नयी दुनिया निठल्ले चिन्तन से नहीं, जन महासमर से बनेगी!
डब्ल्यूएसएफ का मुम्बई महातमाशा सम्पन्न

विशेष संवाददाता

मुम्बई। पिछली 16 जनवरी को गाजे–बाजे, ताम–झाम और धूम–धड़ाके के साथ शुरू हुआ विश्व सामाजिक मंच (डब्ल्यू एस एफ) का मुम्बई महातमाशा आखिकार सम्पन्न हो गया। दुनिया के 150 देशों के एक लाख से अधिक लोगों ने इस ‘सामाजिक महाकुंभ’ में भांति–भांति के विचारों के संगम में डुबकी लगायी। और जो कुछ भी हो, डब्ल्यू एस एफ को इस बात का श्रेय तो देना ही पड़ेगा कि एक ही महाचौपाल में एक दूसरे से छत्तीस का रिश्ता रखने वाले लोग अपनी–अपनी नयी दुनिया बनाने की मुराद लिये छह दिनों तक साथ–साथ रहे, बिना सिरफुटौवल किये। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का ऐसा महानजारा कि लासाल–काउत्स्की–ख्रुश्चेव–देङ सियाओ पिङ के दुनिया भर में फैले हुए वंशजों (इस आयोजन में अहम भूमिका निभाने वाले देशी वंशजों समेत) का मन गदगद हो उठा। खबर है कि अपने–अपने सपनों की नयी दुनिया को मुमकिन बनाने की हसरत सीनों में संजोए आधुनिक उड़नखटोलों से मुम्बई के पंचसितारा होटलों में उतरे डब्ल्यू एस एफ के आला कर्ता–धर्ता छह दिनों के थका देने वाले ‘गहन चिन्तन–मनन’ के बाद अपने–अपने नेहनीड़ों में वापस लौटने से पहले भारतभूमि के सैरगाहों में बिखर गये हैं–स्कॉच की बोतलों के साथ अपनी थकान मिटाने के वास्ते।

आयोजन के दौरान दबी जुबान से मंच के कई कर्ता–धर्ता लोगों ने कबूल किया कि ज्यादा नहीं सिर्फ 150 करोड़ रूपये आयोजन को कामयाब बनाने में खर्च हुए। यह रकम जुटाने में इस बार इतनी होशियारी जरूर बरती गयी जिससे यह कहा जा सके कि फोर्ड फाउण्डेशन जेसी साम्राज्यवादी फंडिंग एजेंसियों से सीधे पैसा नहीं लिया गया। यानी दांये–बांएं करके लिया गया। यह होशियारी इसलिए क्योंकि दुनिया भर से यह सवाल उठने लगा है कि साम्राज्यवादी फंडिंग एजेंसियों और सरकारों से पैसा लेकर काहे का साम्राज्यवाद विरोध?

आयोजकों की यह सफाई उन्हें पाक–साफ बनाने से ज्यादा यह साबित कर रही थी कि थोड़ा–बहुत नहीं बल्कि पूरी दाल ही काली लगती है। यह सफाई मासूमियत का मुखौटा लगाये चतुर सुजानों को ही सुहायी होगी। कौन नहीं जानता कि तमाम फंडिंग एजेंसियां खुद रकमें मुहैया कराने के ऐसे तरीकों का सहारा लेती हैं जिसे सीधे–सीधे फंडिंग न कहा जा सके। चाहे आयोजन में भागीदार एनजीओ फंडिंग एजेंसियों से रकम लें और वे आयोजन के लिए सहयोग दें या सीधे आयोजन के लिए रकम ली जाये, बात एक ही है। कान घुमाकर पकड़ने वाले तर्क से डब्ल्यूएसएफ के कर्ता–धर्ता अपने साम्राज्यवाद विरोध की चुनरी में लगे दाग को नहीं धो सकते।

तमाम समाचार चैनलों और राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों के रिपोर्टर इस महातमाशे की रिपोर्टिंग करने के लिए पसीने–पसीने होते रहे लेकिन फिर भी पूरी तस्वीर उभारने में नाकाम रहे। रिपोर्टिंग करते भी कैसे। जब प्रतिदिन 200 से अधिक कार्यशालाएं, गोष्ठियां, सांस्कृतिक कार्यक्रम, आम सभाएं एक साथ चल रही हो। यानी छह दिनों तक 1200 से अधिक अलग–अलग तरह के कार्यक्रम जिनमें दुनिया में मौजूद हर प्रकार के अन्याय–शोषण–उत्पीड़न, पूंजी के हर प्रकार के वर्चस्व के रूपों और इंसान द्वारा इंसान को अधीन बनाने के हर प्रकार के रूपों पर ‘गहन चिन्तन–मनन’ हो रहा था। चिन्तन–मनन, चिन्तन–मनन, और चिन्तन–मनन…। यही इब्तिदा और यही इन्तेहां। इसलिए, क्योंकि डब्ल्यूएसएफ कोई सामूहिक कार्रवाई करने का मंच तो है नहीं। यह तो बस विभिन्न प्रकार के विचारों के बीच जनतांत्रिक ढंग से गलचौर करने के लिए स्पेस प्रदान करता है।

बौद्धिक दुनिया की अन्तरराष्ट्रीय ग्लैमरस हस्ती अरुंधती राय ने अपने उद्घाटन भाषण में बस एक छोटी सी सामूहिक कार्रवाई के लिये आह्वान किया था लेकिन उसपर किसी ने कान तक नहीं दिया। बस एक छोटी सी कार्रवाई कि इराक के ‘पुनर्निर्माण’ के कामों का ठेका लेने वाली एक–दो अमेरिकी कंपनियों को चुनकर दुनिया भर में उनके दफ्तरों का पीछा किया जाये और उन्हें शटर गिराकर भाग जाने पर मजबूर किया जाये। शायद अरुंधती राय अपने मासूम (?) भावावेश में डब्ल्यूएसएफ के चार्टर को लांघ गई। उन्होंने सड़क पार ‘मुम्बई प्रतिरोध’ वाले लोगों का भी आह्वान किया कि आइये डब्ल्यू एस एफ के साथ मिलकर हम साझा कार्रवाई करें। गौरतलब है कि अरुंधती राय डब्ल्यूएसएफ के आयोजन की उद्घाटक वक्ता थीं और साथ ही मुम्बई प्रतिरोध के सांस्कृतिक कार्यक्रम की भी उद्घाटनकर्ता थीं। उन्होंने मुम्बई प्रतिरोध के एक सत्र में इराक पर एक पर्चा भी पढ़ा।

अरुंधती राय का साझा कार्रवाई का यह प्रस्ताव डब्ल्यूएसएफ के प्रति मुम्बई प्रतिरोध–2004 के रुख की कमजोरी को उजागर कर देता है। दरअसल, डब्ल्यूएसएफ के मंसूबों को बेनकाब करने के लिए जरूरत एक प्रतिरोधी आयोजन की थी, न कि समांतर आयोजन की। इस नजरिए से देखा जाये तो दादर में 19–20 जनवरी को ‘साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनता’ के बैनर तले आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन भागीदारी के लिहाज से छोटा आयोजन होते हुए भी महत्वपूर्ण और अधिक कारगर था। इस सम्मेलन ने ‘डब्ल्यूएसएफ को बेनकाब करो’ का नारा दिया और पुरजोर ढंग से यह उभारा कि भूमण्डलीकरण का चेहरा मानवीय नहीं बनाया जा सकता और यह कि साम्राज्यवाद–पूंजीवाद को सिर्फ तबाह किया जा सकता है और ‘समाजवाद ही एकमात्र विकल्प है।’

बहरहाल, डब्ल्यूएसएफ के चार्टर के अनुसार ही साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण विरोधी विभिन्न विचारों के ‘महासंगम’ की एक अनुपम छटा मुम्बई में देखने को मिली। गांधीवादी सुधारवादियों से लेकर एनजीओ सुधारकों तक, दूसरे इण्टरनेशनल वाले काउत्स्की के समाजवादी चेलों से लेकर चौथे इण्टरनेशनल वाले त्रात्सकीपंथियों तक और दुनिया भर के सामाजिक जनवादियों, (संसदीय वामपंथी) तरह–तरह के पहचान आंदोलनों के नुमाइन्दे और दुनिया के कुछेक ‘‘बेहतरीन दिमाग’’ (अरुंधती राय की शब्दावली में) इस महाचौपाल में ‘भूमण्डलीकरण को मानवीय चेहरा देने’ के लिए छह दिनों तक मगजमारी करते रहे। इस मगजमारी से निकला फकत यह कि इस चिन्तन–आयोजन को समूचे भूमण्डल पर फैलाया जाये–हर साल दुनिया के अलग–अलग उन हॉट–स्पॉट्स (जनाक्रोश की धधकती भट्ठियों) पर जिनके फ्लैश प्वांइट्स (जनाक्रोश के विस्फोट) बनने की सर्वाधिक संभावनाएं हों। साम्राज्यवाद के विरोध के नाम पर साम्राज्यवाद की ऐसी बेहतरीन पैरोकारी और हिफाजत ‘‘दुनिया के बेहतरीन दिमाग’’ ही कर सकते हैं।

इतने सारे ‘‘बेहतरीन दिमाग’’ जिस मजमे में इकट्ठा हों, जहां जातिभेद, लिंग भेद, नस्ल भेद, राष्ट्रीय उत्पीड़न, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट, पर्यावरण की तबाही, बर्बर साम्राज्यवादी युद्धों से लेकर हर तरह की गैरबराबरी, वर्चस्व और अधीनता के हर रूपों के खिलाफ ‘लड़ने’ के बारे में गहन चिन्तन–मनन हो रहा हो, वहां इस सीधी–सादी सच्चाई पर निगाह न जाना कि ‘भूमण्डलीय न्याय’ और समता की दिशा में तब तक पहला कदम भी नहीं उठाया जा सकता जब तक पूंजीवादी–साम्राज्यवादी व्यवस्था का अस्तित्व मौजूद है, समझदारों की ओढ़ी गयी नासमझी के सिवा और क्या हो सकती है!

दरअसल, ये ‘बेहतरीन दिमाग’ भूमण्डलव्यापी अन्याय, असमानता और शोषण के अनेकानेक रूपों पर अलग–अलग चर्चा ही इसलिए करना और कराना चाहते हैं ताकि वर्गीय शोषण, अन्याय और असमानता, जिसकी बुनियाद पर अन्य सभी प्रकार की सामाजिक असमानताएं जनमती हैं, पर पर्दा डाला जा सके। डब्ल्यू एस एफ के उस्ताद दिमाग भूमण्डलव्यापी शोषण–उत्पीड़न, अन्याय–असमानता की सच्चाई को जानबूझकर लोगों को उस तरह दिखाना चाहते हैं जैसे किसी अंधे को हाथी दिखायी देता हैं। सूंड पकड़ में आये तो पाइप जैसा, पैर पकड़ में आये तो खम्भे जैसा और कान पकड़ में आये तो सूप जैसा। यानी समूचा हाथी एक साथ नहीं, जो अंग पकड़ में आ जाये उसी जैसा। समग्रता में नहीं, टुकड़ों-टुकड़ों में। उत्तर आधुनिकतावादी ढंग से विखण्डन करने पर सच्चाई इसी तरह दिखायी देती है। दुनिया को इसी ढंग से देखने और अलग–अलग उसे बदलने का यही उत्तर आधुनिकतावादी आग्रह डब्ल्यूएसएफ के ‘बेहतरीन दिमाग’ हमसे कर रहे हैं। मतलब साफ है कि डब्ल्यू एस एफ साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण का विरोध करने के लिए नहीं वरन उस विचार और उसपर आधारित राजनीतिक–सामाजिक व्यवहार का विरोध करने के लिए बनाया गया है जो सच्चाई को समग्रता में देखता है और इसी ‘सर्वसमावेशी’ नजरिये से दुनिया को बदलने की जद्दोजहद करता है। यह अनायास नहीं है कि डब्ल्यू एस एफ के चार्टर में एक विशेष धारा इस बारे में साफ तौर पर डाली गयी है जो हर प्रकार के सर्वसमावेशी और वर्ग ‘न्यूनीकरणवादी’ नजरिये की आलोचना करती है।

यह कहना सरासर झूठ है कि डब्ल्यू एस एफ विभिन्न अलग–अलग विचारों के बीच परस्पर जनतांत्रिक आदान–प्रदान का मंच है। दरअसल, डब्ल्यू एस एफ में शामिल अलग–अलग विचार और आंदोलन जाने या अनजाने एक ही चीज के विरोध में खडे हैं–साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के वास्तविक विकल्प के विरोध में। भमूण्डलीकरण को मानवीय बनाने की सारी कवायदें एक वास्तविक नयी दुनिया, जो केवल समाजवाद ही हो सकी है, के विरोध की एक साझा जमीन पर खड़ी हैं। इस सच्चाई को कमल मित्र चिनॉय (डब्ल्यूएसएफ के एक जोशीले हिमायती) ने आयोजन के दौरान दिये गये अपने एक बयान में बेलागलपेट ढंग से उजागर कर दिया। उन्होंने कहा कि डब्ल्यूएसफ उन ताकतों को एक मंच पर लाने की कोशश है जो हिंसात्मक तरीके के बजाय शान्तिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव में यकीन रखते हैं। दरअसल इस बार आयेाजन के कई प्रमुख कर्ता–धर्ता बेहद आक्रामक अंदाज में डब्ल्यूएसएफ के उद्देश्यों की हिफाजत करते दिखे। इसका कारण दुनिया भर में सच्ची क्रान्तिकारी जनवादी ताकतों द्वारा साम्राज्यवाद विरोध के इस छद्म के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान है। अपनी हिफाजत में ही सही डब्ल्यूएसएफ के कर्ता–धर्ता लोगों के हमलावर तेवर भी इस बात की जरूरत को उभार रहे थे कि डब्ल्यूएसफ के प्रति कोई भी नरम रवैया उसके प्रति भ्रमों को बढ़ाने के सिवा दूसरा काम नहीं करेगा।

नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटेकर एक इण्टरव्यू में इन शब्दों में डब्ल्यूएसएफ की हिफाजत करती हैं–‘‘…अब हम सिर्फ पूंजीवाद से समाजवाद में जाने की बात नहीं कर सकते। हमें अपनी बात को इन दोनों प्रणालियों से आगे ले जाना होगा। नया समाजवाद समाजवाद के आसपास होगा पर उसमें पिछली कमियां नहीं होंगी। हम उसे नव–समाजवाद कह सकते हैं।’’

मतलब साफ है। मेधा पाटकर का नव–समाजवाद पूंजीवाद–साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंककर कायम किया गया मेहनतकशों का समाजवाद नहीं होगा। इसमें कौन सी कमियां थीं, हालांकि इस पर इंटरव्यू में रोशनी नहीं डाली गयी है लेकिन यह अनुमान गलत नहीं होना चाहिए कि उनका इशारा सर्वहारा की वर्गीय तानाशाही से है। समाजवाद की इस ‘नामुराद’ चीज से मेधा जी ही नहीं समूचा पूंजीवादी–साम्राज्यवादी खेमा और सारी दुनिया के नागरिक समाज वाले भयाक्रांत रहते हैं। बल्कि सच तो यह है कि नागरिक समाज वालों को अगर सर्वहारा की तानाशाही और साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के ‘नवउदारवाद’ में से किसी एक को चुनने की मजबूरी आन पड़े तो वे सर्वहारा की तानाशाही हरगिज नहीं चुनेंगे।

दरअसल, आज एक बार फिर से समूची पूंजीवादी–साम्राज्यवादी दुनिया को कम्युनिज्म का भूत उसी तरह सताने लगा है (आसन्न नहीं तो एक संभावनासंपन्न भूत के रूप में ही सही) जिस तरह 150 साल पहले यूरोप को सता रहा था। इसी लिए दुनिया भर से ‘बेहतरीन दिमाग’ वाले ओझा–गुनिया, मंत्र–तंत्र विद्या निपुण और झाड़–फूंक करने वाले हर साल इकट्ठा होते हैं और तरह–तरह की हिकमतों और तजवीजों के जरिये इस भूत को भगाने का जतन करते हैं। चार साल पहले पोर्तो अलेग्रे में भूमण्डलीकरण को मानवीय बनाने का मंत्रोच्चार संस्थाबद्ध रूप में शुरू हुआ था। भारत के इस पड़ाव के बाद अगला पड़ाव जरूर ही भूत की सर्वाधिक संभावना वाले इलाके में होगा।

नागरिक समाज वालों (एनजीओ वालों) को, सामाजिक जनवादियों को और साम्राज्यवादी–पूंजीवादी सरकारों को सर्वहारा की तानाशाही के भूत से कांपने दो। इस अशान्त दुनिया में भलेमानुषों को शांति की अर्जियां देने दो, क्योंकि सर्वहारा का हर सचेत सिपाही जानता है कि नयी दुनिया ओझाओं–सोखाओं की झाड़फूंक से नहीं बल्कि न टाले जा सकने वाले वर्ग महासमर से ही पैदा होनी है।

बिगुल, फरवरी 2004


 

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