मक्सिम गोर्की के जन्मदिवस (28 मार्च) के अवसर पर उनकी एक कहानी
जियोवान्नी समाजवादी कैसे बना
अंगूरों के पुराने बगीचे की घनी अंगूर लताओं के बीच छिपी-सी सफेद कैण्टीन के दरवाजे के पास, हरिणपदी तथा छोटे-छोटे चीनी गुलाबों से जहाँ-तहाँ गुँथी इन्हीं लताओं के चँदवे के नीचे शराब की सुराही सामने रखे हुए दो आदमी मेज़ पर बैठे हैं। इनमें से एक हैं रंगसाज विंचेंत्सो और दूसरा है फिटर जियोवान्नी। रंगसाज नाटा-सा, दुबला-पतला और काले बालोंवाला है। उसकी काली आँखों में स्वप्नदर्शी की चिन्तनशील हल्की-हल्की मुस्कान की चमक है। यद्यपि उसने ऊपरवाले होंठ और गालों की इतनी कसकर हजामत बनायी है कि वे नीले-से हो गये हैं, तथापि मुक्त मुस्कान के कारण उसका चेहरा बच्चों जैसा और भोला-भाला प्रतीत होता है। उसका मुँह लड़की जैसा छोटा-सा और सुन्दर है, कलाइयाँ लम्बी-लम्बी हैं, गुलाब के सुनहरे फूल को वह अपनी चंचल-चपल उँगलियों में घुमा रहा है और फिर उसे अपने फूले-फूले होंठों के साथ सटाकर आँखें मूँद लेता है।
“हो सकता है – मुझे मालूम नहीं – हो सकता है!” कनपटियों पर दबे-से सिर को धीरे-धीरे हिलाते हुए वह कहता है और उसके चैड़े माथे पर ललछौंही केश-कुण्डल लटक आते हैं।
“हाँ, हाँ, ऐसा ही है। हम उत्तर की ओर जितना अधिक बढ़ते जाते हैं, उतने ही ज़्यादा धुन के पक्के लोग हमें मिलते हैं!” बड़े सिर, चैड़े-चकले कन्धों और काले घुँघराले बालोंवाला जियोवान्नी दृढ़तापूर्वक अपनी बात कहता है। उसका चेहरा ताँबे जैसी लालिमा लिये हुए है, उसकी नाक धूप में जली हुई है और उस पर मुरझायी-सी सफ़ेद झिल्ली चढ़ी हुई है। उसकी आँखें बैल की आँखों की तरह बड़ी-बड़ी और दयालु हैं और बाँये हाथ का अँगूठा ग़ायब है। उसका बोलने का ढंग भी मशीनी तेल और लोहे के बुरादे से सने हाथों की धीमी गतिविधि की तरह ही धीमा है। टूटे नाखूनोंवाली साँवली उँगलियों में शराब का गिलास पकड़े हुए वह भारी-भरकम आवाज़ में अपनी बात जारी रखता है:
“मिलान, तूरिन – ये हैं बढ़िया कारख़ाने, जहाँ नये किस्म के लोग ढाले जा रहे हैं, नये विचारोंवाले दिमाग़ जन्म ले रहे हैं। थोड़ा सब्र करो – हमारी दुनिया ईमानदार और समझदार हो जायेगी!”
“हाँ!” नाटे रंगसाज ने कहा और गिलास उठाकर सूर्य-किरण को शराब में घुलाते हुए गाने लगता है:
जीवन के प्रभात में कितनी
सुखद हमें धरती लगती,
किन्तु यही दुखमय बन जाती
उम्र हमारी जब ढलती।
“मैं कहता हूँ कि हम जितना अधिक उत्तर की ओर जाते हैं, काम भी उतना ही अधिक अच्छा होता जाता है। फ्रांसीसी ही वैसी काहिली का जीवन नहीं बिताते जैसा कि हम, उनके आगे जर्मन हैं और फिर रूसी – ये हैं असली लोग!”
“हाँ!”
“अधिकारहीन, आज़ादी और ज़िन्दगी से वंचित हो जाने के डर से उन्होंने बड़े-बड़े शानदार कारनामे कर दिखाये। इन्हीं की बदौलत तो सारे पूरब में ज़िन्दगी की लहर दौड़ गयी है!”
“बहादुरों का देश है!” रंगसाज ने सिर झुकाकर कहा। “यही मन होता है कि उनके साथ रहता…”
“तुम?” अपने घुटने पर हाथ मारते हुए रंगसाज चिल्ला उठा। “एक हफ़्ते बाद बर्फ का डला बनकर रह जाते!”
दोनों ख़ुशमिज़ाजी से खुलकर हँस दिये।
इनके चारों ओर नीले और सुनहरे फूल थे, हवा में सूर्य-किरणों के फीते-से थरथरा रहे थे, सुराही और गिलासों के पारदर्शी शीशे में से गहरे लाल रंग की शराब लौ दे रही थी और दूर से सागर की रेशमी-सी सरसराहट सुनायी पड़ रही थी।
“मेरे नेकदिल दोस्त विंचेंत्सो,” खुली मुस्कान के साथ फिटर ने कहा, “तुम कविता में यह बयान करो कि मैं समाजवादी कैसे बना? तुम यह किस्सा जानते हो न?”
“नहीं तो,” रंगसाज ने गिलासों में शराब डालते और मदिरा की लाल धारा को देखकर मुस्कराते हुए कहा, “तुमने कभी इसकी चर्चा ही नहीं की। यह तो तुम्हारी हड्डियों में ऐसे रचा हुआ है कि मैंने सोचा – तुम ऐसे ही पैदा हुए थे।”
“मैं वैसे ही नंगा और बुद्धू पैदा हुआ था, जैसे तुम और बाकी सभी लोग। जवानी में मैं अमीर बीवी के सपने देखता रहा और फौज में जाकर इसलिए ख़ूब पढ़ाई करता रहा कि किसी तरह अफसर बन जाऊँ। मैं तेईस साल का था जब मैंने यह अनुभव किया कि दुनिया में ज़रूर कुछ गड़बड़-घोटाला है और उल्लू बने रहना शर्म की बात है!”
रंगसाज ने मेज़ पर कोहनियाँ टिका दीं, सिर ऊपर को कर लिया और पहाड़ की तरफ़ देखने लगा जिसके सिरे पर अपनी शाखाओं को झुलाते हुए विराट सनोबर खड़े थे।
“हमें यानी हमारी फौज कम्पनी को बोलोन्या भेजा गया। वहाँ किसानों में हलचल हो गयी थी। उनमें से कुछ यह माँग करते थे कि मालगुजारी कम की जाये और दूसरे यह चीख़ते थे कि उनकी मज़दूरी बढ़ायी जाये। मुझे लगा कि दोनों ही ग़लत हैं। मालगुजारी कम की जाये, मज़दूरी बढ़ायी जाये – कैसी बेवकूफ़ी की बात है यह! – मैंने सोचा। ऐसा करने से तो जमींदार तबाह हो जायेंगे। मुझे, शहर के रहनेवाले को तो यह बकवास और बड़ी बेतुकी बात लगी। सो मैं बुरी तरह झल्ला उठा, बेहद गर्मी, एक जगह से दूसरी जगह पर लगातार दौड़-धूप और रातों को पहरेदारी – इन सब चीज़ों ने आग में घी डालने का काम किया। वे किसान पट्ठे तो ज़मींदारों की मशीनें तोड़ते-फोड़ते थे और साथ ही उन्हें अनाज तथा ज़मींदारों की दूसरी चीजों को आग लगा देना भी अच्छा लगता था।”
उसने छोटे-छोटे घूँट भरते हुए शराब पी और पहले से भी ज़्यादा रंग में आकर कहता गया:
“वे भेड़-बकरियों के रेवड़ों की तरह भीड़ बनाकर खेतों में घूमते थे, लेकिन चुपचाप, रौद्र मुद्रा बनाये और काम-काजी ढंग से। हम उन्हें संगीनें दिखाकर और कभी-कभी बन्दूक़ों के कुन्दों से धकेलकर खदेड़ देते। वे तो डरे-सहमे बिना धीरे-धीरे तितर-बितर होते और फिर से इकट्ठे हो जाते। यह दोपहर की प्रार्थना के समान बड़ा ऊबभरा मामला था और जूड़ी के बुखार की तरह क़िस्सा हर दिन लम्बा ही होता चला गया। अब्रूत्से का रहनेवाला हमारा कार्पारल, जो ख़ुद भी किसान था और बहुत भला नौजवान था, बड़ा दुखी हो उठा, उसका रंग पीला पड़ गया, वह दुबला गया और वह बार-बार यह कहता रहता था:
“‘बड़ी अटपटी स्थिति है, मेरे प्यारो! बेड़ा गर्क, लेकिन लगता यही है कि हमें गोलियाँ चलानी पड़ेंगी।’
“उसकी ऐसी बड़बड़ाहट से हम और भी बौखला गये। और इसी बीच हर कोने, हर टीले और पेड़ के पीछे से अड़ियल-जिद्दी किसानों के चेहरे दिखायी देते थे, उनकी ग़ुस्से से जलती आँखें हमें चुभती-सी प्रतीत होतीं। ज़ाहिर है कि वे लोग दुश्मन की नज़र से देखते थे।”
“पियो!” नाटे विंचेंत्सो ने शराब से भरा हुआ गिलास अपने मित्र की तरफ़ स्नेहपूर्वक बढ़ाते हुए कहा।
“शुक्रिया, और ज़िन्दाबाद धुन के पक्के लोग!” फिटर ने एक ही साँस में गिलास खाली कर दिया, हथेली से मूँछें पोंछी और कहानी को आगे कहता चला गया:
“एक दिन मैं जैतून के पेड़ों के झुरमुट के पास खड़ा हुआ पेड़ों की रखवाली कर रहा था। बात यह थी कि किसान पेड़ों को भी नहीं बख़्शते थे। टीले के नीचे के दो किसान – एक बूढ़ा और दूसरा छोकरा-सा काम कर रहे थे, खाई खोद रहे थे। बेहद गर्मी थी, सूरज आग बरसा रहा था, यही मन होता था कि आदमी मछली बन जाये! मुझे बड़ी ऊब महसूस हो रही थी और अभी तक याद है कि बहुत ही ग़ुस्से से मैं इन लोगों की तरफ़ देखता रहा था। दोपहर होने पर इन्होंने काम बन्द किया, डबल रोटी, पनीर और शराब से भरी सुराही निकाली। तुम पर शैतान की मार – मैंने सोचा। अचानक क्या हुआ कि बूढ़े ने, जिसने अब तक मेरी तरफ़ एक बार भी देखने की तकलीफ़ नहीं की थी, छोकरे से कुछ कहा। छोकरे ने इन्कार करते हुए सिर हिला दिया। तब बूढ़ा बहुत कड़ाई से चिल्लाकर बोला:
“‘जाओ!’
“छोकरा सुराही हाथ में लिये हुए मेरे पास आया और कहना चाहिए कि बहुत मन मारकर बोला:
“‘मेरे पिताजी का ख़याल है कि आपको प्यास लगी है और चाहते हैं कि आप शराब पी लें।’
“बड़ी अजीब, किन्तु सुखद बात थी। मैंने बूढ़े की ओर सिर झुकाकर और इस तरह उसे धन्यवाद देकर शराब पीने से इन्कार कर दिया। बूढ़े ने आकाश की ओर देखते हुए जवाब दिया:
“‘पी लीजिये महानुभाव, पी लीजिये। हम सैनिक को नहीं मानव को यह भेंट कर रहे हैं और इसकी तनिक भी आशा नहीं रखते हैं कि हमारी शराब पीकर सैनिक कुछ दयालु हो जायेगा।’
“‘ऐसा डंक तो न मारो, शैतान के बच्चे!’ मैंने सोचा और कोई तीन घूँट शराब पीकर उन्हें धन्यवाद दिया और वहाँ नीचे, टीले के दामन में वे दोनों भोजन करने लगे। कुछ ही देर बाद सालेरनो का रहनेवाला ऊगो मेरी जगह ड्यूटी पर आ गया। मैंने उससे कहा कि ये दोनों किसान दयालु हैं। उसी शाम को मैं उस बाड़े के दरवाजे के पास खड़ा था जिसमें मशीनें रखी जाती थीं। तभी क्या हुआ कि छत से एक टाइल मेरे सिर पर आकर लगी। वह तो बहुत ज़ोर से नहीं लगी, लेकिन दूसरी टाइल इतने ज़ोर से कन्धे पर आकर गिरी कि मेरा बायाँ हाथ सुन्न हो गया।”
फिटर ख़ूब मुँह खोलकर और आँखें सिकोड़कर ज़ोर से हँस पड़ा।
“उन दिनों वहाँ टाइलों, पत्थरों और लाठियों में भी मानो जान आ गयी थी,” उसने हँसते हुए ही कहा, “इन बेजान चीज़ों ने भी हमारे सिरों की काफ़ी बड़े-बड़े गुमटों से शोभा बढ़ा दी थी। होता क्या था कि कोई सैनिक चला जा रहा है या कहीं खड़ा है, अचानक जमीन फाड़कर कोई लाठी उस पर बरस पड़ती या फिर आसमान से कोई पत्थर उस पर आ गिरता। ज़ाहिर है कि हम ख़ूब जल-भुन गये थे।”
नाटे रंगसाज की आँखों में उदासी झलक उठी, उसका चेहरा फक हो गया और उसने धीमे-से कहा:
“ऐसी बातें सुनकर हमेशा शर्म महसूस होती है…”
“लेकिन किया क्या जाये! लोगों को अक़्ल भी बहुत धीरे-धीरे आती है न! तो आगे सुनो – मैंने मदद के लिए चीख़-फकार की। मुझे एक ऐसे घर में ले जाया गया, जहाँ हमारा एक अन्य सैनिक पहले से ही लेटा हुआ था। पत्थर लगने से उसका चेहरा घायल हो गया था। जब मैंने उससे पूछा कि यह कैसे हुआ तो उसने मरे-मरे ढंग से हँसते हुए जवाब दियाः
“‘साथी, सफ़ेद झोंटेवाली एक चुड़ैल बुढ़िया ने पत्थर दे मारा,’ और फिर बोली – ‘मुझे मार डालो।’
“‘उसे गिरफ़्तार कर लिया गया?’
“‘नहीं, क्योंकि मैंने कहा कि मैं ख़ुद ही गिर गया था और मुझे ऐसे ही चोट लग गयी है। कमाण्डर ने मेरी बात का यक़ीन नहीं किया, यह उसकी आँखें कह रही थीं। लेकिन आप मेरे साथ सहमत होंगे कि बुढ़िया ने मेरा यह हुलिया बन दिया है, ऐसा मानना भी तो बड़ा अटपटा लगता है। शैतान की नानी! उन पर भारी गुज़रती है और यह समझना भी कुछ मुश्किल नहीं कि हम भी उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाते।’
“‘बात ऐसा ही है!’ मैंने सोचा। डाक्टर और उसके साथ दो महिलायें पधारीं। उनमें से एक बहुत ही सुन्दर थी, स्वर्णकेशी, शायद वेनिस की रहनेवाली। दूसरी के बारे में मुझे कुछ याद नहीं। उन्होंने मेरी चोट की जाँच-पड़ताल की। बेशक बड़ी मामूली-सी बात थी, उन्होंने उस पर पट्टी बाँध दी और चले गये।”
फिटर के माथे पर बल पड़ गये, वह कुछ देर तक खामोश रहा और उसने जोर से हाथों को मला। उसके साथी ने गिलास में फिर से शराब डाल दी। शराब डालते समय उसने सुराही को ऊँचा उठाया और शराब लाल, सजीव धारा की तरह हवा में थिरकती रही।
“हम दोनों खिड़की के पास बैठ गये,” फिटर उखड़े-उखड़े-से अन्दाज़ में कहता गया, “सो भी धूप से बचकर। अचानक हमें सुनहरे बालोंवाली सुन्दरी की प्यारी-सी आवाज़ सुनायी दी। वह अपनी सहेली और डाक्टर के साथ बाग़ में से जाते हुए फ्रांसीसी भाषा में, जो मैं बहुत अच्छी तरह समझता हूँ, यह कह रही थीः
“‘आप लोगों ने ध्यान दिया कि उसकी आँखें कैसी हैं? स्पष्ट है कि वह भी किसान है और सैन्य-सेवा ख़त्म होने पर हमारे यहाँ के अन्य सभी किसानों की तरह शायद वह भी समाजवादी बन जायेगा। और ऐसी आँखोंवाले लोग सारी दुनिया को जीत लेना चाहते हैं, जीवन को बिल्कुल नया रंग-रूप देना चाहते है, हमें कहीं खदेड़ देना, नष्ट कर देना चाहते हैं और वह इसलिए किसी अन्धे और ऊबभरे न्याय की जीत का डंका बज जाये!’
“‘बुद्धू लोग हैं,’ डाक्टर ने राय ज़ाहिर की, ‘कुछ-कुछ बच्चे, कुछ-कुछ जानवर।’
“‘जानवर हैं – यह तो सही है। लेकिन उनमें बच्चों जैसा क्या है?’
“‘सभी की समानता के ये सपने…’
“‘ज़रा सोचिये तो – मैं समान हूँ बैल जैसी आँखोंवाले इस नौजवान या परिन्दे जैसे चेहरेवाले उस दूसरे नौजवान के। या फिर हम सभी – आप, मैं और यह, हम समान हैं इन घटिया खूनवालों के! जिन लोगों को अपने जैसों की पिटाई का काम सौपा जा सकता है, वे उन्हीं की तरह जानवर हैं…’
“वह बहुत जोश से बहुत कुछ कहती गयी और मैं सुनता हुआ सोचता रहा – ‘अरे वाह, देवी जी!’ मैंने उसे कई बार पहले भी देखा था और बेशक तुम तो यह जानते ही हो कि शायद ही कोई सैनिक की तरह औरत के सपने देखता हो। ज़ाहिर है कि मैंने कहीं अधिक दयालु, समझदार और नेकदिल औरत के रूप में उसकी कल्पना की थी। उस समय मुझे ऐसा लगता था कि कुलीन तो विशेष रूप से बुद्धिमान लोग होते हैं।
“मैंने अपने साथी से पूछा – ‘तुम यह भाषा समझते हो?’ नहीं, वह फ्रांसीसी नहीं जानता था। तब मैंने उसे वह सबकुछ बताया जो स्वर्णकेशी ने कहा था। मेरा साथी तो ग़ुस्से से लाल-पीला हो गया, अपनी आँख से – दूसरी पर पट्टी बँधी थी – चिंगारियाँ-सी छोड़ते हुए कमरे में ग़ुस्से से उछलने-कूदने लगा।
“‘भई वाह!’ वह बुदबुदाया। ‘भई वाह! वह मुझसे अपना उल्लू सीधा करवाती है और मुझे इन्सान ही नहीं मानती! मैं इसकी ख़ातिर अपनी मान-मर्यादा को अपमानित होने देता हूँ और यही उससे इन्कार करती है! इसकी दौलत-जायदाद की रक्षा के लिए मैं अपनी आत्मा की हत्या का जोखि़म उठा रहा हूँ और…’
“वह कुछ मूर्ख नहीं था और उसने अपने को अत्यधिक अपमानित अनुभव किया, मैंने भी। अगले दिन हमने किसी तरह का संकोच किये बिना इस महिला के बारे में ऊँचे-ऊँचे अपनी राय ज़ाहिर की। लुओतो ने केवल दबी ज़बान में बुदबुदाते हुए कुछ कहा और हमें यह सलाह दी:
“‘सावधानी से काम लो, मेरे प्यारो! यह नहीं भूलना कि तुम फौजी हो और तुम्हारे लिये अनुशासन नाम की भी कोई चीज़ है!’
“नहीं, हम यह नहीं भूले थे। लेकिन हममें से बहुतों ने, सच कहा जाये, तो लगभग सभी ने अपने कान बन्द कर लिये, आँखें मूँद लीं और हमारे किसान दोस्तों ने हमारे इस तरह अन्धे-बहरे हो जाने का ख़ूब अच्छा फ़ायदा उठाया। उन्होंने बाजी जीत ली। बहुत ही अच्छी तरह से पेश आते थे वे हमारे साथ। वह सुनहरे बालोंवाली सुन्दरी उनसे बहुत कुछ सीख सकती थी। उदाहरण के लिए वे उसे बहुत ही अच्छी तरह यह सिखा सकते थे कि सच्चे और ईमानदार लोगों का कैसे आदर किया जाना चाहिए। जहाँ हम ख़ून बहाने के इरादे से गये थे, वहीं से जब विदा हुए तो हममें से बहुतों को फूल भेंट किये गये। जब हम गाँव की सड़कों पर से गुज़रते तो अब हम पर पत्थर और टाइलें नहीं, बल्कि फूल बरसाये जाये थे, मेरे दोस्त। मेरे ख़याल में हम इसके लायक़ थे। मधुर विदाई को याद करते हुए बुरे स्वागत को भुलाया जा सकता है!”
वह हँस पड़ा और फिर बोला:
“तुम्हें यह सबकुछ कविता में बयान करना चाहिए, विंचेंत्सो…”
रंगसाज ने सोचभरी मुस्कान के साथ उत्तर दिया:
“हाँ, लम्बी कविता के लिए यह अच्छी सामग्री है। मुझे लगता है कि मैं ऐसा कर पाऊँगा। पच्चीस बरस की उम्र पार कर लेने के बाद आदमी अच्छे प्रेम-गीत नहीं लिख पाता।”
मुरझा चुके फूल को फेंककर उसने दूसरा फूल तोड़ लिया और सभी ओर नज़र दौड़ाकर धीरे-धीरे कहता गया:
“माँ की छाती से प्रेमिका की छाती तक का रास्ता तय करने के बाद आदमी को दूसरे, नये सुख की ओर बढ़ना चाहिए…”
फिटर ने कोई राय ज़ाहिर नहीं की, गिलास में शराब को ही हिलाता रहा। अंगूर के बग़ीचों के पीछे, वहाँ नीचे, सागर धीरे-धीरे मरमर ध्वनि कर रहा था, गर्म हवा में फूलों की भीनी-भीनी सुगन्ध तैरती आ रही थी।
“यह तो सूरज ही है जो हमें इतना अधिक काहिल और नर्मदिल बना देता है,” फिटर बुदबुदाया।
“मुझसे अच्छे प्रेम-गीत नहीं रच जाते, मैं बहुत नाख़ुश हूँ अपने से,” अपनी पतली-पतली भौंहे सिकोड़कर विंचेंत्सो ने धीमी आवाज़ में कहा।
“तुमने कुछ नया रचा?”
रंगसाज ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया और फिर बोला:
“हाँ, कल ‘कोमो’ होटल की छत पर।” और धीमी-धीमी, सोच में डूबी तथा लयबद्ध आवाज़ में सुनाने लगाः
सूना तट है, भूरी-भूरी और पुरातन चट्टानों से
शिशिर-सूर्य सस्नेह बिछुड़ता विदा ले रहा पाषाणों से,
आतुर लहरें झपट रहीं हैं काले पाषाणों पर, तट पर
स्नान कराती ये सूरज को नीले सागर में ले जाकर,
ताम्र-पात वे जिनको चंचल पतझर-पवन उड़ाकर लाया
रंग-बिरंगे मृत विहगों-सी झलके जल में उनकी छाया
शोक-व्यथित है पीला अम्बर, है उदाम उद्वेलित सागर
केवल मुस्काता है दिनकर जो विश्राम करेगा थककर।
दोनों बहुत देर तक ख़ामोश रहे, रंगसाज सिर झुकाये हुए ज़मीन को ताकता रहा, हट्टा-कट्टा और लम्बा-तड़ंगा फिटर मुस्कराया और बोलाः
“सभी चीज़ों को सुन्दर अभिव्यक्ति दी जा सकती है, किन्तु अच्छे व्यक्ति, अच्छे लोगों के बारे में सुन्दर शब्दों, सुन्दर गीतों से बढ़़कर कुछ भी नहीं!”
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन