अमेरिकी टैरिफ़ बढ़ने के बाद कपड़ा उद्योग में बढ़ रही मज़दूरों की छँटनी
भारत
बीते 27 अगस्त से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा भारत पर लगाया गया 50 प्रतिशत टैरिफ़ लागू हो गया। टैरिफ़ बढ़ने का सबसे अधिक असर कपड़ा उद्योग और उसमें काम कर रहे मज़दूरों पर पड़ रहा है। टैरिफ़ का कपड़ा उद्योग और उसमें काम करने वाले मज़दूरों की स्थिति क्या असर हुआ है, यह जानने से पहले बात करते हैं कि टैरिफ़ क्या है और टैरिफ़ बढ़ाने से अमेरिका को क्या फ़ायदा होगा!
टैरिफ़ एक तरह का ‘आयात शुल्क’ है जो कोई देश दूसरे देशों से आने वाले मालों पर लगाता है। टैरिफ़ के ज़रिये आयातित सामान को महँगा करके स्थानीय उद्योगों को प्रतिस्पर्धी लाभ दिलाया जा सकता है। यहाँ तक कि टैरिफ़ से आयात कम करके और निर्यात को बढ़ावा देकर अमेरिका का व्यापार घाटा कम किया जा सकता है, हालाँकि वास्तव में ऐसा होने वाला नहीं है, जिसकी वजहों पर हम आगे आयेंगे। ट्रम्प की इस नीति को अमेरिका के उन राज्यों में मजबूत समर्थन मिल रहा है, जहाँ विनिर्माण और औद्योगिक इकाइयाँ हैं या थीं और बाद में ह्रास का शिकार हो गयीं क्योंकि वे सस्ते आयातों से मुक़ाबला नहीं कर पा रहीं थीं। टैरिफ़ बढ़ने के असर को एक उदाहरण से समझिये। मान लीजिये कि भारत से कोई कपड़ा अमेरिका जाता है, जिसकी क़ीमत 100 रुपये है। अमेरिकी सरकार द्वारा 50 प्रतिशत टैरिफ़ लगाने के बाद उसकी क़ीमत 150 रुपये हो जायेगी। ऐसे में इसकी पहली सम्भावना ये है कि इससे भारत के कपड़ों की अमेरिका में बिक्री बहुत घट जाये, क्योंकि अमेरिकी ग्राहकों को अब लगभग उसी क़ीमत पर अमेरिकी पूँजीपतियों से माल ख़रीदना पड़ सकता है। सम्भव है कि निर्यात के लिए तैयार माल डम्प पड़ जाये, कपड़े की फैक्ट्री को उत्पादन कम करना पड़े, जिससे मज़दूरों की छँटनी हो। इससे कपड़ों के उत्पादन से जुड़े विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोज़गार प्रभावित हो।
दूसरी सम्भावना यह है कि भारत की कम्पनी अमेरिका को छोड़कर किसी दूसरे बाज़ार की तलाश करे जहाँ उसे ऊँची टैरिफ़ दीवारों का सामना न करना पड़े। यानी, वह दूसरे देशों में अपने नये ख़रीदार तलाशे। लेकिन इस दूसरे पहलू की भी कई जटिलताएँ हैं। ये समय लेने वाला और एक लम्बी प्रक्रिया का हिस्सा है। इसलिए तात्कालिक तौर पर भारत सरकार के पास कोई सीधा समाधान नहीं है। अगर वह ट्रम्प की बात मानकर अपने देश में अमेरिकी मालों पर लगने वाले टैरिफ़ को कम कर देती है, तो इससे यहाँ के विशेष तौर पर छोटे और मँझोले पूँजीपति तबाह हो जायेंगे क्योंकि वे विदेशी आयात से प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर पायेंगे। अगर वह ट्रम्प की बात को नहीं मानती है और ट्रम्प के 50 प्रतिशत टैरिफ़ की परवाह नहीं करती तो फिर उसका निर्यात उद्योग संकट में आ जाता है। ऐसे में, भारत सरकार ट्रम्प से कोई बीच का समझौता करने, रूस, चीन, ब्राज़ील आदि से क़रीबी बढ़ाने, डॉलर पर विदेशी व्यापार में निर्भरता कम करने जैसे तमाम रास्तों पर एक साथ काम कर रही है, जिससे ट्रम्प पर दबाव भी पड़े (क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक विश्व मुद्रा के रूप में प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं द्वारा डॉलर में व्यापार किये जाने पर निर्भर करती है)।
सैद्धान्तिक तौर पर कहें तो टैरिफ़ बढ़ाना अमेरिका के लिए दो तरीके से फ़ायदेमन्द हो सकता है। पहला, उसके राजस्व में बढ़ोत्तरी हो सकती है अगर वहाँ निर्यात करने वाले देशों के लिए यह निर्यात टैरिफ़ बढ़ाये जाने के बावजूद फ़ायदेमन्द रहता है। यानी उस सूरत में अमेरिका का विदेशी मुद्रा भण्डार बढ़ेगा। दूसरा, उसके अपने देश के उद्योग को संरक्षण प्राप्त होगा। कम-से-कम सैद्धान्तिक तौर पर इससे अमेरिका के उद्योग भारत से आयातित सामानों की तुलना में अपनी क़ीमत को बाज़ार में प्रतिस्पर्धी बनाये रख सकते हैं। सभी देश किसी न किसी रूप में टैरिफ़ की व्यवस्था को लागू करते हैं। लेकिन ये टैरिफ़ वॉर (युद्ध) के रूप में तब बदल जाता है, जब कोई देश किसी देश पर मनमाने टैरिफ़ लगाना शुरू करता है और दूसरा देश भी जवाबी कार्यवाही में टैरिफ़ बढ़ाना शुरू कर देता है। जब तक बाज़ार एक बँधे-बँधाये नियम के तहत चलता रहता है, तब तक कोई गड़बड़ी नही दिखायी देती है, लेकिन इस तरह के मनमाने टैरिफ़ से सारा उत्पादन-वितरण, आयात-निर्यात गड़बड़ाने लगता है और मँहगाई, उत्पादन का संकट और रोज़गार का संकट पैदा होने लगता है।
लेकिन इस बात की उम्मीद कम है कि इससे अमेरिकी उद्योगों का बढ़े पैमाने पर कोई पुनरुत्थान होगा। वजह यह है कि वे लागत-प्रभावी नहीं हैं। वहाँ उत्पादन की लागत चीन, भारत, आदि जैसे देशों से ज़्यादा है और इसकी तमाम वजहों में प्रमुख वजह वहाँ श्रमशक्ति की कीमत का ज़्यादा होना है। अमेरिकी मज़दूरों को जिस मज़दूरी पर काम करने के लिए तैयार किया जा सकता है, उस पर मुनाफ़े की औसत दर को ऊँचा बनाये रख पाना सम्भव नहीं है और अमेरिकी पूँजीपति श्रमशक्ति की कीमत ज़्यादा होने के आधार पर मालों की कीमत को विश्व बाज़ार में नहीं बढ़ा सकते हैं क्योंकि हम सभी जानते हैं कि कीमतें मज़दूरी ज़्यादा होने के कारण नहीं बढ़ती हैं; उससे मुनाफ़े की दर कम होती है। और भारत, चीन, ब्राज़ील आदि जैसे देशों जितनी कम कीमत पर मज़दूरों को निचोड़ना अमेरिका में पूँजीपतियों के लिए सम्भव नहीं है, विशेष तौर पर श्वेत मज़दूरों के सन्दर्भ में। ऐसे में, टैरिफ़ बढ़ाने से भी अमेरिका में उद्योगों का किस हद तक उभार होगा, यह भविष्य में ही पता चलेगा। फिलहाल, इतना तय है कि अमेरिकी जनता के लिए महँगाई में भारी वृद्धि होगी और यह होनी शुरू हो चुकी है। इससे अमेरिकी पूँजीवाद के आन्तरिक अन्तरविरोध भी और तीखे होंगे। लेकिन तात्कालिक तौर पर इसका भारत, चीन, ब्राज़ील आदि जैसे देशों के कई उद्योगों पर निश्चित ही प्रभाव पड़ेगा और पड़ रहा है।
आइए, अब बात करते हैं कि टैरिफ़ का भारत के कपड़ा उद्योग पर क्या असर पड़ रहा है। इन नये टैरिफ़ों ने भारत के उन क्षेत्रों को बुरी तरह प्रभावित किया है, जो अमेरिका को किये जाने वाले निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर हैं, जिसके परिणामस्वरूप हज़ारों मज़दूरों की नौकरियाँ ख़त्म होने की आशंका है। देश के सबसे बड़े निर्यात क्षेत्रों में से एक, कपड़ा और परिधान उद्योग विशेष रूप से टैरिफ़ बढ़ने से प्रभावित हुए हैं। बता दें कि कपड़ा उद्योग भारत के सबसे बड़े, संगठित एवं व्यापक उद्योगो में से एक है। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपड़ा उत्पादक देश है, जिसके पास 3400 से अधिक कपड़ा मिलें हैं। यह देश के औद्योगिक उत्पादन का 14 प्रतिशत, सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2.3 प्रतिशत, कुल विनिर्मित औद्योगिक उत्पादन का 13 प्रतिशत व कुल निर्यात के 12 प्रतिशत की आपूर्ति करता है। साथ ही वैश्विक वस्त्र एवं परिधान व्यापार में भारत के कपड़ा उद्योग की 4 प्रतिशत हिस्सेदारी है। आँकड़ों के मुताबिक कपड़ा उद्योग में क़रीब 4.5 करोड़ मज़दूर कार्यरत हैं।
भारत के कपड़ा उद्योग के लिए अमेरिका सबसे बड़े बाज़ारों में से एक है। यू.एस इन्टरनेशनल ट्रेड कमिशन के अनुसार 2024 में भारत से क़रीब 20,740 करोड़ के वस्त्र अमेरिका निर्यात किये गये। वहीं अमेरिका के कुल कपड़ों के आयात में 33 प्रतिशत हिस्सा भारत से आता होता है। व्यापार थिंक-टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव का अनुमान है कि 2025-26 में अमेरिका को भारत का निर्यात लगभग 43 प्रतिशत घटकर 87 अरब डॉलर से 49.6 अरब डॉलर हो सकता है। 50 प्रतिशत टैरिफ़ बढ़ने के बाद, एक भारतीय निर्मित शर्ट की क़ीमत अमेरिकी ख़रीदारों को 16.40 डॉलर में मिलेगी, जो पहले 10 डॉलर में बिकती थी। यह क़ीमत चीन की 14.20 डॉलर, बांग्लादेश की 13.20 डॉलर या वियतनाम की 12 डॉलर की क़ीमत से कहीं अधिक महँगी है। भारतीय निर्यातकों के संगठन फियो यानी फेडरेशन ऑफ इण्डियन एक्सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष एस.सी. रल्हान की अगर मानें तो सूरत, तिरुपुर से लेकर नोएडा तक कई ऐपरेल और टेक्सटाइल निर्माताओं ने प्रोडक्शन लागत बढ़ने की वजह से उत्पादन रोक दिया है। इसका असर नौकरियों से मज़दूरों की छँटनी के रूप में सामने आ रहा है। जब तक टैरिफ़ युद्ध की समस्या का कोई समाधान नहीं निकलता या भारत को पर्याप्त वैकल्पिक बाज़ार नहीं मिलते तब तक यह समस्या जारी रहेगी।
नोएडा की बात करें तो यहाँ क़रीब साढ़े चार हजार (छोटी-बड़ी) कपड़े की फैक्ट्रियाँ हैं। इनमें क़रीब दस लाख मज़दूर काम करते हैं। ज्ञात हो कि इन कम्पनियों में किसी भी तरह का श्रम क़ानून लागू नहीं होता। इन कम्पनियों में 12 घण्टे की शिफ़्ट चलती है। अधिकांश मज़दूर बेहतर कमाई की आस में अपनी सुरक्षा और स्वास्थ्य की परवाह किये बग़ैर ज़्यादा से ज़्यादा काम करना चाहते हैं। इतनी कम तनख़्वाह पर ओवरटाइम करना तो इस उद्योग में आम बात है। ओवरटाइम का भुगतान भी सिंगल रेट से होता है। हर रोज़ (रविवार को भी) 3 से 4 घण्टे ओवरटाइम करने के बाद मज़दूर महीने में 15-18 हज़ार रुपये ही कमा पाते हैं। कुछ मज़दूरों के अनुसार वे हर हफ़्ते लगभग 50-60 घण्टे ओवरटाइम करते हैं। उत्पादन के चरम समय पर रात को 2 बजे तक काम करना पड़ता है। ई.एस.आई-पी.एफ जैसे क़ानून किसी फैक्ट्री में लागू नहीं होते हों। साथ ही पीस रेट पर काम करने वाले मज़दूर भी इस उद्योग में काफ़ी संख्या में हैं। कपड़े के हर मीटर पर मिलने वाली मज़दूरी में भी गिरावट आयी है। वर्तमान में यह संख्या 1.8 से 3 रुपये प्रति मीटर के बीच है। इसके अलावा इस उद्योग में आये-दिन हादसे होते हैं। उंगली कटना, मशीन में फँसना या कुचले जाना, बीम उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त फिसलकर गिरना, उड़ती शटल से चोट खाना, करण्ट लगना या आग से झुलसना- मज़दूरों की जान को ख़तरा लगातार बना रहता है। मालिकों द्वारा मज़दूरों को किसी भी प्रकार के सुरक्षा उपकरण मुहैया नहीं कराये जाते हैं। यह टैरिफ़ लगने से पहले कपड़ा उद्योग में मज़दूरों की “सामान्य” स्थिति है।
टैरिफ़ लगने के बाद कपड़ा उद्योग के मज़दूरों की स्थिति और अधिक बदहाल हो गयी है। एक तरफ़ तो अधिकतर कम्पनियों में से आधे मज़दूरों को बिना नोटिस दिये काम से निकाला जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ़ बहुत से मज़दूरों को बिना वेतन काम से कई दिनों की छुट्टी दी जा रही है। जिन्हें काम से निकाला नहीं गया, उनकी 8 घण्टे की शिफ़्ट चल रही है, जिस कारण उन्हे 8-9 हज़ार वेतन ही मिल रहा है, जो कि आज के महँगाई के दौर में नाकाफ़ी है। सालों तक कपड़ा लाइन में काम कर चुके मज़दूरों को अब किसी और फैक्ट्री में भी काम नहीं मिल रहा है। अलग-अलग राज्यों से काम करने आये मज़दूरों को तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। नौकरी जाने या बिना वेतन के छुट्टी मिलने के कारण मज़दूरों को मकान का किराये देने से लेकर राशन लेने व घर का ख़र्च चलाने के लिए बेहद मशक्क़त करना पड़ रहा है। ऐसे में यह साफ़ हो जाता है कि टैरिफ़ बढ़ने से सबसे अधिक गाज मज़दूरों पर ही गिरी है।
यह संकट के दौर में विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के बढ़ते आन्तरिक अन्तरविरोधों और अमेरिकी साम्राज्यवाद के जारी पतन का ही नतीजा है। अमेरिकी पूँजीपति वर्ग अपने वर्चस्व के पतन को रोकना चाहते हैं। ट्रम्प के पक्ष में अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के एक विचारणीय पक्ष के जाने का एक बड़ा कारण विश्व बाज़ार में रूस-चीन धुरी द्वारा आंग्ल-अमेरिकी धुरी को मिल रही प्रतिस्पर्द्धा है। ट्रम्प टैरिफ़ इसी संकट की एक अभिव्यक्ति हैं। लेकिन इसके कारण अमेरिकी साम्राज्यवादी धुरी के यूरोप व जापान से रिश्तों पर भी संकट मँडरा रहा है। अगर आंग्ल-अमेरिकी धुरी और यूरोप व जापान में सम्बन्ध बिगड़ते हैं, जो कि राजनीतिक व सैन्य निर्भरता के कारण अमेरिका के पीछे चलने के लिए अब तक मजबूर रहे हैं, तो इससे विश्व राजनीति के समीकरणों में बड़े परिवर्तन आयेंगे।
ग़ौरतलब बात यह है कि भारतीय पूँजीपति वर्ग ट्रम्प के दबाव के आगे घुटने नहीं टेक रहा है, बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करने के साथ-साथ रूस-चीन धुरी से अपने रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने का काम भी कर रहा है। यह भारतीय पूँजीपति वर्ग की पुरानी रणनीति रही है। अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बरक़रार रखने के लिए वह हमेशा से ही अपने विकल्पों का विस्तार करता है। आज भी वह वही कर रहा है। लेकिन जब तक विश्व राजनीति के समीकरण पूँजीवाद और बुर्जुआ वर्ग के पक्ष में ढंग से व्यवस्थित नहीं हो जाते, तब तक इन टैरिफ़ों का चीन, भारत, ब्राज़ील आदि जैसे देशों के निश्चित उद्योगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा ही पड़ेगा और हमेशा की तरह इन उद्योगों का पूँजीपति वर्ग इस संकट का बोझ इन उद्योगों के मज़दूर वर्ग पर डालेगा, उसकी मज़दूरी घटायेगा, कार्यदिवस की लम्बाई बढ़ायेगा, छँटनी करेगा ताकि लागत को इतना कम कर सके कि उसकी पूँजी विश्व बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा करने के योग्य हो सके। इस समय यही प्रक्रिया जारी है और मज़दूरों को इसे समझना चाहिए ताकि इसके विरुद्ध वह प्रभावी तरीक़े से एकजुट और संगठित हो सकें।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2025













