‘आई लव मुहम्मद’ विवाद और उसका फ़ासीवादी साम्प्रदायिक इस्तेमाल

प्रसेन

एक पुरानी कहानी है कि एक भेड़िया झरने से ऊपर से पानी पी रहा था। नीचे जहाँ झरने का पानी गिर रहा था, वहाँ एक मेमना पानी पी रहा था। भेड़िया मेमने को खाना चाहता था। तो पहले इसके लिए बहाना बनाया कि- ‘तुमने मेरा पानी जूठा कर दिया।’ इस पर मेमने ने कहा कि- ‘पानी तो ऊपर से नीचे आ रहा है और ऊपर आप पानी पी रहे हैं। तो असल में आपका जूठा पानी मैं पी रहा हूँ।’ अब भेड़िये ने एक नया बहाना ढूँढा- ‘अच्छा तू वही है न जिसने एक साल पहले मुझे परेशान किया था।’ मेमना बोला कि महोदय अभी मुझे पैदा हुए ही छः महीने हुए हैं। बहाना काम न आते देख भेड़िया नाराज़ होकर बोला कि- ‘तू बहुत बोलता है!’ और यह कहकर मेमने पर झपट पड़ा।

तुलनाओं की अपनी समस्या होने के बावजूद वर्तमान समय में योगी सरकार का मुस्लिमों के साथ यही रवैया है। मुस्लिमों को निशाना बना कर साम्प्रदायिक हिन्दू मानस को तुष्ट करने, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को व्यापक और गहरा बनाने और असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए योगी सरकार कुछ भी कर सकती है। अभी हाल में ही ‘आई लव मुहम्मद’ के पोस्टर-बैनर लगने के बाद जो घटनाक्रम सामने आया, वो इसका सबसे ताज़ा और ठोस उदाहरण है।

ज्ञात हो कि कानपुर के रावतपुर के सैय्यद नगर इलाक़े में 4 सितम्बर को बारावफ़ात (पैगम्बर मुहम्मद के जन्मदिवस पर) के जुलूस के दौरान मुस्लिमों ने ‘आई लव मुहम्मद’ का बैनर लगाया। हिन्दू संगठन इस बैनर को हटवाने के लिए अड़ गये। हंगामा खड़ा होने पर पहुँची कानपुर पुलिस ने “नई परम्परा” शुरू करने का हवाला देते हुए इस बैनर को हटवा दिया। बाद में नई परम्परा शुरू करने  और माहौल बिगाड़ने के नाम पर नौ लोगों, 10-15 अज्ञात और दो वाहनों के नम्बर पर सवार अज्ञात के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज कर लिया। इस कार्यवाई के विरोधस्वरूप देश के विभिन्न हिस्सों में मुसलमान  सोशल मीडिया पर ‘आई लव मुहम्मद’ का पोस्ट डालने लगे और कई जगहों पर पोस्टर लगाये। पुलिस ने इन पोस्ट/पोस्टर के लिए कार्रवाई करना शुरू कर दिया।

कानपुर में पुलिसिया कार्यवाई के बाद  उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, तेलंगाना और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में मुस्लिमों द्वारा विरोध प्रदर्शन हुए। उन्नाव, बरेली, कौशाम्बी, लखनऊ, महाराजगंज, काशीपुर और हैदराबाद जैसे शहरों में रैलियाँ और सड़कों पर प्रदर्शन हुए हैं, जिनमें से कुछ जगहों पर पुलिस के साथ झड़प भी हुई। इस मामले में पूरे देश में अब तक 21 मामले दर्ज किए गये हैं और 1,324 मुस्लिमों पर आरोप लगाये  गये  हैं, जिनमें 38 गिरफ़्तारियाँ भी हुई हैं। उत्तर प्रदेश में इस मामले में अब तक सबसे अधिक 16 एफ़आईआर दर्ज हुई हैं और 1,000 से अधिक लोगों को आरोपी बनाया गया है।

कानपुर में मुस्लिमों पर एकतरफ़ा कार्यवाई के बाद पुलिस ने सफ़ाई देते हुए कहा कि यह कार्यवाई ‘आई लव मुहम्मद’ पर नहीं बल्कि नई परम्परा शुरू करने और माहौल ख़राब करने के लिए की गयी है।  लेकिन सवाल यह है कि माहौल ख़राब करने में हिन्दू संगठन के लोग भी ज़िम्मेदार थे लेकिन उन पर कोई कार्यवाई क्यों नहीं हुई? अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार पोस्ट डालना कैसे गुनाह हो गया? बजरंग दल से लेकर कई कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों ने ‘आई लव महादेव’ से लेकर ‘आई लव योगी’ तक के पोस्टर, बैनर लगाये और सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली। लेकिन तब इस “नई परम्परा” पर कोई कार्यवाई नहीं हुई। सोशल मीडिया पर मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक पोस्ट की बाढ़ आ गयी लेकिन इस पर भी कोई कार्यवाई नहीं हुई। हाथरस में एक प्रदर्शन में तो ‘आई लव यूपी पुलिस’, ‘आई लव योगी’ और ‘आई लव महादेव’ के बैनर लेकर लोग नारे लगा रहे थे- ‘यूपी पुलिस तुम लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं’! क्या इससे माहौल ख़राब नहीं होता?

खैर, पुलिस वालों की इस सफ़ाई पर कोई भी समझदार आदमी भरोसा नहीं करेगा! बाकी इस एकतरफ़ा पुलिसिया कार्यवाई का सच योगी आदित्यनाथ के घटिया नफ़रती बयान से और भी नंगे रूप में उजागर हो जाता है। इस मामले पर योगी आदित्यनाथ ने मुस्लिमों को धमकाते हुए (और धमकी उस काम के लिए, जो मुस्लिमों ने किया ही नहीं!) कहा कि – “लातों के भूत बातों से नहीं मानते।…कुछ लोगों को हिन्दू त्यौहार आते ही गर्मी होने लगती है। ऐसे लोगों की गर्मी शान्त करने के लिए डेंटिंग-पेंटिंग करनी पड़ती है।…एक मौलाना भूल गया था कि उत्तर प्रदेश में किसकी सरकार है, ऐसा सबक सिखायेंगे कि इनकी आने वाली जनरेशन दंगा करना भूल जायेगी।…दंगाइयों को जहन्नुम पहुँचा दिया जायेगा।” स्थिति बहुत साफ़ है कि पहले तो ऐसी परिस्थिति पैदा की जाती है कि मुस्लिम उसका विरोध करें। उसके बाद उनको प्रशासन और मीडिया के सहारे दंगाई घोषित कर एकतरफ़ा दमन की कार्यवाई की जाती है और फिर फ़ासीवादी सरकार इसके ज़रिये जनता में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की घिनौनी राजनीति करती है।

वैसे देखा जाये तो देश का पूँजीवादी संविधान भी किसी व्यक्ति को उसकी आस्था के मुताबिक़ धार्मिक स्वतन्त्रता की गारण्टी देता है। लेकिन फ़ासीवादी ताक़तों के सत्ता में आने के बाद संविधान द्वारा जनता को मिले सीमित जनवादी अधिकारों को भी छीनती जा रही हैं। लोकतन्त्र का बस खोल बचा है। उसकी जनवादी अनर्वस्तु को लगातार कुतर-कुतर कर तेज़ी से ख़त्म कर दिया गया है। प्रशासन, न्यायपालिका, चुनाव आयोग जैसी सभी संस्थाओं पर फ़ासीवादी ताक़तों ने अन्दर से क़ब्ज़ा कर लिया है। मुख्यधारा की मीडिया फ़ासीवादी भाजपा के साथ एकदम नंगे रूप में खड़ी है। गाँवों-शहरों की व्यापक आम जनता में संघ परिवार व उसकी साम्प्रदायिक विचारधारा ने लम्बे समय से संस्थागत कार्यों के ज़रिये बहुत गहरी पैठ बना ली है। ऐसे में फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा एक धर्म विशेष के लोगों को आतंकी, दंगाई बनाना और उसके दमन को ‘साम्प्रदायिक औचित्य’ प्रदान करना बहुत आसान हो जाता है। मज़ेदार बात यह है कि जनविरोधी क़ानून व नीति निर्माण, जन आन्दोलनों के दमन की तरह यह सारा काम ‘क़ानून-व्यवस्था’ के अन्तर्गत हो जाता है।

फ़ासीवादी भाजपा (ख़ासकर उत्तर प्रदेश में योगी सरकार और जबकि योगी मोदी को पीछे छोड़ने पर आमादा है) जनता के हक़ों पर डाका डालने के अपने कुकर्मों को छिपाने और देश की व्यापक जनता में बढ़ रहे असन्तोष को असली मुद्दों से हटाने के लिए बहुत निरन्तरता से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को तेज़ करने के लिए बाध्य है। फ़ासीवादी भाजपा बहुत सोचे-समझे तरीक़े से साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने के लिए त्यौहारों का इस्तेमाल कर रही है। संघ परिवार द्वारा हिन्दू त्यौहारों पर जानबूझकर मस्जिदों को ढकने, मुस्लिम इलाक़ों से जुलूस निकालने, मुस्लिम-विरोधी गाने बजाने, धार्मिक स्थलों पर पत्थर आदि फेंककर उकसाने की गतिविधियाँ अंजाम दी जाती हैं। किसी भी तरह का बवाल होने पर प्रशासन को स्पष्ट रहता है कि क्या करना है! बाकी काम गोदी मीडिया और संघ परिवार कर देता है। कोई मसला न मिलने पर ‘आई लव मुहम्मद’ का बैनर भी मसला बना दिया जाता है। फिर पुलिस प्रशासन एकतरफ़ा कार्यवाई करती है, गोदी मीडिया व संघ परिवार मुस्लिमों को उपद्रवी, दंगाई साबित करती है और योगी नवरात्रि, दुर्गा पूजा, दशहरा आदि हिन्दू त्यौहारों में विघ्न डालने वाले “दंगाइयों”, “राक्षसों” को जहन्नुम में पहुँचाने का ज़हरीला साम्प्रदायिक भाषण देते हैं।

वास्तव में, फ़ासीवादी भाजपा देश की व्यापक मेहनतकश जनता के हक़ों पर डाका डालकर मुट्ठीभर पूँजीपतियों की जी-तोड़ सेवा कर रही है। इनके कुकर्मों का भांडा फूट रहा है। सत्ता में आने के बाद से इनके पूँजीपरस्त, मेहनतकश-विरोधी, भ्रष्टाचारी चेहरे से रामनामी दुपट्टा उघड़ता जा रहा है। फ़ासिस्टों के छात्र-विरोधी, कर्मचारी-विरोधी, मज़दूर-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ छात्रों, मेहनतकश जनता का असन्तोष तेज़ी से बढ़ रहा है। भाजपा द्वारा जनता पर लादे गये  जीएसटी और पेट्रोलियम पर भारी टैक्स वसूली के चलते आसमान छूती महँगाई से लोग बुरी तरह त्रस्त हैं। भाजपा द्वारा पीएम केयर घोटाला से लेकर, इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाला, विद्युत वितरण अनुबन्ध में अडानी को मालामाल करने जैसे दर्जनों घोटालों से इनका असली चाल-चेहरा-चरित्र लोगों के सामने उजागर होता जा रहा है। ईवीएम में हेरे-फेर करने, एसआईआर के ज़रिये लाखों लोगों का निर्वाचन लिस्ट से नाम कटवाने के बावजूद फ़ासिस्ट सत्ता में बरक़रार रहने को लेकर बहुत निश्चिन्त नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को तेज़ करना फ़ासिस्टों के लिए ज़रूरी हो गया है।

भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति का जवाब तभी दिया जा सकता है, जब इनकी मेहनतकश-विरोधी नीतियों का बहुत निरन्तरता के साथ आम आबादी में चौतरफ़ा भण्डाफोड़ अभियान संगठित किया जाये । आम मेहनतकश हिन्दू आबादी को यह बात समझनी ही होगी कि फ़ासीवादी भाजपा का उनके हितों से कुछ लेना-देना नहीं है। फ़ासीवादी भाजपा केवल मुट्ठी-भर पूँजीपतियों की सेवक है फिर वो किसी भी जाति-धर्म-क्षेत्र के हों। हिन्दू मेहनतकश जनता के दुश्मन मुस्लिम मेहनतकश जनता नहीं है बल्कि हिन्दू-मुस्लिम और अन्य किसी भी धर्म को मानने वाली मेहनतकश जनता के साझा दुश्मन फ़ासीवादी भाजपा सरकार और पूँजीवादी व्यवस्था है। इसलिए फ़ासीवादी भाजपा और पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आम जनता की क्रान्तिकारी एकजुटता ही वास्तविक समाधान है। आम जनता के बीच सच्ची धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को संस्थाबद्ध तरीक़े से पैठाना बहुत अहम कार्यभार है।

फ़ासिस्टों की हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक राजनीति के ख़िलाफ़ लड़ते हुए हमें यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि इसका वास्तविक जवाब साम्प्रदायिक राजनीति के फ्रेमवर्क में या नकली धर्मनिरपेक्षता पर अमल करने वाली चुनावबाज़ पार्टियों को रहनुमा बनाकर नहीं दिया जा सकता। मुस्लिमों के धार्मिक विश्वास की स्वतन्त्रता के जनवादी अधिकार के लिए और मुस्लिमों पर फ़ासिस्टों के हमले के ख़िलाफ़ लड़ते हुए हमें यह बात कत्तई नहीं भूलनी चाहिए कि मुस्लिमों के सच्चे रहनुमा ओवैसी या कोई भी मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन नहीं हो सकते। क्योंकि साम्प्रदायिकता की राजनीति का जवाब साम्प्रदायिकता की राजनीति नहीं है। उल्टे इससे फ़ासीवादी शक्तियाँ अपनी साम्प्रदायिक राजनीति की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी में वैधता हासिल करती हैं। हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति का सही जवाब फ़ासिस्टों के पूँजीपरस्त चेहरे को बेनक़ाब करने और पूँजीवाद-विरोधी सच्ची धर्मनिपेक्षता के उसूलों पर आधारित क्रान्तिकारी राजनीति है। जिस तरह से आज़ादी की लड़ाई में रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक़उल्ला खान अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति के ख़िलाफ़ एकजुट होकर लड़े, उसी तरह इन फ़ासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ भी हमें वर्गीय आधार पर एकजुट होकर लड़ने की ज़रूरत है।

शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के शब्दों में कहें तो – लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्गचेतना की ज़रूरत है। ग़रीब, मेहनतकशों किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुक़सान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरे कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।

 

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025

 

 

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