जीएसटी 2.0 : पाँव के नीचे से ज़मीन खिसकती देखकर मोदी-शाह सरकार द्वारा जनता के साथ एक और धोखाधड़ी

नीशू

3 सितम्बर को जीएसटी परिषद की बैठक में वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण ने जीएसटी दरों में बदलाव को लेकर बड़ी-बड़ी घोषणाएँ की, जिसमें चार जीएसटी स्लैब की जगह दो यानी 5 प्रतिशत और 18 प्रतिशत वाले स्लैब को मंजूरी दी। 12 और 28 प्रतिशत दर वाली जीएसटी को ख़त्म कर दिया गया। इसके साथ ही 40 प्रतिशत के नये जीएसटी दर को लागू किया जो ‘सिन गुड्स’ पर यानी नुकसानदेह व लक्‍ज़री वस्‍तुओं व सेवाओं पर लगेगा। इसके बाद तो पूरा गोदी मीडिया मोदी जी के गुणगान करने में जुट गया मानो मोदी जी ने जनता पर कितना बड़ा “उपकार” कर दिया है! कितना “बड़ा दिवाली गिफ़्ट” दिया है! सड़कों और हाईवे के किनारे सरकार को बधाई देते हुए बड़े-बड़े होर्डिंग टाँग दिए गये। इतना ही नहीं ऑटो बनाने वाली कम्पनियों को कहा है कि वे अपने शोरूम में जीएसटी दरों में कटौती के पोस्टर्स मोदी जी की फोटो के साथ लगा कर रखें। फिक्की, एसोचैम, सीआईआई, आईपीए सब मोदी जी को हाथ जोड़कर, डबडबाई आँखों से धन्यवाद दे रहे हैं। ऐसे में जर्मनी के कवि बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता याद आती है:

प्रचार के मक़्सद के बारे में

और एक बात लाज़िमी है:

प्रचार जितना बढ़ता जाता है,

बाक़ी सारी चीज़ें उतनी ही

घटने लगती हैं

मोदी जी के इस “दिवाली उपहार” की असलियत क्या है, वाकई महँगाई कम होगी? आख़िर जीएसटी है क्या और यह किसके लिए फ़ायदेमन्द है? आइए जानते हैं।

जीएसटी मूलत: एक प्रकार की अप्रत्यक्ष कर है जो वस्तुओं और सेवाओं पर लगाया जाता है। जो सामान या सेवा हम ख़रीदते हैं जैसे साबुन, तेल, टूथपेस्ट, नमक, दूध का पैकेट, किताबें, पेन, कपड़े, सेवाएँ जैसे परिवहन, जिम आदि में अप्रत्यक्ष कर शामिल होता है। 1 जुलाई 2017 को  मोदी सरकार ने आधी रात को संसद में स्पेशल सेशन बुलाकर ‘गुड्स एण्ड सर्विसेज टैक्स’ (जीएसटी) लागू कर दिया और एक देश एक टैक्स जैसे भ्रामक नारे दिये। सरकार द्वारा इसको दूसरी आज़ादी घोषित कर दिया गया। लेकिन दूसरी आज़ादी के नाम पर देश की जनता की जेब पर भयंकर डाका डाला गया। जीएसटी चूँकि आय या सम्पत्ति पर नहीं, वस्तुओं और सेवाओं पर लगता है इसलिए इसका ज़्यादातर बोझ मेहनतकश जनता पर ही पड़ता है। ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के मुताबिक, देश की 50 प्रतिशत ग़रीब जनता जीएसटी का दो तिहाई भार उठाती है वहीं अमीर वर्ग मात्र 3 प्रतिशत जीएसटी देते हैं। भारत में अमीरी और ग़रीबी का अन्तर पहले से कहीं ज़्यादा गहरा होता जा रहा है। यह ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से भी बदतर है। आँकड़ों  के अनुसार, “शीर्ष 1 प्रतिशत के पास भारत की 40.1 प्रतिशत सम्पत्ति है। निचले 50 प्रतिशत के पास केवल 6.4 प्रतिशत है। शीर्ष 10 प्रतिशत राष्ट्रीय आय का 57.7 प्रतिशत से अधिक कमाते हैं।” यह स्पष्ट विभाजन दर्शाता है कि लगभग आधी आबादी न्यूनतम संसाधनों के साथ संघर्ष कर रही है, जबकि एक छोटा सा अभिजात वर्ग अच्छी-ख़ासी सम्पत्ति का आनन्द ले रहा है। देश में इस स्तर की असमानता की स्थिति में एक देश एक टैक्स जैसी नीति फ़ासिस्टों के जन विरोधी चरित्र को उजागर करती है।

मोदी जी केदिवाली गिफ़्टकी असलियत

भारत सरकार ने हालिया जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) में किये गये फेरबदल को “दिवाली गिफ़्ट” बताकर पेश किया है। 22 सितम्बर 2025 से लागू होने जा रहे (यह कितना लागू हो पायेगा यह भी देखना होगा) इस ढाँचे के तहत जीएसटी काउंसिल ने पहले की चार दरों—5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत और 28 प्रतिशत—को घटाकर दो मुख्य स्लैब में बदल दिया है: 5 प्रतिशत और 18 प्रतिशत। इसके साथ ही तथाकथित लक्ज़री और अहितकर वस्तुएँ (“sin” goods) पर नया 40 प्रतिशत का “डि-मेरिट” स्लैब भी जोड़ा गया है। याद रहे, चार की जगह दो नहीं अब तीन स्लैब हैं।

वित्त मन्त्रालय के अधिकारियों का दावा है कि इससे “कर प्रणाली सरल” होगी और आम परिवारों पर बोझ कम होगा। सवाल आना लाज़िमी है कि आख़िर अभी तक आम परिवारों के ऊपर बोझ क्यों लादा जा रहा था! जीएसटी दरों में कटौती असलियत में किसी ‘गिफ़्ट’ से ज़्यादा, केवल एक तकनीकी फेरबदल है, जो भारत की मौजूदा राजकोषीय संरचना को—जो पहले से ही नई आर्थिक नीतियों की दिशा में ढली हुई है—ज्यों का त्यों बनाये रखता है।

पहली नज़र में लगता है कि कुछ रोज़मर्रा की ज़रूरतें 5 प्रतिशत स्लैब में लायी गयी हैं, जबकि बड़ी संख्या में वस्तुएँ और सेवाएँ 18 प्रतिशत पर ही रहेंगी। 40 प्रतिशत दर लक्ज़री कार, कोल्ड ड्रिंक और तंबाकू जैसे उत्पादों पर लगायी जाएगी। लेकिन जीएसटी पर लगने वाले उपकर (सेस) बने रहेंगे, और उन्हें बढ़ाकर कई मामलों में दरों में कटौती का असर निष्फल किया जा सकता है। निर्मला ताई ने एलान किया है कि जीएसटी के दो स्लैब, 12 और 28 प्रतिशत ख़त्म कर दिए जाएँगे। लेकिन अब भी 12 प्रतिशत के स्लैब वाले कुछ मालों तथा सेवाओं पर 5 प्रतिशत कर लगेगा और अब तक जिन पर 28 प्रतिशत कर लगता था, उन पर 18 प्रतिशत कर लगेगा। सोचने वाली बात है कि पिछले आठ सालों से यह सरकार मानचित्र, चार्ट, ग्लोब, पेंसिल, शार्पनर, क्रेयॉन, अभ्यास पुस्तिकाएँ और नोटबुक जैसी शैक्षिक वस्तुओं पर 12 प्रतिशत जीएसटी ले रही थी। यही नहीं कैंसर सहित अन्‍य जीवन रक्षक दवाओं पर 12 प्रतिशत और थर्मामीटर पर 18 प्रतिशत जीएसटी ले रही थी। अभी भी ऑक्सीजन, थर्मामीटर, डायग्नोस्टिक किट, ज्योमेट्री बॉक्स, कलर बॉक्स और स्केच पेन आदि पर 5 प्रतिशत जीएसटी लेगी सरकार। तो मोदी जी के बड़े से दिवाली “गिफ़्ट” के डिब्बे के अन्दर जनता के लिये केवल झुनझुना है।

मनीकण्ट्रोल में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, कम्पनियों ने कहा है कि कुछ ख़ास प्रोडक्ट्स जैसे 5 रुपये के बिस्कुट, 10 रुपये के साबुन या 20 रुपये के टूथपेस्ट की क़ीमतें नहीं घटाई जायेंगी। कम्पनियों का कहना है कि “भारतीय ख़रीदार इन स्टैण्‍डर्ड क़ीमतों से अच्छी तरह से वाक़िफ़ हैं। इन सामानों को ख़रीदने के आदी हो चुके हैं। क़ीमत को 10 या 20 रुपये के बजाय 9 या 18 रुपये करने से उन्हें ‘कन्फ्यूजन’ होगा। इससे ख़रीदारी करने की उनकी आदत भी बिगड़ सकती है।” दिवाली गिफ़्ट के नाम पर जीएसटी दरों में हुए ये “सुधार” भी जनता तक पहुँच पायेंगे इसमें भी सन्देह है।

सच तो यह है कि जीएसटी में “सुधार” से कोई बुनियादी फ़र्क नहीं आयेगा और महँगाई दर में मामूली-सा अन्‍तर आयेगा, जबकि ज़रूरत यह थी कि इन अप्रत्‍यक्ष करों को समाप्‍त या लगभग समाप्‍त किया जाता, विशेष तौर पर उन वस्‍तुओं और सेवाओं पर जिनका उपयोग आम तौर पर आम मेहनतकश जनता करती है। शिक्षा, चिक‍ित्‍सा, आदि बुनियादी सुविधाओं और उनसे जुड़ी वस्‍तुओं व सेवाओं पर तो जीएसटी लगाने का कोई अर्थ ही नहीं है। मोदी सरकार ने उन्‍हें ख़त्‍म करने के बजाय उनमें मामूली-सी कमी की है और इसी का डंका बजाकर श्रेय लेने की कोशिश कर रही है।

जीएसटी दरों में कटौती की असली वजह

आने वाले छह महीनों के भीतर बिहार और प. बंगाल में चुनाव होने वाले हैं। 2024 के लोकसभा चुनावों में वोट चोरी करने के बावजूद भाजपा मुश्किल से  240 सीटें ही हासिल कर सकी थी, वहीं वोटों की चोरी का ख़ुलासा होने के बाद ज़मीन खिसकती नज़र आ रही है। स्वतन्त्रता दिवस पर मोदी ने ख़ूब झूठ बोले और जमकर लफ़्फ़ाजी की और दावा किया कि भाजपा के राज में विनिर्माण के क्षेत्र ने बहुत बड़े डग भरे हैं, जबकि सच्‍चाई यह है कि पिछले दस साल में जीडीपी के अनुपात के रूप में विनिर्माण क्षेत्र के हिस्से में भारी गिरावट आयी है और यह 17.5 फ़ीसद से गिरकर, 12.6 फ़ीसद रह गया है। भारत में असंगठित क्षेत्र में काम  करने वाली 93 प्रतिशत आबादी के पास न तो कोई आर्थिक सुरक्षा है और न ही कोई सामाजिक सुरक्षा। समाज का हर तबका छात्र, मज़दूर, स्कीम वर्कर्स आज महँगाई से त्रस्त है। गोदी मीडिया मोदी सरकार के पक्ष में माहौल तैयार करने की चाहे जितनी भी कोशिश कर ले, जनता अपनी ज़िन्दगी की रोज़मर्रा की तकलीफ़ों से समझ रही है।

जनता का गुस्सा कहीं सड़कों पर न फूट पड़े इसलिए फ़ासिस्ट सरकार को अपने आकाओं की लूट में से मामूली कटौती करनी पड़ रही है।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2025

 

 

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