Category Archives: उद्धरण

कम्युनिस्ट पार्टी की ज़रूरत के बारे में लेनिन के कुछ विचार…

पूँजीवाद के युग में, जबकि मज़दूर जनता निरन्तर शोषण की चक्की में पिसती रहती है और अपनी मानवीय क्षमताओं का विकास वह नहीं कर पाती है, मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टियों की सबसे ख़ास विशेषता यही होती है कि अपने वर्ग के केवल एक अल्पमत को ही वह अपने साथ ला पाती है। कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने वर्ग के केवल एक अल्पमत को ही अपने अन्दर समाविष्ट कर सकती है। उसी तरह जिस तरह कि किसी भी पूँजीवादी समाज में वास्तविक रूप से वर्ग चेतन मज़दूर तमाम मज़दूरों का मात्र एक अल्पमत होते हैं। इसलिए इस बात को मानने के लिए हम बाध्य हैं कि मज़दूरों के व्यापक जनसमुदायों का निर्देशन और नेतृत्व केवल यह वर्ग चेतन अल्पमत ही कर सकता है।

उद्धरण / स्तालिन, एंगेल्‍स, लेनिन

यह बिना जाने कि हमें किस दशा में जाना चाहिए, बिना जाने की हमारी गति का लक्ष्य क्या है, हम आगे नहीं बढ़ सकते। हम तब तक निर्माण नहीं कर सकते, जब तक कि हम बात की सम्भावना और निश्चय न हो कि समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के निर्माण का आरम्भ करके उसे पूरा कर सकेंगे। पार्टी बिना स्पष्ट सम्भावना, बिना स्पष्ट लक्ष्य के निर्माण के काम का पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकती। हम बर्नस्टाइन के विचारों के अनुसार नहीं कह सकते कि ‘गति सब कुछ है, और लक्ष्य कुछ नहीं।’ इसके विरुद्ध क्रान्तिकारियों की तरह हमें अपनी प्रगति, अपने व्यावहारिक काम को सर्वहारा-निर्माण के मौलिक वर्ग-लक्ष्य के अधीन करना होगा। नहीं तो, निस्सन्देह और अवश्य ही हम अवसरवाद के दल-दल में जा गिरेगें

उद्धरण

उठो जागो, गाओ गान
उठाओ आँधी
खड़ा करो तू़फ़ान
नई सुबह की सुर्ख किरण में
झिलमिल कर लो प्राण

मज़दूरों के नाम भगतसिंह का पैग़ाम!

नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्टरी-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।

राहुल सांकृत्यायन की जन्मतिथि (9 अप्रैल) और पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर

धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है, और इसलिए अब मजहबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ -इस सफेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मजहब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हजार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मजहब वालों को दूसरे मजहब वालों का खून का प्यासा कौन बना रहा है कौन गाय खाने वालों से गो न खाने वालों को लड़ा रहा है असल बात यह है – ‘मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना।’ हिन्दुस्तान की एकता मजहबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं है।

कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र से एक अंश

आधुनिक मज़दूर की दशा बिल्कुल उल्टी है। उद्योग की उन्नति के साथ, ऊपर उठने के बजाय, वह स्वयं अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवस्थाओं के स्तर के नीचे गिरता जाता है। वह कंगाल हो जाता है और उसकी मुफ़लिसी आबादी और दौलत से भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ती है। ऐसी स्थिति में यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बुर्जुआ वर्ग अब समाज का शासक बने रहने के और समाज पर अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को, अनिवार्य नियम के रूप में, लादने के अयोग्य है। बुर्जुआ वर्ग शासन करने के अयोग्य है क्योंकि वह अपने ग़ुलाम को ग़ुलामी की हालत में ज़िन्दा रहने की गारण्टी देने में असमर्थ है, क्योंकि वह उसके जीवन स्तर में ऐसी गिरावट नहीं रोक सकता जिसके फलस्वरूप वह उसकी कमाई खाने के बजाय उसका पेट भरने को मजबूर हो जाता है। समाज अब बुर्जुआ वर्ग के मातहत नहीं रह सकता – दूसरे शब्दों में, बुर्जुआ वर्ग का अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं खाता। … बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी क़ब्र खोदने वालों को पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य हैं।

कम्युनिस्ट जीवनशैली के बारे में माओ त्से-तुङ के कुछ उद्धरण

कोई नौजवान क्रान्तिकारी है अथवा नहीं, यह जानने की कसौटी क्या है? उसे कैसे पहचाना जाये? इसकी कसौटी केवल एक है, यानी यह देखना चाहिए कि वह व्यापक मज़दूर-किसान जनता के साथ एकरूप हो जाना चाहता है अथवा नहीं, तथा इस बात पर अमल करता है अथवा नहीं? क्रान्तिकारी वह है जो मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाना चाहता हो, और अपने अमल में मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाता हो, वरना वह क्रान्तिकारी नहीं है या प्रतिक्रान्तिकारी है। अगर कोई आज मज़दूर-किसानों के जन-समुदाय के साथ एकरूप हो जाता है, तो आज वह क्रान्तिकारी है; लेकिन अगर कल वह ऐसा नहीं करता या इसके उल्टे आम जनता का उत्पीड़न करने लगता है, तो वह क्रान्तिकारी नहीं रह जाता अथवा प्रतिक्रान्तिकारी बन जाता है।

प्रेमचन्द के जन्मदिवस (31 जुलाई) के अवसर पर

संसार आदिकाल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है।… लेकिन संसार का जितना अकल्याण लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया। यह देवी नहीं डायन है। सम्पत्ति ने मनुष्य को क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते दम तक भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय, इस सम्पत्ति का क्या हाल होगा। हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं। हम विद्वान बनते हैं सम्पत्ति के लिए, गेरुए वस्त्र धारण करते हैं सम्पत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भाँति-भाँति के वैज्ञानिक हिंसा-यंत्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएँ क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है। जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन नहीं होगा, जब तक सम्पत्ति व्यक्तिवाद का अन्त न होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी।