पूँजीवादी पाशविकता की बलि चढ़ते मासूम बच्चे
श्वेता
अक्सर कहा जाता है कि किसी भी समाज के लिए बच्चे ही उसका भविष्य होते हैं। भविष्य की इस पीढ़ी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी समाज पर ही निर्भर होती है। लेकिन जिस समाज की नींव लूट-खसोट और निर्मम शोषण पर टिकी हो, जहाँ मेहनतकश पुरूष और स्त्रियों के अलावा बच्चों के श्रम की एक-एक बूंद को निचोड़कर सिक्कों में ढाला जाता हो, क्या उस समाज में यह भविष्य महफ़ूज़ रह सकता है? कतई नहीं!
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2001-2011 की अवधि के दौरान बच्चों के खिलाफ़ बलात्कार के मामलों में 335 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। इस रिपोर्ट के अनुसार इन दस सालों की अवधि में बच्चों के खिलाफ़ बलात्कार के कुल 48,338 मामले दर्ज हुए हैं। इसमें सबसे अधिक मामले मध्य प्रदेश (9456) में सामने आये हैं। हालाँकि सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थिति इससे कई गुना खराब है क्योंकि रिपोर्ट किए गए अधिकतर मामलों को पुलिस दर्ज तक नहीं करती है। आइए, कुछ अन्य तथ्यों पर भी गौर करें। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार भारत में हर साल हर आयु वर्ग के 44,000 से भी अधिक बच्चे लापता हो जाते हैं। देह व्यापार में हर साल 10 लाख बच्चों-बच्चियों, युवतियों को जबरन धाकेला जाता है। आमतौर पर बच्चों के खिलाफ़ होने वाले अपराधों में बलात्कार, यौन व्यापार, वेश्यावृत्ति के लिए होने वाली खरीद-फ़रोख़्त, अवैध मानव व्यापार और मानव अंगों का अवैध प्रत्यारोपण आदि बड़े पैमाने पर शामिल है।
ऊपर दिए गए आँकड़ों के जरिए हमारा मूल मकसद है उस भयावह तस्वीर की ओर ध्यान खींचना जो इन आँकड़ों के माध्यम से नजर आ रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बच्चों के खिलाफ़ होने वाले अपराधों का शिकार आमतौर से गरीब परिवारों और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चे होते हैं। अक्सर ही ऐसे परिवारों में गुजर बसर के लिए स्त्री और पुरूष दोनों को ही मेहनत मज़दूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालाँकि 12-14 घंटे लगातार अपना हाड़-मांस गलाने के बावजूद उन्हें इतनी कम मज़दूरी मिलती है कि बमुश्किल ही गुजारा हो पाता है। ऐसे हालात में बच्चे घरों में अकेले रह जाते हैं, वे असुरक्षित होते हैं इसलिए तमाम अपराधियों का आसानी से शिकार बनते हैं।
सवाल यह उठता है कि आखिर बच्चों के खिलाफ़ ऐसे अपराध हो ही क्यों रहे हैं और पिछले कुछ साल से इन अपराधों में बेहताशा बढ़ोत्तरी की वजह आखिर क्या है? पहले हम उन कारणों की चर्चा करेंगे जिन्होंने बच्चों, स्त्रियों के खिलाफ़ होने वाले बलात्कार के मामलों में बढ़ोत्तरी का काम किया है। पूँजीवादी व्यवस्था चूंकि बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के ऊपर परजीवी धनिकों की एक छोटी सी आबादी द्वारा कायम एक शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था है इसलिए इसके इतिहास के कई खूनी अध्याय मेहतनकशों की लूट और उनके दमन, बर्बर कत्लेआमों, सामाजिक अपराधों और पाशविक घटनाओं से भरे हुए हैं। पूँजीवाद ने न केवल स्त्रियों और बच्चों की श्रम शक्ति को एक ‘माल’ में तब्दील किया है बल्कि स्वयं उन्हें भी एक ‘माल’ में बदल दिया है। पूँजीवाद की सड़ी गली बीमार संस्कृति ने कुंठित मानसिकता से भरे ‘पशुओं’ में इस ‘माल’ का उपभोग करने की हवस पैदा कर दी है। एक तरफ़ पूँजीवाद में धनपशुओं का एक ऐसा तबका पैदा हो गया है जो सिर से पांव तक विलासिता में डूबा है। पाशविक दुराचार में लिप्त पैसे के घमंड में चूर इस तबके को न पुलिस का डर है न कानून का। निठारी की घटना ऐसे ही धनपशुओं की पतनशीलता का एक प्रतीक उदाहरण थी। इसके अलावा न जाने ऐसी कितनी ही पाशविक घटनाएं रोज-ब-रोज इन खाये-पिये अघाये धनपशुओं के पैसे की गर्मी में दब जाती हैं। दूसरी तरफ़, पूँजीवाद ने मेहनतकशों की आबादी को विपन्नता के जिस अन्धेरे में धकेल दिया है उसके चलते मेहनतकशों की एक आबादी का जो विमानवीकरण हो रहा है उसने लम्पट अपराधियों की एक जमात भी पैदा कर दी है जो स्त्री और बच्चियों के खिलाफ़ अपराधों में लिप्त हैं। इसी का प्रातिनिधिक उदाहरण 16 दिसम्बर की घटना थी। इसके अलावा सदियों से चली आने वाली पितृसत्तात्मक मानसिकता ने इन अपराधों की बढ़ोत्तरी में खाद पानी देने का काम किया है।
हमने ऊपर जिक्र किया था कि बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों में बलात्कार के अलावा यौन व्यापार, मानव अंगों के अवैध प्रत्यारोपण जैसे मामले शामिल हैं। आज बड़े पैमाने पर कई हजार करोड़ों का कारोबार यौन व्यापार और वेश्यावृत्ति के जरिए फ़लफ़ूल रहा है। रूपये-पैसे की हवस के लिए खड़े किए गए इस कारोबार ने मासूम बच्चों की बलि लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। केवल बच्चों के यौन शोषण का कारोबार ही आज 11 हजार करोड़ रूपए का है। मानव अंगों के अवैध प्रत्यारोपण के बाद स्त्रियों और बच्चों से जबरन वेश्यावृत्ति कराने का धंधा सबसे बड़ा कारोबार बन चुका है। इंटरनेट पर अश्लील चित्रों के लिए बच्चों के शोषण का कारोबार अरबों डालर का बन चुका है। बड़े पैमाने पर इन तमाम घिनौने धंधों के लिए गरीब बस्तियों में बच्चों को अगवा किया जाता है। इस काम को अंजाम देने के लिए बाकायदा कई अपराधी गिरोह सक्रिय है जो गरीब मेहनतकशों के बच्चों को निशाना बनाते हैं।
बलात्कार का शिकार हुई बच्चियों या लापता हुए बच्चों के गरीब माँ बाप जब पुलिस में रिपेार्ट लिखवाने का साहस करते हैं तो पुलिस महकमे के लोग अक्सर ही तानों-फि़करों से उनका ‘‘स्वागत’’ करते हैं, गाली-गलौज करते हैं और पैसों की माँग तक करते हैं। दिल्ली के गांधी नगर में पांच साल की छोटी बच्ची के साथ हुई बलात्कार की घटना के बाद पुलिस ने बच्ची के परिवार वालों से पैसों की माँग करके फि़र एक बार बेहयाई का परिचय दिया। गरीब पृष्ठभूमि के बच्चों के खिलाफ़ होने वाले अपराधों के मामलों में अवल्लन तो एफ़आईआर दर्ज ही नहीं होती और अगर ऐसा इत्तेफ़ाक से हो जाये तो पुलिस महज इसे खानापूर्ति के लिए करती है। अपराधियों को सजा दिलाने का व गुमशुदा बच्चों को तलाशने का कोई प्रयास नहीं किया जाता है। निठारी की घटना के समय भी लम्बे समय से बच्चे गायब हो रहे थे। अपने बच्चों की गुमशुदगी की शिकायत लेकर जब लोग थाने में जा रहे थे तो पुलिस उन शिकायतों को दर्ज करना तो दूर बल्कि लापता बच्चों के परिवार वालों को डरा धमकाकर और अपमानित कर भगा रही थी। पुलिस तंत्र में गरीबों और उनके बच्चों के प्रति जो गहरी संवेदनहीनता है उसके चलते तो उससे किसी प्रकार की उम्मीद लगाना खुद को धोखे में रखना है।
गरीब व मेहनतकशों के बच्चे इस मानवद्रोही, पाशविक, पूँजीवादी व्यवस्था में कतई सुरक्षित नहीं है। गरीबों के बच्चों के साथ यह घटनाएं तब तक होती रहेंगी जब तक पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद है। बच्चों की सुरक्षा का सवाल व्यवस्था परिवर्तन के सवाल से जुड़ा है। एक ऐसा समाज जहाँ मुनाफ़े की अंधी हवस नहीं इंसानों की जरूरतें केन्द्र में होंगी, जहाँ एक पतनशील संस्कृति नहीं बल्कि एक उन्नत स्वस्थ संस्कृति होगी वही समाज ही बच्चों को बेहतर सुरक्षा मुहैया करा सकता है। ऐसे समाज को लाने की लड़ाई एक लम्बी लड़ाई होगी पर इसकी शुरूआत वो हमें करनी ही होगी। इससे बचने का मतलब होगा कि हम इस आदमखोर व्यवस्था द्वारा हमारे मासूम बच्चों की बलि लेते देखे जाने के लिए अभिशप्त हो जायेंगे।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2013
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