काकोरी के शहीदों को याद करो! अवामी एकता कायम करो!
भारत
बहनो, भाइयो, साथियों, क्या आपको काकोरी ऐक्शन के महान शहीदों के नाम याद है? क्या आप जानते हैं कि इसी महीने में, 96 साल पहले 17 और 19 दिसम्बर 1927 को देश के चार जाँबाज़ नौजवान आजादी के लिए कुर्बान हो गये थे। एच.आर.ए यानी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े इन नायकों के नाम थे रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला खाँ, रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी। देश की आज़ादी के आन्दोलन में ‘काकोरी ऐक्शन’ एक ख़ास घटना है। 9 अगस्त 1925 के दिन 10 नौजवानों ने लखनऊ के पास काकोरी में चलती रेल रोककर सरकारी खजाने को लूट लिया था। ‘काकोरी ऐक्शन’ अंग्रेज हुकूमत के मुँह पर एक करारा तमाचा था। मुकदमे की नौटंकी करके कई क्रान्तिकारियों को क़ैद बामशक्कत और चार को फांसी की सज़ा सुनायी गयी जबकि चन्द्रशेखर आज़ाद को कभी गिरफ़्तार नहीं किया जा सका।
हमारे इन शहीदों ने अपनी जान इसलिए दी क्योंकि उनकी आँखों में एक ऐसे समाज का सपना था, जिसमें सबके लिए बराबरी और इन्साफ़ होगा, जहाँ अमीरी-ग़रीबी का भेद नहीं होगा, पैसे और ताक़त के जोर पर लोगों को गुलाम बना के नहीं रखा जा सकेगा। जहाँ जाति-धर्म, भाषा-क्षेत्र के नाम पर लोगों को बाँटा नहीं जायेगा। जहाँ मन्दिर-मस्जिद, लव जिहाद, गौ-हत्या के नाम पर लोगों का क़त्लेआम नहीं किया जायेगा। लेकिन क्या उनका यह सपना पूरा हुआ ?
क्यों ज़रूरी है इन क्रान्तिकारियों को याद करना?
आज़ादी के बाद 76 वर्षों में बड़े-बड़े कारख़ाने, विश्वविद्यालय, अस्पताल, हवाईअड्डे और आलीशान इमारतें खड़ी हुई। चौड़ी सड़कों पर लाखों गाडियाँ दौड़ने लगीं। लेकिन यह सारी तरक्की जिन मेहनतकशों के खून-पसीने की बदौलत हुई है, उनके हिस्से में आज भी ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी ही आयी है। आज भी इस देश में रोज सात हजार बच्चे भूख, कुपोषण व छोटी-छोटी बीमारियों से मर जाते हैं। 55 प्रतिशत महिलाएँ खून की कमी की शिकार हैं। दूसरी तरफ हर साल लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ा दिया जाता है। आज़ादी के बाद सत्ता में बैठी कांग्रेस से लेकर सभी सरकारों ने मुट्ठीभर पूँजीपतियों की ही तिजोरी भरने का काम किया है। भाजपा की मोदी सरकार उसी काम को बुलेट ट्रेन की रफ्तार से करने में लगी है। सभी भाजपा सरकारों ने पूँजीपतियों की सेवा करने और मज़दूरों-मेहनतकशों की लूट का इन्तजाम करने में हमेशा ही सारे रिकार्ड ध्वस्त किये हैं, लेकिन मोदी सरकार तो उनमें भी सबसे आगे है। बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई और भुखमरी की अब कहीं चर्चा भी नहीं होती है। बेवजह के मुद्दों को उछाला जाता है ताकि असली सवालों पर लोग सोच ही न सकें। आज फ़ासिस्ट मोदी सरकार द्वारा अपने फ़ासीवादी एजेण्डे के तहत मुस्लिम आबादी को दुश्मन के रूप में पेश किया जा रहा है ताकि हम अपने बुनियादी अधिकारों को भूलकर आपस में ही लड़ते रहें और इनकी घिनौनी राजनीति चलती रहे। एक-दूसरे के खिलाफ़ हमारे दिलों में नफ़रत भर दी गयी है, ताकि हम एक न हो सकें। अपने साथ होने वाली लूट और बदहाली के ख़िलाफ़ लोग लड़ न सकें, इसीलिए हमें धर्म और जाति के नाम पर लड़ाया जाता है।
“फूट डालो और राज करो” की नीति से हिन्दू और मुस्लिम को आपस में बाँटकर अंग्रेज़ हुक्मरान भी आजादी की लड़ाई को कमज़ोर करना चाहते थे। उस समय भी हिन्दू महासभा, आर.एस.एस. और मुस्लिम लीग जैसे संगठन उनकी इस चाल में मददगार बनते थे। लेकिन हमारे इन क्रान्तिकारियों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसालें क़ायम की थी। गदर आन्दोलन के क्रान्तिकारियों की तरह ही बिस्मिल और अशफ़ाक़ के संगठन ‘एच.आर.ए.’ का भी कहना था कि धर्म लोगों का निजी मसला होना चाहिए और उसका राजनीति में इस्तेमाल बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के संगठन ‘हिन्दस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ ने भी इसी बात को आगे बढ़ाया था। फाँसी चढ़ने से सिर्फ़ तीन दिन पहले लिखे ख़त में अशफ़ाक़उल्ला खाँ ने देशवासियों को आगाह किया था कि इस तरह के बँटवारे आज़ादी की लड़ाई को कमज़ोर कर रहे हैं। उन्होंने लिखा था, “सात करोड़ मुसलमानों को शुद्ध करना नामुमकिन है, और इसी तरह यह सोचना भी फ़िजूल है कि पच्चीस करोड़ हिन्दुओं से इस्लाम कबूल करवाया जा सकता है। मगर हाँ, यह आसान है कि हम सब गुलामी की जंजीरें अपनी गर्दन में डाले रहें।” अशफ़ाक़ उल्ला खाँ ने अपनी शहादत के ठीक एक दिन पहले गणेश शंकर विद्यार्थी को पत्र लिखकर कहा कि वह चाहते हैं कि अंग्रेजों के जाने के बाद देश में काले अंग्रेजों की जगह मेहनतकश जनता का राज क्रायम हो। उनका कहना था कि अगर इन विचारों के लिए कोई उन्हें कम्युनिस्ट कहता है तो भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। इसी तरह रामप्रसाद बिस्मिल का कहना था कि “यदि देशवासियों को हमारे मरने का ज़रा भी अफ़सोस है तो वे जैसे भी हो हिन्दू-मुस्लिम एकता क़ायम करें। यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।”
आज हमारे देश में एक फ़ासीवादी हुकूमत क़ायम है जो अंग्रेजों से भी बर्बर तरीके से आम जनता को लूटने, काले क़ानून बनाने और जाति-धर्म के नाम पर समाज में विभाजन पैदा करने में लगी हुई है। जिस तरह से अंग्रेज़ लुटेरे भाई-भाई को लड़ा रहे थे, उसी तरह से आज सत्ता में बैठे लोग भी जनता को बेवजह के मुद्दों पर आपस में लड़ा रहे हैं और धर्म व जाति के नाम पर बहाये गये लोगों के खून से वोट की फ़सल को सींच रहे हैं। आम मेहनतकश जनता को निचोड़कर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने वाली इस सरकार के ख़िलाफ़ नौजवानों-छात्रों और इंसाफ़पसन्द नागरिकों को आगे आने और अवामी एकता क़ायम करने की ज़रूरत है।
दोस्तो! आज हमारा समाज एक बड़े बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे ही हालात में किसी भी समाज में बिस्मिल, अशफ़ाक़, आज़ाद और भगतसिंह जैसे नायक सामने आते हैं। जैसाकि भगतसिंह ने कहा है, “बम और पिस्तौल इन्कलाब नहीं लाते बल्कि इन्क़लाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।” आज जनता को जगाने का काम, जातिवाद साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहे लोगों को असल समस्याओं के बारे में शिक्षित, जागरूक और संगठित करने का काम ही सबसे ज़रूरी काम है। हमारे महान शहीदों को आज की युवा पीढ़ी की यही असल सलामी हो सकती है।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2023














