क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 27 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त : खण्ड-2
अध्याय – 1 (जारी)
पूँजी के परिपथ (सर्किट)
अभिनव
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सम्पूर्णता में मुद्रा-पूँजी का परिपथ
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मुद्रा-पूँजी के परिपथ का सर्वाधिक विस्तार से अध्ययन आवश्यक था क्योंकि औद्योगिक या आम तौर पर उद्यमी पूँजी के रूप को सम्पूर्णता और सटीकता से मुद्रा-पूँजी का परिपथ ही प्रदर्शित करता है। पूँजीपति की पूँजी बाज़ार में सबसे पहले मुद्रा-रूप में ही प्रकट होती है, न कि माल-रूप में। न ही वह सीधे उत्पादक-पूँजी के तत्वों के रूप में पूँजीपति के हाथों में पहले से मौजूद होती है। इसलिए मुद्रा-पूँजी का परिपथ आम तौर पर पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को उसकी सम्पूर्णता में रेखांकित करता है। इसके बाद अगले अध्याय में हम संक्षेप में उत्पादक-पूँजी के परिपथ और माल-पूँजी के परिपथ का भी संक्षिप्त अध्ययन करेंगे क्योंकि पूँजीवादी पुनरुत्पादन की समूची प्रक्रिया को समझने के लिए यह अपरिहार्य है। लेकिन मुद्रा-पूँजी का परिपथ इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उत्पादक-पूँजी व माल-पूँजी के परिपथ मुद्रा-पूँजी के परिपथ के दुहराव से ही निकलते हैं। अब जबकि हम मुद्रा-पूँजी के परिपथ के तीनों चरणों को विस्तार से समझ चुके हैं, तो हम इस चर्चा का समाहार कर सकते हैं।
सबसे पहली बात यह है कि मुद्रा-पूँजी के परिपथ (सूत्र के लिए बाईं ओर दी गई इमेज देखें।) में हम मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया को स्पष्ट रूप में देखते हैं। इसमें सबसे पहले पूँजीपति अपनी मुद्रा-पूँजी से कुछ निश्चित माल, यानी उत्पादन के साधन और मज़दूरों की श्रमशक्ति को ख़रीदता है। इसके बाद, उत्पादक-पूँजी के तत्वों के तौर पर ये माल उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादक उपभोग से गुज़रते हैं। इसके नतीजे के तौर पर पूँजीपति के हाथों में उत्पादित माल होता है, जो अपने भौतिक रूप और मूल्य दोनों में ही मुद्रा-पूँजी द्वारा पहले चरण में ख़रीदे गये मालों से भिन्न होते हैं। वे श्रम प्रक्रिया और मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया से गुज़र चुके होते हैं। परिपथ का समापन इन उत्पादित मालों के बिकने और मुद्रा-रूप में मूल्य-संवर्धित पूँजी के वापस पूँजीपति के हाथों में लौटने से होता है। अगर हम केवल संचरण की श्रृंखला की बात करें तो यह पूँजी के आम सूत्र यानी M – C – M’ को ही चिह्नित करता है। लेकिन M – C – M’ का आम सूत्र व्यापारिक पूँजी पर भी लागू होता है, जो मालों के उत्पादन से अपने आप में कोई सरोकार नहीं रखती है। व्यापारी पहले माल को कम क़ीमत पर ख़रीदता है और फिर उसी माल को अधिक क़ीमत पर बेचता है। ख़रीद-क़ीमत और बिकवाली क़ीमत के अन्तर से ही उसका मुनाफ़ा आता है। चूँकि व्यापारिक पूँजी के सूत्र और औद्योगिक पूँजी के सम्पूर्ण परिपथ में, सिर्फ़ संचरण के आधार पर देखें, तो समानता दिखती है, यानी पूँजीपति जितना पूँजी-मूल्य निवेश में लगाता है, बिकवाली से उससे ज़्यादा मूल्य उसके पास मुद्रा-रूप में वापस आता है। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि औद्योगिक पूँजी का परिपथ व्यापारिक पूँजी के आम सूत्र में ही शामिल है, या उसके ही समान है।
लेकिन औद्योगिक पूँजी के परिपथ में M – C और C’ – M’ समतुल्यों का ही विनिमय होता है। यानी, सामाजिक तौर पर, M – C में और साथ ही C’ – M’ में मुद्रा और माल बराबर मूल्य के होते हैं और फिर भी C’ का मूल्य C से ज़्यादा होता है। यहाँ मुनाफ़ा व्यापारी और उत्पादक के बीच असमान विनिमय पर आधारित नहीं होता है। यह मूल्य-संवर्धन तभी समझा जा सकता है, जब हम मुद्रा-पूँजी के परिपथ के दूसरे चरण यानी P या उत्पादक-पूँजी के चरण को समझें। इस चरण में उत्पादक-पूँजी के तत्व यानी उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति उत्पादक उपभोग से गुज़रते हैं। इस प्रक्रिया में उत्पादन के साधनों का मूल्य ज्यों का त्यों उत्पादित माल में स्थानान्तरित होता है, जबकि श्रमशक्ति अपने मूल्य के बराबर मूल्य पैदा करने के अलावा बेशी मूल्य भी पैदा करती है। नतीजतन, मूल्य-संवर्धन होता है।
इसके अलावा, उत्पादन के साधनों में श्रम के उपकरणों का इस्तेमाल मज़दूर कच्चे माल पर कर उसका भौतिक रूप बदल देते हैं और एक ऐसा माल पैदा करते हैं जिसका उपयोग-मूल्य उन मालों से बिल्कुल भिन्न होता है, जिन मालों को शुरुआत में पूँजीपति ने अपनी मुद्रा-पूँजी से ख़रीदा था, यानी श्रमशक्ति और उत्पादन के साधन। इसलिए मार्क्स बताते हैं कि उत्पादक-पूँजी का चरण वास्तविक रूपान्तरण (real metamorphosis) का चरण है जबकि संचरण के दोनों चरण, पहला, जिससे मुद्रा-पूँजी का परिपथ शुरू होता है और, दूसरा, जिससे वह पूरा होता है, केवल रूपगत या औपचारिक रूपान्तरण (formal metamorphosis) के चरण होते हैं। उत्पादक-पूँजी के चरण में श्रम प्रक्रिया और मूल्य-संवर्धन प्रक्रिया के ज़रिये भौतिक रूप और मूल्य में भिन्न एक नया माल पैदा होता है और संचरण के दोनों ही चरणों में समतुल्यों का विनिमय होता है और मुद्रा माल का रूप ले लेती है या माल मुद्रा का रूप ले लेता है। यानी, संचरण के क्षेत्र में बदलाव केवल रूपगत होता है।
जो पूँजी संचरण और उत्पादन दोनों के चरणों से गुज़रती है, वही औद्योगिक या उद्यमी पूँजी होती है। संचरण के चरणों में वह माल-पूँजी या मुद्रा-पूँजी का रूप लेती है। उत्पादन के चरण में वह उत्पादक-पूँजी के तत्वों का रूप लेती है। इन चरणों से गुज़रते हुए पूँजी का मूल्य न सिर्फ़ क़ायम रहता है, बल्कि बढ़ता है। मुद्रा-पूँजी, माल-पूँजी व उत्पादक-पूँजी तीन अलग प्रकार की पूँजियाँ नहीं है, बल्कि वे प्रकार्यात्मक रूप हैं जो औद्योगिक पूँजी अपने परिपथ के विभिन्न चरणों से गुज़रते हुए लेती है। पूँजी का इन तीनों चरणों से बिना रुके गुज़रना अनिवार्य है। अगर प्रक्रिया पहले चरण में रुक जाती है, मुद्रा-पूँजी महज़ मुद्रा का एक ढेर बनकर रह जायेगी; अगर यह परिपथ दूसरे चरण में रुकता है तो उत्पादन के साधन बेकार पड़े रहेंगे और मज़दूर ख़ाली बैठे रहेंगे; अगर प्रक्रिया तीसरे चरण में रुक जाती है तो माल गोदाम में पड़े रह जायेंगे, बिकेंगे नहीं और संचरण की प्रक्रिया ही बाधित हो जायेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि हर चरण में पूँजी का अपना एक विशिष्ट रूप होता है और उस रूप में पूँजी को कुछ निश्चित प्रकार्य पूरे करने होते हैं। मुद्रा-पूँजी के तौर पर वह उन्हीं प्रकार्यों को पूरा कर सकती है जिनकी इजाज़त मुद्रा-रूप पूँजी को देता है; उसी प्रकार माल-पूँजी के रूप में वह उन्हीं प्रकार्यों को पूरा कर सकती है जो माल के प्रकार्य होते हैं और उत्पादक-पूँजी के तत्वों के रूप में वह उन्हीं प्रकार्यों को पूरा कर सकती है, जो यह रूप पूँजी को करने की अनुमति देता है। हर चरण में पूँजी कुछ समय तक रुकती है, इन प्रकार्यों को पूरा करती है और फिर एक नये रूप में अगले चरण में प्रवेश करती है।
मार्क्स बताते हैं कि अपने उदाहरण में हमने यह मान लिया था कि उत्पादन के साधनों का पूरा का पूरा मूल्य एक बार में ही उत्पादित माल में स्थानान्तरित हो जाता है। वास्तव में ऐसा बिरले ही होता है। उत्पादन की अधिकांश शाखाओं में उत्पादन के साधनों में से अचल पूँजी के तत्व, यानी इमारतें, मशीनरी, श्रम के अन्य उपकरण आदि एक बार में अपना समूचा मूल्य उत्पादित माल में स्थानान्तरित नहीं करते, बल्कि यह प्रक्रिया अंशों में होती है। इसकी गणना आसानी से की जा सकती है क्योंकि हर श्रम के उपकरण की उत्पादन की औसत दर से जारी प्रक्रिया में एक निश्चित दर पर घिसाई होती है और उसकी एक उम्र होती है। नतीजतन, उत्पादन के प्रत्येक चक्र में उत्पादन के ऐसे साधन कितना मूल्य माल में स्थानान्तरित करते हैं, हर पूँजीपति इसकी गणना करता ही है और अपने माल की क़ीमत में घिसाई-मूल्य (depreciation value) को शामिल करता है। इसलिए इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उत्पादन के साधन, विशेषकर श्रम के उपकरण व अवरचनागत तत्व अपना कितना मूल्य एक बार में माल में स्थानान्तरित करते हैं। मार्क्स लिखते हैं:
“हमारे उदाहरण में, उत्पादक पूँजी के मूल्य यानी 422 पाउण्ड में केवल कारखाना इमारत, मशीनरी, आदि की औसत आकलित घिसाई शामिल थी, और इस प्रकार उनके मूल्य का केवल वह हिस्सा शामिल था जो 10,000 एल.बी. कच्चे सूत को 10,000 एल.बी. सूत के धागों में, जो कि साठ घण्टों की एक सप्ताह जारी रहने वाली कताई की प्रक्रिया का उत्पाद है, तब्दील करने की प्रक्रिया के दौरान स्थानान्तरित होता है। उन उत्पादन के साधनों में, जिनमें स्थिर पूँजी को रूपान्तरित किया गया था, श्रम के उपकरण यानी इमारतें, मशीनरी, आदि, मानो इस प्रकार शामिल हुए थे जैसे उन्हें साप्ताहिक भुगतान के बदले में बाज़ार से किराये पर उठाया गया था। फिर भी, जहाँ तक मामले के सारतत्व का प्रश्न है, इससे कोई भी फ़र्क नहीं पड़ता है। हमें केवल 10,000 एल.बी. सूत के धागों के साप्ताहिक उत्पाद को दिये गये वर्षों की श्रृंखला से गुणा कर देना होगा, और उस दौर में ख़रीदे गये और ख़र्च हो गये श्रम के उपकरणों का पूरा मूल्य मालों में स्थानान्तरित हो चुका होगा।” (वही, पृ. 133-34, अनुवाद हमारा)
उत्पादक-पूँजी के चरण के पूर्ण हुए बिना पूँजीपति के हाथों में उत्पादित माल यानी C’ नहीं आ सकता है और उसके बिना वह उसे बेचकर बेशी मूल्य समेत अपने पूँजी-मूल्य को वापस प्राप्त नहीं कर सकता है और इस प्रकार मुनाफ़ा हासिल नहीं कर सकता है। लेकिन उत्पादन की सभी शाखाओं में माल कोई स्पर्श करने योग्य भौतिक रूप धारण नहीं करता है। मिसाल के तौर पर, संचार व परिवहन उद्योग में माल कोई उपयोगी भौतिक वस्तु नहीं बल्कि एक उपयोगी प्रभाव या सेवा होता है। मार्क्स यहाँ परिवहन उद्योग पर जो प्रेक्षण रखते हैं, उन्हें आज के दौर में तमाम उपयोगी सेवाओं पर लागू किया जा सकता है जो वास्तव में माल-उत्पादन ही हैं और इस प्रकार समाज में उत्पादक श्रम की श्रेणी में ही आती हैं। ज़ाहिर है, सभी सेवाएँ उत्पादक श्रम का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं, मसलन, बैंकिंग, बीमा, आदि। ये केवल उत्पादित मूल्य का पुनर्वितरण करती हैं, कोई नया मूल्य नहीं पैदा करतीं और न ही समाज की समृद्धि में कोई इज़ाफ़ा करती हैं। लेकिन परिवहन, संचार आदि की सेवाएँ निश्चित तौर पर मूल्य व उपयोग-मूल्य का उत्पादन करती हैं और उत्पादक श्रम की श्रेणी में आती हैं। आज ऐसे और भी कई माल हैं जो कोई स्पर्शनीय भौतिक वस्तु नहीं हैं, मसलन, सॉफ्टवेयर। लेकिन सॉफ्टवेयर उद्योग व परिवहन तथा संचार उद्योग में अन्तर है क्योंकि सॉफ्टवेयर उद्योग में माल का उत्पादन व उपभोग एक साथ घटित होने वाली प्रक्रिया नहीं हैं। मार्क्स परिवहन उद्योग के बारे में लिखते हैं:
“लेकिन परिवहन उद्योग जो चीज़ बेचता है वह स्वयं स्थान में होने वाला वास्तविक परिवर्तन है। उत्पादित होने वाला यह उपयोगी प्रभाव अभिन्न रूप से परिवहन की प्रक्रिया से, यानी, परिवहन उद्योग की विशिष्ट उत्पादन प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। लोग और माल परिवहन के माध्यम से एक साथ यात्रा करते हैं, और यह यात्रा, यानी परिवहन के साधन की स्थानिक गति ही परिवहन उद्योग द्वारा अंजाम दी जाने वाली उत्पादन प्रक्रिया है। इस उपयोगी प्रभाव का उपभोग उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान ही हो सकता है; यह इस प्रक्रिया से अलग किसी वस्तु के रूप में, एक ऐसी वस्तु के रूप में मौजूद ही नहीं होता, जो वाणिज्य की वस्तु के रूप में काम करती हो और केवल अपने उत्पादन के बाद ही माल के रूप में संचरित होती हो। लेकिन इस उपयोगी प्रभाव का विनिमय मूल्य किसी भी अन्य माल के समान उसमें ख़र्च होने वाले उत्पादन के तत्वों के मूल्य (श्रमशक्ति और उत्पादन के साधन) और परिवहन उद्योग में लगे मज़दूरों के बेशी श्रम से पैदा होने वाले बेशी मूल्य के योग से ही निर्धारित होता है। अपने उपभोग के मामले में भी यह उपयोगी प्रभाव बिल्कुल अन्य मालों के समान ही बर्ताव करता है। अगर इसका व्यक्तिगत उपभोग होता है, तो इसका मूल्य इसके उपभोग के साथ ही समाप्त हो जाता है; अगर इसका उत्पादक उपभोग होता है, जिसके कारण यह स्वयं उस माल के उत्पादन का एक चरण है जिसका परिवहन हो रहा है, तो इसका मूल्य उस माल के मूल्य में जुड़ जाता है। इस प्रकार परिवहन उद्योग के लिए सूत्र हो जाता है (सूत्र के लिए बाईं ओर दी गई इमेज देखें।) क्योंकि यह उत्पादन की प्रक्रिया से अलग कोई उत्पाद नहीं बल्कि स्वयं उत्पादन की प्रक्रिया ही है जिसके लिए भुगतान किया जाता है और जिसका उपभोग होता है। इसलिए इसका रूप लगभग बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि क़ीमती धातुओं के उत्पादन का होता है, सिवाय इस बात के कि M’ यहाँ उस उत्पादन की प्रक्रिया में पैदा हुए उपयोगी प्रभाव का रूपान्तरित रूप है, न कि सोने या चाँदी का प्राकृतिक रूप जो कि इस प्रक्रिया में पैदा होता है और उससे निकलता है।” (वही, पृ. 135, अनुवाद और ज़ोर हमारा)
यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह केवल औद्योगिक पूँजी ही है जिसका प्रकार्य न सिर्फ़ बेशी उत्पाद या बेशी मूल्य का विनियोजन करना है, बल्कि बेशी उत्पाद व बेशी मूल्य का उत्पादन करना भी है। यानी, औद्योगिक पूँजी का आधार ही उजरती श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध और इसलिए सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग का अन्तरविरोध है। क्योंकि पूँजीवादी उत्पादन का अर्थ ही यह है कि इसमें एक ओर उत्पादन के साधनों का स्वामी वर्ग खड़ा होता है और दूसरी ओर उत्पादन के साधनों व उपभोग के साधनों से पूर्ण रूप से वंचित सर्वहारा वर्ग होता है, और वे औपचारिक समानता के साथ बाज़ार में मिलते हैं। पूँजीपति वर्ग सर्वहारा वर्ग की श्रमशक्ति उजरत के बदले ख़रीदता है और उसके शोषण के ज़रिये पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया, यानी बेशी मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है।
दूसरी बात यह है कि औद्योगिक पूँजी (उद्यमी पूँजी) के प्रभुत्व के स्थापित होने के बाद उससे पहले अस्तित्व में आये पूँजी के रूप, मसलन व्यापारिक पूँजी और सूदखोर पूँजी, उसके ही मातहत हो जाते हैं और उनकी कार्य-प्रणाली में भी उसके अनुसार बदलाव हो जाते हैं। वास्तव में, अब व्यवसाय की अलग शाखा के तौर पर व्यापारिक पूँजी व सूदखोर पूँजी स्वायत्त नहीं रह जाते बल्कि वे औद्योगिक पूँजी द्वारा संचरण के क्षेत्र में अपनाये जाने वाले विभिन्न रूपों की नुमाइन्दगी मात्र करते हैं। ये महज़ पूँजीपति वर्ग के अन्दरूनी श्रम विभाजन को दिखलाते हैं। व्यापारिक पूँजी का काम होता है औद्योगिक पूँजी द्वारा उत्पादित मालों के विपणन की प्रक्रिया को केन्द्रीकृत करना, सुचारू बनाना और उसकी लागत को कम करना और बदले में औद्योगिक पूँजीपति द्वारा विनियोजित बेशी मूल्य के एक हिस्से को व्यापारिक मुनाफ़े के रूप में प्राप्त करना। दूसरी ओर, मुद्रा-पूँजी में व्यवसाय करने वाले वित्तीय पूँजीपति का अस्तित्व भी औद्योगिक पूँजी द्वारा किये जाने वाले पूँजी संचय पर ही निर्भर करता है, हालाँकि पूँजी के संघनन और संकेन्द्रण के साथ वित्तीय पूँजी की भूमिका पूँजीवादी उत्पादन में बढ़ती जाती है।
औद्योगिक या उद्यमी पूँजी का परिपथ वास्तव में मालों के आम संचरण का ही एक हिस्सा होता है। लेकिन हरेक उद्यमी पूँजी इस आम संचरण के भीतर अपने विशिष्ट परिपथ को बनाये रखती है। उसके परिपथ का पहला और अन्तिम चरण संचरण के क्षेत्र में ही घटित होते हैं, यानी M – C और C’ – M’। लेकिन यहाँ भी उनका विशिष्ट पूँजीवादी चरित्र स्पष्ट होता है क्योंकि पहले चरण में C के तत्व वास्तव में उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति होते हैं, जो उत्पादक उपभोग में जाते हैं। वहीं दूसरे चरण में C’ बेशी मूल्य से लदे उत्पादित मालों की नुमाइन्दगी करता है, जो इसके विशिष्ट पूँजीवादी चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार उद्यमी पूँजी का परिपथ मालों के आम संचरण का अंग होते हुए भी, अपनी विशिष्टता को बरक़रार रखता है। जहाँ तक उत्पादन के चरण यानी मुद्रा-पूँजी के परिपथ के दूसरे चरण का सवाल है, तो उसका पूँजीवादी चरित्र आरम्भ से ही स्पष्ट होता है, जहाँ उजरती श्रम के पूँजीपति द्वारा शोषण के ज़रिये बेशी मूल्य का उत्पादन होता है। अन्त में, पूँजीपति द्वारा निवेशित पूँजी-मूल्य बेशी मूल्य समेत अपने मूल रूप, यानी मुद्रा-रूप में पूँजीपति के पास वापस आ जाता है, यानी पूँजीपति मुनाफ़े समेत अपने द्वारा निवेशिक पूँजी को रिकवर कर लेता है।
इस प्रकार, मुद्रा-पूँजी के इस परिपथ के बारे में जो पहली अहम बात है वह यह है कि यह मुद्रा के रूप में पूँजी के प्रवेश से शुरू होता है और फिर मुद्रा के ही रूप में मुनाफ़े समेत पूँजी के वापस पूँजीपति के हाथों में पहुँचने के साथ समापन पर पहुँचता है। (सूत्र के लिए बाईं ओर दी गई इमेज देखें।) को देखते ही जो बात स्पष्ट हो जाती है वह यह कि यहाँ मुद्रा पूँजी के रूप में निवेशित की जा रही है, न कि सामान्य रूप में व्यक्तिगत उपभोग के लिए ख़र्च की जा रही है। पूँजीवादी उत्पादन का लक्ष्य विनिमय मूल्य है, न कि उपयोग मूल्य। चूँकि उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़रे बिना “पैसे से पैसा बनाना” सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ उत्पादन का चरण एक अनिवार्य व्यवधान के रूप में प्रकट होता है। पूँजीपति के हिसाब से तो सबसे बेहतर यही होता कि इस “व्यवधान” से गुज़रे बिना ही मुनाफ़ा बटोर लिया जाय। सूदखोर पूँजीपति को ऐसा लगता भी है वह तो बस पैसे से पैसा बना रहा है; व्यापारिक पूँजीपति को भी यह प्रतीत होता है कि वह सस्ता ख़रीदकर महँगा बेच रहा है और इस चतुराई से ही उसका मुनाफ़ा पैदा हो रहा है। लेकिन यह वास्तविकता किसी न किसी स्तर पर हर पूँजीपति को पता चल ही जाती है कि उत्पादन के इस अनिवार्य व्यवधान के बिना “पैसे से पैसा” नहीं बनाया जा सकता है। बहरहाल, चूँकि यह परिपथ मुद्रा से शुरू होकर अधिक मात्रा में मुद्रा पर समाप्त होता है, इसलिए यह पूँजीवादी उत्पादन के लक्ष्य को सबसे स्पष्ट रूप में दिखलाता है : मुनाफ़ा हासिल करना। उत्पादक-पूँजी के परिपथ और माल-पूँजी के परिपथ (जिनका हम आगे अध्ययन करेंगे) में पूँजीवादी उत्पादन का यह लक्ष्य उस स्पष्टता के साथ प्रकट नहीं होता है। P…P या C’…C’ में हमें परिपथ के दोनों छोरों पर अनिवार्यत: मूल्य का इज़ाफ़ा नज़र नहीं आता। M…M’ में मूल्य-संवर्धन और बेशी मूल्य का उत्पादन स्पष्ट तौर पर उत्पादन व संचरण के लक्ष्य के तौर पर नज़र आते हैं। मार्क्स लिखते हैं:
“एक ओर यह M…M’ सूत्र की चारित्रिक विशिष्टता है कि पूँजी-मूल्य आरम्भ-बिन्दु है और मूल्य-संवर्धित पूँजी वापसी का बिन्दु है, जिससे कि पूँजी-मूल्य का निवेश एक ज़रिये के रूप में प्रकट होता है, जबकि मूल्य-संवर्धित पूँजी-मूल्य समूची कार्रवाई के लक्ष्य के रूप में प्रकट होता है; दूसरी ओर, यह सम्बन्ध मुद्रा-रूप में अभिव्यक्त होता है, यानी स्वतन्त्र मूल्य-रूप में, और इस प्रकार मुद्रा-पूँजी के रूप में, मुद्रा पैदा करने वाली मुद्रा के रूप में अभिव्यक्त होता है। मूल्य द्वारा बेशी मूल्य का पैदा होना यहाँ न सिर्फ़ प्रक्रिया के आरम्भ और अन्त के रूप में अभिव्यक्त होता है, बल्कि यह चमकते-दमकते मुद्रा-रूप में स्पष्ट रूप में पेश किया जाता है।” (वही, पृ. 138, अनुवाद हमारा)
और इसी से जुड़ी दूसरी बात यह है कि मुद्रा-पूँजी के परिपथ में मज़दूर और पूँजीपति दोनों का ही व्यक्तिगत उपभोग महज़ अन्तर्निहित रूप में प्रकट होता है। यह परिपथ अपने आप में मज़दूर और पूँजीपति दोनों के ही व्यक्तिगत उपभोग के बारे में कुछ नहीं बताता। मसलन, M – C<lmp में यह निहित है कि पूँजीपति परिवर्तनशील पूँजी को मज़दूरी के रूप में मज़दूर को देता है और उसकी श्रमशक्ति ख़रीदता है, यानी M – L को अंजाम देता है। लेकिन हम देख चुके हैं कि मज़दूर के लिए यह L – M होता है, यानी अपने विशिष्ट माल यानी श्रमशक्ति को पूँजीपति ख़रीदार को बेचना। इससे प्राप्त मुद्रा से मज़दूर अपनी जीविकोपार्जन के लिए अनिवार्य वस्तुओं और सेवाओं को ख़रीदता है। यानी उसके लिए सूत्र होता है L – M – C या C – M – C (क्योंकि L भी पूँजीवादी समाज में एक विशिष्ट माल ही होता है)। लेकिन मुद्रा-पूँजी का परिपथ इस व्यक्तिगत उपभोग को अभिव्यक्त नहीं करता। मज़दूर का व्यक्तिगत उपभोग मुद्रा-पूँजी के परिपथ का अनिवार्य नतीजा अवश्य होता है और इस रूप में इसमें अन्तर्निहित होता है, लेकिन यह उसमें अभिव्यक्त नहीं होता। ज़ाहिर है, मज़दूर द्वारा उसकी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन पूँजीवादी पुनरुत्पादन की एक पूर्वशर्त है।
साथ ही यह भी स्पष्ट है कि पूँजीपति को भी जीवित रहने के लिए व्यक्तिगत उपभोग करना होता है। लेकिन M’ (M + m) में से, यानी मूल्य-संवर्धित पूँजी के बेशी मूल्य के हिस्से यानी m से वह जितना हिस्सा उपभोग के लिए निकालता है, वह वास्तव में अगले चक्र में उसके द्वारा पूँजी निवेश के निर्णय पर निर्भर करता है, न कि कोई स्वतन्त्र निर्णय होता है। दूसरे शब्दों में, पूँजीपति भी मनमाना उपभोग नहीं करता, बल्कि उसके व्यक्तिगत उपभोग की मात्रा उसके निवेश के निर्णय पर निर्भर करती है। ज़ाहिर है, इसके बावजूद वह एक ऐशो-आराम और ऐय्याशी का जीवन व्यतीत कर सकता है और करता ही है। लेकिन उसके उपभोग के परिमाण की सीमाएँ उसके पुनरुत्पादन के पैमाने और निवेश के निर्णयों पर निर्भर करती हैं और उसी से निर्धारित होती हैं। पूँजीवादी अर्थशास्त्री पूँजीपतियों को अपने उपभोग को न्यूनातिन्यून की सीमा पर रखने की हिदायतें देते हैं ताकि संचय की दर को अधिक से अधिक बढ़ाया जा सके। कुछ यह भी कहते हैं कि पूँजीपति तो बस एक प्रबन्धन मज़दूर के तौर पर अपना वेतन लेता है! यह दीगर बात है कि उसका वेतन मज़दूर की मज़दूरी के समान तय नहीं होता, बल्कि बढ़ती-घटती मुनाफ़े की दर के अनुसार बढ़ता-घटता है और इसके लिए उसे कोई उत्पादक श्रम नहीं करना पड़ता! इस मज़ाकिया बातों पर देर तक गम्भीरता के साथ विचार नहीं किया जा सकता है।
ख़ैर, जो भी हो, पूँजीपति का व्यक्तिगत उपभोग भी M…M’ के परिपथ द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता, बस इसमें अन्तर्निहित होता है। जहाँ यह परिपथ समाप्त होता है, वहाँ से इसका नया चक्र बढ़ी हुई संचित पूँजी के साथ शुरू हो सकता है, या अगर पूँजीपति समूचे बेशी मूल्य को व्यक्तिगत उपभोग में ख़र्च कर दे तो फिर उसके बिना, यानी पहले जितनी ही पूँजी के निवेश होने के साथ शुरू हो सकता है। लेकिन नया परिपथ M से ही शुरू होता है, M’ से नहीं क्योंकि नया परिपथ किस स्तर पर शुरू होगा या कोई पूर्वप्रदत्त तथ्य नहीं होता बल्कि, मुख्यत: और मूलत:, मुनाफ़े की औसत दर और लाभप्रदता की आम गति पर निर्भर करता है। मुद्रा-पूँजी के हर नये परिपथ में पिछले परिपथ में विनियोजित बेशी मूल्य के चिह्न लुप्तप्राय हो जाते हैं। साथ ही, मुद्रा-पूँजी के परिपथ के अन्तिम चरण यानी C’ – M’ के साथ जो माल उपभोग हेतु बाज़ार में ख़रीदे जाते हैं, वे इस मुद्रा-पूँजी के परिपथ से बाहर चले जाते हैं और उपभोग के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। यह उपभोग मुद्रा-पूँजी के परिपथ का हिस्सा नहीं होता।
जैसा कि हमने ऊपर बताया, मुद्रा-पूँजी का परिपथ मालों के आम संचरण का एक अंग होता है। जब पूँजीपति अपनी पूँजी का निवेश कर श्रमशक्ति और उत्पादन के साधनों को ख़रीदता है, तो वह मालों के आम संचरण में हस्तक्षेप करता है। उसी प्रकार, वह अपना उत्पादित माल बेचने का काम भी मालों के आम संचरण के क्षेत्र में ही करता है। निश्चय ही, हर औद्योगिक पूँजी मालों के आम संचरण में अपने विशिष्ट चरित्र को क़ायम रखती है और पूँजीवादी उत्पादन की एक विशिष्ट प्रक्रिया को अंजाम देकर ही बेशी मूल्य का उत्पादन करती है। लेकिन इस पूँजीवादी उत्पादन की स्थितियाँ संचरण के क्षेत्र में ही बनती हैं, क्योंकि वहीं से उत्पादन के तत्व यानी उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति ख़रीदी जाती है और वहीं पर उत्पादित मालों को बेचा जाता है, जिससे कि मूल्य-संवर्धित पूँजी वापस पूँजीपति के पास आती है और वह पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को जारी रख पाता है। इसीलिए मार्क्स ने कहा था कि पूँजी संचरण के क्षेत्र में पूँजी बनती है लेकिन वह संचरण के क्षेत्र से पूँजी नहीं बनती, बल्कि उत्पादन के क्षेत्र से पूँजी बनती है। इसका अर्थ यह है कि मूल्य व बेशी मूल्य के उत्पादन की कार्रवाई उत्पादन के क्षेत्र में ही होती है, लेकिन इस उत्पादन की पूर्वशर्तें संचरण के क्षेत्र में ही पूरी होती हैं (क्योंकि उत्पादन के तत्व पूँजीपति को बाज़ार में ही मिलते हैं) और मूल्य व बेशी मूल्य के वास्तवीकरण का काम भी संचरण के क्षेत्र में ही पूरा होता है (क्योंकि उत्पादित माल बाज़ार में ही बिकता है)। इस द्वन्द्व को न समझने के कारण कई राजनीतिक अर्थशास्त्री और यहाँ तक कि कई तथाकथित मार्क्सवादी अर्थशास्त्री गम्भीर भूलें करते हैं। इसलिए यह समझना अनिवार्य है कि मूल्य और बेशी मूल्य के उत्पादन के बिना उनके वास्तवीकरण का और संचरण का प्रश्न ही अप्रासंगिक हो जाता है और इसलिए उत्पादन की स्थितियाँ ही संचरण की स्थितियों को निर्धारित करती हैं। साथ ही, संचरण का क्षेत्र भी उत्पादन के क्षेत्र को प्रभावित करता है क्योंकि पूँजीवादी उत्पादन व पुनरुत्पादन की निश्चित पूर्वशर्तें संचरण के क्षेत्र में ही पूरी होती हैं। मार्क्स लिखते हैं:
“यह तथ्य कि पहला चरण M – C है, यह दिखलाता है कि माल बाज़ार में उत्पादन पूँजी के संघटक तत्वों का मूल क्या है। यह इस बात को भी प्रदर्शित करता है कि पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया की स्थितियाँ संचरण, व्यापार द्वारा तैयार की जाती हैं। मुद्रा-पूँजी का परिपथ केवल माल उत्पादन ही नहीं है; यह संचरण के ज़रिये ही अस्तित्व में आता है और उसका ही पूर्वानुमान करता है। यह बात पहले ही इस तथ्य से सिद्ध हो जाती है कि M का रूप जो कि संचरण के क्षेत्र से ही जुड़ा है निवेश किये जाने वाले पूँजी-मूल्य के पहले और शुद्ध रूप में प्रकट होता है, जो कि परिपथ के अन्य दो रूपों पर लागू नहीं होता है।” (वही, पृ. 140, अनुवाद और ज़ोर हमारा)
बहरहाल, आम तौर पर समूची सामाजिक पूँजी और उसके पुनरुत्पादन को समझने के लिए और साथ ही वैयक्तिक पूँजियों के पुनरुत्पादन को समझने के लिए मुद्रा-पूँजी का परिपथ ही सबसे उपयुक्त होता है, क्योंकि इसमें ही पूँजीवादी उत्पादन का लक्ष्य स्पष्ट तौर पर प्रकट और अभिव्यक्त होता है, यानी बेशी मूल्य का उत्पादन, पैसे से और अधिक पैसा बनाना, मुद्रा-पूँजी की एक मात्रा का निवेश करना और फिर उससे भी ज़्यादा मात्रा में मुद्रा-पूँजी को हासिल करना।
लेकिन अपने आप में देखने पर (सूत्र के लिए बाईं ओर दी गई इमेज देखें।) का एक भ्रामक चरित्र भी होता है। यहाँ परिपथ मूल्य के सार्वभौमिक व स्तवन्त्र रूप यानी मुद्रा के रूप से शुरू होता है और अन्त में मूल्य-संवर्धित पूँजी को मुद्रा के रूप में ही पूँजीपति हासिल करता है। जो बात इसमें सबसे ज़्यादा रेखांकित होती है वह उत्पादन की प्रक्रिया द्वारा मूल्य व बेशी मूल्य का पैदा होना नहीं है। वह वास्तव में यह मुद्रा-रूप है, जिसमें पूँजी-मूल्य का निवेश किया जाता है और जिसमें मूल्य-संवर्धित पूँजी को वापस प्राप्त किया जाता है। लेकिन जैसे ही हम पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को सतत् जारी और दुहराई जाने वाली प्रक्रिया के रूप में देखते हैं वैसे ही यह स्पष्ट हो जाता है कि पूँजी-मूल्य का मुद्रा-रूप भी उतना ही अस्थायी है, जितना कि इस माल-रूप। अगर हम मुद्रा-पूँजी के परिपथ को बार-बार दुहराई जाने वाली प्रक्रिया के रूप में देखते हैं, तो वह कुछ ऐसे प्रकट होती है:
जैसे ही हम इस जारी प्रक्रिया पर क़रीबी निगाह डालते हैं हम समझ जाते हैं कि पूँजीवादी पुनरुत्पादन की जारी प्रक्रिया में हम पूँजी के तीन परिपथों को देख सकते हैं। पहला, मुद्रा-पूँजी का परिपथ यानी M…M’, जिसकी विशिष्टताओं पर हम विस्तार में चर्चा कर चुके हैं। दूसरा, उत्पादक-पूँजी का परिपथ यानी P…P जो मुद्रा-पूँजी के दूसरे परिपथ के पूरा होने से पहले ही प्रकट हो जाता है। तीसरा, माल-पूँजी का परिपथ यानी C’…C’; यह भी मुद्रा-पूँजी के दूसरे परिपथ के पूरा होने के पहले ही प्रकट हो जाता है। जब इस प्रक्रिया को एक सतत् जारी प्रवाह के रूप में देखा जाता है, तो हम देखते हैं कि पूँजी-मूल्य हर रूप अस्थायी व क्षणभंगुर है, चाहे वह माल-पूँजी का हो, मुद्रा-पूँजी का हो या फिर उत्पादक-पूँजी का हो। वह आता है और गुज़र जाता है। अपने मूल्य-संवर्धन को जारी रखने के लिए पूँजी-मूल्य को अपनी पोशाकों को बदलते रहना होता है, कभी वह मुद्रा-पूँजी के रूप में मौजूद होती है, कभी उत्पादक-पूँजी के तत्वों के रूप में तो कभी उत्पादित माल-पूँजी के रूप में।
मुद्रा-पूँजी का परिपथ औद्योगिक पूँजी के आम रूप को सटीकता से प्रदर्शित करता है क्योंकि पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया के स्थापित प्रभुत्व को दिखलाता है। वजह यह कि उत्पादन के साधनों के पूँजी के तत्व बने बग़ैर और प्रत्यक्ष उत्पादकों के उजरती मज़दूर बने बग़ैर इस परिपथ का पहला चरण भी सम्भव नहीं है। दूसरी बात, यह परिपथ पूँजीवादी उत्पादन के लक्ष्य यानी बेशी मूल्य के उत्पादन को स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित करता है। तीसरी बात, यह पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के अन्तरविरोध और उसके पीछे खड़े बुनियादी अन्तरविरोध, यानी श्रम और पूँजी के अन्तरविरोध को साफ़ तौर पर दिखलाता है। यानी, यह पूँजीवादी उत्पादन-पद्धति द्वारा निर्धारित होने वाली समूची सामाजिक संरचना या समाज को प्रदर्शित करता है।
लेकिन यदि हमें पूँजीवादी पुनरुत्पादन की स्थितियों को सम्पूर्णता में समझना है, तो हमें उत्पादक-पूँजी के परिपथ (सूत्र के लिए बाईं ओर दी गई इमेज देखें।) और माल-पूँजी के परिपथ (सूत्र के लिए दाईं ओर दी गई इमेज देखें।)
को भी समझना होगा। इसके बिना, हम उन स्थितियों को नहीं समझ सकते हैं जिनमें पूँजीवादी पुनरुत्पादन होता है और साथ ही उन स्थितियों को जिनमें यह पुनरुत्पादन नहीं हो पाता और पूँजीवादी उत्पादन संकटग्रस्त हो जाता है। वास्तव में, सम्पूर्णता में देखें तो मार्क्स पूँजी के दूसरे खण्ड में इसी बुनियादी सवाल का जवाब देते हैं : पूँजीवादी पुनरुत्पादन की स्थितियाँ और साथ ही वे स्थितियाँ जिनमें पूँजीवादी पुनरुत्पादन नहीं हो पाता। कहने की आवश्यकता नहीं है कि अगर पूँजीवादी पुनरुत्पादन की स्थितियों की पहचान कर ली जाय तो संकट की स्थितियों की भी पहचान हो जाती है क्योंकि पूँजीवादी आर्थिक संकट और कुछ नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा अपने आपको पुनरुत्पादित कर पाने की सामान्य या आम असफलता का ही दूसरा नाम है।
(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, जून 2025