सूचना अधिकार क़ानून बना सरकार के गले की फाँस

अजयपाल, लुधियाना

भारत सरकार ने सूचना अधिकार क़ानून-2005 बनाकर व्यवस्था में पारदर्शिता लाने का एक बड़ा ढोंग रचा था। इसके तहत कोई भी भारतीय नागरिक किसी भी सरकारी अधिकारी से उसके विभाग की कोई “सूचना” जनहित में ले सकता है। जब यह क़ानून बना तो कई केन्द्रीय मन्त्रियों ने बयानों के बड़े-बड़े गोले दाग़े कि देखो हम ढाँचे को कितना पारदर्शी बना रहे हैं, लेकिन इस पारदर्शिता से मौजूदा व्यवस्था की गन्दगी और भी अधिक जगजाहिर हो गयी है।

निठारी काण्ड के बाद किसी संगठन ने सूचना अधिकार क़ानून-2005 का इस्तेमाल कर देशभर में ग़ायब हो रहे बच्चों के बारे में रिपोर्ट जारी कर दी, किसी अन्य संगठन ने बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्र के अधीन उजाड़े जा रहे किसानों के आँकड़े पेश कर दिये। ट्रेड यूनियनों को कारख़ानों के बारे में रिपोर्टें घर बैठे मिलने लगीं। अब हुआ यह कि लोगों के सामने यह बात साफ़ होने लगी कि श्रम विभाग से लेकर अदालतों तक, पुलिस से लेकर संसद तक और अफ़सरों से लेकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों तक सारे इस हमाम में नंगे हैं। यह व्यवस्था एक बड़ा-सा तालाब है जिसमें पत्थर फेंकने पर गन्दगी ही उपराती है। मामला तब भड़क उठा जब सुप्रीम कोर्ट के जजों से उनकी सम्पत्ति के बारे में सूचना माँग ली गयी।

इससे देश के बड़े-बड़े मन्त्रियों के पेट में भी दर्द होने लगा। अब सूचना अधिकार क़ानून हुक्मरानों के गले की हड्डी बन गया था। पिछली 14 अक्टूबर को दिल्ली में एक सरकारी मीटिंग में इस क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव आया और अब सरकार बाक़ायदा इसमें संशोधन करने की राह पर चल पड़ी है। इस संशोधन के बाद किसी भी स्थानीय विभाग का अफ़सर (जिससे सूचना माँगी गई है) इस बात का फ़ैसला करेगा कि माँगी गयी सूचना देनी है या नहीं। अब हम लोग खुद ही यह अच्छी तरह समझ सकते हैं कि ये अफ़सर क्या फ़ैसला करेंगे। सरकार इस संशोधन पर गम्भीरता से विचार कर रही है, सम्भावना यही है कि अब इस क़ानून के पर कुतर दिये जायेंगे।

यह संशोधन हो या न हो, लेकिन आम भारतीय को समझ लेना चाहिए कि सरकारें समय-समय पर अपनी “प्रजा” के मनबहलाव के लिए इस तरह के झुनझुने थमाती रहती हैं और जब यह झुनझुना उसके ही कानों में बजने लगता है तो छीन लिया जाता है। ऐसे झुनझुने इसलिए दिखाये जाते हैं ताकि महँगाई, ग़रीबी, बेरोज़गारी से परेशान लोग व्यवस्था को ही बदलने की राह न चल पड़ें। सूचना अधिकार क़ानून अगर न हुआ तो कुछ और होगा। लेकिन उससे भी हिन्दोस्तान की तस्वीर बदलने वाली नहीं है।

 

 

बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010

 


 

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