दिल्ली में ‘आम आदमी पार्टी’ की अभूतपूर्व विजय और मज़दूर आन्दोलन के लिए कुछ सबक
सम्पादक मण्डल
कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े पूँजीपतियों के हितों की सेवा करने वाले चुनावी राजनीतिक दलों, तमाम छोटे-बड़े क्षेत्रीय पूँजीवादी दलों और संसदीय वामपंथियों से ऊबी हुई दिल्ली की जनता ने पिछली बार अधूरी रह गयी अपने दिल की कसर को तबीयत से निकाला है। ‘आप आदमी पार्टी’ को हालिया विधानसभा चुनावों में 70 में 67 सीटों पर विजय मिली। 67 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान किया और उसमें से 54 प्रतिशत मत ‘आप’ को प्राप्त हुए। ‘आप’ को विशेष तौर पर ग़रीब मेहनतकश जनता और निम्न मध्यवर्ग के वोट प्राप्त हुए है। मँझोले व उच्च मध्यवर्ग ने भी ‘आप’ को वोट दिया है, लेकिन उनके एक अच्छे-ख़ासे हिस्से ने भाजपा को भी वोट दिया है। इन चुनावों के नतीजों से कुछ बातें साफ़ हैं।
केजरीवाल की अगुवाई में ‘आप’ की ज़बर्दस्त जीत के निहितार्थ
पहली बात-कांग्रेस और भाजपा द्वारा खुले तौर पर अमीरपरस्त और पूँजीपरस्त नीतियों को लागू किये जाने के ख़िलाफ़ जनता का पुराना असन्तोष खुलकर निकला है। हाल ही में भाजपा सरकार द्वारा श्रम कानूनों को बेअसर करने की शुरुआत, भूमि अधिग्रहण कानून द्वारा किसानों की इच्छा के विपरीत ज़मीन अधिग्रहण का प्रावधान करना, रेलवे का भाड़ा बढ़ाया जाना, विश्व बाज़ार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में भारी गिरावट के अनुसार पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में कमी न करना और महँगाई पर नियन्त्रण न लगा पाने के चलते मोदी सरकार विशेष तौर पर मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के बीच अलोकप्रिय होती जा रही है, हालाँकि इस अलोकप्रियता के देशव्यापी बनने में अभी कुछ समय है; कांग्रेस ने अपने कुल पाँच दशक के राज में जनता को ग़रीबी, महँगाई, अन्याय और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ ख़ास नहीं दिया; जनता कहीं न कहीं कांग्रेस से ऊबी हुई भी थी; ऐसे में, जनता ने इन दोनों पार्टियों के विरुद्ध जमकर अपना गुस्सा और असन्तोष इन चुनावों में अभिव्यक्त किया है।
दूसरी बात-जनता के भीतर पहले भी लम्बे समय से यह गुस्सा और असन्तोष पनप रहा था लेकिन पूँजीवादी चुनावी राजनीति के भीतर उसे कोई विकल्प नहीं दिख रहा था। पिछले तीन दशकों में सपा, बसपा, जद(यू), आदि जैसे तमाम दलों की भी कलई खुल चुकी है। ऐसे में, ‘आम आदमी पार्टी’ सदाचार, ईमानदारी और पारदर्शिता की बात करते हुए लोगों के बीच आयी। लोगों को उसने भ्रष्टाचार-मुक्त दिल्ली और देश का सपना दिखलाया। उसने जनता को बतलाया कि हर समस्या के मूल में भ्रष्टाचार है, चाहे वह शोषण हो, ग़रीबी हो या फिर बेरोज़गारी। उनके अनुसार देश की व्यवस्था में और पूँजीवाद में कोई बुराई नहीं है। बस दिक्कत यह है कि अगर सभी सरकारी नौकर ईमानदारी हो जायें, सभी पूँजीपति ईमानदारी से मुनाफ़ा कमायें तो सबकुछ सुधर जायेगा! केजरीवाल के अनुसार समस्या केवल नीयत है। फिलहाल जो लोग सत्ता में हैं, उनकी नीयत ख़राब है और ‘आम आदमी पार्टी’ अच्छी नीयत वाले लोगों की पार्टी है। अगर वह सत्ता में आ जाये तो भारत की और दिल्ली की सभी समस्याएँ देर हो जायेंगी, लोग खुशहाल हो जायेंगे, केजरीवाल के शब्दों में ‘ग़रीब और अमीर दोनों दिल्ली पर राज करेंगे!’ अव्यवस्था, ग़रीबी, बेरोज़गारी और महँगाई से त्रस्त आम मेहनतकश जनता इस कदर नाराज़ है, इस कदर थकी हुई है, इस कदर श्रान्त और क्लान्त है और विकल्पहीनता से इस कदर परेशान है कि उसे केजरीवाल और ‘आप’ की लोकलुभावन बातें लुभा रही हैं। बल्कि कह सकते हैं कि जनता ने विकल्पहीनता और असन्तोष में अपने आप को लुभा लेने की इजाज़त केजरीवाल और ‘आप’ को दी है। इसका एक कारण जनता के भीतर कांग्रेस और भाजपा की खुली अमीरपरस्ती के विरुद्ध वर्ग असन्तोष भी है। वह ‘आम आदमी पार्टी’ के दावों को लेकर इतनी आश्वस्त नहीं है, जितनी कि दो प्रमुख पूँजीवादी दलों से नाराज़ है। ‘आम आदमी पार्टी’ की ऊपर से ग़रीब के पक्ष में दिखनेवाली जुमलेबाज़ी ने काफ़ी हद तक आम ग़रीब जनता के गुस्से का कुशलता से इस्तेमाल किया है।
तीसरी बात-जनता के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से में ‘आम आदमी पार्टी’ को लेकर एक विभ्रम भी बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि पिछली बार ‘आप’ को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था, जिसका बहाना बनाकर उसे अपने असम्भव वायदों से भागने का अवसर मिल गया था। सभी जानते हैं कि केजरीवाल के पिछली बार 49 दिनों के बाद भागने के पीछे जो असली वजह थी, वह जनलोकपाल बिल को लेकर हुआ विवाद नहीं था, बल्कि दिल्ली के 60 लाख ठेका मज़दूरों और कर्मचारियों का स्थायी करने के वायदे को पूरा करने का दबाव था। लेकिन अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद में लगे मेहनतकश लोग जल्दी भूल भी जाते हैं और जल्दी माफ़ भी कर देते हैं। ख़ास तौर पर तब जबकि कोई अन्य विकल्प मौजूद न हो! इसके अलावा, जनता के एक हिस्से को भी यह लगता है कि कोई और बेहतर विकल्प नहीं है इसलिए एक बार केजरीवाल सरकार को ही पूरा बहुमत देकर मौका दिया जाना चाहिए। वास्तव में, केजरीवाल से जुड़े विभ्रम के टूटने के लिए यह ज़रूरी भी है कि एक बार दिल्ली की मेहनतकश जनता के दिल में अधूरी रह गयी कसर ढंग से निकल जाये।
चौथी बात-केजरीवाल की ज़बर्दस्त जीत ने यह दिखलाया है कि पूँजीवादी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के संकट और अन्तरविरोध जब-जब एक हद से ज़्यादा बढ़ते हैं तो किसी न किसी श्रीमान् सुथरे का उदय होता है, जो कि (1) गर्म से गर्म जुमलों का इस्तेमाल कर जनता के गुस्से को अभिव्यक्ति देता है और इस प्रकार उसे निकालता है; (2) जो जनता के दुख-दर्द का एक काल्पनिक कारण जनता के सामने पेश करता है, जैसे कि भ्रष्टाचार और नीयत आदि जैसे कारक; (3) जो वर्गों के संघर्ष को बार-बार नकारता है और वर्ग समन्वय की बातें करता है, जैसे कि केजरीवाल ने अमीरों और ग़रीबों के बँटवारे को ही नकार दिया है और बार-बार केवल सदाचारी और भ्रष्टाचारी के बँटवारे पर बल दिया है। केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ इस समय पूँजीवादी व्यवस्था की ज़रूरत हैं। वे पूँजीवादी समाज और व्यवस्था के असमाधेय अन्तरविरोधों के वर्ग चरित्र को छिपाने का काम करते हैं और वर्ग संघर्ष की चेतना को कुन्द करने का कार्य करते हैं। यही कार्य एक समय में भारत की पूँजीवादी राजनीति के इतिहास में जेपी आन्दोलन ने निभायी थी। आज एक दूसरे रूप में भारतीय पूँजीवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था भयंकर संकट का शिकार है। उसका एक तानाशाहाना और फासीवादी समाधान नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की साम्प्रदायिक फासीवादी सरकार पेश कर रही है, तो वहीं एक दूसरा समाधान ‘आम आदमी पार्टी’ और अरविन्द केजरीवाल पेश कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि केजरीवाल की लहर उनके अपने वायदों से मुकरने साथ किनारे लगती जायेगी और आज जो लोग पूँजीवादी व्यवस्था की सौग़ातों से तंग आकर प्रतिक्रिया में केजरीवाल के पीछे गये हैं, उनमें से कई पहले से ज़्यादा प्रतिक्रिया में आकर भाजपा और संघ परिवार जैसी धुर दक्षिणपंथी, फासीवादी ताक़तों के समर्थन में जायेंगे जो कि मज़दूर वर्ग के सबसे बड़े दुश्मन हैं।
क्या अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ मेहनतकश ग़रीबों के दोस्त हैं?
हम मज़दूरों के लिए जो सबसे अहम सवाल है वह यह है कि क्या अरविन्द केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ हमारी दोस्त है? या क्या वह कांग्रेस या भाजपा जैसी पार्टियों से वास्तव में भिन्न है या उनसे बेहतर है? क्या हम उससे कुछ उम्मीद रख सकते हैं? इस बात की पड़ताल किस पैमाने पर की जानी चाहिए हम मज़दूर केवल एक पैमाने पर इसकी पड़ताल कर सकते हैं और वह है मज़दूर वर्ग का पैमाना। आइये देखते हैं कि केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ का इस बारे में क्या मानना है।
‘अमीर और ग़रीब दोनों साथ में दिल्ली पर राज करेंगे।’ क्या वाकई?
हाल ही में, ‘आम आदमी पार्टी’ के चाणक्य योगेन्द्र यादव ने बताया कि कि ‘आम आदमी पार्टी’ वर्गों के संघर्ष में भरोसा नहीं करती। उसका मानना है कि अमीरों से कुछ भी छीना नहीं जाना चाहिए। ग़रीबों को जो भी मिलेगा वह भ्रष्टाचार ख़त्म करके मिलना चाहिए, न कि अमीरों से छीनकर। यही बात अरविन्द केजरीवाल ने भी कई बार अलग-अलग टीवी चैनलों को कही है। लेकिन इस पूरी बात में एक बड़ा गोरखधन्धा है। हम मज़दूरों के लिए सोचने का सवाल यह है कि अमीर अमीर हुआ कैसे? ग़रीब ग़रीब क्यों है? और अमीर के अमीर रहते और ग़रीब के ग़रीब रहते समाज में खुशहाली कैसे आयेगी? समाज में धन-सम्पदा पैदा कौन करता है उसका बँटवारा कैसे होता है? क्या हम जानते नहीं हैं कि अमीर वर्ग, मालिक वर्ग, पूँजीपति वर्ग अमीर इसीलिए है क्योंकि वह हम मज़दूरों की मेहनत को लूटता है? क्या हम जानते नहीं हैं उसकी अमीरी, उसकी शानो-शौक़त और ऐयाशियों की कीमत हम मज़दूर अपना खून और पसीना बहाकर अदा करते हैं?
हम अच्छी तरह से जानते हैं कि पूँजीपतियों की भारी सम्पत्ति आसमान से नहीं टपकी है; उनका विशालकाय बैंक बैलेंस ‘ईश्वर की देन’ नहीं है; उनके नौकरों-चाकरों की फौज ‘देवताओं’ ने नहीं भिजवायी है! इस सबकी कीमत हम अदा करते हैं। निजी सम्पत्ति और कुछ नहीं बल्कि पूँजी है; पैसा अपने आपमें कुछ भी नहीं अगर उससे ख़रीदने के लिए तमाम वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन न हो; वस्तुएँ व सेवाएँ दुकानदार, व्यापारी, पूँजीपति, मालिक या ठेकेदार नहीं पैदा करते! उन्हें हम मज़दूर बनाते हैं! सुई से लेकर जहाज़ तक-हरेक वस्तु! इन वस्तुओं को बनाने के बावजूद ये वस्तुएँ हमसे छीन ली जाती हैं और हमें बदले में मुश्किल से जीने की खुराक मिलती है। यही लूट तो हमारी ग़रीब का कारण है! ऐसे में, हम तब तक ग़रीब बने रहेंगे जब तक कि पूरा उत्पादन पूँजीपतियों के हाथों में है, जब तक कि यह उत्पादन समाज की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि पूँजीपति के मुनाफ़े के लिए होता हो। पूँजीपति की मुनाफ़े की शर्त हमारी ग़रीबी और बदहाली है! हमें ग़रीब, बेकार और बदहाल बनाये बगै़र पूँजीपति अपना उत्पादन कम लागत में कर ही नहीं सकता और मुनाफ़ा कमा ही नहीं सकता। आपस में कुत्तों की तरह लड़ते पूँजीपति पर हमेशा बाज़ार का यह दबाव काम करता है कि वह हमें लूटे और बरबाद करे; वह हमें कम-से-कम मज़दूरी दे और हमसे ज़्यादा से ज़्यादा काम करवाये! चाहे पूँजीपति अच्छी नीयत और सन्त प्रकृति का ही क्यों न हो, अगर उसे पूँजीपति के तौर पर ज़िन्दा रहना है तो उसे मज़दूर को लूटना होगा, उसे बेकारी के दलदल में धकेलना ही होगा। सवाल नीयत या इरादे का है ही नहीं, सवाल वर्ग का है! सवाल पूरी व्यवस्था और सामाजिक ढाँचे का है! केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था पर कहीं सवाल नहीं खड़ा करते, बल्कि उसका समर्थन करते हैं। वे बस उस भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की बात करते हैं जिससे मध्यवर्ग दुखी रहता है और पूँजीपति वर्ग परेशान रहता है। इसीलिए वे ग़रीबी और अमीरी का बँटवार ख़त्म करने की बात नहीं करते, बल्कि यह हवा-हवाई बात करते हैं कि ‘दिल्ली पर ग़रीब और अमीर साथ में राज करेंगे और खुशी-खुशी रहेंगे!’ ग़रीब के ग़रीब रहते और अमीर के अमीर रहते, ऐसा मुमकिन नहीं है क्योंकि अमीर इसी शर्त पर अमीर होता है कि ग़रीब और ग़रीब होता जाय। समृद्धि मज़दूर वर्ग अपनी मेहनत झोंक कर, अपनी ज़िन्दगी और वक़्त लगाकर पैदा करता है। वह उससे पूँजीपति ले लेता है और बदले में उसे जीने की खुराक भर दे देता है। इसी प्रक्रिया से अमीर अमीर बनता है और मज़दूर ग़रीब होता जाता है। ऐसे में, केजरीवाल सरकार का यह कहना कि अमीर से वह कुछ नहीं लेगी और ग़रीब को सबकुछ देगी, मज़ाकिया है और केवल यह दिखाता है कि या तो केजरीवाल और उसके लग्गू-भग्गू मूर्ख हैं, या फिर दिल्ली के ग़रीब मज़दूरों को मूर्ख बना रहे हैं।
क्या भ्रष्टाचार ख़त्म होने से मज़दूरों का शोषण ख़त्म हो जायेगा?
केजरीवाल सरकार अगर सारा भ्रष्टाचार ख़त्म कर भी दे, तो इससे मज़दूर की लूट ख़त्म नहीं होती। अगर पूँजीपति और मालिक एकदम संविधान और श्रम कानूनों के अनुसार भी चले तो एक मज़दूर को कितनी मज़दूरी मिल जायेगी? अगर दिल्ली राज्य में न्यूनतम मज़दूरी के कानून को पूर्णतः लागू भी कर दिया जाय तो एक मज़दूर को ज़्यादा से ज़्यादा 10-11 हज़ार रुपये तक ही मिलेंगे। ऐसे में, हम मज़दूर क्या खुशहाल हो जायेंगे? वह भी दिल्ली में जहाँ ज़िन्दगी जीना इतना महँगा है कि दो जून की रोटी भी मुश्किल से कमायी जाती है? वैसे भी केजरीवाल श्रम कानूनों के उल्लंघन के मसले को कभी नहीं उठाते, हालाँकि यह सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है क्योंकि दिल्ली के 60 लाख से भी ज़्यादा मज़दूरों के लिए यह सबसे बड़ा मसला है। यह वह भ्रष्टाचार है कि जिससे कि दिल्ली की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा प्रभावित होता है। लेकिन केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ इसके बारे में चुप्पी साधे रहती है। इसका कारण यह है कि ‘आप’ के समर्थकों और नेताओं तक का एक बड़ा हिस्सा छोटे और मँझोले मालिकों, ठेकेदारों, व्यापारियों, प्रापर्टी डीलरों और दुकानदारों से आता है। पिछली ‘आप’ सरकार का श्रम मन्त्री गिरीश सोनी स्वयं एक कारखाना-मालिक था! इसी से पता चलता है कि मज़दूरों के मुद्दों पर ‘आप’ का क्या रुख़ है।
‘आम आदमी पार्टी’ की छोटे कारखाना मालिकों, ठेकेदारों, दलालों और दुकानदारों से यारी
केजरीवाल ने हाल ही एक टीवी इण्टरव्यू में माना है कि अपनी पिछली 49 दिनों की सरकार के दौरान उन्होंने टैक्स चोरी करने वाली भ्रष्टाचारी दुकानदारों और व्यापारियों पर छापा मारने से सरकारी कर विभाग को रोका था। उनका तर्क यह था कि ये सरकारी विभाग और उनके कर्मचारी कर चोरी करने वाले दुकानदारों से रिश्वत लेते थे। यानी कि सरकारी विभाग के भ्रष्टाचार और व्यापारियों के भ्रष्टाचार में केजरीवाल ने केवल सरकारी विभाग और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को निशाना बनाया और व्यापारियों के भ्रष्टाचार को छोड़ दिया या फिर बचाया। यही केजरीवाल की पूरी नीति है। वह केवल सरकारी अमलों और नेताओं के भ्रष्टाचार को निशाना बनाते हैं और वह भी वह भ्रष्टाचार जिससे दुकानदारों, पूँजीपतियों आदि को नुकसान होता है। इसीलिए केजरीवाल ने कहा था कि वह बनिया जाति से आते हैं और बनियों यानी कि व्यापारियों का दुख-दर्द जानते हैं! केजरीवाल ने विशेष तौर पर छोटे मालिकों, उद्यमियों और दुकानदारों को भरोसा दिलाया कि उन्हें ‘आप’ की सरकार से डरने की ज़रूरत नहीं है! उन्हें तो सरकारी विभाग के भ्रष्टाचार-रोधी छापों से मुक्ति मिलेगी!
साथ ही, केजरीवाल ने पूँजीपतियों से वायदा किया है कि वह दिल्ली में धन्धा लगाने और चलाने को और आसान बना देंगे। कैसे? आपको पता होगा कि कोई भी कारखाना या दुकान लगाने से पहले पूँजीपतियों को तमाम सरकारी जाँचों से गुज़रना पड़ता है, जैसे पर्यावरण-सम्बन्धी जाँच, श्रम कानून सम्बन्धी जाँच, कर-सम्बन्धी जाँच आदि। केजरीवाल ने वायदा किया है कि इन सभी जाँचों (इंस्पेक्शनों) से पूँजीपतियों को छुटकारा मिलेगा! लेकिन मज़दूरों को श्रम कानूनों से मिलने वाले अधिकार सुनिश्चित किये जायेंगे, श्रम विभाग में लेबर इंस्पेक्टरों और फैक्टरी इंस्पेक्टरों की संख्या बढ़ायी जायेगी, श्रम कानूनों को लागू करने को सुनिश्चित किया जायेगा, ऐसी माँगों पर केजरीवाल कोई ठोस वायदा नहीं करते हैं। इसी से पता चलता है कि केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ मज़दूरों के साथ वोट के लिए धोखा कर रही है, जबकि उसका असली मक़सद है दिल्ली के पूँजीपतियों और विशेष तौर पर छोटे और मँझोले पूँजीपतियों की सेवा करना।
ठेका मज़दूरी ख़त्म करने वायदे से पिछली बार क्यों मुकर गयी थी केजरीवाल सरकार और इस बार मज़दूरों को धोखा देने की उसकी रणनीति क्या है?
यह सच है कि केजरीवाल ने पिछले चुनावों में ठेका प्रथा का उन्मूलन करने का वायदा किया था। लेकिन 49 दिनों के दौरान केजरीवाल सरकार इस वायदे से मुकर गयी थी। उसके श्रम मन्त्री गिरीश सोनी ने 6 फरवरी को हज़ारों मज़दूरों के एक प्रदर्शन के सामने खुलकर यह बात कही थी कि वह ठेका प्रथा नहीं समाप्त कर सकते क्योंकि उन्हें मालिकों, प्रबन्धन और ठेकेदारों के हितों को भी देखना है! इस बार ठेका प्रथा उन्मूलन की वायदा ‘आम आदमी पार्टी’ ने अपने घोषणापत्र में तो किया है, लेकिन इस पर ज़्यादा बल नहीं दिया गया है। इसका कारण यह है कि पिछली 49 दिनों की सरकार के दौरान केजरीवाल सरकार को दिल्ली के ठेका मज़दूरों और कर्मचारियों ने बार-बार घेरा था। डीटीसी के ठेकाकर्मियों से लेकर दिल्ली मेट्रो रेल, दिल्ली के विभिन्न औद्योगिक इलाकों के ठेका मज़दूरों, ठेके पर काम करने वाले होमगार्डों, शिक्षकों आदि ने केजरीवाल सरकार को बार-बार घेरकर इस वायदे की याद दिलायी थी। 6 फरवरी का प्रदर्शन इस कड़ी में आख़िरी बड़ा प्रदर्शन था जिसके एक हफ्ते बाद ही केजरीवाल गद्दी छोड़कर भाग खड़े हुए थे। उन्हें भी समझ में आ गया था कि इस माँग को वह पूरा नहीं कर सकते क्योंकि फिर दिल्ली के छोटे मालिक, व्यापारी, ठेकेदार आदि ‘आम आदमी पार्टी’ से नाराज़ हो जायेंगे। फिर ‘आम आदमी पार्टी’ को चन्दा कौन देगा? फिर ‘आम आदमी पार्टी’ के वे तमाम नेता कहाँ जायेंगे जो खुद कारखाना-मालिक, ठेकेदार या दुकानदार हैं? इस बार केजरीवाल सरकार ने एक बदलाव किया है। उसने पिछली बार की तरह यह नहीं कहा है कि वह छह महीनों में आधे वायदों को पूरा कर देगी। इस बार केजरीवाल सरकार ने कहा है कि ये वायदे 5 साल में पूरे किये जायेंगे। उसकी रणनीति यह है कि शुरुआती कुछ महीने कुछ प्रतीकात्मक माँगों को पूरा करके, मध्यवर्ग को खुश करके, और भ्रष्टाचार आदि पर दिखावटी हो-हल्ला मचाकर काट दिये जायें। मज़दूरों को आश्वासन दे-देकर इन्तज़ार कराया जाय और उनके इस वायदे को भूलने का इन्तज़ार किया जाय। यानी, केजरीवाल सरकार इस बार उच्च मध्यवर्ग और मँझोले मध्यवर्ग से की गयी कुछ प्रतीकात्मक माँगों को पहले पूरा करेगी और मज़दूरों को ठेंगा दिखाते हुए 5 साल बिता देगी। यही उनकी योजना है।
बिजली के बिल आधे करने और पानी मुफ्त करने के वायदों के पीछे केजरीवाल सरकार की रणनीति
बिजली के बिल आधे करने के बारे में भी केजरीवाल सरकार इस बार दूसरी भाषा में बात कर रही है, जिस पर किसी का ध्यान ठीक तरीके से नहीं गया है। वह कह रही है कि बिजली कम्पनियों का ऑडिट कराये जाने तक सरकार अपने ख़जाने से सब्सिडी देकर बिजली के बिल आधे करेगी और ऑडिट का नतीजा आने के बाद बिजली के बिल तय किये जायेंगे। पिछली बार भी जब सब्सिडी देना मुश्किल हो गया था तो केजरीवाल सरकार ने यह तर्क दिया था। लेकिन पिछली बार चुनावों से पहले केजरीवाल ने यह नहीं कहा था कि बिजली के बिल केवल तब तक आधे रहेंगे जब तक कि ऑडिट नहीं हो जाता। यह बात 49 दिनों की सरकार के दौरान उन्होंने कही थी, जब उन्हें यह समझ में आ गया था कि अनन्त काल तक सैंकड़ों करोड़ रुपयों की सब्सिडी नहीं दी जा सकती है। ख़ैर, यह ऑडिट ‘कैग’ नामक एक सरकारी संस्था करती है। अब तक के इतिहास में इस संस्था ने कोई ऐसा ऑडिट नहीं किया है जो कि बड़ी कम्पनियों के सीधे ख़िलाफ़ जाये। दिल्ली में बिजली पैदा नहीं होती बल्कि उसे बाहर से ख़रीदना पड़ता है। इस बिजली के वितरण का कार्य पहले सरकारी विभाग ‘दिल्ली विद्युत बोर्ड’ करता था। फिर इसे दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में टाटा की कम्पनी एनडीपीएल और अम्बानी की कम्पनी बीएसईएस को सौंप दिया गया। ‘कैग’ के ऑडिट में स्पष्ट हो जायेगा कि इन कम्पनियों को मुनाफ़ा कमाते हुए यदि बिजली का वितरण करना है तो बिजली के बिल आधे नहीं किये जा सकते। और फिर केजरीवाल सरकार बिजली के बिलों में मामूली-सी कटौती करके हाथ खड़े कर देगी और कहेगी कि ‘जब ऑडिट के नतीजे में यह सिद्ध हो गया है कि बिजली के बिलों में ज़्यादा कटौती नहीं की जा सकती, तो हम क्या कर सकते हैं।’ ऐसा भी हो सकता है कि बिलों में कोई कटौती न की जाय! बिजली के बिलों में कोई ख़ास कटौती तभी हो सकती है जबकि बिजली वितरण का निजीकरण समाप्त कर दिया जाय। पिछली बार केजरीवाल ने संकेत दिये थे कि अगर कोई समाधान नहीं बचेगा तो निजीकरण समाप्त कर दिया जायेगा। लेकिन इस बार वह कह रहे हैं कि देश में बहुतेरी कम्पनियाँ हैं, उनमें से किसी और को बिजली वितरण का ठेका दे दिया जायेगा! निश्चित तौर पर, कोई भी कम्पनी मुनाफ़े के लिए ठेका लेगी, दिल्ली की जनता को सस्ती बिजली देने के लिए नहीं और कितनी भी प्रतियोगिता हो, निजीकरण के तहत बिजली के बिल एक स्तर से नीचे नहीं आयेंगे। निजीकरण के तहत बिजली के बिल हमेशा के लिए आधे कर दिये जायें यह तो सम्भव ही नहीं है क्योंकि केजरीवाल सरकार अनन्तकाल तक सरकारी ख़ज़ाने से सब्सिडी नहीं दे सकती है। ऐसे में, सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे भी नहीं बचेंगे! यही बात पानी को मुफ्त करने पर भी लागू होती है। लम्बे समय तक ऐसा कर पाना पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में रहते हुए बेहद मुश्किल है।
केजरीवाल सरकार ने इस बार झुग्गीवासियों से एक बार फिर से वायदा किया है कि उन्हें उनकी झुग्गी के स्थान पर ही पक्के मकान दिये जायेंगे। यह भी एक हवा-हवाई वायदा है और दिल्ली के झुग्गीवासी पाँच साल तक इसका इन्तज़ार ही करते रह जायेंगे। इसका कारण यह है कि तमाम झुग्गियाँ रेलवे व अन्य कई केन्द्रीय विभागों के स्थान पर बनी हैं और उसी जगह पर मालिकाने के साथ पक्के मकान देने का कार्य घुमावदार नौकरशाहाना पेच में ही फँसकर रह जायेगा। इसी प्रकार के अन्य कई ग़रीबों को लुभाने वाले झूठे वायदे करके केजरीवाल सरकार इस बार भारी बहुमत के साथ सत्ता में आयी है।
‘आम आदमी पार्टी’ के बारे में मज़दूरों के लिए कुछ अन्य ज़रूरी बातें
हम मज़दूरों और मेहनतकशों को कुछ बातें समझ लेनी चाहिएः जो पार्टी पूँजीपतियों और मज़दूरों में समझौते की बात करते हुए खुशहाली का वायदा करती है वह आपको धोखा दे रही है; दूसरी बात, जिस पार्टी के तमाम नेता स्वयं कारखानेदार, ठेकेदार, व्यापारी, दुकानदार, भूतपूर्व खाते-पीते नौकरशाह और एनजीओ चलाने वाले धन्धेबाज़ हों, वह मज़दूरों का भला कैसे कर सकती है? सत्तासीन हुई केजरीवाल सरकार मज़दूरों को ठेका प्रथा से मुक्ति देने के लिए एक ऐसे विधेयक का वायदा क्यों नहीं करती जो कि दिल्ली राज्य में सभी नियमित प्रकृति के कार्य पर ठेका मज़दूरी पर प्रतिबन्ध लगा देगा? अगर भ्रष्टाचार के प्रश्न पर केन्द्रीय कानून होने के बावजूद दिल्ली राज्य स्तर पर एक जनलोकपाल विधेयक पारित करवाया जा सकता है, तो फिर केन्द्रीय ठेका मज़दूरी कानून के कमज़ोर होने पर दिल्ली राज्य स्तर पर एक ठेका मज़दूर उन्मूलन विधेयक क्यों नहीं पारित करवाया जा सकता है? अगर भ्रष्टाचार के लिए पिछली बार की तरह एक हेल्पलाइन शुरू की जा सकती है, तो मज़दूरों के ख़िलाफ़ होने वाले अन्याय और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक अलग मज़दूर हेल्पलाइन क्यों नहीं शुरू की जा सकती है? दिल्ली राज्य में जीवन के महँगे होने के मद्देनज़र केजरीवाल सरकार यह वायदा क्यों नहीं करती कि वह न्यूनतम मज़दूरी को दिल्ली राज्य स्तर पर बढ़ाकर कम-से-कम 15000 रुपये तक करेगी? इसलिए क्योंकि ये माँगें पूँजीपतियों और मालिकों के ख़िलाफ़ जायेगी, जिनसे दरवाज़े के पीछे केजरीवाल सरकार और ‘आम आदमी पार्टी’ की यारी है। केजरीवाल सरकार ग़रीबों और मज़दूरों को बस कुछ लोकलुभावन नारे दे सकती है और कुछ प्रतीकात्मक सुधार के कदम उठा सकती है। मज़दूरों की असली समस्याओं को दूर करना उसके लिए सम्भव नहीं है क्योंकि वह मज़दूर वर्ग की पार्टी नहीं है, बल्कि छोटे मालिकों, ठेकेदारों, दुकानदारों और खाते-पीते मध्यवर्ग की पार्टी है। इसलिए ‘आम आदमी पार्टी’ मज़दूरों की मित्र नहीं है, बल्कि मज़दूरों को सबसे ख़तरनाक किस्म का धोखा देने वाली पार्टी है। सवाल यह उठता है कि अब जबकि केजरीवाल की अगुवाई में ‘आम आदमी पार्टी’ अभूतपूर्व बहुमत के साथ दिल्ली में सरकार बना रही है तो हम मज़दूरों को, जिनके वोटों के बूते केजरीवाल को मुख्यमन्त्री की गद्दी नसीब हुई है, क्या करना चाहिए?
हम मज़दूरों को क्या करना चाहिए?
हम मज़दूरों को केजरीवाल सरकार को बार-बार याद दिलाना होगा कि उसने हमसे क्या वायदा किया है। हमें मुख्य तौर पर दो वायदों को पूरा करने के लिए केजरीवाल सरकार को बार-बार घेरना होगा। लोग जब सत्ता में पहुँच जाते हैं तो वायदे भूल जाते हैं क्योंकि वायदे किये ही सत्ता में पहुँचने के लिए जाते हैं। ऐसे में, हमें बार-बार इन वायदों की याददिहानी करनी होती है। हमारे लिए दो वायदे सबसे अहम हैं। पहला है ठेका प्रथा को समाप्त करने का वायदा। और दूसरा है झुग्गीवासियों को उनकी झुग्गी के स्थान पर पक्के मकान देने का वायदा।
इसमें एक वायदा है जिसके बारे में केजरीवाल सरकार कह सकती है कि इसमें वक़्त लगेगा और पाँच साल के लिए इन्तज़ार किया जाय। यह वायदा है झुग्गियों के स्थान पर पक्के मकान देने का वायदा। इसके लिए मज़दूरों को यह माँग करनी चाहिए कि केजरीवाल सरकार पक्के मकान देने की एक पूरी योजना प्रस्तुत करे जिसमें कि अलग-अलग इलाकों में पक्के मकान देने की एक अन्तिम तिथि दी जाय, चाहे वह दो, तीन या चार साल बाद ही क्यों न हों। जब तक हम एक समयबद्ध वायदा नहीं लेते तब तक झुग्गियों की जगह पक्के मकान देने के वायदे का कोई अर्थ नहीं होगा। दूसरी बात यह कि हमें केजरीवाल सरकार से इस बाबत ठोस वायदा लेने के लिए दबाव बनाना चाहिए कि जब कि पक्के मकान नहीं दिये जाते, एक भी झुग्गी उजाड़ी नहीं जायेगी। क्योंकि अगर ऐसा होगा तो झुग्गियों के स्थान पर पक्के मकानों के वायदे का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
दूसरा वायदा ऐसा है जिसे तुरन्त पूरा करने की शुरुआत की जा सकती है। यह वायदा है ठेका प्रथा समाप्त करने का वायदा। इस बाबत दिल्ली के ठेका मज़दूरों को संगठित होकर यह माँग करनी चाहिए कि दिल्ली राज्य के स्तर पर केजरीवाल सरकार एक ऐसा कानून पारित करे जो कि सभी नियमित प्रकृति के कार्यों पर ठेका मज़दूर रखने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाये। ऐसे कानून के बिना ठेका मज़दूरी का उन्मूलन दिल्ली में हो ही नहीं सकता है। केन्द्रीय कानून में मौजूद तमाम कमियों का इस्तेमाल करके ठेकेदार और मालिक ठेका प्रथा को जारी रखेंगे। इसलिए अगर केन्द्रीय भ्रष्टाचार-रोधी कानून के कमज़ोर होने पर दिल्ली राज्य स्तर पर एक जनलोकपाल कानून पारित किया जा सकता है, तो फिर एक ठेका उन्मूलन कानून भी पारित किया जा सकता है। अगर केजरीवाल सरकार इससे मुकरती है, तो साफ़ है कि ठेका मज़दूरी उन्मूलन का उसका वायदा झूठा है। ऐसा कानून बनने के बाद दिल्ली के मज़दूरों को यह माँग भी करनी चाहिए कि यह कानून सही ढंग से लागू हो सके इसके लिए उचित प्रबन्ध किये जाने चाहिए। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है दिल्ली राज्य सरकार के श्रम विभाग में कर्मचारियों की संख्या में बढ़ोत्तरी करना। पहले भी सरकारें बार-बार यह कहकर पल्ला झाड़ती रही हैं कि श्रम विभाग में पर्याप्त लेबर इंस्पेक्टर व फैक्टरी इंस्पेक्टर नहीं हैं। जब दिल्ली राज्य में लाखों की संख्या में ग्रेजुएट व पोस्ट-ग्रेजुएट बेरोज़गार घूम रहे हैं तो केजरीवाल सरकार श्रम विभाग में भारी पैमाने पर भर्ती करके रोज़गार भी पैदा कर सकती है और साथ ही श्रम कानूनों के कार्यान्वयन को भी सुनिश्चित कर सकती है। ठेका प्रथा के उन्मूलन सम्बन्धी माँग को पुरज़ोर तरीके से उठाने के लिए दिल्ली के सभी निजी व सार्वजनिक उपक्रमों व विभागों में कार्य करने वाले ठेका कर्मचारियों व मज़दूरों को गोलबन्द और संगठित किया जाना चाहिए। केवल इसी तरीके से यह सिद्ध हो सकेगा कि केजरीवाल सरकार वाकई ग़रीबपरस्त है या फिर उसने वोटों के लिए दिल्ली के ग़रीबों के साथ एक भारी धोखा किया है।
एक अन्य माँग जिसे दिल्ली के मज़दूरों और निम्न मध्यवर्ग के नौजवानों को ख़ास तौर पर उठानी चाहिए वह है दिल्ली राज्य स्तर पर एक रोज़गार गारण्टी विधेयक की माँग। हमारा तर्क यह है कि अगर कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने देश के स्तर पर एक ग्रामीण रोज़गार गारण्टी कानून पारित किया था, तो फिर दिल्ली राज्य पर जनता को रोज़गार गारण्टी कानून क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? हालाँकि मनरेगा में केवल 100 दिनों का रोज़गार मिलता था और उसके लिए भी न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिलती थी, यद्यपि हमें इस अधिकार की माँग करनी चाहिए और यह भी माँग उठानी चाहिए कि इस कानून के तहत 100 दिन नहीं बल्कि कम-से-कम 200 दिनों का रोज़गार मिलना चाहिए और उसके एवज़ में दिल्ली राज्य की न्यूनतम मज़दूरी मिलनी चाहिए। इस कानून में इस बात का प्रावधान होना चाहिए कि अगर दिल्ली सरकार दिल्ली के किसी नागरिक को रोज़गार नहीं दे पाती तो फिर उसे गुज़ारा-योग्य बेरोज़गारी भत्ता दिया जाना चाहिए। यानि कि उत्तर प्रदेश सरकार के समान 1000-1200 रुपये का बेरोज़गारी भत्ता नहीं बल्कि राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी के बराबर बेरोज़गारी भत्ता मिलना चाहिए। इस माँग से दिल्ली के मज़दूरों को कुछ सुरक्षा मिल सकती है, जो कि औद्योगिक मन्दी के चलते आए दिन बेकारी की मार झेलते हैं। साथ ही इस माँग के पूरा होने से दिल्ली के लाखों बेरोज़गारी युवाओं को भी रोज़गार मिल सकता है।
ये तीन बुनियादी माँगें उठाकर दिल्ली के मज़दूरों को संघर्ष करना चाहिए। आने वाले पाँच वर्षों में यह संघर्ष ही स्पष्ट करेगा कि ‘आम आदमी पार्टी’ और केजरीवाल के ‘सदाचार’ और ‘अच्छी नीयत’ के हो-हल्ले के पीछे का सच क्या है। हम मज़दूरों के सामने भी इनका असली चरित्र स्पष्ट होगा। मज़दूर आन्दोलन को ‘आम आदमी पार्टी’ का पिछलग्गू बनने की बजाय अपनी राजनीति की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता को बनाये रखना चाहिए। मज़दूर वर्ग यदि अपनी राजनीति की स्वतन्त्रता और स्वायत्ता को नहीं बनाये रखता, अगर वह अपने अलग स्वतन्त्र संगठनों की स्वायत्तता को नहीं बनाये रखता तो फिर वह एक अपनी शक्ति खो बैठता है। ऐसी सूरत में वह अपने ख़िलाफ़ किये जाने वाले धोखों और षड्यन्त्रों से नहीं लड़ सकता। वह निष्क्रिय हो जाता है, अशक्त हो जाता है। इसलिए ‘आम आदमी पार्टी’ की राजनीति के वर्ग चरित्र को समझने की आवश्यकता है। इस पार्टी ने जो वायदे हमसे किये हैं, तो उनमें से एक को भी पूरा करवाने के लिए हम मज़दूरों को अपने स्वतन्त्र आन्दोलन के ज़रिये केजरीवाल सरकार पर दबाव बनाना चाहिए, न कि उनकी पूँछ पकड़कर चलना चाहिए। अगर हमने चौकसी खोई, अगर हमने अपने स्वतन्त्र और स्वायत्त मज़दूर वर्गीय आन्दोलन को कमज़ोर होने दिया, तो आने वाले समय में हमें सिर्फ़ धोखा मिलेगा। चूँकि केजरीवाल सरकार ने हम मज़दूरों से बड़े-बड़े वायदे किये हैं इसलिए हमें अपने स्वतन्त्र मज़दूर वर्गीय आन्दोलन के बूते इनकी छाती पर सवार रहना होगा और इन्हें अपने वायदों से मुकरने का मौका नहीं देना होगा।
मज़दूर बिगुल, फरवरी 2015
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