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कहानी
हड़ताल
मक्सिम गोर्की
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नेपल्ज़ के ट्राम-कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी। रिव्येरा कयाया सड़क की पूरी लम्बाई में ट्राम के खाली डिब्बे खड़े थे और विजय-चैक में ड्राइवरों तथा कंडक्टरों की भीड़ जमा थी – बड़े ही ख़ुशमिज़ाज, हो-हल्ला करने वाले और पारे की तरह चंचल नेपल्जवासियों की भीड़। इन लोगों के सिरों और बाग़ के जंगले के ऊपर तलवार की तरह पतली फ़व्वारे की धार हवा में चमक रही थी। जिन लोगों को इस बड़े नगर के सभी भागों में काम-काज से जाना था, उनकी भारी भीड़ शत्रुता की भावना अनुभव करते हुए इन हड़तालियों को घेरे थी। ऐसे सभी कारिन्दे, कारीगर, छोटे-मोटे व्यापारी और दर्जी आदि हड़तालियों को ऊँचे-ऊँचे और खीझते हुए भला-बुरा कह रहे थे। गुस्से से भरे शब्द, चुभते व्यंग्य-वाक्य हवा में गूँज रहे थे, हाथ लगातार लहरा रहे थे जिनकी मदद से नेपल्ज़वासी कभी न रुकनेवाली अपनी ज़बान की तरह ही बहुत अभिव्यक्तिपूर्ण तथा अच्छे ढंग से अपने को व्यक्त करते हैं।
सागर की ओर से मन्द-मन्द समीर बह रहा था। नगर-उपवन के बहुत बड़े-बड़े ताड़ वृक्ष गहरे हरे रंग की अपनी शाखाओं के पंखों को धीरे-धीरे हिला रहे थे। इन ताड़ वृक्षों के तने भीमकाय हाथियों के भद्दे पैरों से बहुत मिलते-जुलते थे। बच्चे – नेपल्ज़ की सड़कों-गलियों के अधनंगे बच्चे – गौरैयों की तरह फुदक रहे थे, हवा को अपनी किलकारियों और ठहाकों से गुंजा रहे थे। नक्काशी की प्राचीन कलाकृति से मिलता-जुलता शहर सूरज की किरणों में नहाया हुआ था पूरे का पूरा मानो आर्गन बाजे के संगीत में डूबा था। खाड़ी की नीली लहरें तट-बंध से टकराती थीं, खंजड़ी जैसी छनक पैदा करती हुई लोगों के शोर और चीख-चिल्लाहट का साथ देती थीं। भीड़ की गुस्से भरी आवाज़ों का लगभग जवाब दिये बिना हड़ताली एक-दूसरे के साथ सटते जाते थे, बाग के जंगले पर चढ़कर लोगों के सिरों के ऊपर से सड़क की ओर बेचैनी से देखते थे और कुत्तों से घिरे हुए भेड़ियों जैसे लगते थे। सभी यह जानते थे कि एक जैसी वर्दी पहने हुए हड़ताली इस दृढ़ निर्णय के सूत्र में कसकर बँधे हुए हैं कि किसी भी हालत में क़दम पीछे नहीं हटायेंगे और भीड़ को इस बात से और भी अधिक गुस्सा आ रहा था। किन्तु भीड़ में कुछ दार्शनिक क़िस्म के लोग भी थे जो बड़े इत्मीनान से सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए हड़ताल के बहुत ही कट्टर विरोधियों के साथ इस प्रकार तर्क-वितर्क कर रहे थे –
”अजी महानुभाव ! अगर बच्चों को सेवैयां तक खिलाने को पैसे काफ़ी न हों तो आदमी करे भी तो क्या?”
नगरपालिका के बने-ठने पुलिसवाले दो-दो, तीन-तीन की टोलियों में खड़े हुए इस बात की ओर ध्यान दे रहे थे कि लोगों की भीड़ के कारण ट्रामों की गतिविधि में बाधा न पड़े। वे कड़ाई से तटस्थता का अनुकरण कर रहे थे, हड़तालियों तथा हड़ताल-विरोधियों को एक जैसी शान्त नज़र से देखते थे। और जब चीख-चिल्लाहट तथा हाव-भाव बहुत ही उग्र रूप धारण कर लेते थे तो दोनों पक्षों का ख़ुशमिज़ाजी से मज़ाक उड़ाते थे। कोई गम्भीर भिड़न्त हो जाने की हालत में दख़ल देने को तैयार फ़ौजी-पुलिस के दस्ते छोटी-छोटी और हल्की-हल्की बन्दूक़ें हाथ में लिये हुए पास की तंग-सी गली के घरों की दीवार के साथ सटे खड़े थे। तिकोने टोप, छोटे-छोटे लबादे और पतलूनों पर रक्त की दो धाराओं जैसी पट्टियोंवाले पतलून पहने ये लोग ख़ासे मनहूस लग रहे थे।
आपसी तू-तू मैं-मैं, ताने-बोलियां, व्यंग और तर्क-वितर्क – अचानक यह सब कुछ बन्द हो गया, लोगों में एक नयी, मानो शान्ति देनेवाली भावना की लहर-सी दौड़ गयी, हड़तालियों के चेहरों पर अधिक गम्भीरता छा गयी, साथ ही वे एक-दूसरे के अधिक निकट हो गये और भीड़ चिल्ला उठी –
”फ़ौजी आ गये!”
हड़तालियों का मज़ाक़ उड़ाती और किलकारी भरी सीटियाँ सुनाई दीं, अभिवादन के नारे गूँज उठे और हल्के भूरे रंग का सूट तथा पनामा टोपी पहने कोई मोटा-सा आदमी पत्थरों की सड़क पर पाँव बजाता हुआ उछलने-कूदने लगा। कंडक्टर और ट्राम-ड्राइवर भीड़ को चीरते हुए धीरे-धीरे ट्रामों की तरफ बढ़ने लगे, उनमें से कुछेक तो पायदानों पर चढ़ भी गये – वे पहले से भी ज्यादा संजीदा हो गये थे और भीड़ की आवाजों का कठोरता से जवाब देते हुए उसे रास्ता देने को मजबूर कर रहे थे। ख़ामोशी छा गयी।
तटवर्ती सान्टा लुचीया की ओर से भूरी वर्दियां पहने छोटे-छोटे फ़ौजी नाच की तरह हल्के-फुल्के कदम बढ़ाते, पाँवों से लयबद्ध आवाज़ पैदा करते और बायें हाथों को एक ही ढंग से यन्त्रावत हिलाते हुए चले आ रहे थे। वे मानो टीन के बने हुए और चाबी से चलने वाले खिलौनों की तरह आसानी से टूट जाने वाले प्रतीत हो रहे थे। त्योरियाँ चढ़ाये और होठों पर तिरस्कारपूर्वक बल डाले हुए ऊँचे क़द का एक सुन्दर अफ़सर इनका नेतृत्व कर रहा था। ऊँचा टोप पहने, लगातार कुछ बोलता और हाथों के असंख्य संकेतों से हवा को चीरता हुआ एक मोटा सा आदमी उसके साथ-साथ उछलता और दौड़ता चला आ रहा था।
भीड़ तेजी से ट्रामों से दूर हट गयी – भूरे रंग की माला के मनकों की तरह फ़ौजी पायदानों के पास रुकते हुए, जहाँ हड़ताली खड़े थे, डिब्बों के निकट बिखर गये।
ऊँचा टोप पहनेवाले को घेरे हुए कुछ अन्य धीर-गम्भीर लोग हाथों को जोर से हिलाते हुए चिल्ला रहे थे –
“आखिरी बार – Ultima volta!” सुन लिया?’’
अफ़सर एक ओर को सिर झुकाये हुए ऊबभरे ढंग से अपनी मूँछों पर ताव दे रहा था। ऊँचे टोप को हिलाता और भागता हुआ वह व्यक्ति उसके पास आया और उसने खरखरी आवाज़ में चिल्लाकर कुछ कहा। अफ़सर ने तिरछी नजर से उसकी तरफ़ देखा, तनकर खड़ा हो गया, उसने छाती को अकड़ाया और ऊँची आवाज़ में आदेश देने लगा।
ऐसा होते ही फ़ौजी उछलकर ट्रामों के पायदानों पर दो-दो की संख्या में चढ़ने लगे और इसी समय ट्राम-ड्राइवर और कंडक्टर नीचे कूद गये।
भीड़ को यह दिलचस्प मज़ाक सा प्रतीत हुआ – लोग चीखने-चिल्लाने, सीटियाँ बजाने और ठहाके लगाने लगे। किन्तु यह सब एकाएक शान्त हो गया और लोग गम्भीर तथा तनावपूर्ण चेहरे बनाये और हैरानी से आँखें फैलाये हुए भारी मन से ट्रामों से पीछे हटने लगे और सबसे आगे खड़ी ट्राम की ओर बढ़ चले।
सभी को यह साफ़ दिखाई देने लगा कि ट्राम के पहियों से दो क़दम की दूरी पर पके बालोंवाला एक ड्राइवर, जिसका चेहरा फ़ौजियों जैसा था, सिर से टोपी उतारकर लाइनों के आर-पार चित लेटा हुआ है और चुनौती देती-सी उसकी मूँछें आकाश को ताक रही हैं। बन्दर की तरह चुस्त-फुर्तीला, एक नाटा-सा तरुण भी उसके पास ही लेट गया और उसके बाद अन्य लोग भी इत्मीनान से वहीं लेटते चले गये।
भीड़ में दबी-घुटी भनभनाहट थी, मादोन्ना का आह्नान करती हुई भयभीत-सी आवाजें गूँज उठती थीं, कुछ लोग झल्लाकर भला-बुरा भी कहते, औरतें चीखतीं और आहें भरतीं और इस दश्ष्य से आश्चर्यचकित छोकरे रबड़ के गेंदों की तरह उछल रहे थे।
ऊँचा टोप पहने व्यक्ति सिसकती-सी आवाज़ में कुछ चिल्लाया, अफ़सर ने उसकी ओर देखकर कंधे झटके – अफ़सर को ड्राइवरों की जगह पर अपने फ़ौजी तैनात करने चाहिए थे, किन्तु उसके पास हड़तालियों के विरुद्ध कार्रवाई करने का आदेश-पत्र नहीं था।
तब ऊँचे टोपवाला व्यक्ति जी-हुजूरी करनेवाले कुछ आदमियों को साथ लिए हुए फ़ौजी पुलिसियों की ओर लपका – वे अपनी जगहों से हिले, पटरियों पर लेटे हुए लोगों के पास आये और उन्हें वहाँ से उठाने के इरादे से उन पर झुक गये।
कुछ हाथापाई और झगड़ा हुआ, लेकिन अचानक धूल से लथपथ दर्शकों की सारी भीड़ हिली-डुली, चीखी-चिल्लायी और ट्राम की पटरियों की ओर भाग चली। पनामा टोपी पहने हुए व्यक्ति ने टोपी सिर से उतारी, उसे हवा में उछाला, हड़ताली का कंधा थपथपाकर तथा ऊँची आवाज़ में उसे प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहकर सबसे पहले उसके निकट लेट गया।
इसके बाद खुशमिज़ाज और शोर मचाते हुए कुछ लोग, ऐसे लोग जो दो मिनट पहले तक वहाँ नहीं थे, ट्राम की पटरियों पर ऐसे गिरने लगे मानो उनकी टाँगें काट दी गयी हों। वे ज़मीन पर लेटते, हँसते हुए एक-दूसरे की ओर देखकर मुँह बनाते और चिल्लाकर अफ़सर से कुछ कहते जो ऊँचे टोपवाले व्यक्ति के सामने अपने दस्ताने फटकारता, व्यंग्यपूर्वक हँसता और सुन्दर सिर को झटकता हुआ कुछ कह रहा था ।
अधिकाधिक लोग पटरियों पर लेटते जाते थे, औरतें अपनी टोकरियाँ और पोटलियाँ फेंक रही थीं, हँसी से लोट-पोट होते हुए छोकरे ठिठुरे पिल्लों की तरह गुड़ी-मुड़ी हो रहे थे और अच्छे कपड़े पहने लोग भी दायें-बायें करवट लेते हुए धूल में लोट रहे थे।
पहली ट्राम से पाँच फौजियों ने बहुत-से लोगों को पहियों के नीचे लेटे देखा, हँसी के मारे उनका बुरा हाल हो रहा था, वे हैंडलों को थामकर डोलते हुए, सिरों को पीछे की ओर झटकते तथा आगे की तरफ़ झुकते हुए जोर के ठहाके लगा रहे थे। अब वे टीन के बने खिलौनों जैसे बिल्कुल नहीं लग रहे थे।
आधा घण्टे के बाद शोर मचाती, चीं-चूँ की आवाज़ पैदा करती हुई ट्रामें सारे नेपल्ज़ में चल रही थीं, उनके पायदानों पर खुशी से मुस्कराते हुए विजेता खड़े थे और डिब्बों के साथ-साथ चलते हुए भी वही बड़ी शिष्टता से पूछ रहे थे –
”टिकट?!”
उनकी ओर लाल और पीले नोट बढ़ाते हुए लोग आँखें मिचमिचाते थे, मुस्कराते थे, खुशमिज़ाजी से बड़बड़ाते थे।
Strike
Maxim Gorky
In Naples the tramway employees were striking. A line of empty tramcars were drawn up all along the Riviera Quiaca, while on the Piazza Triumphatore a group of drivers and conductors collected, all merry, noisy Neapolitans, volatile as quicksilver.
Above their heads, behind the railings of the garden, sparkled the thin jet of a fountain, as sparkles the blade of a dagger in the air. A great concourse of people, wanting to get to all possible parts of the great town, surrounds the tramway men, and all these shop assistants, apprentices, hawkers and seamstresses are abusing the strikers in loud and angry tones. Angry words were heard, malicious remarks, and hands move ceaselessly through the air, hands with which the Neapolitan knows how to speak quite as expressively and fluently as with his unceasing tongue . . . . A light breeze wafts from the sea, and the enormous palms of the town park rustle their dark-green, fan-like leaves, while their trunks resemble the feet of monster elephants, and appear to be carved in stone. Little urchins – the half-naked children of the Naples streets – hop about like sparrows, filling the air with their loud cries and laughter.
The town, which looks like an old engraving, is flooded with hot sunlight, and gives forth a sound like an organ; the blue waves of the sea’s bosom beat rhythmically against the stony shore, accompanying like a tambourine the murmurs and cries of the people.
With depressed countenances the strikers crowd together, hardly heeding the irritated cries of the bystanders. They climb on to the park railings, and look uneasily over the heads of the people down the street, like a crowd of wolves who are surrounded by dogs. It is clear to all that these men in uniform are bound fast together by an indomitable will, that they will not give way; and this circumstance embitters the crowd of people still more. There are, indeed, some philosophers among them, who, quietly smoking, try to appease the over-eager opponents of the strike.
“Hé, Signor! But what can they do if there is not enough macaroni for the children?”
In groups of twos and threes stand the showily dressed officials, of the municipal police, attentively watching that the crowd should not disturb the carriage-traffic. They are strictly neutral, and, look with the same complacency on accusers and accused, and joke good-humouredly about both whenever the gestures and cries assume a menacing character. In case of serious disturbances, a division of Carabinieri are stationed in a small side alley along the houses, armed with carbines. That is a rather ominous group; impassive, silent men, with short, black cloaks and narrow red trouser-stripes, which look like thin stripes of blood.
Suddenly the scolding and laughing, reproaches and warnings become silent; there is a movement in the crowd which seems to bring it together the faces of the strikers grow still darker, and and they draw closer together as the cry rings out among the crowd:
“Soldiers!”
A mocking, triumphant whistle assails the ears of the strikers; the soldiers are greeted with joyful cries. A stout man in a grey summer suit, with a panama hat on his head, begins to dance, stamping heavily on the pavement with his feet. The conductors and drivers push their way slowly through the crowd and approach the the cars; some of them climb on to the platforms. They look still more sullen now, and reply to the hostile cries with rough words. It begins to become quieter. As the strikers pass through the hostile crowd they split it up into different sections and groups, and give it a new mood, not so noisy, and more human.
From the Santa Lucia shore, with lightly tripping feet, approach little grey-coated soldiers, their feet keeping even time, and their left arms. mechanically swinging. They look as if they were made of tin, and as fragile as mere toys . . . . . At their head walks a handsome, well-built officer, with knitted brows and scornfully drawn lips, and beside him runs, with a hop, skip and a jump, a fat man with a top-hat, who talks to him ceaselessly, cutting the air with countless gestures.
The crowd has shrunk back from the tramcars; the soldiers have dispersed themselves like a string of grey pearls along the line of cars, and taken up their stand by the platforms, on which the strikers are standing.
The man in the top hat and a few other persons who have surrounded him cry, like mad creatures, waving their arms:-
“For the last time . . . . . Do you hear?”
The officer, rather bored, twirls his moustache while he has bent his head. The man who was accompanying him before runs to him, raising his top hat, and hoarsely calling something to him. The officer looks sideways at him, raises himself to his full height, throws out his chest – and the loud words of command are heard.
Instantly the soldiers begin to jump, two at a time, on to the platforms of the cars. But at the same time the drivers and conductors jump off. This seems ludicrous to the crowd. Howling, whistling, laughter breaks forth, but dies again immediately. In deep silence the people, with suddenly aged, grey, drawn faces, and eyes staring in astonishment, draw back from the sides and back of the cars, and rush in a body to the front of the first car.
And there, at a distance of two feet from the front of the car, across the rails, bareheaded, and with the face of a soldier, lies a grey-haired driver, his breast bare, his face turned upwards,’ an the ends of his moustache pointing towards the sky. With rapidity of a monkey, a young boy threw himself down beside him and after him others, without haste, lay themselves dawn, one after the other, on the ground, on the track of the cars. . . A suppressed roar breaks from the mass of people; voices are heard in terror invoking the Madonna; some curse sullenly, women scream and groan, while the little boys, struck by drama, jump about everywhere like India-rubber balls.
The man with the top-hat roars something in a sobbing void the officer looks at him and shrugs his shoulders ; it is his duty to replace the drivers by soldiers, but he has no orders to make any attack upon the strikers.
Then the man in the top-hat, surrounded by any who are willing to help, rushes to the Carabinieri. These begin to move, arrive the spot, bend over those who are lying on the rails, and try to lift them up.
There begins a struggle, a turmoil. But suddenly the whole grey, dusty mass of onlookers gets into motion. They roar, howl stream on to the rails ; the man with the panama hat pulls it off throws it high in the air, and lays himself as a first on the ground tapping the striker lying beside him on the shoulder, and shouting encouraging words to him.
And after him countless merry, noisy people who, three minutes ago, were not near the place, began dropping on the rails as if their feet had been cut off. Laughing, they threw themselves down made some grimaces, and called out something to the officer, who laughing and shaking his handsome head, called out something the man in the top-hat, gesticulating with his hands, and twirling his gloves under the nose of the latter.
In the meantime, more people kept coming and laying themselves on the rails. Women threw their parcels and baskets on the ground, little boys rolled themselves, laughing, together, like dogs when they feel cold; respectable, educated people rolled themselves in the dust from side to side.
Five soldiers looked down from the platform of the first car on to the heaps of bodies under the wheels, their hands on the edge of the carriages, and their heads thrown back, and roared with laughter. They no longer looked like the tin toys of a little while ago.
After half an hour the tramcars were rushing, with many a shriek and squeak, through the streets of Naples. On platforms stood the conquerors, merrily smiling, and along the cars, too, they went, politely asking:
“Tickets?”
The people who handed them the red and yellow strips of paper winked at them, laughing and teasing them good-naturedly….
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