कविता – लहर / मर्ज़िएह ऑस्कोई
मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्ही धाराओं को नयी जिन्दगी देना है
मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्ही धाराओं को नयी जिन्दगी देना है
देश काग़ज़ पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें ।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है ।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
काग़ज़ पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और ज़मीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्दूक की नली से
हत्यारों का धन्धा है
उसकी हँसी रुकने तक
फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ
सड़कों पर बिखरे
ख़ून के धब्बों को
धोना शुरू कर चुकी होती हैं।
गोयबल्स हँसता है
और हवा में हरे-हरे नोट
उड़ने लगते हैं,
सत्ता के गलियारों में जाकर
गिरने लगते हैं,
ख़ाकी वर्दीधारी घायल स्त्री-पुरुषों को
घसीटकर गाड़ियों में
भरने लगते हैं।
लोगों से सुना है,
कल फिर नव वर्ष आना है।
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।
फिर तुम्हारी भूखी नज़रों ने
मेरे जिस्म को खाना है।
रोटी के दो टुकड़ों लिए
हाथ फैलाना है।
भूख दु:ख लाचारी ने
उसी तरह सताना है।
वर्ष तो वही पुराना है,
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।
हम तो बस इसी बहाने निकले हैं
धरती की गोद में बैठकर आसमाँ को झुकाने निकले हैं
जुल्मतों के दौर से, इन्साँ को बचाने निकले हैं
विज्ञान की ज्वाला जलाकर, अँधेरा मिटाने निकले हैं
हम इंसान है, इंसानों को इंसान बनाने निकले हैं
कुछ चिंताएँ भी हों, हाँ कोई हरज नहीं
पर ऐसी भी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हों संगी-साथी, अपने प्यारे, ख़ूब घने।
पापड़-चटनी, आँचा-पाँचा, हल्ला-गुल्ला
दो चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धांय
जितना संभव हो देख सकें, इस धरती को
हो सके जहाँ तक, उतनी दुनिया घूम आयें
यह कौन नहीं चाहेगा?
साउथ कैरोलिना की बर्लिंगटन मिलों में
उस कपास की पहली मुलाक़ात
डूपोंट की न्यू जर्सी स्थित पेट्रोकेमिकल मिल्स से आए
पोलिएस्टर के रेशों से होती है
डूपोंट के इन रेशों की कहानी
दक्षिण अमरीका के एक देश
वेनेजुएला से शुरू हुई थी
जहाँ तेल निकालने के काम में लगे मज़दूर
महज़ छः डॉलर के मेहनताने पर
खतरों से खेलते हुए धरती के गर्भ से तेल निकालते हैं
साहब! एक बात पूछूँ?
हाँ-हाँ, पूछो!
देश में भुखमरी क्यूँ है?
अरे बस! इतनी सी बात, जनसंख्या बढ़ रही है
नहीं भई! ये बात हज़म नहीं हुई,
देखो तो गोदामों में, कितना गेहूँ सड़ रहा है।
भैया एक सवाल और…?
हाँ-हाँ पूछो!
लोग नंगे क्यूँ हैं?
अरे जनसंख्या ज़्यादा है,
क्या! समझ में नहीं आया लफड़ा?
नहीं-नहीं भाई, ये बात भी ग़लत,
जाकर देखो तो दुकानों में,
ख़ूब पड़ा है कपड़ा
अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े
अगर मुझे अपनी कमीज़ और अपना बिछौना बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ़ करना पड़े
या गोबर से खाना ढूँढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और ख़ामोश
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
आखि़र तक मैं लड़ूँगा
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
अपने उन शहीदों के नाम पर
उन लोगों के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जिन्होंने हमारी पितृभूमि को
रक्तप्लावित कर दिया है
उन लोगों के लिए
मैं दण्ड की माँग करता हूँ
जिनके निर्देश पर
यह अन्याय, यह ख़ून हुआ
उसके लिए मैं दण्ड की माँग करता हूँ