टीसीएस में 12,000 कर्मचारियों की छँटनी
बेरोज़गारी की आग अब टेक व आईटी सेक्टर के खाते-पीते मज़दूरों को भी ले रही है अपनी ज़द में

सार्थक 

पिछले महीने प्राइवेट सेक्टर के स्वर्ग कहे जाने वाले टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस), और उसके बाद पूरे आईटी सेक्टर में, तब खलबली मच गयी जब कम्पनी ने 12,000 कर्मचारियों की छँटनी का खुलासा किया। इनमें से कई मँझोले स्तर के खाते-पीते, 6 से 10 साल काम कर चुके कर्मचारी भी हैं। नौकरी से निकाले जाने वाले इन कर्मचारियों को उनकी छँटनी के बारे में पहले से कोई सूचना या कोई नोटिस भी नहीं दी गयी है। टीसीएस कर्मचारियों के अनुसार हर दिन दर्जनों कर्मचारियों को मैनेजर के दफ़्तर में बुलाकर धमकाया जा रहा है कि अगर वे “स्वेच्छा” से नौकरी से इस्तीफ़ा नहीं देते हैं तो उनकी वेतन रोक दी जायेगी और उन्हें ‘ब्लैकलिस्ट’ कर दिया जायेगा जिससे उन्हें भविष्य में कोई दूसरी कम्पनी नौकरी नहीं देगी। आईटी सेक्टर के कार्यपद्धति के जानकारों का यह कहना है कि इस तरीक़े से डरा-धमका कर “स्वैच्छिक” इस्तीफ़ा लेना आईटी सेक्टर में एक आम बात है जो हर कम्पनी करती है। यह इसलिए किया जाता है ताकि इस मसले पर कम्पनियों की अपनी जबावदेही ख़त्म हो जाये और औद्योगिक विवाद अधिनियम जैसे बचेखुचे श्रम क़ानूनों और छँटनी-सम्बन्धी क़ानूनों में उन्हें न उलझना पड़े। बिना नोटिस के छँटनी करना और फिर डरा-धमका कर “स्वैच्छिक” इस्तीफ़ा लेने पर मजबूर करना – यह पूरी प्रक्रिया निहायत ही ग़ैरक़ानूनी है। लेकिन बिडम्बना यह है कि टीसीएस, विप्रो, इन्फोसिस, एचसीएल जैसी बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ यह सब श्रम विभाग और सरकार के शह पर करती हैं। आख़िर मज़ाल है किसी की जो “विकसित भारत” के विकास रथ के इन अग्रिम घोड़ों के तरफ़ आँख भी उठाकर देख सके!

इससे पहले जून 2025 में टीसीएस ने अपने “बेंच पॉलिसी” में बदलाव कर “बेंच पीरियड” को 35 दिनों तक सीमित कर दिया था। सीधे-सरल भाषा में इसका मतलब है कि अगर किसी कर्मचारी को 35 दिनों तक कोई प्रोजेक्ट नहीं मिलता है तो उसकी पदावनति और यहाँ तक कि छँटनी भी हो सकती है। इस शोषणकारी नीति के अनुसार बेंच पर बैठे कर्मचारियों को खुद ही अपने लिए प्रोजेक्ट तलाशना होगा और प्रोजेक्ट न मिलने पर 35 दिन के बाद उन्हें कम्पनी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा। टीसीएस के कर्मचारी इस नये “बेंच पॉलिसी” के कारण किसी भी क्षण बेरोज़गार होने के डर में जी ही रहे थे कि सीईओ कृतिवासन ने 12,000 कर्मचारियों की छँटनी का ऐलान करके उनके पैरों तले से ज़मीन ही खिसका दी। इसके साथ ही उदारवादी पूँजीवाद के प्रतीक टाटा के भव्य कारोबारी साम्राज्य के शाही मुकुट का कोहिनूर कहे जाने वाले टीसीएस में हड़कम्प मच गयी। दुनिया के दूसरी सबसे बड़ी आईटी कम्पनी में हुई इस छँटनी ने अन्य कम्पनी के कर्मचारियों के डर और अनिश्चितता को और ज़्यादा बढ़ा दिया है।

लेकिन सच्चाई तो यह है कि आईटी सेक्टर के कर्मचारी पिछले लम्बे समय से, और खास तौर पर 2022 के बाद से, छँटनी और बेरोज़गारी के साये में जी रहे थे। 2008 में अमेरिका के ‘सबप्राइम’ संकट से शुरू हुई आर्थिक मन्दी का प्रकोप भारतीय आईटी सेक्टर पर भी 2010 के दशक की शुरुआत से दिखने लगा था। 2015-16 आते-आते विशेषज्ञ यह घोषणा करने लगे थे कि आईटी सेक्टर का “स्वर्णिम काल” ख़त्म हो गया है। इस दशक के अन्त तक आईटी सेक्टर में नयी भर्ती और वेतन बढ़ोत्तरी के दर में ठहराव की स्थिति पैदा हो चुकी थी और छोटी संख्या में छँटनियाँ भी शुरू हो गयी थी। लेकिन 2000 के दशक में “डॉटकॉम बुलबुला” का फ़ायदा उठाकर और इंजीनियरिंग कॉलेजों से निकली सस्ती कुशल श्रमशक्ति का दोहन करके भारतीय आईटी सेक्टर ने जो ताबड़तोड़ मुनाफ़ा पीटा था और जो मोटा पूँजी संचय किया था, इसने आईटी सेक्टर के शुरुआती संकट को विकराल रूप लेने से बचा लिया। आईटी सेक्टर में संकट की यह सुगबुगाहट और कुछ नहीं बल्कि समूचे पूँजीवादी व्यवस्था में दीर्घकालिक मन्दी और मुनाफ़े के गिरते दर के कारण पैदा हुए आर्थिक संकट की ही ठोस अभिव्यक्ति थी।

ऐसी स्थिति में 2020 में शुरू हुई कोविड महामारी और लॉकडाउन ने लचर आईटी उद्योग को तात्कालिक राहत देने का काम किया। लॉकडाउन ने कई व्यापार और सेवाओं को ऑनलाइन काम करने पर मजबूर कर दिया और इसके साथ ही तमाम तरह के ऑनलाइन सेवाओं की माँग में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ। 2020 और 2021 में भारत और दुनिया भर के आईटी कम्पनियों ने इस माँग की आपूर्ति के लिए बड़ी संख्या में नयी भर्तियाँ की। लेकिन 2022 आते-आते लॉकडाउन खुल गया, ऑनलाइन सेवाओं की माँग सापेक्षतः कम होने लगी और कोरोना के समय बना यह आईटी बुलबुला भी फूट गया। अब, कोरोना के बाद, वैश्विक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और ज़्यादा गहरी मन्दी में धँस चुकी थी और मुनाफ़े के गिरते दर के कारण पैदा हुआ आर्थिक संकट भी तीव्रतर रूप ले रहा था। जल्द ही, टेक, एड-टेक और आईटी कम्पनियों में बड़ी संख्या में छँटनियों का सिलसिला शुरू हो गया। 2022 में ही दुनिया के 50 बड़े टेक, एड-टेक और आईटी कम्पनियों ने 90 हज़ार कर्मचारियों की छँटनी की। अकेले मेटा ने 2022 में 13,000 और 2023 में 10,000 कर्मचारियों की छँटनी की थी।  भारत में साल 2022 में ही बाइजू, अनएकेडमी और वेदान्तु ने क्रमशः 2,500, 1,300 और 1,100 कर्मचारियों की छँटनी की। 2022 में ट्विटर को खरीदने के बाद एलोन मस्क ने छः महीने के भीतर ट्विटर के 80 प्रतिशत कर्मचारियों की छँटनी कर दी थी। इसके अलावा, 2024 में मस्क के टेस्ला ने 14,000 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया था। अकेले वित्तीय वर्ष 2023-24 में टीसीएस में कुल 13,200 कर्मचारी कम हो गये थे।

2025 में छँटनियों का सिलसिला पहले के मुक़ाबले और तेज़ हो गया है। इस साल माइक्रोसॉफ्ट, मेटा, इन्टेल, आईबीएम और पैनासोनिक जैसी बड़ी टेक कम्पनियों ने क्रमशः 17,000, 4,000, 24,000, 8,000 और 10,000  कर्मचारियों की छँटनी की है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2025 में अब तक प्रति दिन 501 टेक और आईटी कर्मचारियों की छँटनी हो रही है, यानी हर तीन मिनट में एक व्यक्ति अपनी नौकरी गँवा रहा है। ‘द हिन्दू’ में छपे एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार इस साल दुनिया भर के बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने 1,05,000 पदों को समाप्त कर दिया, जिसमें से 20 प्रतिशत भारतीय थे। रिपोर्ट के अनुसार इनमें से 45 प्रतिशत मँझोले स्तर के ‘एचआर’, ‘कॉन्टेंट’, ‘सपोर्ट’, ‘कोडिंग’ इत्यादि के पद थे। एचसीएल ने भी आसन्न छँटनियों के बारे में घोषणा कर दी है। इन्फोसिस ने पिछले एक साल से नयी भर्तियाँ ही रोक दी है। मार्च 2025 में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार 2025 में ग्रेजुएट होने वाले देश के 83 प्रतिशत इंजीनियरिंग छात्रों और 46 प्रतिशत एमबीए छात्रों के पास न कोई नौकरी है और न ही कोई इंटर्नशिप के अवसर। इंजीनियरिंग कॉलेजों के छात्रों के बीच यह एक स्थापित तथ्य है कि प्राइवेट कॉलेजों में कैम्पस प्लेसमेन्ट होने लगभग बन्द ही हो गये हैं। हज़ारों की संख्या में खुले इन प्राइवेट कॉलेजों के छात्रों को लाखों रुपये फ़ीस भरकर आख़िरकार कॉल सेन्टर व डेटा एण्ट्री जैसे प्रवेश-स्तरीय कामों में लगना पड़ता है। या बेरोज़गार ग्रेजुएट बैंक पीओ, रेलवे या एसएससी जैसी परीक्षाओं की तैयारी करके सरकारी नौकरी के मृगतृष्णा का लड़खड़ाते क़दमों के साथ पीछा करते हुए अपनी जवानी बर्बाद करने के लिए अभिशप्त हैं। बेरोज़गारी का आलम यह है कि ओला, उबेर या रपिडो बाइक चालकों या स्विग्गी, ज़ोमाटो, ब्लिंकइट की डिलीवरी करने वाले नौजवानों में बहुतेरे इंजीनियरिंग ग्रेजुएट मिल जायेंगे।

मीडिया और अख़बार में कई ऐसे “इण्डस्ट्री एक्सपर्ट” यह कहते दिख जायेंगे कि देश के ज़्यादातर इंजीनियरिंग ग्रेजुएटों के पास पर्याप्त कौशल नहीं है और इसीलिए उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है या उनकी छँटनी हो रही है। यह एक कोरा झूठ और विभ्रम है जो इस पूँजीवादी व्यवस्था के भाड़े के “एक्सपर्ट” फैला रहे हैं ताकि हर साल इंजीनियरिंग कॉलेजों से पास हो रहे लाखों नौजवानों का गुस्सा इस मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था पर न फूटे जो उन्हें एक ढँग की नौकरी तक नहीं दे सकती, और ये नौजवान अपनी बेरोज़गारी के लिए अपनी “अयोग्यता” को ही कोसते रहें। इस बेतुके तर्क के सन्दर्भ में पहली बात तो यह है कि अगर यह वाकई सच है कि इंजीनियरिंग छात्रों के पास नौकरी पाने लायक पर्याप्त कौशल नहीं है तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? बेशक़ मोटे पैसे कमाने के मक़सद से खोले गये रद्दी प्राइवेट कॉलेज और सरकार इसके लिए ज़िम्मेदार है। दूसरी बात, टेक और आईटी सेक्टर, या आम तौर पर किसी भी सेक्टर, में काम करने वाले लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी नये कर्मचारी को तीन से चार महीने प्रशिक्षण देकर उसे उस काम के लिए पर्याप्त कुशल बनाया जा सकता है, और सभी आईटी कम्पनियाँ अब तक यही कर रही थीं। तीसरी बात, क्या हमारा देश आज आर्थिक विकास के उस स्तर तक पहुँच गया है जहाँ देश के हर व्यक्ति के लिए उसकी ज़रूरत के हिसाब से उत्पादन हो रहा हो, जहाँ पर्याप्त स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, आवास, सड़कें, पुल, ऊर्जा आदि चीजें मौजूद हो? बिलकुल नहीं! तो क्या उत्पादन को बढ़ाने के लिए इन इंजीनियरिंग ग्रेजुएटों को काम पर नहीं लगाया जा सकता है? बिलकुल लगाया जा सकता है, बशर्ते कि देश में एक ऐसी व्यवस्था हो जिसका मक़सद टाटा, प्रेमजी और नारायणमूर्ति के लिए मुनाफ़ा सुनिश्चित करना नहीं बल्कि हर इंसान की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना हो। इसके अलावा, सोशल मीडिया ऐसे “विद्वानों” से भी भरा पड़ा है जो आये दिन “एआई के ख़तरे” का भोंपू बजाते रहते हैं और टेक-आईटी सेक्टर में कोई भी छँटनी के घटना के बाद और ज़ोरों से छाती पीट-पीट कर रोने लगते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एआई के आने के बाद कई नौकरियाँ ख़त्म हो गयी हैं और कई लोग बेरोज़गार हो रहे हैं, खास तौर पर वह आबादी जो टेक-आईटी व अन्य सेक्टरों में सस्ता बौद्धिक श्रमशक्ति मुहैया करती थी। लेकिन यह दुःखदायी प्रक्रिया पूँजीवाद के इतिहास में हर तकनीकी छलाँग के बाद देखी जा सकती है। यहाँ हमें यह समझने की ज़रूरत है कि हमारा असली दुश्मन एआई नहीं बल्कि यह पूँजीवादी व्यवस्था है जिसे कम लोगों से ज़्यादा से ज़्यादा काम करवाकर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा पीटने से ही बस मतलब है। सबको अच्छा रोज़गार और एक अच्छी इंसानी ज़िन्दगी देने से इस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसी व्यवस्था में एआई भी मज़दूर वर्ग के काम को आसान बनाने और मानव समाज के सभी ज़रूरतों को पूरा करने का एक उपकरण के बदले नौकरियाँ छीनकर लोगों के दुःख-तकलीफ़ को बढ़ाने वाला एक दैत्यकारी शक्ति जैसा प्रतीत होता है।

वैसे तो टेक व आईटी कम्पनियाँ निम्न-स्तरीय पदों पर 25,000-30,000 रपये कमा रहे कम अनुभवी कर्मचारियों का पहले भी छँटनी करती रही हैं। लेकिन गहराते पूँजीवादी आर्थिक संकट के दौर में अब खाते-पीते मँझोले-स्तर के अनुभवी कर्मचारी, जो हर महीने 70,000-80,000 कमाते हैं, उन पर भी छँटनी की तलवार लटक रही है। कार्यबल कम करके, मँझोले कर्मचारियों की छँटनियाँ करके, कम दाम पर निम्न-स्तरीय पदों पर खटने वाले कर्मचारियों से दुगुना काम कराना, और कुछ सालों बाद जब इन कर्मचारियों का वेतन बढ़ाकर पदोन्नति करने का समय आये, तब उन्हें दूध में पड़ी मक्खी जैसे उठाकर बाहर फेंक देना – यह है इन टेक व आईटी कम्पनियों का मुनाफ़ा पीटने का नया हथकण्डा। यह अनायास नहीं है कि पिछले एक-दो सालों में इन्फोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति, एलएण्डटी के अध्यक्ष सुब्रमणियन, ओला के प्रमुख भावेश अग्रवाल और बॉम्बे शेविंग कम्पनी के संस्थापक शांतनु देशपाण्डे जैसे मुनाफ़ाखोर परजीवी नये कर्मचारियों को बिना कोई शिकायत के सप्ताह में 70 से 90 घण्टें काम करने की हिदायत देते रहे हैं। देश में आये-दिन काम के अधिक बोझ, छँटनी का डर और आर्थिक असुरक्षा के कारण हो रहे आत्महत्याओं के बारे में सुनने को मिलता है, जिसमें से एक हिस्सा इन टेक व आईटी सेक्टर में काम कर है निम्न और मँझोले कर्मचारियों का है। मैककिंसे द्वारा 2023 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 60 प्रतिशत लोग अधिक काम के बोझ के कारण ज़्यादा थका हुआ और तनावग्रस्त महसूस करते हैं, जो अन्य किसी देश के मुक़ाबले सबसे अधिक है। मार्च 2025 में ‘द हिन्दू’ में छपे एक रिपोर्ट के अनुसार देश के टेक व आईटी सेक्टर में काम कर रहे 25 प्रतिशत कर्मचारी नियमित तौर पर सप्ताह में 70 घण्टे से ज़्यादा काम करते हैं, और 72 प्रतिशत कर्मचारी तो ऐसे हैं जो सप्ताह में 48 घण्टे से ज़्यादा काम कर रहे हैं। इस रिपोर्ट की माने तो देश के 83 प्रतिशत टेक-आईटी कर्मचारी अत्याधिक काम के दबाव के कारण भयंकर शारीरिक और मानसिक थकान का शिकार हैं। छँटनी और काम के अत्यधिक बोझ के साथ-साथ बढ़ती महँगाई ने भी इस पेशे के कर्मचारियों की कमर तोड़ दी है और उनकी आर्थिक अनिश्चितता और असुरक्षा को बढ़ा रही है। आरबीआई के हालिया आँकड़ों के अनुसार देश के सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में घरेलु बचत 50 साल के अपने सबसे निचले स्तर पर है। इसका मतलब यह है कि बढ़ती महँगाई के कारण देश की बड़ी आबादी के पास बचत करने के लिए बिरले ही कुछ बच रहा है। इसलिए अक़्सर आपको निम्न-मँझोले वेतनभोगी टेक-आईटी कर्मचारी सोशल मीडिया पर महँगी होती शिक्षा, स्वास्थ्य, पेट्रोल, गैस और घर का किराया आदि चीज़ों के बारे में शिकायत करते दिख जायेंगे। हालाँकि, यह अलग बात है कि अक्सर टुटपुँजिया वर्ग से आने और टुटपुँजिया दृष्टिकोण से ग्रसित होने के कारण यह आबादी अपने आर्थिक असुरक्षा-अनिश्चतता का असली कारण नहीं समझ पाती और अक़्सर फ़ासीवादी राजनीति और प्रचार का शिकार बनती है।

आज देश के मज़दूर वर्ग, क्रान्तिकारी मज़दूर सगठनकर्ता और मज़दूर वर्ग की पार्टी के पास यह मौका है कि वह तेज़ी से उजड़ते, बर्बाद होते इन टेक-आईटी कर्मचारियों के बीच पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई का क्रान्तिकारी प्रचार करें और अपनी विचारधारा और राजनीतिक लाइन का वर्चस्व स्थापित करके उन्हें क्रान्ति के पक्ष में खड़ा करे। निस्संदेह यह एक दीर्घकालिक और श्रमसाध्य काम है, खास तौर पर ऐसी स्थिति में जब इस पेशे में लगे कर्मचारी खुदको मज़दूर वर्ग से ऊपर मानते हैं, आम मज़दूर-मेहनतकशों को हेय दृष्टि से देखते हैं और खुद को विचारधारात्मक तौर पर शासक वर्ग का हिस्सा मानते हैं। लेकिन, इसके बावजूद, एक सही राजनीतिक लाइन की रौशनी में अगर रचनात्मक तरीक़े से इस आबादी के बिच काम किया जाये तो इसके आर्थिक असुरक्षा से पैदा हुए असंतोष और गुस्से को एक सही क्रान्तिकारी दिशा में मोड़ा जा सकता है। आज आईटी कर्मचारियों के बिच सिर्फ़ संशोधनवादी भाकपा (मार्क्सवादी) द्वारा चलाये जा रहे दो-तीन यूनियनें हैं जो उनके पूरे संघर्ष के जुझारू सम्भावना को कुन्द करने और उसे सुधारवाद और क़ानूनवाद (‘लीगलिज़्म’) के गड्ढे में ले जाने का काम कर रहे हैं। इसलिए, टेक-आईटी सेक्टर के निम्न और मँझोले स्तर के इन कर्मचारियों के जुझारू यूनियनें खड़ा करना और उनके बीच इस शोषणकारी पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत को बेनक़ाब करना आज क्रन्तिकारी सर्वहारा आन्दोलन का एक ज़रूरी कार्यभार है।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2025

 

 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन