Category Archives: भ्रष्‍टाचार

सूचना अधिकार क़ानून बना सरकार के गले की फाँस

अब सूचना अधिकार क़ानून हुक्मरानों के गले की हड्डी बन गया था। पिछली 14 अक्टूबर को दिल्ली में एक सरकारी मीटिंग में इस क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव आया और अब सरकार बाक़ायदा इसमें संशोधन करने की राह पर चल पड़ी है। इस संशोधन के बाद किसी भी स्थानीय विभाग का अफ़सर (जिससे सूचना माँगी गई है) इस बात का फ़ैसला करेगा कि माँगी गयी सूचना देनी है या नहीं। अब हम लोग खुद ही यह अच्छी तरह समझ सकते हैं कि ये अफ़सर क्या फ़ैसला करेंगे। सरकार इस संशोधन पर गम्भीरता से विचार कर रही है, सम्भावना यही है कि अब इस क़ानून के पर कुतर दिये जायेंगे।

स्विस बैंकों में जमा 72 लाख करोड़ की काली कमाई पूँजीवादी लूट के सागर में तैरते हिमखण्ड का ऊपरी सिरा भर है

यूँ तो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की नींव ही मेहनत की कानूनी लूट पर खड़ी की जाती है। यानी पूँजीवादी व्यवस्था में मेहनत करने वाले का हिस्सा कानूनन पूँजीपति की तुलना में नगण्य होता है। लेकिन पूँजीपतियों का पेट इस कानूनी लूट से भी नहीं भरता। लिहाज़ा वे पूँजीवाद के स्वाभाविक लक्षण ‘भ्रष्टाचार’ का सहारा लेकर गैरकानूनी ढंग से भी धन-सम्पदा जमा करते रहते हैं। जनता के लिए सदाचार, ईमानदारी और नैतिकता की दुहाई देकर ख़ुद हर तरह के कदाचार के ज़रिये काले धन के अम्बार और सम्पत्तियों का साम्राज्य खड़ा किया जाता है।

नरेगा: सरकारी दावों की ज़मीनी हकीकत – एक रिपोर्ट

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अतिपिछड़े इलाक़े मर्यादपुर में किये गये देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा द्वारा हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण से यह बात साबित होती है कि नरेगा के तहत कराये गये और दिखाये गये कामों में भ्रष्टाचार इतने नंगे तरीक़े से और इतने बड़े पैमाने पर किया जा रहा है कि यह पूरी योजना गाँव के सम्पन्न और प्रभुत्वशाली तबक़ों की जेब गर्म करने का एक और ज़रियाभर बनकर रह गयी है। साथ ही यह बात भी ज्यादा साफ हो जाती है कि पूँजीवाद अपनी मजबूरियों से गाँव के गरीबों को भरमाने के लिए थोड़ी राहत देकर उनके गुस्से पर पानी के छींटे मारने की कोशिश जरूर करता है लेकिन आखिरकार उसकी इच्छा से परे यह कोशिश भी गरीबों को गोलबंद होने से रोक नहीं पाती है। बल्कि इस क्रम में आम लोग व्यवस्था के गरीब-विरोधी और अन्यायपूर्ण चेहरे को ज्यादा नजदीक से समझने लगते हैं और इन कल्याणकारी योजनाओं के अधिकारों को पाने की लड़ाई उनकी वर्गचेतना की पहली मंजिल बन जाती है।

सत्यम कम्पनी के घोटाले में नया कुछ भी नहीं है…

वैसे तो पूँजीवाद ख़ुद ही एक बहुत बड़ी डाकेजनी के सिवा कुछ नहीं है लेकिन मुनाफ़ा कमाने की अन्धी हवस में तमाम पूँजीपति अपने ही बनाये क़ानूनों को तोड़ते रहते हैं। यूरोप से लेकर अमेरिका तक ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जो बिल्कुल साफ कर देते हैं कि पूँजीवाद में कोई पाक-साफ होड़ नहीं होती। शेयरधारकों को खरीदने-फँसाने, प्रतिस्पर्धी कम्पनियों की जासूसी कराने, रिश्वत खिलाने, हिसाब-किताब में गड़बड़ी करने जैसी चीजें साम्राज्यवाद के शुरुआती दिनों से ही चलती रहती हैं। सत्यम ने बहीखातों में फर्जीवाड़ा करके साल-दर-साल मुनाफ़ा ज्यादा दिखाने और शेयरधारकों को उल्लू बनाने की जो तिकड़म की है वह तो पूँजीवादी दुनिया में चलने वाला एक छोटा-सा फ्रॉड है। राजू पकड़ा गया तो वह चोर है – लेकिन ऐसा करने वाले दर्जनों दूसरे पूँजीपति आज भी कारपोरेट जगत के बादशाह और मीडिया की आँखों के तारे बने हुए हैं।