रणनीति की कमी की वजह से हैदराबाद में ज़ेप्टो डिलीवरी वर्कर्स की हड़ताल टूटी
गिग वर्कर्स को एक क्रान्तिकारी यूनियन के बैनर तले संगठित होना होगा

आनन्द

ज़ेप्टो जैसी ऑनलाइन किराना कम्पनियाँ 10 मिनट में राशन और घरेलू उपयोग के सामान ग्राहकों के घर तक पहुँचाने का वायदा करती हैं। इन कम्पनियों के आने के बाद से भारत के मध्यवर्ग की ज़िन्दगी में काफ़ी सहूलियत आ गई है। अब उन्हें अपने रोज़मर्रा की ज़रूरत के सामान के लिए किराने की दुकान पर जाने की ज़रूरत नहीं होती, ये सामान अब मोबाइल पर बटन दबाते ही 10 मिनट के भीतर उनके घर के दरवाज़े तक पहुँच जाते हैं। परन्तु कम लोगों को ही इस बेरहम सच्चाई का एहसास होता है कि ज़ेप्टो कम्पनी का वायदा पूरा करने के लिए उसके डिलीवरी मज़दूरों को अपनी जान और सेहत जोख़िम में डालनी पड़ती है। एक ओर इन मज़दूरों की आमदनी में लगातार गिरावट आती जा रही है वहीं दूसरी ओर उनके काम की परिस्थितियाँ ज़्यादा से ज़्यादा कठिन होती जा रही हैं। समय पर डिलीवरी पहुँचाने की हड़बड़ी में आए दिन उनके साथ सड़क दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। इन हालात से तंग आकर हाल ही में हैदराबाद में रामंतापुर और बोद्दुपल इलाक़ों में स्थित ज़ेप्टो डार्क स्टोर्स के डिलीवरी मज़दूरों ने हड़ताल पर जाने का फ़ैसला किया। डार्क स्टोर ज़ेप्टो जैसी गिग कम्पनियों द्वारा संचालित ऐसे स्टोर होते हैं जहाँ से डिलीवरी मज़दूर कोई ऑर्डर मिलने पर ग्राहक का सामान उठाते हैं।

ग़ौरतलब है कि ज़ेप्टो कम्पनी ने हाल ही एक नया पेमेण्ट रेट कार्ड लागू किया है जिसके तहत अब साप्ताहिक भुगतान की कोई गारण्टी नहीं मिलेगी। इस नई स्कीम के तहत उनका पेमेण्ट पहले से काफ़ी कम हो गया है और उनके काम के घण्टे भी बढ़ गये हैं। जहाँ पहले उन्हें एक डिलीवरी पर लगभग 35 रुपये मिलते थे, वहीं अब उन्हें मात्र 15 रुपये ही मिल रहे हैं। पुरानी पेमेण्ट योजना के तहत उन्हें लगभग 3500 रुपये के साप्ताहिक पेमेण्ट की गारण्टी मिलती थी, जिसे अब रद्द कर दिया गया है। जहाँ पहले उन्हें 10 हज़ार रुपये कमाने के लिए 210 राइड करनी पड़ती थी वहीं अब उन्हें उसी राशि के लिए क़रीब 260 राइड करनी पड़ती है। साप्ताहिक पेमेण्ट की गारण्टी के अभाव में डिलीवरी मिलने की कोई निश्चितता नहीं रह गई है। पेट्रोल और मोबाइल डेटा की बढ़ती क़ीमतों की वजह से मज़दूरों को डिलीवरी के दौरान लगा अपना ख़र्च भी निकालना ज़्यादा से ज़्यादा मुश्किल होता जा रहा है। नतीजतन, अब उन्हें अपने काम के घण्टे बढ़ाने पड़ रहे हैं जिसकी वजह से कई मज़दूरों को पीठ में दर्द की समस्या पैदा हो गई है। मज़दूरों को आराम करने की कोई समुचित व्यवस्था नहीं रहती है। उनके लिए वाशरूम तक का इन्तज़ाम नहीं होता है। डार्क स्टोर के पास एक छोटे-से और गन्दे कमरे में डिलीवरी मज़दूर रहते हैं जहाँ न तो कुर्सियाँ होती हैं और न ही लेटने की कोई व्यवस्था। वहाँ फ़र्स्ट एड बॉक्स तक भी नहीं होता है। हड़ताली मज़दूर वाशरूम और आराम करने की समुचित व्यवस्था करने की माँग भी कर रहे थे। ज्ञात हो कि ज़ेप्टो कम्पनी मज़दूरों के बीच प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाने के लिए अपनी सभी शाखाओं में अलग-अलग पेमेण्ट और इन्सेंटिव रेट लागू करती है। ज़ेप्टो डिलीवरी मज़दूर सभी शाखाओं में समान पेमेण्ट और इन्सेंटिव की माँग भी उठा रहे थे।

ज़ेप्टो कम्पनी ग्राहकों से वायदा करती है कि वह 5 किलोमीटर की दूरी के भीतर 10 मिनट में सामान पहुँचाएगी। ज़ेप्टो पर ऑर्डर आते ही डिलीवरी मज़दूर को पहले सामान इकट्ठा करना, बाइक पर लादना और फिर ग्राहक के दरवाज़े तक पहुँचाना होता है और यह सब काम 10 मिनट के भीतर करना होता है। सामान के आकार, वजन और ऑर्डर में वस्तुओं की मात्रा के अनुसार समय में कोई छूट नहीं दी जाती है। अगर सामान पहुँचाने में देरी होती है तो चेतावनी जारी की जाती है और कई बार ऐसा होने पर उनको पेनाल्टी भी देनी पड़ती है। अगर कोई सामान क्षतिग्रस्त होता है, तो उसकी भरपाई डिलीवरी मज़दूर के पेमेण्ट से की जाती है। इस भयावह और अत्यन्त शोषणकारी कार्य स्थिति का विरोध करते हुए ज़ेप्टो डिलीवरी मज़दूर इस ‘10 मिनट में डिलीवरी’ योजना को हटाने की माँग भी उठा रहे थे।

हड़ताल की शुरुआत से ही ज़ेप्टो कम्पनी ने डिलीवरी मज़दूरों की हड़ताल तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। शान्तिपूर्वक हड़ताल कर रहे मज़दूरों को पुलिस द्वारा डराया-धमकाया गया। कई आन्दोलनरत मज़दूरों को काम से बर्ख़ास्त कर दिया गया। कुछ मज़दूरों से माफ़ीनामा भी लिखवाकर उन्हें काम शुरू करने के लिए मजबूर किया गया है और ज़ेप्टो के सभी स्टोर्स के मज़दूरों के बीच एकजुटता क़ायम न हो सके इसके लिए दूसरे स्टोर के डिलीवरी मज़दूरों को ज़्यादा पेमेण्ट और इंसेंटिव देकर काम पूरा करवाया गया। संघर्षरत मज़दूरों पर लगातार कॉल करके दबाव बनाया गया कि वे ड्यूटी जॉइन करें, अन्यथा उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा। हड़ताल में शामिल होते ही कई मज़दूरों के आईडी काम करने बन्द हो गए।

ज़ेप्टो के संघर्षरत डिलीवरी मज़दूर ‘तेलंगाना गिग एण्ड प्लेटफ़ॉर्म वर्कर्स यूनियन’ नामक एक सुधारवादी यूनियन के दिशानिर्देश पर अपनी हड़ताल चला रहे थे। यह यूनियन गिग और प्लेटफ़ॉर्म मज़दूरों को एकजुट करने के नाम पर तेलंगाना की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लिए गिग मज़दूरों का वोटबैंक सुदृढ़ करने का काम करती है। यह मज़दूरों की वर्गीय चेतना को भोथरा करने का काम करती है।  इस यूनियन की ओर से मज़दूरों के सम्मुख को कोई ठोस रणनीति और योजना प्रस्तावित नहीं की गई जिसकी वजह से हड़ताल शुरू होने के कुछ ही दिनो के भीतर संघर्षरत मज़दूरों में मायूसी और निराशा छा गई। हड़ताल से कोई नतीजा न दिखने और अपनी आजीविका का संकट गहराते देख आख़िरकार मज़दूरों को एक हफ़्ते के भीतर ही हड़ताल ख़त्म करने पर मजबूर होना पड़ा।

ज़ेप्टो के डिलीवरी मज़दूरों की समस्याएँ तमाम गिग और प्लेटफ़ार्म कम्पनियों में काम करने वाले डिलीवरी मज़दूरों की आम समस्याएँ है। उनके काम की विशिष्टता को देखते हुए उनको संगठित करना एक चुनौतीपूर्ण काम है। परन्तु क्रान्तिकारी ताक़तों को यह चुनौती उठानी होगी। इसके लिए सबसे पहले इस नए क़िस्म के काम के पीछे के राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझदारी बनानी बेहद ज़रूरी है।

गिग और प्लेटफ़ॉर्मआधारित अर्थव्यवस्था का राजनीतिक अर्थशास्त्र

गिग और प्लेटफ़ॉर्म-आधारित अर्थव्यवस्था डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से संचालित एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें अस्थायी, छोटी-अवधि के और लचीले क़िस्म के काम होते हैं जिन्हें पूर्णकालिक मज़दूरों के बजाय अल्पकालिक, अस्थायी और फ़्रीलांस क़िस्म के मज़दूर करते हैं। इस अर्थव्यवस्था के तहत विविध क़िस्म के काम सम्पन्न कराये जाते हैं। इन कामों में सॉफ़्टवेयर कोड लिखने, ऑनलाइन पढ़ाने, कॉण्टेण्ट लिखने और अनुवाद करने जैसे कुशल कामों से लेकर फ़ूड डिलीवरी, राशन डिलीवरी, टैक्सी और बाइक राइड जैसे काम होते हैं जिनमें ड्राइविंग के अलावा और किसी कुशलता की ज़रूरत नहीं होती है। फ़ाइबर और अपवर्क से लेकर ऊबर, ओला, रैपिडो, ज़ोमैटो, स्विगी, ज़ेप्टो, ब्लिंकिट जैसी कम्पनियाँ गिग कम्पनियों के उदाहरण हैं। ये काम मज़दूरों के समूह के बजाय अमूमन एक व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। इनमें मज़दूरों को किसी फ़ैक्ट्री या कार्यालय पर जाने की ज़रूरत नहीं होती है। इस तरह के काम या तो कम्प्यूटर, मोबाइल व इण्टरनेट की मदद से कहीं से भी किये जा सकते हैं, या फिर जैसाकि डिलीवरी या राइडिंग जैसे कामों में होता है, सड़कें ही मज़दूरों का कार्यस्थल होती हैं क्योंकि उनका काम चीज़ों या लोगों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना होता है। उपरोक्त वजहों से गिग मज़दूरों के लिए एकजुटता क़ायम करना मुश्किल काम होता है।

गिग अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया में पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेज़ी से विकसित हुई है। एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका की कुल काम करने वाली आबादी में करीब 80 प्रतिशत लोग कभी न कभी गिग अर्थव्यवस्था से जुड़े काम कर चुके हैं और इनमें से 40 प्रतिशत लोगों की आमदनी का मुख्य स्रोत ऐसे काम हैं जो गिग अर्थव्यवस्था के तहत आते हैं। भारत में भी पिछले एक दशक में इस अर्थव्यवस्था में छलाँग लगी है और बहुत बड़ी संख्या में मज़दूर गिग और प्लेटफ़ॉर्म-आधारित काम कर रहे हैं। ऐसे मज़दूरों की संख्या 2020 में ही 77 लाख थी। अब यह करीब 85 लाख तक पहुँच चुकी होगी और यह अनुमान लगाया गया है कि 2029-30 तक इनकी संख्या 2.35 करोड़ होगी। यह भारत की कुल कार्यशक्ति (मज़दूरों की तादाद) का करीब 1.5 प्रतिशत है। अकेले तेलंगाना में गिग मज़दूरों की संख्या सवा चार लाख से अधिक है।

कुछ लोग ऐसे गिग व प्लेटफ़ॉर्म-आधारित कामों को पारम्परिक कामों की तुलना में बेहतर मानते हैं क्योंकि इसमें मज़दूर को स्वायत्तता होती है और उसके काम में लचीलापन होता है, काम के घण्टों की कोई बाध्यता नहीं होती है, मज़दूर अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ काम ले सकता है और सुपरवाइज़र या मैनेजर आपके सिर पर सवार नहीं होता है और उनकी फटकार नहीं सुननी पड़ती है। परन्तु सच्चाई यह है कि यह दिखावटी लचीलापन काम की अनिश्चितता की शर्त पर आता है और छोटी-अवधि के अस्थायी कामों में पैसा इतना कम मिलता है कि मज़दूर को अपना गुजारा करने के लिए 10-12 घण्टे या उससे भी अधिक काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, भले ही सतही तौर पर देखने पर लगता है कि यह मज़दूर की मर्जी पर निर्भर करता है कि वह कोई काम ले या न ले। मिसाल के तौर पर ज़ेप्टो राइडर इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह कोई राइड चुने। परन्तु अगर उसको अपने और अपने परिवार का ख़र्चा निकालना है और अपनी बाइक के पेट्रोल तथा मोबाइल फ़ोन को डेटा सुनिश्चित करना है तो उसे कम से कम 10-12 घण्टे काम करना ही पड़ेगा क्योंकि एक राइड में उसे बमुश्किल 15-20 रुपये मिलते हैं। साथ ही प्लेटफ़ॉर्म का एल्गोरिदम ऐसा होता है कि जो मज़दूर कम राइड स्वीकार करते हैं उन्हें राइड मिलने की सम्भावना कम होती जाती है। जहाँ तक सुपरवाइज़र या मैनेजर का सवाल है तो भले ही कोई व्यक्ति भौतिक रूप से मज़दूर की निगरानी नहीं कर रहा होता है, परन्तु मोबाइल ऐप और उसकी एल्गोरिदम तथा जीपीएस के ज़रिये न सिर्फ़ उस प्लेटफ़ॉर्म की मालिक कम्पनी बल्कि उपभोक्ता भी मज़दूर की हरेक गतिविधि पर नज़र रखता है। ज़रा सी देरी पर उसके राइड से भारी रकम की कटौती कर ली जाती है और उपभोक्ताओं की डाँट-फटकार भी सुननी प़ड़ती है। आए दिन मीडिया में ग्राहकों और डिलीवरी मज़दूरो के बीच झड़पों की ख़बरें सुनायी देती हैं। इसके साथ ही इन डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स की एल्गोरिदम में रैंकिंग और फ़ीडबैक के विकल्प होते हैं जिनके ज़रिये कम्पनी और उपभोक्ता डिलीवरी ब्वाय या राइडर्स की कार्य दशाओं, उनके व्यवहार और उनकी आमदनी पर नियन्त्रण रखते हैं। साथ ही दिन में कई-कई घण्टों तक भारी बोझ के साथ लगातार बाइक चलाने की वजह से इन मज़दूरों को शारीरिक समस्याओं को सामना करना पड़ता है और डिलीवरी समय पर पहुँचाने की हड़बड़ी में सड़क दुर्घटना का जोख़िम बना रहता है।

गिग अर्थव्यवस्था में विभिन्न क़िस्म की सेवाएँ आती हैं। ये सेवाएँ एक ख़ास क़िस्म का माल ही होती हैं और उनमें तथा अन्य मालों में फ़र्क ये होता है कि वे ठोस भौतिक वस्तु के रूप में नहीं होती हैं और उनका उत्पादन और उपभोग अलग-अलग समयों पर नहीं बल्कि एक ही समय होता है। मिसाल के लिए ज़ेप्टो के राइडर राशन का परिवहन करने की सेवा मुहैया कराते हैं और ऊबर के ड्राइवर लोगों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने की सेवा उपलब्ध कराते हैं। हालाँकि इन सेवाओं के उत्पादन में लगने वाले उपकरण, मसलन ज़ेप्टो के मामले में बाइक और मोबाइल, अमूमन मज़दूरों के ख़ुद के होते हैं, फिर भी उन्हें स्वतन्त्र माल उत्पादक नहीं कहा जा सकता क्योंकि सेवा की क़ीमत, सेवा की स्थितियाँ और उसकी शर्तें गिग कम्पनियाँ तय करती हैं और उनपर मज़दूर का कोई नियन्त्रण नहीं होता है।

डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और उसके एल्गोरिदम की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि उसी के ज़रिये ही ज़ेप्टो, ज़ोमैटो, स्विगी, अर्बन कम्पनी, ऊबर, और ओला जैसी गिग कम्पनियाँ बाज़ार पर अपना क़ब्ज़ा क़ायम करती हैं और राइडरों और ड्राइवरों को अपने मातहत करती हैं। हालाँकि बाइक, और मोबाइल जैसे सेवा के उत्पादन के साधनों के मालिक अमूमन स्वयं मज़दूर होते हैं, परन्तु डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, मोबाइल ऐप और एल्गोरिदम जैसे अहम साधन पर कम्पनी का मालिकाना होने की वजह से गिग मज़दूर पूरी तरह से कम्पनियों के मातहत हो जाते हैं और वास्तविक रूप से उत्पादन के साधनों के मालिक कम्पनी के स्वामी ही होते हैं, भले ही औपचारिक तौर पर मज़दूर अपने ख़ुद के उपकरणों की मदद से सेवा मुहैया कराता है। ग्राहक सेवा का मूल्य प्लेटफ़ॉर्म कम्पनी को देता है और उसमें से कम्पनी मज़दूर को उसकी श्रमशक्ति का ही मूल्य देती है। मज़दूर द्वारा उत्पादित सेवा का मूल्य उसकी श्रमशक्ति के मूल्य से कहीं ज़्यादा होता है और इन दोनों मूल्यों के अन्तर यानी बेशी मूल्य को हड़पकर कम्पनी अपना मुनाफ़ा कमाती है। इस प्रकार वह मज़दूर का शोषण करती है। बाज़ार पर अपना क़ब्ज़ा करने के लिए ये गिग कम्पनियाँ तमाम तिकड़मों का भी सहारा लेती हैं। मिसाल के लिए ऊबर जैसी कम्पनी ने शुरुआत में बाज़ार पर नियन्त्रण करने के लिए राइडर्स को ज़्यादा राइड पर बोनस और ग्राहकों को छूट जैसे प्रलोभन दिये। परन्तु बाज़ार पर क़ब्ज़ा हो जाने के बाद अब राइडर्स की आमदनी और ग्राहकों को दी जाने वाली छूट दोनों में भारी कटौती हो रही है। नतीजतन, यह हो रहा है कि ऊबर, ओला आदि कम्पनियों के ड्राइवरों की आमदनी तेज़ी से घटी। शुरू में ज़्यादा मेहनताने और बोनस आदि के ज़रिये पहले उन्होंने बाज़ार पर कब्ज़ा जमाया और अब जबकि ऊबर-ओला ड्राइवर कम्पनियों के रहमो-करम पर आ गये तो उनके मेहनताने को बेहद कम कर दिया। शुरू में कई चालकों ने अपनी कारें ख़रीदकर चलवाना भी शुरू किया था। लेकिन अब रुझान उल्टा हो गया है। अब कारों का एक अच्छा-ख़ासा बेड़ा स्वयं ऊबर कम्पनी के मालिकाने में है और श्रम का यह उपकरण भी अब चालकों की विचारणीय आबादी के मालिकाने में नहीं है, बल्कि सीधे तौर पर कम्पनी की पूँजी का हिस्सा बन चुका है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि गिग कम्पनी की भूमिका एक नियोक्ता की होती है और राइडर व ड्राइवर उस कम्पनी के ही मज़दूर होते हैं, भले ही वे औपचारिक तौर पर उत्पादन के उपकरणों के मालिक हों। परन्तु गिग कम्पनियाँ नियोक्ता की अपनी भूमिका को स्वीकार नहीं करती हैं और वे ख़ुद को महज़ ‘एग्रीगेटर’ कहती हैं जो बाज़ार से सूचना एकत्र करके उपभोक्ताओं और सेवा प्रदाताओं को एक प्लेटफ़ॉर्म पर लाती है। उनका दावा है कि गिग मज़दूर उनके कर्मचारी नहीं हैं बल्कि ख़ुद अपने काम के मालिक हैं, वे तो बस उपभोक्ताओं और सेवा प्रदाताओं के बीच सूचना साझा करने का अपना कमीशन लेते हैं। परन्तु उत्पादन के उपकरणों पर मज़दूरों के मालिकाने को यान्त्रिक और काग़ज़ी ढंग से देखने के बजाय अगर वास्तविक रूप में गिग कम्पनियों द्वारा गिग मज़दूरों को अपने मातहत करने की प्रक्रिया को समझा जाय तो यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि गिग अर्थव्यवस्था में राइडर या डिलीवरी जैसे काम करने वाले लोग प्रभावी रूप से मज़दूर ही हैं, भले ही उनके पास अपना ख़ुद का वाहन और मोबाइल फ़ोन हो जिनका इस्तेमाल करके वे विशिष्ट रूप की सेवा के माल का उत्पादन करते हैं। ये श्रम के उपकरण पूँजी नहीं हैं और न ही उन पर या उनके इस्तेमाल की स्थितियों पर इन मज़दूरों का कोई नियन्त्रण है, हालाँकि क़ानूनी तौर पर उन पर उनका मालिकाना है। इन मज़दूरों का शोषण करके ही गिग व प्लेटफ़ॉर्म कम्पनियाँ अपना मुनाफ़ा कमाती हैं।

ग़ौरतलब है कि हाल के वर्षों में राजस्थान और कर्नाटक में गिग श्रम को विनियमित करने के लिए जो क़ानून पास किये गये हैं उनमें भी गिग कम्पनियों और गिग मज़दूरों के बीच के रोज़गार के प्रत्यक्ष सम्बन्ध को स्वीकार नहीं किया गया है और कम्पनियों को अपने मज़दूरों के प्रति ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया है। तेलंगाना में भी ऐसा ही क़ानून बनाने की क़वायद चल रही है जिसमें गिग मज़ूदरों को मज़दूर का दर्जा देने और गिग कम्पनियों को नियोक्ता घोषित करने के बजाय कम्पनियों को गिग मज़दूरों के कल्याण के लिए कुछ ख़ैरात देने की बातें की जा रही हैं। इस क़ानून को अमली जामा पहनाने का श्रेय ‘तेलंगाना गिग एण्ड प्लेटफ़ॉर्म वर्कर्स यूनियन’ को जाता है जिसकी ढिलाई की वजह से ही हैदराबाद में ज़ेप्टो मज़दूरों की हड़ताल बेनतीजा रही थी। परन्तु सतही तौर पर मज़दूरों के हित में लगने वाला यह मसौदा क़ानून दरअसल गिग मज़दूरों की असल माँग यानी प्लेटफ़ार्म कम्पनियों को डिलीवरी मज़दूरों का नियोक्ता स्वीकार करने पर शातिराना चुप्पी साधे है। इस प्रकार के क़ानूनों के अस्तित्व मे आने के बाद भी गिग मज़दूर श्रम क़ानूनों की परिधि में आएँगे ही नहीं। यानी मोदी सरकार द्वारा लागू की जा रही नई श्रम संहिताओं के तहत मज़दूरों को जो बचे-खुचे अधिकार मिलेंगे, वो अधिकार भी गिग मज़दूरों को नहीं प्राप्त होंगे।

जहाँ एक ओर गिग मज़दूरों के कामों की अस्थायी प्रकृति और उनके एक साथ किसी एक कार्यस्थल पर काम न करने की वजह से ऐसे मज़दूरों को एकजुट और संगठित करने के रास्ते की अपनी  चुनौतियाँ हैं, वहीं दूसरी ओर साझा समस्याओं की वजह से उनके बीच स्वत:स्फूर्त रूप से एकता का आधार भी बन रहा है। हाल के वर्षों में देश में कई जगहों पर इन मज़दूरों ने स्वत:स्फूर्त ढंग से हड़तालें की हैं और सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप के माध्यम से एकजुटता भी क़ायम की है। क्रान्तिकारी ताक़तों को इन स्वत:स्फूर्त एकजुटता को सचेतन रूप से स्थापित की गई एकजुटता में तब्दील करना होगा। एक क्रान्तिकारी यूनियन के बैनर के तहत ही देशभर में काम करने वाले लाखों गिग मज़दूरों को एकजुट और संगठित किया जा सकता है और एक समुचित रणनीति के ज़रिये ही प्लेटफ़ार्म कम्पनियों को झुकाया जा सकता है।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2025

 

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