क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 20 : पूँजीवादी संचय का आम नियम
अध्याय – 16
अभिनव
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पिछले अध्याय में हमने देखा कि किस प्रकार पूँजी बेशी मूल्य पैदा करती है, किस प्रकार बेशी मूल्य पूँजी में रूपान्तरित होता है, पूँजी संचय की दर किस प्रकार निर्धारित होती है और वे कौन-से कारक हैं जो पूँजी संचय की दर को बढ़ा या घटा सकते हैं। हमने यह भी देखा कि साधारण पुनरुत्पादन पूँजीवादी व्यवस्था का आम नियम नहीं है, बल्कि मुनाफ़े को अधिकतम बनाते जाने की अन्धी हवस और प्रतिस्पर्द्धा पर आधारित इस व्यवस्था का आम नियम है विस्तारित पुनरुत्पादन या पूँजी का संचय। इस अध्याय में हम देखेंगे कि पूँजीवादी संचय की लगातार जारी प्रक्रिया के आम नियम क्या हैं। दूसरे शब्दों में, निरन्तर जारी पूँजी संचय के क्या परिणाम सामने आते हैं और किन स्थितियों में वे प्रकट होते हैं। लेकिन उन्हें समझने के लिए हमें पहले पूँजी के आवयविक संघटन की अवधारणा पर थोड़ा विस्तार से विचार करना होगा।
पूँजी का आवयविक संघटन
मार्क्स बताते हैं कि जब हम पूँजीवादी संचय के आम नियमों की पड़ताल करते हैं, तो हमारा मुख्य उद्देश्य होता है पूँजीवादी संचय के मज़दूर वर्ग पर असर का अध्ययन करना। इसमें सबसे बुनियादी पहलू है पूँजी के आवयविक संघटन (organic composition) को समझना। इसके बारे में कुछ बातें हम पहले कर चुके हैं। लेकिन यहाँ उन्हें संक्षेप में दुहरा देना उपयोगी होगा। स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात को हम पूँजी का आवयविक संघटन कहते हैं। इसे दो अर्थों में समझा जा सकता है: पहला, मूल्य-संघटन (value composition) के अनुसार और दूसरा, तकनीकी या भौतिक संघटन (technical composition) के अनुसार। मूल्य-संघटन का अर्थ बस यह है कि मुद्रा की एक मात्रा, यानी मूल्य की एक मात्रा के रूप में स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी के बीच क्या अनुपात है, यानी निवेशित पूँजी में उत्पादन के समस्त साधनों के कुल मूल्य और समस्त श्रमशक्ति के कुल मूल्य के बीच क्या अनुपात है। भौतिक या तकनीकी संघटन का अर्थ होता है कि उत्पादन के साधनों की मात्रा और श्रमशक्ति की मात्रा यानी मज़दूरों की संख्या में क्या अनुपात है, दूसरे शब्दों में, औसतन कितने उत्पादन के साधनों को कितने मज़दूर उत्पाद में तब्दील करते हैं।
यह सम्भव है कि भौतिक/तकनीकी संघटन बदले लेकिन मूल्य-संघटन उसी रफ़्तार से न बदले या मूल्य-संघटन बदले और भौतिक संघटन उसी दर से न बदले। इसका कारण यह होता है कि पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादकता के सतत् विकास के साथ आम तौर पर मशीनों की क़ीमतों में भी कमी आती है। साथ ही, मज़दूरी की दर भी विभिन्न कारकों के चलते ऊपर-नीचे होती रहती है। इसलिए श्रमशक्ति पर किये जाने वाले निवेश में परिवर्तन कभी-कभार उसी अनुपात में नहीं होता है, जिस अनुपात में श्रमशक्ति की भौतिक मात्रा, यानी मज़दूरों की संख्या को बढ़ाया या घटाया जाता है। नतीजतन, भौतिक संघटन में होने वाले परिवर्तन अक्सर मूल्य-संघटन में एकदम समानुपातिक रूप में प्रतिबिम्बित नहीं होते हैं और मूल्य-संघटन में होने वाले परिवर्तन हमेशा भौतिक संघटन में बिल्कुल समानुपातिक रूप से नहीं प्रतिबिम्बित होते हैं। आम तौर पर, मूल्य-संघटन में आने वाले परिवर्तन और भौतिक संघटन में आने वाले परितर्वनों में क़रीबी सम्बन्ध होता है। यानी, भौतिक संघटन में होने वाले परितर्वन किसी न किसी रूप में मूल्य-संघटन में प्रतिबिम्बित होते हैं। पूँजी के आवयविक संघटन से मार्क्स का अर्थ यह है : जिस हद तक पूँजी के भौतिक/तकनीकी संघटन में होने वाले परिवर्तन पूँजी के मूल्य–संघटन में अभिव्यक्त होते हैं, उसे पूँजी का आवयविक संघटन कहा जाता है।
किसी भी देश में उत्पादन की कई शाखाएँ होती हैं। हर शाखा में कई निजी पूँजीपति उत्पादन कर रहे होते हैं। सबकी पूँजियों के आवयविक संघटन अलग-अलग होते हैं। यदि हम किसी एक शाखा में सक्रिय सभी पूँजीपतियों की पूँजियों के अलग-अलग आवयविक संघटनों का औसत निकाले तो हमें उस पूरी शाखा में लगी पूँजी का आवयविक संघटन पता चल जाता है। यह औसत, सामाजिक तौर पर कहें, तो उस उत्पादन की शाखा में उत्पादन की प्रकृति और उत्पादक शक्तियों के विकास और साथ ही उसके मुनाफ़े की औसत दर से निर्धारित होता है। सभी शाखाओं के आवयविक संघटनों के बीच इन वजहों से अन्तर मौजूद होता है। यानी, उत्पादन की अलग-अलग शाखाओं में पूँजी का आवयविक संघटन आम तौर पर अलग-अलग होता है। यदि हम किसी देश की अर्थव्यवस्था में मौजूद सभी उत्पादन की शाखाओं में लगी समूची पूँजी के आवयविक संघटन को निकालें, यानी हरेक शाखा में लगी कुल स्थिर पूँजी और कुल परिवर्तनशील पूँजी को जोड़ लें और फिर उनके बीच का अनुपात निकालें, तो हमें किसी देश की कुल सामाजिक पूँजी का आवयविक संघटन प्राप्त होता है। जब मार्क्स पूँजीवादी संचय की सतत् जारी प्रक्रिया के मज़दूर वर्ग पर पड़ने वाले आम प्रभावों की, यानी कि पूँजीवादी संचय के आम नियमों की बात करते हैं, तो उनका सरोकार अलग-अलग शाखाओं में पूँजी के अलग-अलग आवयविक संघटनों से नहीं है, बल्कि आम तौर पर पूरी अर्थव्यवस्था में लगी कुल सामाजिक पूँजी के आवयविक संघटन से है। केवल इसी के आधार पर हम आम तौर पर पूँजीवादी संचय के मज़दूर वर्ग पर पड़ने वाले प्रभावों को समझ सकते हैं।
अब हम देखेंगे कि पूँजी के आवयविक संघटन में आने वाले बदलावों के हिसाब से मज़दूर वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ता है। सबसे पहले हम समझेंगे कि पूँजी के आवयविक संघटन के समान रहने पर पूँजी संचय होने का श्रमशक्ति के लिए माँग पर क्या असर पड़ता है। इसके आधार पर हम समझ सकते हैं कि ऐसे में मज़दूर वर्ग के लिए आम तौर पर रोज़गार की और मज़दूरी की औसत दर की क्या स्थिति होगी। इसके बाद हम पूँजी के आवयविक संघटन के बढ़ने पर पूँजी संचय होने के श्रमशक्ति के लिए माँग और इस प्रकार मज़दूर वर्ग पर असर की पड़ताल करेंगे।
पूँजी के आवयविक संघटन के समान रहने पर मज़दूर वर्ग पर पूँजीवादी संचय के प्रभाव
पूँजी के आवयविक संघटन के समान रहने पर पूँजी संचय होने का, यानी निवेशित पूँजी की मात्रा बढ़ने का, अर्थ होगा कि स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी दोनों में ही बढ़ोत्तरी होगी। यह बढ़ोत्तरी इस प्रकार होगी कि स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी का अनुपात पहले के ही समान होगा। मिसाल के तौर पर, यदि पहले कुल रु. 600 निवेशित किये गये थे, जिसमें रु. 400 स्थिर पूँजी के रूप में लगे थे जबकि रु. 200 परिवर्तनशील पूँजी के रूप में लगे थे, तो पूँजी का आवयविक संघटन हुआ 2:1। यदि उत्पादन की प्रक्रिया में रु. 400 बेशी मूल्य के रूप में पैदा हुए और मान लें कि पूँजीपति अपने पूरे माल को उसके मूल्य के बराबर क़ीमत पर बेचने में सफल रहा, तो इसका अर्थ होगा कि उसके पास मूल निवेश से बेशी रु. 400 बेशी मूल्य के रूप में आये। मान लें कि इसमें से रु. 100 वह अपनी आमदनी के रूप में रखता है और रु. 300 को वह वापस पूँजी में तब्दील कर निवेश करता है। इसका अर्थ होगा कि अगले चक्र में वह रु. 900 का निवेश करेगा। यदि पूँजी का आवयविक संघटन समान रहता है, जैसा कि फिलहाल हमने माना है, तो इसका अर्थ होगा कि पूँजी संचय के बाद निवेशित इस पूँजी में भी स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी का अनुपात वही रहेगा जो पहले था, यानी 2:1। यानी, इस रु. 900 की पूँजी में से रु. 600 स्थिर पूँजी के रूप में लगेंगे जबकि रु. 300 परिवर्तनशील पूँजी के रूप में। ज़ाहिर है, पूँजी का आवयविक संघटन समान रहने पर यही हो सकता है। यदि पूँजीपति पहले 20 मशीनें चलवा रहा था जिन्हें चलाने के लिए 60 मज़दूरों की आवश्यकता थी, यानी प्रति मज़दूर मशीनों की संख्या 1/3 थी, या प्रति मशीन मज़दूरों की संख्या 3 थी, तो पूँजीपति द्वारा पूँजी संचय के बाद 30 मशीनें लगवाने पर मज़दूरों की संख्या भी उसे बढ़ाकर 90 करनी होगी। यानी तकनीकी संघटन व मूल्य-संघटन समान रहने पर, यानी पूँजी के आवयविक संघटन के समान रहने पर, जिस अनुपात में उत्पादन के साधनों को बढ़ाया जायेगा, यानी जिस अनुपात में स्थिर पूँजी को बढ़ाया जायेगा, उसी अनुपात में श्रमशक्ति को भी बढ़ाना होगा, यानी मज़दूरों की संख्या को भी बढ़ाना होगा। ज़ाहिर है, यहाँ हम मानकर चल रहे हैं कि मज़दूरी की दर पहले के समान है और उत्पादन के साधनों की क़ीमत भी पहले के समान है।
इसका अर्थ यह हुआ कि यदि पूँजी का आवयविक संघटन समान रहता है, तो पूँजी संचय व विस्तारित पुनरुत्पादन होने पर श्रमशक्ति की माँग भी उसी अनुपात में बढ़ेगी, जिस अनुपात में पूँजी संचय होगा। हम जानते हैं कि सामान्य स्थितियों में पूँजी का संचय होना एक आम नियम है। हर वर्ष निवेशित पूँजी की मात्रा में मन्दी या संकट के दौरों को छोड़कर आम तौर पर वृद्धि होती ही है। यह वृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि बेशी मूल्य को किस अनुपात में आमदनी और पूँजी में विभाजित किया जाता है। स्वयं यह अनुपात इस बात पर निर्भर करता है कि मुनाफ़े की औसत दर क्या है। इसके अलावा, कुछ बाह्य कारक भी होते हैं जिसके कारण यह अनुपात बदल सकता है, मसलन, नयी उत्पादन शाखाओं का पैदा होना, नये बाज़ारों का उपलब्ध होना, आदि। ऐसे में, पूँजी के संचय में एक ऐसी दर से वृद्धि जारी रह सकती है और वह श्रमशक्ति की माँग में एक ऐसी दर से वृद्धि कर सकती है, जो कि श्रमशक्ति की आपूर्ति की दर से आगे निकल जाये। यदि ऐसा होगा तो श्रमशक्ति की क़ीमत में बढ़ोत्तरी होगी और वह उसके मूल्य से ज़्यादा भी हो सकती है। मार्क्स लिखते हैं:
“वे कमोबेश अनुकूल परिस्थितियाँ जिसमें उजरती मज़दूर अपना जीविकोपार्जन करते हैं और अपनी संख्या में वृद्धि करते हैं किसी भी रूप में पूँजीवादी उत्पादन के बुनियादी चरित्र को नहीं बदलता है। जिस प्रकार साधारण पुनरुत्पादन लगातार पूँजी-सम्बन्ध को पुनरुत्पादित करना है, यानी एक ओर पूँजीपतियों की और दूसरी ओर उजरती मज़दूरों की मौजूदगी को पुनरुत्पादित करता है, उसी प्रकार विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन, यानी संचय, पूँजी-सम्बन्ध को विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादित करता है, यानी एक छोर पर अधिक या ज़्यादा बड़े पूँजीपति, और दूसरे छोर पर अधिक उजरती मज़दूर। श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन, जो पूँजी के मूल्य-संवर्द्धन के ज़रिये के रूप में पूँजी में लगातार निगमित होता रहता है, जो पूँजी से मुक्त नहीं हो सकता, और पूँजी के प्रति जिसकी दासता केवल उन अलग-अलग पूँजीपतियों के वैविध्य के पीछे छिपी होती है, जिन्हें यह श्रमशक्ति स्वयं को बेचती है, वास्तव में, पूँजी के पुनरुत्पादन में स्वयं एक कारक होता है। इसलिए पूँजी का संचय सर्वहारा वर्ग की तादाद में बढ़ोत्तरी होता है।” (मार्क्स, कार्ल. 1982. पूँजी, खण्ड-1, पेंगुइन बुक्स, पृ. 763-64)
जैसा कि मार्क्स कहते हैं, पूँजी संचय का अर्थ है सर्वहारा वर्ग के आकार में बढ़ोत्तरी। लेकिन इस बात को एडम स्मिथ व डेविड रिकार्डो जैसे पूँजीवादी क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने दूसरे छोर तक खींच दिया। वे मानते थे कि संचित होने वाली पूँजी, यानी बेशी मूल्य का वह हिस्सा जो पूँजी में तब्दील किया जाता है, पूरी तरह से परिवर्तनशील पूँजी में तब्दील होती है। यानी, उसका इस्तेमाल पूरी तरह से नये मज़दूरों को काम पर रखने के लिए किया जाता है। ज़ाहिर है, यह कथन सही नहीं है। स्पष्ट है कि इस प्रकार का तर्क पूँजीवाद के पक्षपोषण का ज़रिया बन जायेगा क्योंकि इसके अनुसार यदि पूँजीपति मुनाफ़ा प्राप्त करता है, पूँजी का संचय करता है, तो श्रमशक्ति की माँग में निरन्तर निरपेक्ष वृद्धि होगी और वह औसत मज़दूरी को लगातार बढ़ायेगा और इस प्रकार पूँजीवादी विकास सर्वहारा वर्ग के हित में है। हम ऐतिहासिक अनुभव से जानते हैं कि वास्तव में ऐसा नहीं होता। स्मिथ और रिकार्डो के तर्क की बुनियादी ग़लती यह है कि वे पूँजी संचय को पूरी तरह से मज़दूरों के उपभोग के साथ समानार्थी बना देते हैं।
मार्क्स बताते हैं कि हमने फ़िलहाल यह माना है कि पूँजी का आवयविक संघटन समान रहता है। ऐसे में, निश्चय ही पूँजी संचय का अर्थ होगा कि संचित पूँजी का एक हिस्सा परिवर्तनशील पूँजी में अनिवार्यत: तब्दील होगा। नतीजतन, श्रमशक्ति की माँग में बढ़ोत्तरी होगी। इसके कारण, ‘श्रम की क़ीमत’ में, यानी मज़दूरी में बढ़ोत्तरी होगी। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मज़दूरी में बढ़ोत्तरी निरन्तर जारी रह सकती है और वह उत्पादन में पैदा होने वाला नया मूल्य पूर्णत: मज़दूरी में तब्दील हो सकता है। वजह यह है कि यदि मज़दूरी इतनी बढ़ जाये कि मुनाफ़ा ही नगण्य हो जाये, तो पूँजीपति निवेश करेगा ही नहीं। पूँजीपति श्रमशक्ति अपने व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं ख़रीदता है। वह श्रमशक्ति को इसलिए ख़रीदता है ताकि वह उसे उत्पादन में लगाकर अपनी पूँजी को बढ़ा सके, मुनाफ़ा अर्जित कर सके। यदि वह ऐसा कर ही नहीं पायेगा, तो वह उत्पादन में निवेश करेगा ही क्यों? इसलिए समान दर पर पूँजी संचय होने पर भी, यानी पूँजी का आवयविक संघटन समान रहने पर भी, दूसरे शब्दों में स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात के समान रहने पर भी, पूँजीवादी उत्पादन नियमत: पूँजी-सम्बन्ध को लगातार पुनरुत्पादित करता है। साधारण पुनरुत्पादन में भी पूँजी-सम्बन्ध उत्पादन की प्रक्रिया में ही पुनरुत्पादित होता था। यानी पूँजीपति वर्ग पूँजीवादी वर्ग के रूप में पुनरुत्पादित होता था और मज़दूर वर्ग मज़दूर वर्ग के रूप में पुनरुत्पादित होता था; पूँजीपति पूँजीपति बना रहता था और मज़दूर मज़दूर बना रहता था। पूँजी संचय की स्थिति में, यानी विस्तारित पुनरुत्पादन की स्थिति में पूँजी-सम्बन्ध और विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादित होता है। यानी, एक ओर मज़दूर वर्ग का आकार बढ़ता जाता है, वहीं दूसरी छोर पर पूँजीपतियों की संख्या और/या पूँजीपतियों की पूँजी का आकार बड़ा होता जाता है। पूँजीवादी उत्पादन अपनी नैसर्गिक गति से मज़दूर वर्ग को भी बढ़ाता जाता है।
यदि पूँजी संचय समान दर पर होता है, यानी पूँजी का आवयविक संघटन समान बना रहता है, तो बस इतना कहा जा सकता है कि मज़दूर वर्ग के लिए स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर होती है। ऐसे में, पूँजी पर उनकी “उदारवादी निर्भरता” (liberal dependence), जिसकी पूँजीपति वर्ग के बुद्धिजीवी निरन्तर बात किया करते हैं, वे ज़्यादा आसान, सहनीय और उदार रूप ग्रहण करती है। पूँजी के निरन्तर जारी संचय के साथ यह पूँजी-सम्बन्ध, यानी श्रमशक्ति को पूँजीपति को बेचने की मज़दूर की बाध्यता का सम्बन्ध, अधिक सघन रूप के बजाय अधिक व्यापक रूप लेता जाता है। यानी, वह समान सघनता के साथ विस्तारित होता जाता है। शोषण की दर में अन्तर नहीं आता है, बल्कि पूँजी के प्रभुत्व और शोषण का दायरा विस्तारित होता जाता है और वह पहले से ज़्यादा बड़ी मज़दूर आबादी को अपने भीतर समेटता है। यदि यह प्रक्रिया जारी रहती है तो मज़दूर द्वारा पैदा बेशी उत्पाद का बड़ा हिस्सा उसके पास मज़दूरी के रूप में वापस आता है। इस प्रकार वह मज़दूर को बेहतर जीवन-स्तर दे सकता है, आनन्द और जीविका के अधिक साधन दे सकता है और यहाँ तक कि थोड़ी-बहुत बचत करने की इजाज़त भी दे सकता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि इससे पूँजी-सम्बन्ध किसी भी रूप में समाप्त होता है, या शोषण समाप्त होता है। समान स्तर व दर पर पूँजी संचय का केवल इतना अर्थ होता है कि वह सोने की ज़ंजीर पहले से कुछ लम्बी हो जाती है, जिसके ज़रिये मज़दूर पूँजी से बँधा होता है। मार्क्स बताते हैं कि इस सवाल पर पूँजीवादी क्लासिकीय अर्थशास्त्रियों का बड़ा हिस्सा जो ग़लती करता है वह यह है कि वह भूल जाता है कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की बुनियादी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता क्या है। यह है श्रमशक्ति को ख़रीदकर उजरती श्रम का शोषण कर मुनाफ़ा अर्जित करना। यानी मज़दूरी के बदले में श्रमशक्ति को ख़रीदने के पूँजीवादी सम्बन्ध में यह अन्तर्निहित है कि मज़दूर अपनी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मूल्य को तो पूँजी के रूप में पुनरुत्पादित करेगा ही, बल्कि उसके ऊपर वह मुफ़्त में बेशी श्रम देकर बेशी मूल्य भी पैदा करेगा, जिसके बदले में पूँजीपति को मज़दूर को कुछ भी नहीं देना होता है। पूँजी द्वारा श्रमशक्ति की ख़रीद की यह बुनियादी पूर्वशर्त है। यदि मज़दूरी में बढ़ोत्तरी एक ऐसी सीमा पर पहुँच जाये, जहाँ यह पूर्वशर्त ही क़ायदे से पूरी न हो, तो पूँजीपति उत्पादन में निवेश करेगा ही नहीं। मार्क्स लिखते हैं:
“इस व्यवस्था में श्रमशक्ति को ख़रीदार की व्यक्तिगत आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए नहीं ख़रीदा जाता है, चाहे वह श्रमशक्ति द्वारा प्रदत्त सेवा के ज़रिये हो या फिर उसके उत्पाद के ज़रिये। ख़रीदार का लक्ष्य होता है अपनी पूँजी का मूल्य-संवर्द्धन करना, ऐसे मालों का उत्पादन करना जिनमें निहित श्रम की मात्रा उस श्रम से ज़्यादा हो जिसका उसने भुगतान किया है, और इसलिए उसमें मूल्य का एक ऐसा हिस्सा हो जिसके बदले में उसे कुछ भी नहीं भुगतान करना पड़ा और फिर भी जो इन मालों की बिक्री के ज़रिये उसके पास वास्तवीकृत होती है। बेशी मूल्य का उत्पादन, या मुनाफ़ा बनाना, इस उत्पादन पद्धति का निरपेक्ष नियम है। श्रमशक्ति केवल उसी हद तक बिक सकती है जिस हद तक वह उत्पादन के साधनों को पूँजी के रूप में संरक्षित करती है और क़ायम रखती है, जिस हद तक वह स्वयं अपने मूल्य का पूँजी के रूप में पुनरुत्पादन करती है और जिस हद तक वह मुफ़्त दिये गये श्रम के रूप में अतिरिक्त पूँजी का स्रोत प्रदान करती है। इसकी बिक्री की स्थितियों में, चाहे वे मज़दूर के लिए ज़्यादा अनुकूल हों या कम, निरन्तर पुन:बिक्री की अनिवार्यता, और समृद्धि का लगातार पूँजी के रूप में विस्तारित पुनरुत्पादन शामिल होता है। जैसा कि हम देख चुके हैं, मज़दूरी की प्रकृति से ही उसका अर्थ है कि मज़दूर हमेशा मुफ़्त में कुछ श्रम देगा। अगर हम श्रम की क़ीमत में गिरावट के साथ मज़दूरी में होने वाली बढ़ोत्तरी के मामले को छोड़ भी दें, तो यह स्पष्ट है कि मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के सबसे अच्छे दिनों का अर्थ भी केवल उसे मुफ़्त में दिये जाने वाले श्रम की मात्रा में परिमाणात्मक कमी ही होता है, जो मज़दूर देता है। यह कमी कभी इतनी दूर नहीं जा सकती कि वह समूची व्यवस्था के लिए ही ख़तरा बन जाए।” (वही, पृ. 769-70)
मार्क्स बताते हैं कि श्रमशक्ति की माँग बढ़ते रहने के फलस्वरूप मज़दूरी तब तक ही बढ़ सकती है, जब तक कि यह पूँजी के संचय को बाधित नहीं करती है। नये मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा बढ़ना, यानी बेशी श्रम का हिस्सा कम होना और अनिवार्य श्रम का हिस्सा बढ़ना, तब तक जारी रह सकता है, जब तक कि वह संचय की प्रगति को ही बाधित न कर दे। यदि संचय की प्रगति ही बाधित होने लगती है, यानी संचय की दर अगर मज़दूरी के बढ़ने की वजह से बेहद कम हो जाती है, तो फिर संचय की गति कम होने का मूल कारण ही ग़ायब होने लगता है। क्योंकि जब मुनाफ़े की दर बेहद कम हो जाती है और स्वयं पूँजी संचय ही मज़दूरी के बढ़ने की वजह से बाधित हो जाता है, तो पूँजी निवेश की दर भी घटने लगती है। पूँजीपति जिस कारण से पूँजी निवेश को बढ़ाने के लिए बेशी मूल्य को पूँजी में तब्दील करते हैं, वही ग़ायब हो जाता है। नतीजतन, श्रमशक्ति की माँग घटने लगती है और मज़दूरी में गिरावट आने लगती है। पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया संचय के रास्ते में आने वाली उन बाधाओं को स्वयं ही दूर भी करती रहती है, जिन्हें वह पैदा करती है। ‘श्रम की क़ीमत’, यानी मज़दूरी फिर से उस स्तर पर पहुँच जाती है, जो पूँजी संचय की आवश्यकताओं के लिए आवश्यक होती है। यानी वास्तव में यह पूँजी का आधिक्य होता है जो शोषण के लिए उपलब्ध श्रमशक्ति यानी काम करने वाली मज़दूर आबादी में बढ़ोत्तरी की दर को कम करता है, न कि मज़दूर आबादी में वृद्धि की दर में कमी पूँजी के आधिक्य को पैदा करती है। उसी प्रकार यह पूँजी की कमी होती है जो उपलब्ध मज़दूर आबादी के आकार को सापेक्षिक रूप से बढ़ा देती है, न कि मज़दूर आबादी में बढ़ोत्तरी पूँजी की कमी को पैदा करती है। दूसरे शब्दों में, यह पूँजी के संचय की निरपेक्ष गति है जो शोषण हेतु उपलब्ध श्रमशक्ति के भण्डार की गति को निर्धारित करती है, न कि इसके विपरीत। पूँजी संचय की गति इसमें स्वतन्त्र कारक है, जब कि श्रमशक्ति का उपलब्ध भण्डार व मज़दूरी की दर निर्भर कारक हैं। मज़दूरों की बेशी आबादी हर सूरत में सापेक्षिक रूप से बेशी आबादी होती है, यानी पूँजी संचय की दर की तुलना में ही वह बेशी आबादी होती है। उसी प्रकार, मज़दूरों की कमी, यानी श्रमशक्ति की कमी भी स्वयं पूँजी संचय की दर की तुलना में ही कमी होती है, निरपेक्ष रूप में नहीं। मार्क्स समान दर पर पूँजी संचय की स्थिति में श्रमशक्ति की माँग व मज़दूरी की दर में आने वाले परिवर्तनों को लेकर पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्रियों द्वारा पैदा किये गये भ्रमों का खण्डन करते हुए लिखते हैं:
“पूँजीवादी उत्पादन का नियम जो वास्तव में तथाकथित ‘जनसंख्या के प्राकृतिक नियम’ की बुनियाद में मौजूद है उसे सरलता के साथ इस रूप में समझाया जा सकता है: पूँजी, संचय और मज़दूरी की दर के बीच सम्बन्ध और कुछ नहीं है बल्कि मुफ़्त में दिये गये श्रम, जिसे कि पूँजी में तब्दील कर दिया गया है, और भुगतान के बदले दिये गये उस श्रम के बीच सम्बन्ध है, जो इस अतिरिक्त पूँजी को गतिमान बनाने के लिए आवश्यक होता है। इसलिए पूँजी के परिमाण और काम करने वाली आबादी की संख्या के बीच का सम्बन्ध किसी भी रूप में ऐसे दो परिमाणों के बीच सम्बन्ध नहीं है जो एक दूसरे से पूर्णत: स्वतन्त्र हों; उल्टे, असल में, यह उसी काम करने वाली आबादी के मुफ़्त दिये गये श्रम और भुगतान के बदले दिये गये श्रम के बीच का सम्बन्ध मात्र है। अगर मज़दूर वर्ग द्वारा मुफ़्त में दिया गया, और पूँजीपति वर्ग द्वारा संचित किया गया, श्रम इतनी तेज़ी से बढ़ता है कि इसे पूँजी में रूपान्तरित किये जाने के लिए मज़दूरी के बदले दिये गये श्रम में असाधारण बढ़ोत्तरी की आवश्यकता पड़ती है, तो मज़दूरी बढ़ती है, और अन्य स्थितियों के समान रहने पर, मुफ़्त में दिया गया श्रम उसी अनुपात में घटता है। लेकिन जैसे ही यह कमी उस बिन्दु को छूती है जहाँ पूँजी का पोषण करने वाले बेशी श्रम की सामान्य मात्रा में आपूर्ति नहीं होती, वैसे ही एक प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है: आमदनी के छोटे हिस्से को पूँजी में तब्दील किया जाता है और संचय की गति कम हो जाती है, और मज़दूरी में बढ़ोत्तरी की गति एक बाधा का सामना करती है। इसलिए मज़दूरी में बढ़ोत्तरी उन सीमाओं के भीतर ही रहती है जो न केवल पूँजीवादी व्यवस्था की बुनियाद को क़ायम रखती हैं, बल्कि बढ़ते पैमाने पर इसके पुनरुत्पादन को भी सुनिश्चित करती हैं। पूँजीवादी संचय के नियम को, जिसे अर्थशास्त्रियों ने रहस्यीकृत कर प्रकृति के तथाकथित नियम में तब्दील कर दिया है, वास्तव में इस स्थिति को अभिव्यक्त करती है कि संचय की प्रकृति ही श्रम के शोषण की दर में कमी को और श्रम की क़ीमत में ऐसी हर वृद्धि को असम्भव बनाती है, जो लगातार पहले से बड़े स्तर पर, पूँजी-सम्बन्ध के निरन्तर पुनरुत्पादन को गम्भीर रूप से जोखिम में डालती है। एक ऐसी उत्पादन पद्धति में और कुछ हो भी नहीं सकता है जिसमें मज़दूर अस्तित्वमान ही इसलिए रहता है कि वह पहले से अस्तित्वमान मूल्यों के मूल्य संवर्द्धन को अंजाम दे, उस स्थिति के ठीक विपरीत, जिसमें वस्तुगत सम्पदा मज़दूर की विकास की अपनी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए अस्तित्वमान रहती है। ठीक उसी प्रकार, जैसे धर्म में मनुष्य अपने ही मस्तिष्क के उत्पादों से शासित होता है, वैसे ही, पूँजीवादी उत्पादन में, वह अपने हाथों के उत्पादों से शासित होता है।” (वही, पृ. 771-72)
पूँजी के बढ़ते आवयविक संघटन के साथ पूँजी संचय
मार्क्स बताते हैं कि समान स्तर पर पूँजी का संचय पूँजीवादी व्यवस्था का आम नियम नहीं होता है। दो कारणों से पूँजीवादी उत्पादन में पूँजी का आवयविक संघटन अनिवार्यत: बढ़ता है। पहला है पूँजीपतियों के बीच की प्रतिस्पर्द्धा और दूसरा है पूँजीपति वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच का संघर्ष। पूँजीपतियों के बीच की आपसी प्रतिस्पर्द्धा क्यों होती है? उनके बीच प्रतिस्पर्द्धा होती है अपने माल के उत्पादन की लागत को कम-से-कम करना ताकि अपने प्रतिस्पर्द्धी को क़ीमतों को कम करने की प्रतिस्पर्द्धा में हराया जा सके। लागत कम तभी की जा सकती है जब श्रम की उत्पादकता को बढ़ाया जाये। श्रम की उत्पादकता को तभी बढ़ाया जा सकता है जब उत्पादन के पैमाने में विस्तार किया जाय और उन्नत तकनोलॉजी व मशीनों पर निवेश को बढ़ाया जाए। वहीं मज़दूर वर्ग से पूँजीपति वर्ग का संघर्ष पूँजीपति वर्ग को श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने वाली मशीनें व तकनोलॉजी को लगाने को बाध्य करता है, क्योंकि उसे मज़दूरों के जीवित श्रम पर अपनी निर्भरता को कम कर मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता को कम करना होता है। इन दो अन्तरविरोधों के कारण पूँजीवादी उत्पादन में पूँजी के आवयविक संघटन में बढ़ोत्तरी एक आम नियम है।
श्रम की उत्पादकता के बढ़ने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि उत्पादन के साधनों की मात्रा और उनका प्रचालन करने और उत्पादक उपभोग करने वाले मज़दूरों की संख्या के अनुपात में परिवर्तन। दूसरे शब्दों में, पूँजी के तकनीकी संघटन में बदलाव। श्रम की उत्पादकता बढ़ने का अर्थ यह है कि किसी भी दी गयी अवधि में मज़दूरों द्वारा उत्पादित माल में परिवर्तित किये जाने वाले उत्पादन के साधनों की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है। कुछ उत्पादन के साधनों की मात्रा में वृद्धि श्रम की उत्पादकता के बढ़ने की पूर्वशर्त होता है, मसलन, मशीनें व श्रम के अन्य उपकरण आदि, जबकि कुछ अन्य उत्पादन के साधनों की मात्रा में वृद्धि श्रम की उत्पादकता के बढ़ने का परिणाम होता है, मसलन, कच्चा माल व सहायक सामग्री। चाहे यह वृद्धि श्रम की उत्पादकता के बढ़ने की शर्त हो या फिर उसका नतीजा, इतना स्पष्ट है कि श्रमशक्ति की मात्रा की तुलना में उत्पादन के साधनों की बढ़ती मात्रा श्रम की बढ़ती उत्पादकता की अभिव्यक्ति होता है। इस प्रकार श्रम की उत्पादकता में वृद्धि हमेशा उत्पादन में श्रमशक्ति की मात्रा की तुलना में उत्पादन के साधनों की बढ़ती मात्रा में अभिव्यक्त होती है। यानी, प्रति मज़दूर उत्पादन के साधनों की मात्रा में वृद्धि होती है। इसे ही हम पूँजी का बढ़ता तकनीकी संघटन कहते हैं।
यह तकनीकी संघटन जिस दर से बढ़ता है, पूँजी का मूल्य–संघटन ठीक उसी रफ़्तार से नहीं बढ़ता है। कारण यह है कि श्रम की बढ़ती उत्पादकता के साथ स्वयं उत्पादन के साधनों के उत्पादन की लागत भी कम होती है और उनकी क़ीमतों में भी गिरावट आती है। नतीजतन, जिस रफ़्तार से पूँजी का तकनीकी संघटन, यानी उत्पादन के साधनों की मात्रा और श्रमशक्ति की मात्रा का भौतिक अनुपात बदलता है, पूँजी का मूल्य-संघटन ठीक उसी रफ़्तार से नहीं बदलता है, क्योंकि मशीनें व उत्पादन के अन्य साधन भी सभी मालों के समान श्रम की उत्पादकता में आम बढ़ोत्तरी के कारण सस्ते होते रहते हैं। मार्क्स इंग्लैण्ड में कताई उद्योग का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि अट्ठारहवीं सदी की शुरुआत में इसमें स्थिर पूँजी व परिवर्तनशील पूँजी का अनुपात 1:1 था। ‘पूँजी’ के पहले खण्ड के लेखन के समय तक यह अनुपाता 7:1 हो चुका था। लेकिन तकनीकी संघटन की बात करें, तो वह इससे कई गुना ज़्यादा बढ़ गया था। मार्क्स बताते हैं कि डेढ़ सदी के भीतर ही तकनीकी संघटन 100 गुना ज़्यादा बढ़ चुका था, जबकि मूल्य-संघटन केवल 7 गुना बढ़ा था।
मार्क्स बताते हैं कि पूँजी के आवयविक संघटन में वृद्धि पूँजीवादी उत्पादन का आम नियम है। इसे हम हर युग में तमाम मालों की क़ीमतों को उनके संघटक तत्वों में तोड़कर समझ सकते हैं। जब हम अलग-अलग दौर में मालों के मूल्य में उत्पादन के साधनों द्वारा स्थानान्तरित मूल्य (यानी कच्चे मालों, सहायक मालों का मूल्य और मशीनों, इमारतों, आदि अचल पूँजी के तत्वों का घिसाई मूल्य) और नये उत्पादित मूल्य (यानी मज़दूरी के बराबर मूल्य तथा उसके ऊपर मज़दूरों के बेशी श्रम द्वारा पैदा बेशी मूल्य) के अनुपात को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि उत्पादन के साधनों द्वारा स्थानान्तरित मूल्य की सापेक्षिक मात्रा मालों की क़ीमत में बढ़ रही है। यह अपने आप में श्रम की बढ़ती उत्पादकता का ही एक लक्षण या चिह्न होता है। लेकिन पूँजी के बढ़ते आवयविक संघटन का यह अर्थ नहीं होता है कि परिवर्तनशील पूँजी अनिवार्यत: निरपेक्ष रूप से कम हो जाती है। कुल निवेशित पूँजी में स्थिर पूँजी के सापेक्ष उसकी मात्रा कम होती है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि निरपेक्ष रूप से वह कम हो जाये। यदि पूँजी के आवयविक संघटन में वृद्धि की दर से ज़्यादा तेज़ दर से पूँजी संचय और विस्तारित पुनरुत्पादन हो रहा है, तो सापेक्षिक रूप से कम होने के बावजूद परिवर्तनशील पूँजी और उसके द्वारा ख़रीदी गयी श्रमशक्ति की मात्रा, यानी उसके द्वारा काम पर रखे गये मज़दूरों की संख्या में भी, निरपेक्ष रूप से बढ़ोत्तरी हो सकती है। मिसाल के तौर पर, मान लें कि पहले किसी पूँजीपति द्वारा लगायी गयी पूँजी का आवयविक संघटन 1:1 था। बाद में, यह बढ़कर 3:1 हो गया। इसका यह अर्थ हुआ कि सापेक्षिक रूप से परिवर्तनशील पूँजी स्थिर पूँजी की तुलना में कम हो गयी। लेकिन मान लें कि पहले लगायी गयी कुल पूँजी थी रु. 1000, जिसमें से 1:1 के आवयविक संघटन के अनुसार, रु. 500 स्थिर पूँजी के रूप में लगाये गये थे और बाकी रु. 500 परिवर्तनशील पूँजी के रूप में लगाये गये थे। मान लें कि बाद में कुल लगायी गयी पूँजी रु. 4000 हो गयी। ऐसे में, 3:1 के आवयविक संघटन के अनुसार स्थिर पूँजी हुई रु. 3000 जबकि परिवर्तनशील पूँजी हुई रु. 1000। जैसा कि हम देख सकते हैं, पूँजी का आवयविक संघटन बढ़ने के बावजूद परिवर्तनशील पूँजी की मात्रा में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी हुई, हालाँकि स्थिर पूँजी के सापेक्ष उसमें कमी आयी।
श्रम की उत्पादकता में होने वाली हर बढ़ोत्तरी श्रम की सामाजिक शक्ति का ही परिणाम होता है। बड़े पैमाने के उत्पादन में कई श्रमिकों के साथ आने से पैदा होने वाले सामाजिक प्रभाव और उनके सहकार व श्रम के विभाजन के विकास के साथ मशीनीकरण का सम्भव होना ही वे कारक हैं जो कि श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने वाले सभी उत्पादन के साधनों व तकनोलॉजी को पैदा करते हैं। निश्चय ही, इसमें मानसिक श्रमिकों की भी भूमिका होती है। लेकिन सामाजिक उत्पादन में श्रम की सामूहिक शक्ति के बिना श्रम की उत्पादकता में कोई विचारणीय उन्नति सम्भव नहीं है। मार्क्स बताते हैं कि माल उत्पादन की व्यवस्था में श्रम की उत्पादकता में तरक्की पूँजीवादी माल उत्पादन के साथ ही सम्भव होती है, जिसकी पूर्वशर्त होती है कि कुछ व्यक्तिगत माल उत्पादकों के पास पूँजी का एक ऐसा शुरुआती संचय हो जिसका निवेश कर उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति को ख़रीदा जा सके और वहीं दूसरी ओर माल उत्पादकों के व्यापक जनसमुदायों को उत्पादन व जीविका/उपभोग के साधनों से वंचित कर दिया गया हो, ताकि वे अपनी श्रमशक्ति बेचने को मजबूर हो जाएँ। इस शुरुआती क़दम के बिना पूँजी-सम्बन्ध का स्थापित होना सम्भव नहीं है। इसे ही मार्क्स आदिम संचय (primitive accumulation) की संज्ञा देते हैं, जिसके बारे में हम अगले अध्याय में चर्चा करेंगे। लेकिन इतना स्पष्ट है कि सामाजिक तौर पर पूँजीवादी उत्पादन इसके साथ ही सम्भव होता है। इसके साथ ही श्रम की उत्पादकता में वृद्धि होती है, जो बेशी मूल्य के उत्पादन को बढ़ाता है और साथ ही पूँजी संचय को बढ़ाता है और यही बढ़ा हुआ पूँजी संचय वापस श्रम की उत्पादकता को और भी बढ़ाता है। मार्क्स लिखते हैं:
“इस प्रकार, अगर पूँजी के संचय का एक निश्चित स्तर विशिष्ट रूप से पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के लिए एक पूर्वशर्त प्रतीत होता है, तो विशिष्ट रूप में पूँजीवादी उत्पादन पद्धति भी पलटकर पूँजी के त्वरित संचय का कारण बनती है। इसलिए, पूँजी के संचय के साथ विशिष्ट रूप से पूँजीवादी उत्पादन पद्धति विकसित होती है और विशिष्ट रूप से पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के साथ पूँजी का संचय विकसित होता है। ये दो आर्थिक कारक, उन प्रेरणों के यौगिक अनुपात में जो ये एक-दूसरे को देते हैं, पूँजी के तकनीकी संघटन में वह परिवर्तन लाते हैं जिसके फलस्वरूप पूँजी का परिवर्तनशील अंग उसके स्थिर अंग की तुलना में छोटा से छोटा होता जाता है।” (वही, पृ. 776)
बढ़ते आवयविक संघटन के साथ पूँजी संचय का परिणाम यह होता है कि श्रमशक्ति की माँग में सापेक्षिक गिरावट आती है। यह माँग स्थिरता या मन्दी के दौर में श्रमशक्ति की माँग में निरपेक्ष गिरावट भी ला सकती है, जबकि तेज़ी और समृद्धि के दौर में बढ़ते आवयविक संघटन के बावजूद श्रमशक्ति की माँग और इसलिए रोज़गार की दर में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी भी हो सकती है। पूँजी संचय की जारी प्रक्रिया ही पूँजी के सान्द्रण और संकेन्द्रण (concentration and centralization of capital) को पैदा करती है। पूँजी के सान्द्रण ओर संकेन्द्रण का नतीजा यह होता है कि पूँजी का आवयविक संघटन और भी तेज़ गति से बढ़ता है। कुल सामाजिक पूँजी का बड़े से बड़ा हिस्सा उत्पादन के साधनों पर लगता है और सापेक्षिक रूप से छोटा होता हुआ हिस्सा श्रमशक्ति पर ख़र्च होता है। पूँजी संचय के एक आम परिणाम के रूप में पूँजी के सान्द्रण और संकेन्द्रण को गहराई से समझना यहाँ अपरिहार्य है क्योंकि पूँजी संचय का यह आम परिणाम आगे चलकर इजारेदार पूँजीवाद की मंज़िल को जन्म देता है।
पूँजी का सान्द्रण और संकेन्द्रण
पूँजी का सान्द्रण और संकेन्द्रण पूँजी के संचय से पैदा होने वाले नैसर्गिक नतीजे हैं। हर पूँजी अपने आप में उत्पादन के साधनों का एक सान्द्रण होती है और यह सान्द्रण जिस प्रकार और जितना बड़ा होता है, वह पूँजी उसके अनुरूप ही श्रमशक्ति की एक निश्चित मात्रा पर नियन्त्रण रखती है। दूसरे शब्दों में, पूँजीपति के पास जिस प्रकार के और जिस पैमाने पर उत्पादन के साधनों का स्वामित्व होता है, वह उसके अनुपात में ही मज़दूरों की संख्या को काम पर रख सकता है। सामान्य परिस्थितियों में उत्पादन के हर चक्र में पूँजीपति बेशी मूल्य के एक हिस्से को संचित कर पूँजी में तब्दील करता है। इसके साथ, उसके स्वामित्व के मातहत उत्पादन के साधन उन्नत होते हैं, उनकी मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है और उत्पादन का पैमाना विस्तारित होता है। अलग-अलग पूँजीपतियों के पास पूँजी संचय के ज़रिये पूँजी की मात्रा में बढ़ोत्तरी को हम पूँजी का सान्द्रण (concentration of capital) कहते हैं। इस सान्द्रण के साथ पूँजी संचय की दर और मात्रा को बढ़ाने की ज़मीन भी तैयार होती है। जैसा कि मार्क्स कहते हैं, “हर संचय नये संचय का ज़रिया बनता है।” (वही, पृ. 776) जैसे-जैसे पूँजी संचय आगे बढ़ता है, वह अलग-अलग पूँजीपतियों के हाथों में पहले से ज़्यादा उत्पादन के साधनों को केन्द्रित करता है, सामाजिक सम्पदा के उन हिस्सों को भी पूँजी में तब्दील करता है जो अब तक पूँजी में तब्दील नहीं हुए थे, उत्पादन का पहले से ज़्यादा बड़े पैमाने पर समाजीकरण करता है, श्रम की उत्पादकता में पहले से तीव्र गति से वृद्धि करता है और पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के क्षेत्र को विस्तारित करता जाता है। पूँजी के सान्द्रण के नतीजे के तौर पर अलग-अलग पूँजीपतियों के नियन्त्रण में उत्पादन के साधनों की मात्रा बढ़ती है। यह बढ़ोत्तरी समूची सामाजिक पूँजी में अलग-अलग पूँजीपतियों की पूँजी के हिस्से के अनुपात में ही होती है।
पूँजी के सान्द्रण की विपरीत गति भी पूँजीवादी व्यवस्था में मौजूद होती है। यह गति होती है पूँजियों के टूटने की और एक-दूसरे को विकर्षित करने की। मिसाल के तौर पर, पूँजीवादी घरानों या कम्पनियों को टूट जाना। उत्तराधिकारियों के बीच पूँजीवादी घरानों की सम्पत्ति का बँट जाना इसमें एक अहम कारक होता है। मिसाल के तौर पर, धीरूभाई अम्बानी के पूँजीवादी साम्राज्य का उसके दोनों बेटों के बीच विभाजित हो जाना, या इसी प्रकार घनश्यामदास बिड़ला के उत्तराधिकारियों में उसकी सम्पत्ति का बँट जाना, इसी के उदाहरण हैं। इस प्रकार, एक ओर सान्द्रण के ज़रिये अलग-अलग पूँजियाँ आकार में बड़ी होती जाती हैं, तो वहीं दूसरी ओर, इसके उलट, तमाम पूँजीवादी कम्पनियाँ या घराने अलग-अलग कारणों से टूटते भी रहते हैं। इसके अलावा, नये पूँजीपति भी पैदा होते रहते हैं, कई बार उत्पादन की पुरानी शाखाओं में तो कभी उत्पादन की नयी पैदा होने वाली शाखाओं में। नतीजतन, पूँजी के संचय और उसके फलस्वरूप होने वाले सान्द्रण के ज़रिये समाज में पूँजियों की संख्या कम या ज़्यादा गति से बढ़ती रहती है। एक ओर पूँजी का सान्द्रण पूँजियों का आकार बढ़ाता है, तो वहीं पूँजियों का टूटना और नयी पूँजियों का पैदा होना उनके आकार को तात्कालिक रूप से घटा भी देता है। मार्क्स इस द्वन्द्वात्मक गति का समाहार करते हुए लिखते हैं:
“इसलिए संचय एक ओर अपने आपको उत्पादन के साधनों के बढ़ते सान्द्रण और श्रम पर बढ़ते नियन्त्रण के रूप में पेश करता है, और दूसरी ओर कई अलग-अलग पूँजियों के एक-दूसरे से विकर्षित होने के रूप में पेश करता है।” (वही, पृ. 776-77)
पूँजी के सान्द्रण के अलावा एक अन्य प्रक्रिया भी पूँजी संचय के ही परिणाम के रूप में जन्म लेती है। यह प्रक्रिया है पूँजी का संकेन्द्रण। पूँजी के संकेन्द्रण का अर्थ है कई-कई अलग-अलग पूँजियों का स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त होना और उनके स्थान पर उनके मिल जाने से एक बड़ी पूँजी का निर्माण होना। व्यावहारिक तौर पर, यह प्रक्रिया दो प्रकार से पूरी होती है: एक ओर छोटी पूँजियों का बड़ी पूँजियों से प्रतिस्पर्द्धा में उजड़ना और उनके द्वारा निगल लिया जाना; दूसरा, होता है दो बड़ी पूँजियों का आपसी समझदारी बनाकर साथ में आना और किसी प्रकार के जॉइण्ट स्टॉक कम्पनी या ट्रस्ट का निर्माण कर लेना। जिस भी प्रकार से हो, पूँजी के संकेन्द्रण का अर्थ अपने आप में समूची सामाजिक पूँजी की मात्रा में वृद्धि नहीं होता। यह तमाम बिखरी हुई पूँजियों का साथ आना और पूँजी के केन्द्रों की संख्या का कम होना है। दूसरे शब्दों में, पूँजी के संकेन्द्रण का अर्थ है कुल सामाजिक पूँजी के वितरण में बदलाव आना। वह अब बहुत-से केन्द्रों पर विभाजित होने के बजाय पहले से कम केन्द्रों पर विभाजित होती है। पूँजी का सान्द्रण अलग-अलग पूँजीपतियों के पास पूँजी संचय के ज़रिये पूँजी की मात्रा के बढ़ने का प्रत्यक्ष परिणाम होता है। यह समूची सामाजिक पूँजी में बढ़ोत्तरी का द्योतक होता है। लेकिन पूँजी का संकेन्द्रण अपने आप में समूची सामाजिक पूँजी में वृद्धि नहीं करता और न ही वह इस वृद्धि का प्रत्यक्ष परिणाम होता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों के बीच मौजूद आपसी प्रतिस्पर्द्धा का परिणाम होता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता कि पूँजी के संकेन्द्रण का पूँजी संचय की दर और परिणामत: होने वाले पूँजी के सान्द्रण पर कोई असर नहीं पड़ता है। पूँजी का संकेन्द्रण पूँजी के कहीं ज़्यादा बड़े केन्द्रों को जन्म देता है। इन बड़े पूँजीपतियों के पास उत्पादन के पैमाने को बढ़ाने, उन्नत तकनोलॉजी व यन्त्रों का इस्तेमाल कर श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने की कहीं ज़्यादा क्षमता होती है। नतीजतन, पूँजी का केन्द्रीकरण सीधे सामाजिक पूँजी की मात्रा में अपने आप में वृद्धि नहीं करता है, लेकिन वह पहले से तेज़ रफ्तार से पूँजी के सान्द्रण और पूँजी संचय की ज़मीन ज़रूर तैयार करता है।
जैसे-जैसे पूँजीवादी उपक्रमों का आकार लगातार बढ़ती दर के साथ जारी पूँजी संचय के कारण होने वाले पूँजी के सान्द्रण और संकेन्द्रण के कारण बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उत्पादन का समाजीकरण एक ऐसी मंज़िल में पहुँचता जाता है कि किसी भी पूँजीपति के लिए नया निवेश करना या अपने पुराने उपक्रमों के ख़र्च होने वाले अचल पूँजी के तत्वों की भरपाई कर पाना, महज़ अपनी पूँजी के बूते सम्भव नहीं रह जाता। इसके साथ ही बैंकों की भूमिका में एक परिवर्तन आता है। वे एक भारी-भरकम ऋण तन्त्र का निर्माण करते हैं। बैंक समाज की सतह पर बिखरी पूँजियों (जो तात्कालिक तौर पर उत्पादक निवेश में नहीं लगी हैं और मुद्रा-पूँजी के भण्डारों के रूप में जमा हो रही हैं) और साथ ही ग़ैर-पूँजीपति वर्गों (मज़दूर वर्ग, मध्यम वर्ग, आम मेहनतक़श किसान, आदि) की छोटी-बड़ी बचतों को एक जगह केन्द्रीकृत करते हैं। इसके साथ, उनके पास भारी मुद्रा पूँजी आ जाती है जिसे वे पूँजीपतियों को ऋण के रूप में दे सकते हैं। जल्द ही उनकी भूमिका पूँजी संचय में सहायक शक्ति के बजाय पूँजी संचय के प्रमुख संचालक की बनने लगती है। यह वास्तव में सतत् जारी पूँजी संचय से होने वाले पूँजी के सान्द्रण व संकेन्द्रण और नतीजतन उत्पादन के बढ़ते समाजीकरण का ही परिणाम होता है। मार्क्स लिखते हैं:
“पूँजियों के केन्द्रीकरण, या पूँजी द्वारा पूँजी के आकर्षण, के नियमों को हम यहाँ विस्तारित नहीं कर सकते। कुछ संक्षिप्त तथ्यात्मक संकेत यहाँ पर्याप्त होंगे। प्रतिस्पर्द्धा का युद्ध मालों को सस्ता करते हुए लड़ा जाता है। मालों का सस्तापन, अन्य सभी स्थितियों के समान रहने पर, श्रम की उत्पादकता पर निर्भर करता है, और स्वयं श्रम की उत्पादकता उत्पादन के पैमाने पर निर्भर करती है। इसलिए बड़ी पूँजियाँ छोटी पूँजियों को हरा देती हैं। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास के साथ सामान्य स्थितियों में व्यवसाय को चलाते रखने के लिए आवश्यक वैयक्तिक पूँजी की न्यूनतम मात्रा भी बढ़ती है। इसलिए छोटी पूँजियाँ उत्पादन की उन शाखाओं में इकट्ठी होती जाती हैं, जिस पर बड़े पैमाने के उद्योग ने अभी तक केवल कहीं-कहीं ही नियन्त्रण स्थापित किया है या फिर अपूर्ण रूप से नियन्त्रण स्थापित किया है। यहाँ प्रतिस्पर्द्धा प्रतिस्पर्द्धी पूँजियों की संख्या के साथ प्रत्यक्ष समानुपात में और उनके आकार के साथ व्युत्क्रमानुपात में जारी रहती है। इसका अन्त हमेशा कई छोटे पूँजीपतियों की तबाही में होता है, जिनकी पूँजियाँ आंशिक रूप से विजेताओं के हाथ में चली जाती हैं और आंशिक तौर पर पूर्णत: नष्ट हो जाती हैं। इसके अलावा, पूँजीवादी उत्पादन के विकास के साथ एक बिल्कुल नयी शक्ति अस्तित्व में आती है: क्रेडिट तन्त्र। शुरुआती मंज़िलों में, यह तन्त्र संचय के विनम्र सहायक के रूप में चोरी-चोरी घुसता है, व्यक्तिगत या सम्बद्ध पूँजीपतियों के हाथों में अदृश्य तारों के ज़रिये मुद्रा के उन संसाधनों को रखता है, जो समाज की सतह पर बड़ी या छोटी मात्राओं में बिखरे हुए हैं; लेकिन जल्दी ही यह प्रतिस्पर्द्धा के युद्ध में एक नया और भयंकर हथियार बन जाता है और अन्तत: पूँजियों के संकेन्द्रण की एक विराट सामाजिक प्रणाली में तब्दील हो जाता है।” (वही, पृ. 777-78)
पूँजी का संकेन्द्रण उन उपक्रमों के विकास को भी सम्भव बना देता है, जिसके लिए अगर केवल पूँजी के सान्द्रण के पर्याप्त रूप से विकसित होने का इन्तज़ार किया जाता, तो उसमें वर्षों लग जाते हैं। मिसाल के तौर पर, मार्क्स बताते हैं कि रेलवे का विकास पूँजी के संकेन्द्रण के नतीजे के तौर पर पैदा हुए विशाल ज्वाइण्ट स्टॉक कम्पनियों व ट्रस्टों के ज़रिये ही तेज़ी से सम्भव हो पाया। यदि इसके लिए पूँजी के सान्द्रण के विकसित होने की प्रतीक्षा की जाती तो इसमें दशकों लग जाते। लेकिन पूँजी के केन्द्रीकरण ने इसे कुछ महीनों के भीतर ही सम्भव बना दिया। इस प्रकार, पूँजी का संकेन्द्रण उत्पादक शक्तियों के विशालकाय पैमाने पर विकास को सम्भव बनाता है, भले ही वह अपने आप में कुल सामाजिक पूँजी की मात्रा में बढ़ोत्तरी न करता हो। आज भी तमाम दैत्याकार उपक्रमों के ज़रिये उत्पादन के अभूतपूर्व स्तर पर समाजीकरण और श्रम की सामाजिक शक्ति को गुणात्मक रूप से नये स्तर पर निर्बन्ध करना पूँजी के केन्द्रीकरण के ज़रिये ही सम्भव होता है। पूँजी की विशाल मात्राओं के पहले से बेहद कम केन्द्रों पर केन्द्रित होने के परिणाम के रूप में पूँजी दिन-दूनी रात चौगुनी गति से अपने आपको बढ़ाती जाती है और सामाजिक रूप में पूँजी संचय का एक प्रमुख कारक बन जाती है। मार्क्स बताते हैं कि इसी के ज़रिये नये औद्योगिक आविष्कार और नवोन्मेष भी पहले से बड़े पैमाने पर और ज़्यादा तेज़ गति से होते हैं। जैसे-जैसे पुरानी पूँजियाँ अपने आपको भौतिक रूप से पुनर्नवीकृत करती हैं, यानी पुराने उत्पादन के साधनों के ख़र्च होने के साथ नयी तकनोलॉजी पर आधारित नये उत्पादन के साधनों को उत्पादन में लगाती हैं, वैसे-वैसे पूँजी संचय बढ़ता है और साथ ही श्रमशक्ति की माँग में और भी ज़्यादा कमी आती है। जैसा कि हमने ऊपर बताया, पूँजी का संकेन्द्रण पलटकर पूँजी के सान्द्रण को बल प्रदान करता है। यह उत्पादन के समाजीकरण को तो बढ़ाता ही है, साथ ही यह पूँजी के आवयविक संघटन को भी पहले से तेज़ गति से बढ़ाता है। नतीजतन, पूँजी द्वारा श्रमशक्ति के आकर्षण में सापेक्षिक कमी आती है। मन्दी और स्थिरता के दौर में यह श्रमशक्ति की माँग को निरपेक्ष रूप से भी कम कर सकता है। मार्क्स लिखते हैं:
“संचय की सामान्य प्रक्रिया में बनने वाली नयी पूँजियाँ सबसे मुख्य तौर पर नये आविष्कारों और खोजों के इस्तेमाल का, और आम तौर पर औद्योगिक उन्नतियों का वाहक बनती हैं। लेकिन समय के साथ पुरानी पूँजी स्वयं उस बिन्दु पर पहुँच जाती है जहाँ उसे अपने आपको हर मायने में पुनर्नवीकृत करना होता है, एक ऐसा समय जब उसे अपने केंचुली को त्यागकर अन्य पूँजियों के समान पूर्णता-प्राप्त तकनीकी रूप में पुनर्जन्म लेना होता है, एक ऐसे तकनीकी रूप में जिसमें श्रम की पहले से कम मात्रा मशीनरी और कच्चे माल की पहले से ज़्यादा बड़ी मात्रा को गतिमान करने के लिए पर्याप्त होती है। इसके नतीजे के तौर पर श्रम की माँग में जो निरपेक्ष कमी आती है वह उतनी ही बड़ी होती है, जितना बड़े स्तर पर पुनर्नवीकरण की प्रक्रिया से गुज़र रही पूँजियाँ संकेन्द्रण की ओर जारी गति के कारण एक साथ आती हैं।
“इस प्रकार, एक ओर निरन्तर जारी संचय की प्रक्रिया में बनने वाली नयी पूँजियाँ अपने आकार की तुलना में कम से कम मज़दूरों को आकर्षित करती हैं। वहीं दूसरी ओर, पुरानी पूँजी नियमित अन्तरालों पर एक नये संघटन के साथ पुनरुत्पादित होती हैं और पहले काम पर रखे गये मज़दूरों को अधिक से अधिक विकर्षित करती हैं।” (वही, पृ. 780-81)
संक्षेप में, समान दर से पूँजी संचय पूँजीवादी व्यवस्था का आम नियम नहीं है। आम तौर पर, पूँजी संचय लगातार पहले से विस्तारित दर और पैमाने पर होता है। इसका अर्थ यह है कि पूँजी का आवयविक संघटन लगातार बढ़ता है, जिसके कारणों की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। यही पूँजी के सान्द्रण और संकेन्द्रण को बढ़ाता है, जो पलटकर पूँजी संचय को भी अभूतपूर्व रूप से बढ़ाता है।
इसका नतीजा होता है एक सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी या औद्योगिक रिज़र्व सेना का लगातार पहले से बड़े पैमाने पर निर्माण। आगे मार्क्स इसी पर विस्तार से चर्चा करते हैं, जो आज के समय में भी एकदम प्रासंगिक है और विशेष तौर पर अनौपचारिकीकरण यानी ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण और कैजुअलीकरण को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।
(अगले अंक में अध्याय-16 जारी)
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