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गाज़ा : दो कविताएँ
गाज़ा वापस स्कूल जाता है
जहाँ ब्सीसो
स्कूल अब हज़ारों लोगों के लिए
घर और पनाहगाह है।
विद्यार्थी विस्थापित हैं या मर चुके हैं,
जख़्मी हैं या
अनाथ हो चुके हैं।
अध्यापिका बच्चों को छिपाने के लिए
लेट जाती है उन पर।
किताबें धुएँ और राख में तब्दील हो चुकी हैं।
गणित यह है
51 दिन, 2,200 मृत, 10,000 ज़ख़्मी
ज़मीन का विभाजन, अवैध बस्तियों में
कई का गुणा।
भूगोल यह है कि हम अपना नक़्शा
खुद बनाते हैं,
नदी से समुद्र तक
आप एक खुले कारागार में
न्याय का पाठ कैसे पढ़ा सकते हैं?
हाज़िरी :
गाज़ा, ख़ान यूनुस, जबालिया, बेत हानून –
अब भी खड़े हैं।
बेत लाहिया, डेर अल-बलाह, बनी सुहैला –
हम ज़िन्दा हैं।
हाइफ़ा, याफ़ा, हेब्रोन, बेतलहेम, नबलूस, रमल्ला – हाज़िर हैं।
अल कुद्स – अब भी यहाँ है।
कविता है : इसमें कोई कविता नहीं।
क़ब्ज़े के अधीन कोई गीत नहीं होता,
होते हैं केवल मलबे के नीचे छोटे जूते।
बेत अल-अलामी, बेत अल-बत्श,
दार अबू अली
– हाज़िर हैं
मेरी सारी बहनें मर चुकी हैं।
इस नुकसान को कैसे भुलाया जा सकता है?
बेत शाबन, बेत अल्हज्ज, बेत नज्जर
– मृत या अनुपस्थित।
मरियम – सिर में गोली लगी
मेहदी – अब भी अस्पताल में
हम यासीन को नहीं खोज सके,
हम यासीन को नहीं खोज सके,
हम यासीन को नहीं खोज सके।
51 दिनों तक।
आप एक खुले कारागार में न्याय का पाठ
कैसे पढ़ा सकते हैं?
शब्द आग उगल रहे हैं। कक्षा भरी हुई है।
ओ गाज़ा के शरारती बच्चो
ख़ालिद जुमा
ओ गाज़ा के शरारती बच्चो
तुम वही हो न जो मेरी खिड़की के नीचे
शोरगुल से मेरी नाक में दम किये रहते थे
तुम वही हो न जो दौड़भाग और कोलाहल से
हर सुबह को सराबोर कर देते थे
तुम वही हो न जिन्होंने
मेरी बालकनी का गुलदान तोड़ा था
और उसका अकेला फूल चुरा लिया था
वापस आ जाओ –
और जितनी मर्ज़ी शोर मचाओ
और सारे गुलदान तोड़ डालो
सारे फूल चुरा लो,
वापस आओ,
बस वापस आ जाओ…
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2024
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