Tag Archives: कवितायें / गीत

हरियाणवी रागणी – मई दिवस

शिकागो के म्हं धार खून की, मज़दूर लड़े थे अड़कै रै।
काम के घण्टे आठ और मज़ूरी, अधिकार लिये थे लड़कै रै।
इब हक़ म्हारा हड़कै रै, मोटे होगे बेईमान।
होस म्हं आइये रै…

कविता – औरत की नियति / क्यू (वियतनाम, अट्ठारहवीं सदी)

कितनी कारुणिक है औरत की नियति,
कितना दुखद है उनका भाग्य,
हे सृष्टिकर्ता, हम लोगों पर तुम इतने निर्दय क्यों हों?
बरबाद हो गयी हमारी कच्ची उम्र
कुम्हला गये हमारे गुलाबी गाल
यहाँ दफ़्न सारी औरतें पत्नियाँ रही जीवनकाल में
फिर भी अकेली भटकती है उनकी रूह
मरने के बाद।

कविता – लहर / मर्ज़ि‍एह ऑस्‍कोई

मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्‍ही धाराओं को नयी जिन्‍दगी देना है

कविता – देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

देश काग़ज़ पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें ।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है ।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
काग़ज़ पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और ज़मीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्दूक की नली से
हत्यारों का धन्धा है

कविता – गोयबल्स / कात्यायनी

उसकी हँसी रुकने तक
फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ
सड़कों पर बिखरे
ख़ून के धब्बों को
धोना शुरू कर चुकी होती हैं।
गोयबल्स हँसता है
और हवा में हरे-हरे नोट
उड़ने लगते हैं,
सत्ता के गलियारों में जाकर
गिरने लगते हैं,
ख़ाकी वर्दीधारी घायल स्‍त्री-पुरुषों को
घसीटकर गाड़ियों में
भरने लगते हैं।

नव वर्ष को समर्पित कविता – बलकार सिंह

लोगों से सुना है,
कल फिर नव वर्ष आना है।
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।
फिर तुम्हारी भूखी नज़रों ने
मेरे जिस्म को खाना है।
रोटी के दो टुकड़ों लिए
हाथ फैलाना है।
भूख दु:ख लाचारी ने
उसी तरह सताना है।
वर्ष तो वही पुराना है,
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।

बिगुल के लिए कविता – जगविन्द्र सिंह, कैथल

हम तो बस इसी बहाने निकले हैं
धरती की गोद में बैठकर आसमाँ को झुकाने निकले हैं
जुल्मतों के दौर से, इन्साँ को बचाने निकले हैं
विज्ञान की ज्वाला जलाकर, अँधेरा मिटाने निकले हैं
हम इंसान है, इंसानों को इंसान बनाने निकले हैं

जन सरोकारों के कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में उनकी कविता – हमारा समाज

कुछ चिंताएँ भी हों, हाँ कोई हरज नहीं
पर ऐसी भी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हों संगी-साथी, अपने प्यारे, ख़ूब घने।
पापड़-चटनी, आँचा-पाँचा, हल्ला-गुल्ला
दो चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धांय
जितना संभव हो देख सकें, इस धरती को
हो सके जहाँ तक, उतनी दुनिया घूम आयें
यह कौन नहीं चाहेगा?

गीत – क्या मैं अब भी कसूरवार नहीं हूँ? / बेर्निस जॉनसन रीगन Song – Are My Hands Clean? / Bernice Johnson Reagon

साउथ कैरोलिना की बर्लिंगटन मिलों में
उस कपास की पहली मुलाक़ात
डूपोंट की न्यू जर्सी स्थित पेट्रोकेमिकल मिल्स से आए
पोलिएस्टर के रेशों से होती है
डूपोंट के इन रेशों की कहानी
दक्षिण अमरीका के एक देश
वेनेजुएला से शुरू हुई थी
जहाँ तेल निकालने के काम में लगे मज़दूर
महज़ छः डॉलर के मेहनताने पर
खतरों से खेलते हुए धरती के गर्भ से तेल निकालते हैं

कविता – साहब! एक बात पूछूँ?

साहब! एक बात पूछूँ?
हाँ-हाँ, पूछो!
देश में भुखमरी क्यूँ है?
अरे बस! इतनी सी बात, जनसंख्या बढ़ रही है
नहीं भई! ये बात हज़म नहीं हुई,
देखो तो गोदामों में, कितना गेहूँ सड़ रहा है।
भैया एक सवाल और…?
हाँ-हाँ पूछो!
लोग नंगे क्यूँ हैं?
अरे जनसंख्या ज़्यादा है,
क्या! समझ में नहीं आया लफड़ा?
नहीं-नहीं भाई, ये बात भी ग़लत,
जाकर देखो तो दुकानों में,
ख़ूब पड़ा है कपड़ा