भाजपा के रामराज्य में बढ़ते दलित-विरोधी अपराध
अदिती
2014 में फ़ासीवादी भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं की बाढ़ सी आ गयी है। दलित विरोधी अपराध बर्बरता की सारी हदें पार करते जा रहे हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब दलितों के साथ जातिवादी गुण्डों द्वारा हिंसा की घटना सामने न आती हो। देश भर में दलितों के ख़िलाफ़ होने वाले उत्पीड़न और शोषण की घटनाएँ इतिहास में एक ख़ून सने पन्ने की तरह दर्ज़ हो गयी हैं। आइए एक बार नज़र डालते हैं, हालिया दलित विरोधी घटनाओं पर। बीते कुछ समय में जातिगत उत्पीड़न की कुछ दर्ज़ हुई प्रातिनिधिक घटनाएँ ये हैं :
- जून 2024, में मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में एक दलित युवक की निर्वस्त्र कर पिटायी करने और सिगरेट से दागने का मामला सामने आया है।
- मई 2025, में मुजफ्फ़रपुर के कुढ़नी ज़िले में 9 वर्षीय बच्ची के बलात्कार की घटना और जानलेवा हमले की ख़बर सामने आयी। घटना के कुछ दिन बाद ही बच्ची की अस्पताल में मौत हो गयी।
- जून 2025, में ओड़िशा के गंजाम ज़िले में दो दलित युवकों पर गौ-तस्करी के शक़ के आधार पर भीड़ द्वारा हमला किया गया। युवकों को ज़बरन नाली का पानी पिलाया गया और घास खाने को मज़बूर किया गया। इसी के साथ कई किलोमीटर घुटने के बल रेंगने के लिए भी मज़बूर किया गया।
- उत्तर कर्नाटक के यादगीर ज़िले के बप्पारागा गाँव में 50 दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार किया गया। ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि ऊँची जाति के लड़के द्वारा नाबालिग दलित बच्ची के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ परिजनों ने मुक़दमा दर्ज करवा दिया गया था। केस दर्ज कराने के बाद पहले तो पीड़िता के परिजनों पर केस वापस लेने का दबाव डाला गया। जब उन्होंने केस वापस लेने से मना किया तो इलाक़े के सभी दलितों का बहिष्कार कर दिया गया।
- जुलाई 2025, में हरियाणा के हिसार में डीजे चलाने पर पुलिस द्वारा मार-पिटाई करने पर एक दलित युवक की मौत हो गयी, जबकि एक युवक ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा है।
- अप्रैल 2025, में हिसार के मदनहेड़ी गाँव में कांग्रेस प्रत्याशी जस्सी पेटवाड़ (जो उच्ची जाति से सम्बन्ध रखते हैं) को वोट देने के लिए दलित समुदाय पर जबरन दबाव डाला गया, इसका विरोध करने पर लगभग 80 दलित परिवारों का समाजिक बहिष्कार किया गया।
- नवम्बर 2024, में मध्य प्रदेश से दो दलित उत्पीड़न की घटनाएँ सामने आयी।
- मध्य प्रदेश के शिवपुरी में इंदरगढ़ गाँव में इलाक़े में सरपंच ने ज़मीन और बोरबेल के मामूली विवाद के बाद युवक की हत्या कर दी।
- मध्य प्रदेश के जबलपुर के तिलवारा क्षेत्र में भाजपा के बूथ अध्यक्ष अमित द्विवेदी ने दलित परिवार से मारपीट की, यहाँ तक की उसने मासूम बच्चे तक पर हमला किया।
ये चन्द घटनाएँ ही भाजपा के रामराज्य की हकीक़त बताती हैं। जहाँ एक तरफ़ अपराध ख़त्म करने के दावे किये जा रहे है़ं, तमाम नेता-मन्त्रियों द्वारा जातिगत बराबरी की नौटंकी करते हुए दलित और ग़रीब बस्तियों में खाना खाने और रात बिताने की नौटंकी की जाती है, लेकिन दूसरी तरफ़ सच्चाई इससे कहीं दूर है। असलियत में हर रोज़ दलितों के ख़िलाफ़ बर्बतम घटनाएँ अंजाम दी जाती हैं। फ़ासीवादी भाजपा सरकार के राज में दलित-विरोधी आपराधिक मानसिकता को पूरी तरह से संरक्षण मिला हुआ है। एक बार आँकड़ों पर निगाह डालते हैं, जो भाजपा के राज्य में दलित विरोधी अपराधों की सच्चाई बताते हैं।
बोलते आँकड़े चीखती सच्चाई
एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि 2019 की तुलना में 2020 में दलित विरोधी अपराधों में वृद्धि हुई है और इस में भी उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है। दलितों की सुरक्षा के लिए बनाये गये तमाम क़ानून केवल काग़ज़ी हैं। पुलिस प्रशासन से लेकर व्यवस्था की पूरी मशीनरी में ऐसी दलित-विरोधी मानसिकता को प्रश्रय देने वाले भरे पड़े हैं। आज यह सबकुछ सामान्य बनता जा रहा है। मनुवाद और ब्राह्मणवाद की पैरोकार भाजपा के सत्ता में आने के बाद जातिवादी दलितों पर हमले तेज़ हुए हैं। वहीं अगर हम 2021 की रिपोर्ट पर नज़र डाले तो स्थिति और भी भयंकर नज़र आती है:-
एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पता चला है कि 2021 में अनुसूचित जातियों (एससी) के ख़िलाफ़ उत्पीड़न में 1.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिसमें उत्तर प्रदेश में उत्पीड़न के सबसे अधिक मामले 25.82 प्रतिशत दर्ज किये गये हैं। इसके बाद राजस्थान में 14.7 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 2021 के दौरान 14.1 प्रतिशत मामले दर्ज किये गये हैं। इसके अलावा, रिपोर्ट के अनुसार 2021 में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के ख़िलाफ़ अत्याचार में 6.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिसमें मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 29.8 प्रतिशत मामले दर्ज किये गये हैं। इसके बाद राजस्थान में 24प्रतिशत और ओडिशा में 2021 में 7.6 प्रतिशत मामले दर्ज किये गये हैं।
दलित और आदिवासी महिलाओं के ख़िलाफ़ भी उत्पीड़न और शोषण में वृद्धि हुई है। कुल दर्ज मामलों में से अनुसूचित जाति की महिलाओं (नाबालिगों सहित) के ख़िलाफ़ बलात्कार के मामले 7.64 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के ख़िलाफ़ 15 प्रतिशत हैं। रिपोर्ट में दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ बलात्कार के मामलों के विस्तृत आँकड़े भी प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें नाबालिगों के साथ बलात्कार, बलात्कार का प्रयास और महिलाओं व नाबालिगों के अपहरण के मामले शामिल हैं, जो कुल मिलाकर अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए 16.8 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए 26.8 प्रतिशत हैं।
रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि वर्ष 2021 के अन्त तक अनुसूचित जातियों के विरुद्ध उत्पीड़न के कुल 70,818 मामले सामने आये है, जो कि जाँच के लिए लम्बित थे। इसी के साथ अनुसूचित जनजातियों के ख़िलाफ़ भी उत्पीड़न के 12,159 मामलों के जाँच लम्बित थे और इस दौरान अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अत्याचार के कुल 2,63,512 मामले और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार के 42,512 मामले अदालत में सुनवाई के लिए आये।
ये तो वो आँकड़े है जो दर्ज़ हो पाये हैं, लेकिन बहुतेरे दलित विरोधी उत्पीड़न और शोषण के मामले सामाजिक डर और आर्थिक असुरक्षा के चलते पुलिस-प्रशासन के संज्ञान में ही नहीं आ पाते। लेकिन सोचने वाली बात यह भी है कि अन्य मामले भी पुलिस और कोर्ट की फ़ाइलों में दर्ज होने के बाद भी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँच ही नहीं पाते है। देश भर में हुए भयंकर दलित-विरोधी काण्ड और उनकी न्यायिक प्रक्रिया हमारी न्यायव्यवस्था पर भी बहुत से सवाल खड़ी करती है।
अस्मितावादी(पहचान की राजनीति) नहीं, वर्ग–आधारित जाति–विरोधी आन्दोलन का रास्ता ही दलित मुक्ति का रास्ता है!
हमें यह बात भी गाँठ बाँध लेनी होगी कि बिना क्रान्ति के दलित मुक्ति नहीं हो सकती और बिना एक जुझारू वर्ग-आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन के क्रान्ति का रास्ता निर्मित करना भी असम्भव है। जातिवाद और ब्राह्मणवाद आज भौतिक और विचारधारात्मक दोनों ही तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा कर रहा है। जातिगत अस्मितावाद, दलितवाद और तमाम तरह की अस्मितावादी राजनीति और अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद, संविधानवाद व सुधारवाद आज पूँजीवाद के लिए ‘संजीवनी बूटी’ के समान है। मौजूदा निज़ाम और हुक़्मरान पूँजीवाद द्वारा परिष्कृत करके अपना ली गयी जाति-व्यवस्था का अपने हितों के लिए ख़ूब इस्तेमाल कर रहे हैं। यही कारण है कि आज़ादी के 78 साल बाद भी जातिवादी दमन-उत्पीड़न के वाकये घटने के बजाय नये-नये रूपों में बढ़ ही रहे हैं। यदि देशव्यापी आँकड़ों पर नज़र दौड़ायें तो दलितों का क़रीब 95 प्रतिशत हिस्सा खेतिहर मज़दूर, निर्माण मज़दूर, औद्योगिक मज़दूर के तौर व आम तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों के तौर पर पर खट रहा है या फिर साफ़-सफ़ाई जैसे काम में लगा है। इस मज़दूर आबादी के मुद्दे सीधे तौर पर देश की अन्य मेहनतकश आबादी के साथ भी जुड़ते हैं। शिक्षा-रोज़गार-चिकित्सा-आवास-महँगाई जैसे मुद्दों पर होने वाले संघर्षों में हर जाति की मेहनतकश जनता की साझा भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। मज़दूर वर्ग में अन्य जातियों के जनसमुदायों के दिमाग़ में बैठे शासक वर्ग के विचारों यानी जातिगत पूर्वाग्रहों, श्रेष्ठतावाद, ब्राह्मणवाद के विरुद्ध भी तभी संघर्ष किया जा सकता है। अपने भीतर मौजूद शासक वर्ग की विचारधारा और उसके प्रभाव के विरुद्ध संघर्ष का मज़दूर वर्ग का नारा है : एकजुटता और साझा संघर्ष। यह साझा संघर्ष हमारे दुश्मन यानी पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ है और साथ ही उसके विचारों की हमारे भीतर मौजूदगी के ख़िलाफ़ भी है। जनता के बीच मौजूद अन्तरविरोधों को इसी प्रकार से हल किया जा सकता है।
दलित-विरोधी उत्पीड़न के मुद्दों के ख़िलाफ़ लड़े जाने वाले संघर्षों को मज़बूती के साथ तभी लड़ा जा सकता है, जब हर जाति की व्यापक मेहनतकश जनता को जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लामबन्द किया जायेग। तभी जाति-व्यवस्था के ख़ात्मे की लड़ाई को भी आगे बढ़ाया जा सकता है। साथ ही आज ऐसी हर घटना के ख़िलाफ़ एक तरफ़ तो हमें सड़कों पर उतरकर प्रतिरोध दर्ज़ कराना ही होगा, साथ ही इस भ्रम से भी मुक्त होना होगा कि इस व्यवस्था के दायरे के भीतर दलित-मुक्ति का कोई रास्ता निकाला जा सकता है। आज वर्गीय एकता क़ायम करके हमें जाति-उन्मूलन के ख़िलाफ़ संघर्ष को तेज़ करने के लिए आगे आना होगा।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2025