हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल

भारत

आज भारत में मज़दूर आन्दोलन देश स्तर पर बिखराव का शिकार है। क्रान्ति की शक्तियों पर प्रतिक्रान्ति की शक्तियाँ हावी हैं। यह सच्चाई है, जिसे समझकर ही हम मज़दूर आन्दोलन को फिर से खड़ा कर सकते हैं। लेकिन इस बिखराव के बावजूद मज़दूरों के स्वत:स्फूर्त संघर्ष अविराम जारी हैं। इन बिखरे स्वत:स्फूर्त संघर्षों को संगठित करने का काम ही आज मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी का प्रमुख कार्य है। लेकिन तमाम विजातीय प्रवृत्तियों (यानी मज़दूर आन्दोलन के भीतर मौजूद वे प्रवृत्तियाँ जो मज़दूर वर्ग नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करती हैं) का समय-समय पर मज़दूर आन्दोलन में उभार होता है, जिसके चलते आन्दोलन बिखरता रहता है। मालिकों का वर्ग इन्हीं रुझानों के ज़रिये हमारे और हमारे आन्दोलनों के भीतर घुसपैठ करता है। हाल-फिलहाल में भी इस तरह के कई मज़दूर संघर्ष हुए जो सही राजनीति, नेतृत्व व दिशा के अभाव में किसी न किसी शर्मनाक समझौते पर ही ख़त्म हुए या उसी ओर बढ़ रहे हैं। इस लेख में हम हाल में हुए इन आन्दोलनों और इनके बिखराव के कारणों पर बात करेंगे। इन आन्दोलनों का विश्लेषण करने से पहले संक्षिप्त में यह बात कर लेते हैं कि आज मज़दूर आन्दोलन के बिखराव के वस्तुगत कारण क्या हैं!

पिछले लम्बे अरसे से मज़दूर आन्दोलन जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उसके वस्तुगत और मनोगत दोनों ही कारण हैं। वस्तुगत इस तौर कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर वर्ग पर मालिकों के वर्ग और उनकी पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा चौतरफ़ा हमले होते रहते हैं। मालिकों-पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करने वाली तमाम सरकारें और पूरी की पूरी पूँजीवादी राज्य मशीनरी मज़दूरों के शरीर से ख़ून का आख़िरी क़तरा भी निचोड़ लेने के लिए और उसे मुनाफ़े में तब्दील करने के लिए तमाम मज़दूर-विरोधी नीतियाँ और क़ानून बनाती और लागू करती हैं। भारत में 2014 में फ़ासीवादी मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद से तो यह सिलसिला बेतहाशा तेज़ी से आगे बढ़ा है। आज पहले के मुक़ाबले पूँजी की ताक़तें मज़दूर वर्ग पर और अधिक हावी हैं। पूँजीपति वर्ग के मोदी-शाह की फ़ासीवादी सरकार के दौर में तेज़ हुए हमलों के समक्ष मज़दूर वर्ग अभी कोई प्रभावी प्रतिरोध नहीं कर पा रहा है। साथ ही, पिछले 3-4 दशकों में निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों के कारण श्रम के अनौपचारिकीकरण, कारखानों के छोटे होते आकार और सरकार का खुलकर धन्नासेठों के पक्ष में आ खड़ा होना वे अन्य वस्तुगत कारण हैं, जिनके कारण मज़दूर आन्दोलन के सामने पहले से गम्भीर चुनौतयाँ मौजूद हैं।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद मनोगत प्रवृत्तियों को समझने के लिए हाल में हुए आन्दोलनों पर नज़र डालते हैं। बीते सितम्बर-अक्टूबर में मुख्यत: तीन आन्दोलन हुए, जिनपर हम बात करेंगे। पहला, वेतन बढ़ाने व यूनियन गठन करने को लेकर तमिलनाडु में सैमसंग के मज़दूरों की हड़ताल 7 सितम्बर से शुरू हुआ। एक महीने तक यह हड़ताल सीटू के नेतृत्व में जारी रही और अन्त में कुछ मामूली वेतन में बढ़ोत्तरी, हड़ताली मज़दूरों को काम से न निकालने और कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई न होने के आश्वासन के साथ यह हड़ताल एक समझौते के रूप में ख़त्म हो गयी। यूनियन बनाने की माँग को सैमसंग प्रबन्धन ने नहीं माना और इसपर कोर्ट में सुनवाई जारी है। यहाँ 1723 परमानेन्ट मज़दूर काम करते हैं, जिसमें से 1350 मज़दूर हड़ताल में शामिल थे। बाक़ी ठेके पर कार्यरत मज़दूर आन्दोलन में शामिल नहीं थे, क्योंकि कोई भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशन उन्हें कभी संगठित करने का प्रयास ही नहीं करता; यह इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशनों का सरकार से एक प्रकार का समझौता है कि ठेका व अस्थायी मज़दूरों को वे नहीं छुएँगी। सीटू ने इस पूरे संघर्ष को गड्ढे में धकेलने का काम किया, जो किसी भी तरह से समझौता करवाने पर आमादा थी। बता दें कि सीपीएम ने तमिलनाडु की स्टालिन सरकार को भी अपना समर्थन दिया हुआ है जो जी-जान से हड़ताल को तोड़ने में सैमसंग प्रबन्धन के साथ लगी हुई थी। लाल झण्डे की आड़ में ये संशोधनवादी मज़दूरों के बीच में मालिकों और पूँजीपतियों के घुसपैठिये और लफ़्फ़ाज़ होते हैं। संसद में बैठे इनके बड़े नेता मज़दूर-हितों पर भाषण देने के अलावा सारी मज़दूर-विरोधी नीतियों के बनने में साथ देते हैं। दूसरी तरफ़ निचले स्तरों पर इन यूनियनों के नेता मज़दूरों से कमीशन तो खाते ही हैं, समझौते के नाम पर मालिकों से भी पैसा लेते है। चुनावी पार्टियों से जुडी ट्रेड यूनियनें ज़्यादा से ज़्यादा एक दिन की रस्मी हड़तालें ही करती हैं। और वह भी इसलिए कि वह भी संगठित क्षेत्र के 7-8 प्रतिशत मज़दूरों के बीच उनकी कुछ ज़मीन बची रहे। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों यानी ठेका, केजुअल, एप्रेन्टिस मज़दूरों की माँग इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर जगह पाती है और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। यह तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन मज़दूर वर्ग से गद्दारी के रास्ते पर बहुत आगे जा चुके हैं।

(सैमसंग आन्दोलन में भी सीटू की गद्दारी के बारे में विस्तार से जानने के लिए मज़दूर बिगुल का अक्टूबर, 2024 का अंक देखे)

दूसरा आन्दोलन उत्तराखण्ड के पंतनगर में अक्टूबर में शुरू हुआ। मज़दूर काम से निकाले जाने, न्यूनतम वेतन, बोनस आदि जैसे श्रम क़ानूनों को लागू करवाने हेतु संघर्षरत थे। यह संघर्ष क़रीब दो महीने चला और आख़िरी के 37 दिनों में कई मज़दूर आमरण अनशन कर रहे थे। बीते 26 नवम्बर को स्थानीय भाजपा विधायक के आश्वासन के बाद इस आन्दोलन को वापस ले लिया गया। अभी तक न तो सभी मज़दूरों को काम पर वापस लिया गया है और न ही अभी तक इस कम्पनी में श्रम क़ानूनों को लागू किया गया है। वहीं निराशा में कई मज़दूरों ने अब कम्पनी से अपना हिसाब भी ले लिया है। यही दर्शाता है यह आन्दोलन वैचारिक तौर पर कितना कमज़ोर था। इस पूरे आन्दोलन में अपने आपको मज़दूरों का “इन्क़लाबी केन्द्र” बताने वाला संगठन भी शामिल था। यह आन्दोलन अपने हर चरण में भटकाव का ही शिकार रहा। इसलिए कभी धनी किसानों के संगठनों के दम पर आन्दोलन में जान फूँकने कि कोशिश होती, तो कभी अन्य चुनावबाज़ पार्टियों तक से भी आन्दोलन में शामिल होने की अपील की जाती रही। इस पूरे आन्दोलन में इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र की भागीदारी प्रमुखता से रही। इसने इनकी वैचारिक दरिद्रता को पुख़्ता कर दिया और दुबारा यह स्पष्ट हो गया किसी आन्दोलन को नेतृत्व देने के बजाय स्वत:स्फूर्तता का पिछलग्गू बनना ही इनका “इन्क़लाब” है। अपने आप को “इन्क़लाबी” बताने वाला यह संगठन मज़दूर आन्दोलन में जुझारू अर्थवाद का ही पैरोकार है। इससे पहले गुड़गाँव में चले बेलसोनिका के आन्दोलन को भी इस संगठन ने अर्थवाद के गड्ढे में धकेल दिया था। अतीत में भी मारुति से लेकर हीरो, हिताची जैसे कई सम्भावना-सम्पन्न संघर्षों में इन्होंने अपने निहायती अवसरवादी चरित्र को दिखलाया है और इन आन्दोलनों असफ़लता के दलदल में डुबाने का काफ़ी श्रेय इन “इन्क़लाबी कॉमरेडों” भी जाता है। आम तौर पर, एक क्रान्तिकारी संगठन का काम मज़दूर आन्दोलन और मज़दूर जनसमुदायों में मौजूद बिखरे सही विचारों को व्यवस्थित करना और उसके आधार पर एक सही राजनीतिक लाइन को सूत्रबद्ध करना और उसके आधार पर आन्दोलन को नेतृत्व देना होता है, न कि हर प्रकार की स्वत:स्फूर्त प्रवृत्तिके पीछे अवसरवादी तरीके सेघिसटना। इस प्रकार के अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी (जो मज़दूर आन्दोलन में एक सही राजनीतिक लाइन व नेतृत्व की आवश्यकता को नहीं पहचानते और स्वत:स्फूर्तता की पूजा करते रहते हैं) संगठन मसलन “इंक़लाबी” केन्द्र और “सहयोग” केन्द्र अपनी इन्हीं विजातीय रुझानों के कारण पहले भी कई आन्दोलनों को नुकसान पहुँचा चुके हैं। (भारत के मज़दूर आन्दोलन में मौजूद इस जुझारू अर्थवाद की प्रवृत्ति के बारे जानने के लिए बिगुल में लिखित अर्थवाद लेखमाला को ज़रूर पढ़ें)

तीसरा आन्दोलन जो अब भी जारी है और एक संकट का शिकार है, वह है मारुति से निकाले गये मज़दूरों का काम पर वापसी के लिए संघर्ष। बीते 18 सितम्बर से मारुति मानेसर प्लाण्ट (हरियाणा) के वर्ष 2012 से बर्ख़ास्त मज़दूर अपनी कार्यबहाली, झूठे मुक़दमों की वापसी और 18 जुलाई की घटना की स्वतन्त्र जाँच की माँग के लिए मानेसर तहसील पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं। बीच-बीच में कुछ रैलियों और सभाओं के माध्यम से यह आन्दोलन को तेज़ करने की कोशिश करते हैं, पर खींचतान कर भी 200-300 से अधिक जुटान नहीं हो पाता। अन्य दिनों में धरने पर सिर्फ़ 40-50 लोग ही मौजूद रहते हैं। कहने के लिए इन्होंने मारुति में कार्यरत ठेका मज़दूरों की माँगें भी शामिल की, पर इनको संगठित करने के लिए इनके पास कोई ठोस योजना नहीं है। साथ ही इस पूरे धरने में मारुति सुजुकी मज़दूर संघ की गद्दारी भी खुलकर सामने आ गयी, जिसने प्रबन्धन के साथ वार्ता पर परमानेन्ट मज़दूरों के वेतन में बढ़ोतरी करवा ली, पर अस्थायी- ठेका व काम से निकाले गये मज़दूरों की माँगों को नहीं उठाया।

ज्ञात हो कि 18 जुलाई 2012 को प्रबन्धन के अधिकारी की मौत के बाद यूनियन को ख़त्म करने के लिए मैनेजमेण्ट ने षड्यन्त्रकारी तरीक़े से 546 स्थायी व 1800 ठेका मज़दूरों को निकाल दिया था और 148 मज़दूरों को जेल भेज दिया गया था। फिर सबूतों के अभाव में 5 साल जेल में बिताने के बाद 117 मज़दूरों को बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया। लेकिन यूनियन के 12 पदाधिकारियों और एक मज़दूर जिया लाल समेत 13 मज़दूरों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनायी गयी। फिर 10 साल जेल में बिताने के बाद ज़मानत हासिल हुई। इस तरह 10 साल लम्बे क़ानूनी संघर्ष के बाद 2022 में बर्ख़ास्त मज़दूरों ने ज़मानत के बाद एक बार फिर से कार्यबहाली, केस वापसी और घटना की निष्पक्ष जाँच की माँग को लेकर 18 जुलाई घटना की बरसी के मौक़ों पर धरना-प्रदर्शन के ज़रिये प्रमुखता से उठाना शुरू कर दिया। बता दें कि इसके नेतृत्व पर मज़दूर “सहयोग” केन्द्र नामक संगठन का प्रभाव है। साथ ही “इन्क़लाबी कॉमरेड” भी इनके “सहयोग” में है। यह संगठन भी मज़दूरों की राजनीतिक चेतना का विकास करने की बजाय पुछल्लावाद का शिकार है। इनकी सोच है कि मज़दूर आबादी स्वयं जो भी करेगी वह सही करेगी और इसमें उन्हें सही राजनीतिक लाइन व राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है, या वे स्वयं ही इसे स्वत:स्फूर्त रूप से निर्मित कर लेंगे। लेकिन फिर आप भी वहाँ किसलिए हैं? ज़ाहिर है, मज़दूर आन्दोलन और मज़दूर जनसमुदायों व आम तौर पर जनता से ही क्रान्तिकारी संगठन सीखता है, लेकिन वह जनता के बीच बिखरे सही विचारों को केन्द्रीकृत करता है, व्यवस्थित करता है और एक सही राजनीतिक लाइन को उसी के आधार पर निर्मित कर उसे नेतृत्व देता है। इसमें केवल सीखने के पहलू पर ज़ोर देना अराजकतावाद व संघाधिपत्यवाद है, जबकि केवल दूसरे पहलू पर ज़ोर देना हिरावलपन्थ। मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी संगठन न तो मज़दूर जनसमुदायों में मौजूद हर रुझान के पीछे पुछल्ला बनकर चल सकता है, और न ही वह मज़दूर जनसमुदायों में ही मौजूद बिखरे, अव्यवस्थित व विकेन्द्रित सही विचारों को एकत्र, व्यवस्थित व केन्द्रीकृत किये, उन्हें नेतृत्व दे सकता है। मज़दूर सहयोग केन्द्र व इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र जैसे संगठन वास्तव में स्वत:स्फूर्ततावाद, अर्थवाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद के शिकार हैं और यही वजह है कि तमाम आन्दोलनों में उनकी भूमिका नकारात्मक रही है। मसलन, 2012 से लेकर आज तक मारुति के आन्दोलन को गड्ढे में डालने में मज़दूर सहयोग केन्द्र ने पूरा सहयोग दिया है। (मारुति आन्दोलन और मज़दूर सहयोग केन्द्र की अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी राजनीति के बारे में बिगुल के पिछले अंकों में विस्तार से लिखा जा चुका है।)

इन आन्दोलनों की असफ़लता या उनके जारी संकट के पीछे और आम तौर पर मज़दूर आन्दोलन के समक्ष उपस्थित इस संकट में ऐसे कारणों को समझना ज़रूरी है जो स्वयं आन्दोलन के भीतर मौजूद हैं। ऐसी कई प्रवृत्तियाँ आन्दोलन के भीतर मौजूद हैं जो अन्दर से मज़दूरों के संघर्षों को कमज़ोर और खोखला बनाती जाती हैं। ऐसी विजातीय प्रवृत्तियाँ पूरी दुनिया के मज़दूर आन्दोलनों में इतिहास से लेकर आज तक मौजूद रही हैं। अपनी अन्तर्वस्तु में यह  प्रवृत्तियाँ मालिकों और पूँजीपतियों के विचारों यानी कि बुर्जुआ विचारधारा से प्रेरित होती हैं और मज़दूर आन्दोलन में, सचेतन या अचेतन तौर पर, पूँजीपति वर्ग के पक्ष की नुमाइन्दगी करती हैं और इसी वर्ग की सेवा करती हैं।

पहली बात तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।

दूसरी दिक्कत है सही राजनीतिक नेतृत्व का न होना। इससे ही यह सवाल निकलता है कि मज़दूर आन्दोलन में वह कौन सी प्रवृत्तियाँ हैं, जो मज़दूर आन्दोलन के सही नेतृत्व के विकसित होने में रुकावट हैं। हमने ऊपर इनमें दो प्रमुख रुझानों की चर्चा की है: संशोधनवादी अर्थवाद और समझौतापरस्ती जो संसदीय वामपंथी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें करती हैं, और, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अर्थवाद और स्वत:स्फूर्ततावाद, जिसे इंकलाबी मज़दूर केन्द्र और मज़दूर सहयोग केन्द्र जैसे संगठन अमल में लाते हैं। दोनों ही प्रवृत्तियाँ अवसरवाद की विभिन्न किस्मों को दिखलाती हैं। यह भी ग़ौरतलब है कि अस्थायी मज़दूरों संगठित करना और उनकी माँगों को प्राथमिकता देते हुए संघर्ष को नये सिरे से खड़ा करना दोनों ही प्रवृत्तियों के लिए कोई मसला नहीं बनता है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद सबसे प्रमुख विजातीय प्रवृति है अर्थवाद। यह प्रवृत्ति उपरोक्त तीनों आन्दोलन में भी मौजूद थी। अर्थवाद दरअसल मज़दूरों के लिए केवल आर्थिक संघर्ष को ही, यानी वेतन-भत्ते और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष को ही समस्त आन्दोलन के लिए सर्वोपरि बना देता है और इस मुग़ालते में रहता है कि मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त तरीक़े से इन्हीं आर्थिक संघर्षों मात्र से पैदा हो जायेगी। अर्थवादी राजनीति वास्तव में सुधारवादी राजनीति ही है। अर्थवाद जब यह कहता है कि मज़दूरों की केवल आर्थिक मसलों में ही दिलचस्पी होती है तो वह दरअसल अपनी सुधारवादी राजनीति और वैचारिकी की सीमाओं को ही उजागर कर रहा होता है। अर्थवादी प्रवृत्ति वास्तव में पूँजीवाद के आर्थिक तर्क को मज़दूर आन्दोलन में स्थापित करने का काम करती है और मज़दूरों को वेतन-भत्ते बढ़वाने के लिए ही संघर्ष करने की बात पर ज़ोर देती है। आज तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़ी सीटू-एटक-एक्टू-एचएमएस जैसी तमाम ट्रेड यूनियनें अर्थवाद का बेहद भोंडा संस्करण प्रस्तुत करती हैं। वहीं दूसरी तरफ़ इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र-मज़दूर सहयोग केन्द्र जैसे संगठन जुझारू क़िस्म के अर्थवाद यानी कि “वामपन्थी” अर्थवाद को पेश करते दीखते हैं। यदि आप ‘अर्थवाद’ शब्द के मूल पर ग़ौर करेंगे तो आप समझ जायेंगे कि अर्थवाद की प्रवृत्ति आर्थिक कारकों को राजनीतिक कारकों के ऊपर तरजीह देती है। यानी यह राजनीति को कमान में रखने की बजाय आर्थिक कारकों को कमान में रखती है। यह मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित होने और सत्ता का प्रश्न उठाने की क्षमता अर्जित करने से व्यवस्थित तरीक़े से रोकती है।

ऐसा नहीं है मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक माँगों के लिए नहीं लड़ेगा। आर्थिक संघर्षों को लड़ना और अर्थवादी संघर्ष लड़ना एक ही चीज़ नहीं है। आर्थिक संघर्षों को राजनीतिक तौर पर भी लड़ा जा सकता है और आर्थिक तौर पर भी। राजनीतिक तौर पर आर्थिक संघर्षों को संगठित करने का अर्थ होता है कि मज़दूरों को इन संघर्षों के ज़रिये भी सिर्फ अपने मालिक को नहीं, बल्कि मालिकों की समूची जमात को दुश्मन के रूप में पहचानना सीखना, समूची पूँजीवादी सरकार व राज्यसत्ता को निष्पक्ष नहीं बल्कि मालिकों की इस जमात के नुमाइन्दे के तौर पर देखना सीखना; केवल अपने कारखाने या पेशे के मज़दूरों के स्तर पर ही अपने वर्ग हितों को संकुचित नहीं करना, बल्कि व्यापकतम सम्भव वर्ग एकजुटता क़ायम करने के लिए अपने कारखाने की सीमाओं के पार, फिर अपने पेशे के उजरती मज़दूरों और फिर अपने पेशे की सीमाओं के पार सभी पेशों के उजरती मज़दूरों की समूची जमात को अपनी जमात के रूप में पहचानना सीखना। केवल इसी प्रक्रिया में मज़दूर आन्दोलन एक ऐसी शक्ति में तब्दील हो सकता है जो मालिकों की जमात को तात्कालिक और दूरगामी, दोनों ही लड़ाइयों में शिकस्त दे सकती है। मालिकों की जमात अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के तौर संगठित करके ही हावी है और हम पर शासन कर रही है। वह केवल अपने तात्कालिक आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर शासन नहीं कर सकती, बल्कि वह अपने दूरगामी राजनीतिक हितों को तरजीह देकर ही शासन कर सकती है और कर रही है। वहीं दूसरी ओर अर्थवाद की प्रवृत्ति हमें अपने कारखानों के वेतन-भत्तों के संघर्षों तक ही सीमित करके हमें वेतन-भत्तों के संघर्षों में भी अशक्त बना देती है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि मज़दूर वर्ग आर्थिक माँगों की लड़ाई भी तभी लड़ सकता है जब वह इसे राजनीतिक वर्ग के तौर पर लड़े। बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के मज़दूर केवल वेतन-भत्ते के लिए संघर्ष में ही उलझे रहेंगे। अर्थवाद के कारण ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक प्रश्न उठाने में, जिसमें राजनीतिक सत्ता का प्रश्न सर्वोपरि है, असमर्थ हो जाता है और केवल दुवन्नी-अट्ठन्नी, भत्तों-सहूलियतों की लड़ाई के गोल चक्कर में घूमता रहता है।

वहीं दूसरी बात जो समझनी सबसे ज़्यादा ज़रूरी है वह यह कि मज़दूर वर्ग के व्‍यापक जनसमुदायों में स्वतःस्फूर्त रूप से जो चेतना पैदा करता है वह आर्थिक माँगों से आगे नहीं जाती और वह अपने आप में सर्वहारा चेतना नहीं होती। अगर मज़दूरों के बीच पायी जाने वाली इसी स्वतःस्फूर्ततावाद की सोच को आगे बढ़ा दिया जाये तो वह अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद, मज़दूरवाद, पेशागत संकीर्णतावाद, ग़ैरपार्टी क्रान्तिवाद, अराजकतावाद–संघाधिपत्यवाद आदि ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों तक चली जाती है। इन सभी प्रवृत्तियों के विस्तार में हम अभी नहीं जा सकते, पर कुल मिलाकर कहें तो यह वह तमाम विजातीय पूँजीवादी प्रवृत्तियाँ हैं, जो मज़दूर आन्दोलन को अन्दर से खोखला कर रही हैं। मार्क्स से लेकर लेनिन और माओ ने इन सभी प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ सतत संघर्ष चलाया और मज़दूर आन्दोलन को एक सही राजनीतिक दिशा दी।

आज के फ़ासीवादी दौर में मज़दूर आन्दोलन में मौजूद इन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। आज मोदी सरकार जिस रफ़्तार से सभी श्रम क़ानूनों व जनवादी अधिकार को ख़त्म कर रही है, इसके ख़िलाफ़ लड़ने में अर्थवाद बाधा पैदा करता है क्योंकि जिस समय मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के आगे जाने का कार्यक्रम मज़दूर वर्ग के सामने पेश करना होता है, उस समय भी अर्थवाद मज़दूर वर्ग को इसी व्यवस्था के भीतर ही महज़ आर्थिक लाभ हासिल करने तक सीमित कर देता है। राजनीतिक संघर्ष की रणनीति के अभाव में प्रतिरोध्य फ़ासीवादी उभार मज़दूर आन्दोलन के अर्थवाद की गलियों में घूमते रहने के कारण अप्रतिरोध्य बन जाता है। इसलिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के लिए अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद, अराजकतावाद व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी आत्मघाती प्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें मज़दूर आन्दोलन के बीच से उखाड़ फेंकने के लिए सतत संघर्ष करना होगा। इनके ख़िलाफ़ संघर्ष कर के ही आज मज़दूर आन्दोलन आगे बढ़ सकता है। यह आम तौर पर भी ज़रूरी है और फ़ासीवाद विरोधी सर्वहारा संघर्ष को संगठित करने के लिए विशेष रूप से ज़रूरी है।

 

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025


 

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