की कगार पर बस किसी तरह ज़िन्दा हैं। इन ग़रीबों की प्रति दिन की आय 12 रु से भी कम होती है। इतनी आमदनी मे कोई मूलभूत सुविधा मिलना तो बहुत दूर की बात है, बल्कि एक व्यक्ति को किसी तरह सिर्फ़ जिन्दा बने रहने के लिये भी संघर्ष करना पड़ता है, और वह भी तब जब यह मान लिया जाये कि वह व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ेगा और जानवरों की तरह सभी मौसम बर्दाश्त कर लेगा!
एक तरफ़ ग़रीबी लगातार बढ रही है, वहीं दूसरी ओर समाज के एक छोटे हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाले उद्योगपतियों, लोकसभा के सदस्यों, न्यायपालिका में काम करने वाले लोगों, नेताओं, सरकारी अधिकारियों और बाबुओं के घरों में पैसों के ढेर लगातार ऊँचे होते जा रहे हैं। आम जनता की इस बर्बादी के दौरान भारत “तरक्की” भी कर रहा है! फ़ोर्ब्स पत्रिका द्वारा जारी की गई दुनिया के 61 देशों में अरबपतियों की संख्या की एक सूची में भारत चौथे नम्बर पर है। भारत के इन अरबपतियों की कुल सम्पत्ति 250 अरब है, जिसकी तुलना में जर्मनी और जापान के अमीर अरबपतियों को ग़रीब माना जा सकता है। इन अरबपतियों के साथ ही भारत में दो लाख करोड़पति भी हैं जो भारत की बड़ी कम्पनियों को चलाते हैं।
भारत को एक जनतन्त्र कहा जाता है और 120 करोड़ आबादी वाले इस जनतन्त्र में 100 सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति पूरे देश की कुल वार्षिक उत्पादन का एक चौथाई से भी अधिक हिस्सा है। इस तरह सबसे बड़े जनतन्त्र में सारी शक्ति ऊपर के कुछ लोगों की जेब तक सीमित है। इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार विकास की दौड़ में मध्यवर्ग की एक खायी-अघायी आबादी भी शामिल है, जो 16 करोड़ यानि कुल आबादी का 13.1 प्रतिशत हिस्सा है (इकोनामिक टाइम्स 6/2/2011)। मध्यवर्ग का यह हिस्सा विश्व पूँजीवादी कम्पनियों को अनेक विलासिता के सामानों को बेचने के लिये बड़ा बाज़ार मुहैया कराता है। समाज का यह हिस्सा अमानवीय स्थिति तक माल अन्ध भक्ति का शिकार है, जिसमें टीवी और अखबारों में दिखाये जाने वाले विज्ञापन उन्हें कूपमण्डूक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। करोड़ों मेहनत करने वाले लोगों के ख़ून पसीने से पैदा होने वाले सामानों पर ऐश करने वाले समाज के इस हिस्से को देश की 80 प्रतिशत जनता की ग़रीबी और बर्बादी तथा दमन-उत्पीड़न से कोई खास फ़र्क नहीं पड़ता, बल्कि यह समाज के दबे कुचले हिस्से को देश की प्रगति में बाधा मानता है। इसी मध्यवर्ग को अपने माल के एक बाजार के रूप में देखते हुए अमरीकी और यूरोपीय उद्योगपति बड़ी खुशी के साथ इसकी व्याख्या करते हैं कि यहाँ उनके उत्पादित माल और ऑटोमोबाइल के लिये एक बड़ा बाज़ार मौजूद है।
आगे कुछ और आँकड़ों पर नजर डालने से असमानता और विकास की भयावह स्थिति और साफ़ हो जायेगी। यूनाइडेट नेशन्स डेवलपमेण्ट प्रोग्राम ने मानवीय विकास सूचकांक में भारत को 146 देशों की सूची में 129 वे स्थान पर रखा गया है, जिसमें लिंग भेद के मानक भी शामिल हैं। ह्यूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 30 साल पहले भारत के लोग बेहतर जीवन गुज़ारते थे। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार पिछले 30 सालों के अन्तराल में गरीबों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई है (इंडिया टुडे, 22-10-11)। भारत के ही सरकारी आँकड़े के अनुसार देश की 77 प्रतिशत जनता (लगभग 84 करोड़ लोग) गरीबी में जी रही है, जो प्रति दिन 20 रुपयों से भी कम पर अपना गुजारा करती है। हमारे देश में दुनिया के किसी भी हिस्से से अधिक, 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। भारत की एक तिहाई आबादी भुखमरी की शिकार है और यहाँ हर दूसरे बच्चे का वजन सामान्य से कम है और वह कुपोषण का शिकार है। वैश्विक भूख सूचकांक (यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स) के आधार पर बनी 88 देशों की सूची में भारत 73वें स्थान पर है जो पिछले साल से 6 स्थान नीचे है। 2012 के बहुआयामी (मल्टीडायमेंशनल) ग़रीबी सूचकांक के अनुसार बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 42 करोड़ लोग ग़रीबी के शिकार हैं।
एक संस्था ओ.ई.सी.डी. के अनुसार भारत की प्रगति का नतीजा यह है कि आज भारत में पूरी दुनिया के सबसे अधिक गरीब लोग रहते हैं। यही बजह है कि जनता की मेहनत और समाज के संसाधनों की लूट के चलते अम्बानी जैसे कुछ लोग कई-कई मंजिला मकान बनाकर अपनी अमीरी का प्रदर्शन करने में भी कोई शर्म महसूस नहीं करते।
भारत के पूँजीवादी जनतन्त्र (इसे दमनतन्त्र कहना ज्यादा सही होगा) में हो रहे विकास की असली तस्वीर यही है, जहाँ जनता की बर्बादी और मेहनत करने वालों के अधिकारों को छीनकर देश के कुछ मुट्ठीभर उद्योगपतियों, अमीरों, नेताओं, सरकारी नौकरशाहों को आरामतलब ज़िन्दगी मुहैया कराई जा रही है, और देशी विदेशी पूँजीपतियों को मुनाफ़ा निचोड़ने के लिये खुली छूट दे दी गई है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2013
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