मज़दूर वर्ग को एक दिवसीय हड़तालों के वार्षिक अनुष्ठानों से आगे बढ़ना होगा!
हमें हड़ताल के ताक़तवर हथियार को सालाना रस्मअदायगी और प्रतीकात्मकता की क़वायद में तब्दील नहीं होने देना चाहिए!
पूँजीवादी मुनाफ़े का चक्का जाम करने के लिए लम्बी लड़ाई की तैयारी आज से ही शुरू करनी होगी!
सम्पादकीय अग्रलेख
‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर हमारे द्वारा केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर हर साल होने वाली एक-दिवसीय या दो-दिवसीय हड़तालों के अनुष्ठानिक चरित्र के बारे में लगातार लिखा जाता रहा है। वजह यह है कि यह सालाना अनुष्ठान हड़तालों को रस्मअदायगी में बदल देते हैं, जो हड़तालें दरअसल मज़दूर वर्ग का एक ताक़तवर हथियार होती हैं। मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने हड़तालों को “युद्ध की पाठशाला” कहा था। लेनिन के मुताबिक हड़ताल एक ऐसी पाठशाला है जो मज़दूर वर्ग को एकताबद्ध होना सिखाती है, जो उन्हें बताती है कि वे केवल एकताबद्ध होने पर ही पूँजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष कर सकते हैं; हड़तालें मज़दूरों को कारख़ानों के मालिकों के पूरे वर्ग के विरुद्ध और पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करने वाली सरकारों के विरुद्ध पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष की बात सोचना सिखाती है। यह एक ऐसी पाठशाला है, एक ऐसा ‘युद्ध का स्कूल’ है जिसमें मज़दूर वर्ग पूरी जनता को, मेहनत करने वाले तमाम लोगों को पूँजी के जुए से मुक्ति के लिए अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ युद्ध करना सीखता है। भारत में केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा हर साल आयोजित की जाने वाली ये एकदिवसीय रस्मी कवायदें मज़दूर वर्ग के लिए हड़ताल के उपरोक्त महत्व को ही ख़त्म या बेअसर कर देती हैं।
इस वर्ष भी 9 जुलाई को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा आम तौर पर मोदी सरकार की मज़दूर-विरोधी नीतियों और मुख्य तौर चार लेबर कोडों के विरोध में एक दिवसीय हड़ताल का आयोजन किया गया। इससे पहले यह हड़ताल 20 मई को होने वाली थी, पर “राष्ट्रहित” में पुलवामा हमले के बाद 15 मई को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा इसे स्थगित करने की घोषणा कर दी गयी थी! मज़दूर वर्ग भली-भाँति जानता है कि “राष्ट्रहित” वास्तव में पूँजीपतियों का हित होता है। इस “राष्ट्रहित” के लिए मज़दूरों को ही हर-हमेशा पेट पर पट्टी बाँधकर कुर्बानी देनी पड़ती है। “राष्ट्रहित” में पूँजीपति और मालिकों की जमात अपना मुनाफ़ा कमाने का “अधिकार” तो कभी नहीं छोड़ते हैं। हाँ, हम मज़दूरों को ज़रूर अपने अधिकारों की हिफाज़त करने के संघर्ष को स्थगित करने की सलाह इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के प्रतिनिधियों द्वारा दी जाती है। लेकिन इसमें ताज्जुब की कोई बात है भी नहीं। ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीक़े से मालिकों के हितों की ही हिफाज़त करती हैं। इसलिए ही तो मज़दूर वर्ग के ताक़तवर हथियार यानी हड़ताल को अपने इन एकदिवसीय अनुष्ठानों के ज़रिये व्यर्थ करने का काम करती हैं।
उदारीकरण-निजीकरण के दौर के बाद से हर वर्ष ही इस प्रकार के अनुष्ठान इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा आयोजित किये गये हैं। इन एकदिवसीय हड़तालों से मज़दूर-विरोधी नीतियों का बुलडोज़र तो नहीं रुका, हाँ मज़दूर वर्ग के अलग-अलग हिस्सों के भीतर इन नीतियों के खिलाफ़ पनप रहे गुस्से को तात्कालिक तौर पर अवमुक्त होने का एक प्रतीकात्मक रास्ता मिल जाता है और इस रूप में यह अनुष्ठानिक हड़तालें व्यवस्था के लिए ‘सेफ़्टी वॉल्व’ का काम करती हैं। वास्तविकता यह है कि इन हड़तालों से व्यवस्था की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है और जो कुछ भी छोटी-मोटी कमी पूँजीपतियों और मालिकों के मुनाफ़े में आती है, उसकी भरपाई भी मालिक मज़दूरों से ओवरटाइम करवाकर कर लेते हैं जिसपर इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की पूरी सहमति होती है। दरअसल मज़दूर वर्ग से ऐतिहासिक गद्दारी कर चुकी ये यूनियनें और इनकी आका पार्टियाँ पूँजीवादी व्यवस्था की अंतिम सुरक्षा-पंक्ति का काम करती हैं और अपनी इन रस्मी कवायदों के ज़रिये मज़दूर वर्ग के गुस्से पर ठंडे पानी की छींटें डालने का काम करती रहती हैं।
ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें न तो मज़दूर विरोधी लेबर कोडों के प्रश्न पर और न ही ठेका प्रथा के प्रश्न पर कोई वास्तविक संघर्ष का मार्ग प्रस्तुत करती हैं और न ही ऐसा करने का उनका कोई इरादा ही है। इन एकदिवसीय हड़तालों को अनिश्चितकालीन हड़ताल में तब्दील करने की क्रान्तिकारी अवस्थिति पर भी यह चुप्पी साध लेती हैं। वहीं संसद-विधान सभाओं में बैठी इनकी आका पार्टियाँ मज़दूर विरोधी नीतियों पर बस ज़ुबानी जमाखर्च के ज़रिये अपना विरोध दर्ज कराती हैं। यहीं नहीं, जिन राज्यों में इनकी सरकार/सरकारें हैं या थीं वहाँ ये इन्हीं पूँजीपरस्त नीतियों को धड़ल्ले से लागू करवाने का काम अंजाम देती रही हैं। एक मज़बूत जुझारू आन्दोलन खड़ा करने या मज़दूरों के अधिकारों की हिफाज़त करने के लिए कोई व्यवस्थित व दीर्घकालिक संघर्ष का कार्यक्रम लेने और उसकी तैयारी करने की बजाय ये ट्रेड यूनियनें एकदिवसीय हड़ताल की नौटंकी के ज़रिये मज़दूरों के असंतोष को शान्त करने की रस्मी क़वायद में संलग्न हैं।
इसके अलावा इन अनुष्ठानिक हड़तालों का ज़्यादा असर औपचारिक व संगठन क्षेत्र व संगठित मज़दूरों-कर्मचारियों में ही दिखलाई पड़ता है। इसका एक कारण तो यही है कि इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का आधार ही मुख्य तौर पर औपचारिक और संगठित क्षेत्र की मज़दूर आबादी के बीच ही है। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की माँगें इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर जगह पाती है और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। दूसरे, अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के एक विचारणीय हिस्से में यह धारणा भी स्वतःस्फूर्त तरीक़े से मौजूद है कि एक दिन की इस प्रतीकात्मकता से उन्हें हासिल ही क्या होगा? असंगठित मज़दूर आबादी के बीच तो ये बड़ी ट्रेड यूनियनें शादी में मेहमान के तरीक़े से उपस्थित रहती हैं। इन अनुष्ठानों से पहले इन यूनियनों के पदाधिकारी थोड़ा-बहुत प्रचार करके अपने “दायित्व” का निर्वहन कर देते हैं और फिर हड़ताल के दिन औद्योगिक इलाकों में एक प्रतीकात्मक रैली निकालने और कुछेक जगहों पर आंशिक कामबन्दी के बाद अगले एक साल तक के लिए अन्तर्धान हो जाते हैं!
मज़दूर वर्ग के सबसे ताक़तवर हथियारों में से एक हड़ताल का इस्तेमाल मज़दूरों को बेहद सूजबूझ और तैयारी के साथ करना चाहिए। आइये देखते हैं कि हड़तालों के विषय में मज़दूर वर्ग के अग्रणी शिक्षकों में से एक लेनिन का क्या मत था। लेनिन लिखते हैं कि “जब मज़दूर काम करने से इन्कार कर देते हैं, इस पूरे यंत्र (पूँजीवाद- सम्पादक) के ठप होने का ख़तरा पैदा हो जाता है। हरेक हड़ताल पूँजीपतियों को याद दिलाती है कि वे नहीं, बल्कि मज़दूर, वे मज़दूर वास्तविक स्वामी हैं, जो अधिकाधिक ऊँचे स्वर में अपने अधिकारों की घोषणा कर रहे हैं। हरेक हड़ताल मज़दूरों को याद दिलाती है कि उनकी स्थिति असहाय नहीं है, कि वे अकेले नहीं हैं।”
हड़ताल के महत्व को रेखांकित करते हुए लेनिन बताते हैं कि “सामान्य, शान्तिपूर्ण समय में मज़दूर बड़बड़ाहट किये बिना अपना काम करता है, मालिक की बात का प्रतिवाद नहीं करता, अपनी हालत पर बहस नहीं करता। हड़तालों के समय वह अपनी माँगें ऊँची आवाज़ में पेश करता है, वह मालिकों को उनके सारे दुर्व्यवहारों की याद दिलाता है, वह अपने अधिकारों का दावा करता है, वह केवल अपने और अपनी मज़दूरी के बारे में नहीं सोचता, बल्कि अपने सारे साथियों के बारे में सोचता है, जिन्होंने उसके साथ-साथ औज़ार नीचे रख दिये हैं और जो तकलीफ़ों की परवाह किये बिना मज़दूरों के ध्येय के लिए उठ खड़े हुए हैं। मेहनतकश जनों के लिए प्रत्येक हड़ताल का अर्थ है बहुत सारी तकलीफ़ें, भयंकर तकलीफ़ें, जिनकी तुलना केवल युद्ध द्वारा प्रस्तुत विपदाओं से की जा सकती है – भूखे परिवार, मज़दूरी से हाथ धो बैठना, अक्सर गिरफ़्तारियाँ, शहरों से भगा दिया जाना, जहाँ उनके घर-बार होते हैं तथा वे रोज़गार पर लगे होते हैं। इन तमाम तकलीफ़ों के बावजूद मज़दूर उनसे घृणा करते हैं, जो अपने साथियों को छोड़कर भाग जाते हैं तथा मालिकों के साथ सौदेबाज़ी करते हैं। हड़तालों द्वारा प्रस्तुत इन सारी तकलीफ़ों के बावजूद पड़ोस की फ़ैक्टरियों के मज़दूर उस समय नया साहस प्राप्त करते हैं, जब वे देखते हैं कि उनके साथी संघर्ष में जुट गये हैं। अंग्रेज़ मज़दूरों की हड़तालों के बारे में समाजवाद के महान शिक्षक एंगेल्स ने कहा था : “जो लोग एक बुर्जुआ को झुकाने के लिए इतना कुछ सहते हैं, वे पूरे बुर्जुआ वर्ग की शक्ति को चकनाचूर करने में समर्थ होंगे।” बहुधा एक फ़ैक्टरी में हड़ताल अनेकानेक फ़ैक्टरियों में हड़तालों की तुरन्त शुरुआत के लिए पर्याप्त होती है। हड़तालों का कितना बड़ा नैतिक प्रभाव पड़ता है, कैसे वे मज़दूरों को प्रभावित करती हैं, जो देखते हैं कि उनके साथी दास नहीं रह गये हैं और, भले ही कुछ समय के लिए, उनका और अमीर का दर्जा बराबर हो गया है! प्रत्येक हड़ताल समाजवाद के विचार को, पूँजी के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष के विचार को बहुत सशक्त ढंग से मज़दूर के दिमाग़ में लाती है। प्राय: होता यह है कि किसी फ़ैक्टरी या किसी उद्योग की शाखा या शहर के मज़दूरों को हड़ताल के शुरू होने से पहले समाजवाद के बारे में पता ही नहीं होता और उन्होंने उसकी बात कभी सोची ही नहीं होती। परन्तु हड़ताल के बाद अध्ययन मण्डलियाँ तथा संस्थाएँ उनके बीच अधिक व्यापक होती जाती हैं तथा अधिकाधिक मज़दूर समाजवादी बनते जाते हैं।”
लेनिन के इन विचारों की तुलना पूँजीवादी दलों व संशोधनवादी दलों से जुड़ी ट्रेड यूनियनों के एकदिवसीय अनुष्ठान से की जाये तो किसी भी आम मज़दूर को स्पष्ट समझ में आ जाएगा कि किस प्रकार ये ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग के इस अमोघ अस्त्र को धारहीन बनाने की कोशिशों में जुटी हुई हैं। इन अनुष्ठानों के द्वारा हड़ताल रूपी “युद्ध की पाठशाला” में मज़दूर वर्ग को शिक्षित-दीक्षित करने की बजाय यह उन्हें अर्थवादी प्रतिकात्मकता और खोखली रस्मअदायगी के गोल चक्कर में घुमाते रहने का कुत्सित प्रयास करते हैं। लेनिन के उपरोक्त विचार दरअसल बतलाते हैं कि हड़ताल के दौरों में कैसे मज़दूर वर्ग महज़ वर्ग चेतना के क्षेत्र से वर्ग राजनीतिक चेतना के क्षेत्र में दाखिल होता है और उनके भीतर समाजवाद का विचार कैसे जन्म लेता है।
आगे लेनिन बताते हैं कि हड़ताल की पाठशाला ही मज़दूर वर्ग को मालिकों की पूरी जमात को दुश्मन के तौर पर देखना सिखलाती है। लेनिन बताते हैं कि “हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, बल्कि तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फ़ैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हज़ारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में पूरे मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं। अक्सर होता यह है कि फ़ैक्टरी का मालिक मज़दूरों की आँखों में धूल झोंकने, अपने को उपकारी के रूप में पेश करने, मज़दूरों के आगे रोटी के चन्द छोटे-छोटे टुकड़े फेंककर या झूठे वचन देकर उनके शोषण पर पर्दा डालने के लिए कुछ भी नहीं उठा रखता। हड़ताल मज़दूरों को यह दिखाकर कि उनका “उपकारी” तो भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया है, इस धोखाधड़ी को एक ही वार में ख़त्म कर देती है।”
लेनिन जोड़ते हैं कि “हड़तालों ने ही धीरे-धीरे तमाम देशों के मज़दूर वर्ग को मज़दूरों के अधिकारों तथा समग्र रूप में जनता के अधिकारों के लिए सरकारों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना सिखाया है।” कुलमिलकर कहें तो लेनिन दरअसल मज़दूर वर्ग के लिए हड़ताल के ताक़तवर हथियार की ज़रूरत को ही रेखांखित कर रहे हैं। वहीं हम देख सकते हैं कि इस हथियार की धार को कुन्द करने का काम इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा लगातार इन एकदिवसीय हड़तालों के सालाना अनुष्ठान के ज़रिये किया जा रहा है।
यह भी सच है कि आज किसी वास्तविक विकल्प और सुव्यवस्थित लम्बी तैयारी की अनुपस्थिति के कारण मज़दूरों का एक हिस्सा इन अनुष्ठानिक हड़तालों में शिरकत करता है। इसलिए प्रश्न उठता है तो फिर इस हड़ताल के प्रति हमारा रुख़ और रवैया क्या होना चाहिए? इसमें सही अवस्थिति यह है कि हमें न तो इन एकदिवसीय हड़तालों का अनालोचनात्मक समर्थन करना चाहिए और न ही इससे दूर रहना चाहिए। इन हड़तालों में भागीदारी कर हमें केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा हड़ताल के हथियार के इस व्यर्थ और अप्रभावी प्रयोग को आम मज़दूरों के सामने उजागर करना चाहिए। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी हिरवाल ताकतों को इन सालाना अनुष्ठानों की सीमा और इनके वास्तविक चरित्र को उजागर करते हुए इन हड़तालों में ठीक इसीलिए शिरकत करनी चाहिए ताकि इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की अर्थवादी, सुधारवादी, संधोधनवादी और अवसरवादी राजनीति को मज़दूर वर्ग की व्यापक आबादी के सामने बेपर्द किया जा सके। यदि इन प्रतीकात्मक कवायदों से क्रान्तिकारी ताक़तें अनुपस्थित रहेंगी तो इसका मतलब यह होगा कि हम मज़दूर वर्ग की एक बड़ी आबादी को इन ट्रेड यूनियन के रहमोकरम पर छोड़ रहे हैं। हमें एक दिन के लिए भी मज़दूरों को इनके भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए बल्कि इस अवसर का इस्तेमाल इन यूनियनों की मौक़ापरस्ती और इनके द्वारा व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति के रूप में निभायी जाने वाली इनकी भूमिका को बेपर्द करने के लिए करना चाहिए। हड़ताल के सशक्त हथियार को उसकी ताक़त और असर इसी क़दम के ज़रिये वापस लौटाया जा सकता है।
साथ ही, मज़दूरों के बीच इस बात को लेकर क्रान्तिकारी प्रचार भी संगठित करना होगा कि इस तरह की सालाना रस्म-अदायगी से सन्तुष्ट होने से काम नहीं चलेगा और ऐसा करना हमारे दूरगामी हितों और लक्ष्य के लिए बेहद हानिकारक है। हमें एकदिवसीय हड़तालों के अनुष्ठानों से आगे जाकर हड़ताल के मज़दूर वर्ग के महत्वपूर्ण हथियार का वास्तविक प्रदर्शन करने की लम्बी तैयारियों में आज से ही जुटना होगा। आज ज़रूरत इस बात की है कि इन हड़तालों में भागीदारी करते हुए भी व्यापक मज़दूर आबादी के बीच इस बात का प्रचार किया जाय कि एकदिवसीय रस्मी हड़तालों के सिलसिले को तोड़कर अनिश्चितकालीन आम हड़ताल को संगठित करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा, क्योंकि तभी पूँजीपति वर्ग और उनकी नुमाइन्दगी करने वाली सरकारों पर कोई असर होगा।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2025