कविता – फ़िलिस्तीन
कात्यायनी
वहाँ जलते हुए धीरज की ताप से गर्म पत्थर
हवा में उड़ते हैं,
पतंगें थकी हुई गौरय्यों की तरह
टूटे घरों के मलबों पर इन्तज़ार करती हैं
वीरान खेतों में नये क़ब्रिस्तान आबाद होते हैं,
और समन्दर अपने किनारों पर
बच्चों को फ़ुटबॉल खेलने आने से रोकता है।
वहाँ हर सपने में ख़ून का एक सैलाब आता है
झुलसे और टूटे पंखों, रक्त सनी लावारिस जूतियों,
धरती पर कटे पड़े जैतून के नौजवान पेड़ों के बीच
अमन के सारे गीत
एक वज़नी पत्थर के नीचे दबे सो रहे होते हैं।
फ़िलिस्तीन की धरती जितनी सिकुड़ती जाती है
प्रतिरोध उतना ही सघन होता जाता है।
जब संगीनों के साये और बारूदी धुएँ के बीच
“अरब वसन्त” की दिशाहीन उम्मीदें
बिखर चुकी होती हैं
तब चन्द दिनों के भीतर पाँच सौ छोटे-छोटे ताबूत
गाज़ा की धरती में बो दिये जाते हैं
और माँएँ दुआ करती हैं कि पुरहौल दिनों से दूर
अमन-चैन की थोड़ी-सी नींद मयस्सर हो बच्चों को
और ताज़ा दम होकर फिर से शोर मचाते
वे उमड़ आयें गलियों में, सड़कों पर
जत्थे बनाकर।
“उत्तर-आधुनिक” समय में ग्लोबल गाँव का जिन्न
दौड़ता है वाशिंगटन से तेल अवीव तक,
डॉलर के जादू से पैदा वहाबी और सलाफ़ी जुनून
इराक़ और सीरिया की सड़कों पर
तबाही का तूफान रचता है।
ढाका में एक फ़ैक्ट्री की इमारत गिरती है
और मलबे में सैकड़ों मज़दूर
ज़िन्दा दफ़्न हो जाते हैं
और उसी समय भारत में एक साथ
कई जगहों से कई हज़ार लोग
दर-बदर कर दिये जाते हैं।
कुछ भी हो सकता है ऐसे समय में।
गुजरात में गाज़ा की एक रात हो सकती है,
अयोध्या में इतिहास के विरुद्ध
एक युद्ध हो सकता है.
युद्ध के दिनों में हिरोशिमा-नागासाकी रचने वाले
शान्ति के दिनों में कई-कई भोपाल रच सकते हैं
और तेल की अमिट प्यास बुझाने के लिए
समूचे मध्य-पूर्व का नया नक्शा खींच सकते हैं।
जब लूट से पैदा हुई ताक़त का जादू
यरुशलम के प्रार्थना-संगीत को
युद्ध गीतों की धुन में बदल रहा होता है,
तब नोबल शान्ति पुरस्कार के तमगे को
ख़ून में डुबोकर पवित्र बनाने का
अनुष्ठान किया जाता है
और मुक्ति के सपनों को शान्ति के लिए
सबसे बड़ा ख़तरा घोषित कर दिया जाता है।
सक्रिय प्रतीक्षा की मद्धम आँच पर
एक उम्मीद सुलगती रहती है कि
तमाम हारी गयी लड़ाइयों की स्मृतियाँ
विद्युत-चुम्बकीय तरंगों में बदलकर
महादेशों-महासागरों को पार करती
हिमालय, माच्चू-पिच्चू और किलिमंजारो के शिखरों से
टकरायेंगी और निर्णायक मुक्ति-युद्ध का सन्देश बन
पूरी दुनिया के दबे-कुचले लोगों की सोयी हुई चेतना पर
अनवरत मेह बनकर बरसने लगेंगी।
इसी समय गोधूलि, जीवन के रहस्यों,
आत्मा के उज्ज्वल दुखों,
आत्मतुष्ट अकेलेपन, स्वर्गिक राग-विरागों,
भाषा के जादू और बिम्बों की आभा में भटकते कविगण
अपनी कविताओं में फिर से प्यार की अबाबीलों,
शान्ति के कबूतरों, झीने पारभासी पर्दों के पीछे से
झाँकते स्वप्नों और अलौकिकता को
आमंत्रित करते हैं और कॉफ़ी पीते हैं,
और बार-बार दस तक गिनती गिनते हैं
और डाकिये का इन्तज़ार करते हैं।
जिस समय विचारक गण भाषा के पर्दे के पीछे
सच्चाइयों का अस्थि-विसर्जन कर रहे होते हैं
इतिहास के काले जल में
और सड़कों पर शोर मचाता, शंख बजाता
एक जुलूस गुज़रता होता है
कहीं सोमनाथ से अयोध्या तक, तो कहीं
बगदाद से त्रिपोली होते हुए दमिश्क और बेरूत तक,
ठीक उसी समय गाज़ा के घायल घण्टाघर का
गजर बजता है
गुज़रे दिनों की स्मृतियाँ अपनी मातमी पोशाकें
उतारने लगती हैं,
माँएँ छोटे-छोटे ताबूतों के सामने बैठ
लोरी गाने लगती हैं
और फ़िलिस्तीन धरती पर आज़ादी की रोशनी फैलाने में
साझीदार बनने के लिए
पूरी दुनिया को सन्देश भेजने में
नये सिरे से जुट जाता है।
(2015)
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2023
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन