दिल्ली में बादाम मज़दूरों की हड़ताल की शानदार जीत!
बिगुल संवाददाता
जून महीने में 19 तारीख से हड़ताल पर बैठे बादाम मज़दूरों ने हड़ताल के छठे दिन जीत हासिल की और मालिकों को मुख्य माँगों पर झुकने को मजबूर कर दिया। 24 जून को मालिको ने अन्ततः यूनियन के सदस्यों के साथ बैठक में माँगें मानने का लिखित समझौता किया जिसके बाद इलाके में मज़दूरों ने एक विजय रैली निकालकर अपनी जीत की घोषणा की। यह जीत सिर्फ़ बादाम मज़दूरों की नहीं बल्कि इलाके के उन मज़दूरों की भी है जो इलाक़ाई एकता के आधार पर बादाम मज़दूरों के साथ खड़े थे। इस हड़ताल में पेपर प्लेट मज़दूर, निर्माण मज़दूर, कुकर से लेकर खिलौना व अन्य फ़ैक्ट्रियों के मज़दूर बादाम मज़दूरों के साथ थे।
करावलनगर मज़दूर यूनियन के बैनर तले इलाकाई एकता के आधार पर करावल नगर के मज़दूरों ने यह दूसरी हड़ताल जीती है। इस हड़ताल में यूनियन व बिगुल मज़दूर दस्ता ने इलाके में पर्चे बाँटकर, मीडिया में अपनी बात पहुँचाकर और जनसभा व रैली निकालकर इस हड़ताल के पक्ष में व्यापक जन सहयोग जुटाया। दिल्ली विश्वविघालय के छात्रों से लेकर इलाके के नागरिक व पत्रकार भी इस संघर्ष में मज़दूरों के साथ खड़े थे। परन्तु इस शानदार जीत की सबसे बडी़ ताकत मज़दूरों की इलाकाई एकता थी। हड़ताल में यूनियन की ओर से दिये माँगपत्रक की 4 मुख्य माँगो में से मालिकों ने तीन माँगों को मान लिया हैः
1. बादाम मज़दूरों को बादाम छँटाई का रेट 1 रुपया से बढ़ाकर 2 रुपये प्रति किलो दिया जाये, साथ ही हर महीने के पहले हफ़्ते में भुगतान व हर साल मज़दूरी में दस फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी।
2. बादाम मज़दूरों के रोज़गार कार्ड पर मालिक हस्ताक्षर के साथ काम दर्ज करेगा।
3. सभी बादाम गोदामों में पीने के साफ़ पानी और शौचालय की सुविधा।
बादाम उद्योग के पंजीकरण और उद्योग से जुड़े अन्य मज़दूरों (मशीन व हाथ से बादाम तोड़ने वाले मज़दूरों) को न्यूनतम वेतन के अनुसार भुगतान की माँग भी माँगपत्रक में शामिल थी जिन्हें मालिकों ने मानने से इनकार कर दिया। इन माँगों को लागू कराने के लिए यूनियन कानूनी लड़ाई के साथ ही आन्दोलन का रास्ता अपनायेगी क्योंकि यें माँगें सिर्फ एक हड़ताल में नहीं बल्कि लड़ाइयों के लम्बे दौर के बाद ही जीती जायेंगी।
इस हड़ताल के दौरान बिगुल मज़दूर दस्ता और करावलनगर मज़दूर यूनियन ने जमकर राजनीतिक भण्डाफ़ोड़ का काम भी किया। हालाँकि पुलिस से सीधे टकराव ही मज़दूरों को बुनियादी स्तर पर राजनीतिक कर देता है परन्तु मालिक-पुलिस से लेकर विधायक, न्यायालय, श्रम मंत्रालय और पूँजीवादी मीडिया के गँठजोड़ को पूँजीवादी राज्य व्यवस्था के रूप में देखने और इसे ध्वस्त करने की राजनीति मज़दूर इन संघर्षों में राजनीतिक प्रचार के ज़रिये सीखता है। अपनी माँगों के लिए इलाके के विधायक के घेराव से लेकर इलाकाई आधार पर मज़दूर आबादी व व्यापक जनता तक रैली और पर्चों के माध्यम से संघर्ष में साझेदारी की माँग इस हड़ताल के कुछ महत्वपूर्ण सकारात्मक सबक हैं। इस संघर्ष में सबसे आगे रहने वाली महिला मज़दूरों का जीवट सबसे बड़ी सकारात्मक उपलब्धियों में से एक है। इस हड़ताल के कुछ नकारात्मक पहलू भी थे, मसलन बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश के कुछ मज़दूरों को छोड़कर उत्तर प्रदेश की बड़ी व उत्तराखंड की लगभग पूरी आबादी हड़ताल में शामिल नहीं थी। लेकिन इस उद्योग के मशीनीकरण के चलते देर-सबेर यह आबादी भी (छँटनी व महँगाई के चलते) यूनियन के साथ खड़ी होगी, बशर्ते अभी से ही यूनियन इस आबादी के बीच सही ढंग से राजनीतिक प्रचार करे।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2013
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