विश्व की “चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था” के शोर के पीछे की सच्चाई

ध्रुव

पिछले दिनों भारत की अर्थव्यवस्था और ग़रीबी को लेकर दो आँकड़े जारी हुए। पहले नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रमण्यम ने दावा किया कि भारत ने जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल कर लिया है। यह दावा अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की अप्रैल 2025 की वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक की रिपोर्ट पर आधारित है जिसमे अनुमान लगाया गया है कि भारत की नॉमिनल जीडीपी 4.187 ट्रिलियन डॉलर हो गयी है जो जापान की अनुमानित जीडीपी 4.186 ट्रिलियन डॉलर से अधिक है। वहीं दूसरी तरफ विश्व बैंक ने जून 2025 की रिपोर्ट में बताया कि भारत में अत्यधिक ग़रीबी की दर 2011-12 के मुकाबले 2022-23 में 27.1% से घटकर 5.3% हो गयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार 2011-12 में 34.4 करोड़ लोग अत्यधिक ग़रीबी में जी रहे थे जिसमें से 17.1 करोड़ ग़रीबी रेखा से बाहर निकल चुके हैं। इन आँकड़ों के जारी होने के बाद मोदी सरकार का सूचना तन्त्र और पूरा गोदी मीडिया सरकार का गुणगान करने में जुट गये हैं। मुख्यधारा की मीडिया ने इसे भारत की आर्थिक प्रगति और मोदी सरकार की नीतियों की सफलता के रूप मे प्रचारित किया। लोगों के बीच यह बात फैलायी जा रही है कि मोदी सरकार की नीतियों की वजह से देश में ग़रीबी कम होती जा रही है। लेकिन आम मेहनतकश और मज़दूर आबादी इन आँकड़ों के पीछे की सच्चाई को अपनी ज़िन्दगी से ही समझ सकते हैं।

सबसे पहली बात यह है कि जीडीपी का बढ़ना किसी भी देश की आर्थिक स्थिति के ठीक होने का सूचक नहीं है। क्योंकि इससे इस बात का पता नहीं चलता कि देश में पैदा होने वाली कुल सम्पदा का कितना हिस्सा देश के बड़े धनपशु हड़प लेते हैं और देश की आम मेहनतकश जनता की स्थिति क्या है? पिछले दिनों विश्व असमानता लैब की नवीनतम रिपोर्ट ‘भारत में आय और सम्पत्ति असमानता, 1922-2023: अरबपति राज का उदय’ (मार्च 2024) ने बताया कि भारत की शीर्ष 1% आबादी का राष्ट्रीय आय के 22.6% हिस्से पर नियन्त्रण है। शीर्ष 10% आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 57.7% हिस्सा है, जबकि निचले 50% के पास केवल 15% हिस्सा है। यह असमानता दुनिया में सबसे अधिक है। साफ़ है कि दुनिया की “चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था” में पूँजीपतियों-धन्नासेठों की तिजोरियों का आकार तो बढ़ता जा रहा है लेकिन आम मेहनतकश आबादी इस “चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था” में तबाही और बरबादी की और गहरी खाई में धकेली जा रही है। यह हास्यास्पद है कि जिस जापान को पीछे छोड़कर चौथी अर्थव्यवस्था होने का दावा किया जा रहा है, वहाँ प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत की तुलना में लगभग 11.8 गुना अधिक है।

इसी तरह ग्लोबल हंगर इण्डेक्स के अनुसार दुनिया की “चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था” का भुखमरी के मामले में 127 देशों में 105वाँ स्थान है। ‘नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे’ और एनएसएसओ के आँकड़ों के अनुसार भारत में 70% से अधिक मेहनतकश परिवार न्यूनतम पौष्टिक आहार (जैसे दाल, सब्ज़ियाँ और प्रोटीन) ख़रीद पाने में असमर्थ हैं। JAMA नेटवर्क ओपन (12 फरवरी 2024) की हार्वर्ड स्टडी से पता चलता है कि भारत में 67 लाख बच्चे 24 घण्टों में भोजन या दूध से वंचित रहते हैं। इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले इस देश की मेहनतकश आबादी आज भी बेहद बुनियादी ज़रूरतों के लिये तरस रही है। हमारे देश में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतें ख़ासकर पिछले दस सालों में महँगी हुई हैं। शिक्षा की बात करें तो नवभारत टाइम्स (2024) के सर्वेक्षण और ‘नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन’ (NSSO) के 78वें दौर (2020-21) के डेटा के आधार पर यह बात सामने आ रही है कि शिक्षा पिछले 3 सालों में लगभग 30 से 50 प्रतिशत तक महँगी हुई है। वहीं पर ‘नेशनल हेल्थ अकाउण्ट्स’ 2020-21, गोडिजिट (2024) की रिपोर्ट के आधार पर चिकित्सा भी 50% तक महँगी हो चुकी है। 2014-15 में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य व्यय ₹4,839 था, जो 2024 तक, अनुमानित ₹10,000 तक पहुँच गया है।

अब एक नज़र इस चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी की स्थिति पर भी डाल लेते हैं। हमारे देश में लगभग 70 करोड़ कार्यशील आबादी में से 28 करोड़ लोगों ने काम ढूढ़ना ही बन्द कर दिया है। ‘पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे’ 2023-24 के अनुसार, भारत के कुल कार्यबल का 93% असंगठित क्षेत्र में है जहाँ न तो कोई आर्थिक सुरक्षा है और न ही कोई सामाजिक सुरक्षा। ईटीवी भारत की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में दिहाड़ी मज़दूरों को 15 से 20 दिन काम मिलना भी मुश्कित होता है। पिछले दस सालों में आम मेहनतकश आबादी की वास्तविक आय में बमुश्किल 15 से 20% की वृद्धि हुई है लेकिन अगर इस बढ़ी हुई आय को भी मुद्रास्फीति से प्रतिसन्तुलित करें तो साफ़ हो जायेगा हालात और बदतर ही हुए हैं। ‘पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे’ 2023-24 और ‘इण्डियन लेबर ऑर्गनाइज़ेशन’ 2024 की रिपोर्ट के अनुसार 2012 में असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे दिहाड़ी मज़दूरों की औसत मासिक आय 3,701 रुपये थी और 2022 में बढ़कर औसत मासिक आय केवल 4,712 हुई। इस भयंकर आर्थिक स्थिति की वजह से भारत में लगभग 60% से ज़्यादा परिवार दवा-इलाज के लिये क़र्ज़ लेने को मजबूर हैं।

इसी तरह विश्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर यह दावा किया गया कि भारत में अत्यधिक ग़रीबी में कमी आयी है। इस दावे पर भी बहुत सवाल खड़े हो रहे हैं। सबसे पहले हम यह समझते हैं कि अत्यधिक ग़रीबी का भारत में मानक क्या है? विश्व बैंक की ही परिभाषा के अनुसार अत्यधिक ग़रीबी वह स्थिति है जिसमें एक व्यक्ति अपनी बेहद बुनियादी ज़रूरतें जैसे भोजन, स्वच्छ पानी, आवास, और स्वास्थ्य सेवाएँ भी ठीक से नहीं प्राप्त कर पाता है। अब विश्व बैंक ने अपने ताज़ा आँकड़े में यह बताया है कि 2011-12 में 34.4 करोड़ लोग अत्यधिक ग़रीबी में थे जो 2022-23 में घटकर 7.5 करोड़ रह गये यानी कि 26.9 करोड़ लोग अत्यधिक ग़रीबी से बाहर आये। अब अत्यधिक ग़रीबी की परिभाषा के अनुसार हम इसकी जाँच पड़ताल करते हैं कि क्या 2011-12 की तुलना में 2022-23 में लोगों की, ख़ासकर आम मेहनतकश आबादी की, बुनियादी ज़रूरतों को ख़रीदने की क्षमता वाकई में बढ़ी है कि घटी है! उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) के अनुसार, 2011-12 से 2022-23 तक भारत में भोजन की लागत में लगभग 80-100% की वृद्धि हुई। 2024 की ‘द हिन्दू’ की रिपोर्ट के अनुसार अक्टूबर 2023 और अक्टूबर 2024 के बीच औसतन थाली में इस्तेमाल होने वाली सभी सब्ज़ियों की ख़ुदरा क़ीमत में सामूहिक रूप से 89% की वृद्धि हुई है। इस बीच औसत वेतन और मज़दूरी में 9 से 10% की वृद्धि हुई है। 2011-12 की तुलना में 2022-23 में भारत में चिकित्सा लागत में 7-10% की वार्षिक वृद्धि हुई, जो कुल मिलाकर लगभग 100-150% की बढ़ोतरी दर्शाता है। ‘द हिन्दू’ (2024) के अनुसार, निजी अस्पतालों में उपचार लागत 10-15% सालाना बढ़ी। दवाओं की क़ीमतों में 5-8% की वार्षिक वृद्धि हुई है। 2011-12 से 2022-23 तक भारत में शिक्षा की लागत में औसतन 6-8% की वार्षिक वृद्धि हुई। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ 2017-18 के अनुसार, निजी स्कूलों में औसत वार्षिक शुल्क प्राथमिक स्तर पर ₹6,000 से बढ़कर ₹20,000 और उच्च-माध्यमिक स्तर पर ₹30,000 तक पहुँच गया। निजी कोचिंग और अतिरिक्त शैक्षिक संसाधनों की लागत में भी 50-70% की वृद्धि हुई। वहीं पर इन्हीं वर्षों में आम मेहनतकश आबादी की वास्तविक आय 20 से 30% तक ही बढ़ी है। अब बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि जब देश की आम मेहनतकश आबादी की आय की तुलना में बुनियादी ज़रूरतें जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन कई गुना ज़्यादा महँगा हुआ है तो फिर लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को ख़रीदने की क्षमता बढ़ कैसे गयी है? सरकार के ही तमाम आँकड़ों को देखें तो हमें पता चलता है कि आम मेहनतकश आबादी की बुनियादी ज़रूरतों की ख़रीदने की क्षमता कहीं ज़्यादा घटी है। ऐसे में अत्यधिक ग़रीबी कम होने के दावे में झोल ही दिखाई पड़ता है और इसका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है।

वास्तव में इन आँकड़ों का शोर मचाया ही इसलिए जाता है कि ताकि इस शोर के पीछे आम लोगों की भयंकर तबाही और बदहाली पर पर्दा डाला जा सके। सच्चाई यह है कि पिछले ग्यारह सालों में मोदी सरकार की फ़ासीवादी नीतियों ने देश को देशी-विदेशी पूँजीपतियों की लूट का चरागाह बना दिया है। इन ग्यारह सालों में फ़ासीवादी तन्त्र द्वारा आम लोगों के सामने केवल यह विकल्प प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है कि वे नारकीय स्थितियों में जीते हुए चुपचाप इस लूट को अपनी क़िस्मत मान लें और इसके खिलाफ़ कोई आवाज़ तक न उठाएँ। लेकिन ज़िन्दगी की सच्चाई को आँकड़ों की चकाचौंध के पीछे छिपाया नहीं जा सकता है। यह सच्चाई हर तरह के फ़ासीवादी दुष्प्रचार और झूठे शोर-शराबे पर भारी पड़ने वाली है। हमें बस इस सच्चाई को लोगों तक लेकर जाने की ज़रूरत है और उन्हें उनके जीवन के ठोस व वास्तविक मुद्दों पर संगठित और गोलबन्द करने की ज़रूरत है।

 

 

मज़दूर बिगुल, जून 2025

 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
     

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन