क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 26 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त : खण्ड-2
अध्याय – 1 (जारी)
पूँजी के परिपथ (सर्किट)

अभिनव

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तीसरा चरण (माल’ –मुद्रा’ या C’ – M’)

मुद्रा पूँजी के परिपथ का तीसरा चरण माल-पूँजी के वापस मुद्रा-पूँजी में तब्दील होने का चरण होता है। इसके साथ पूँजीपति की निवेशित पूँजी बेशी मूल्य से लदकर वापस मुद्रा-रूप में पूँजीपति के पास वापस आ जाती है। इस चरण के पूरा हुए बिना पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया जारी नहीं रह सकती है। पूँजी के परिपथ में वह माल-पूँजी, उत्पादक-पूँजी और मुद्रा-पूँजी तीनों ही रूपों से गुज़रती है, लेकिन वास्तविक पूँजीवादी उत्पादन में इसकी शुरुआत हमेशा मुद्रा-पूँजी के साथ ही होती है और ऐसा ही हो भी सकता है क्योंकि पूँजीपति को मुद्रा-पूँजी लगाकर ही बाज़ार में मौजूद उत्पादन के साधनों को अन्य पूँजीपतियों से और श्रम-बाज़ार में मौजूद श्रमशक्ति को मज़दूरों से ख़रीदना होता है। इसके बिना उसके हाथों में उत्पादक-पूँजी के तत्व नहीं आ सकते और न ही पूँजीवादी उत्पादन की शुरुआत होती है।

लेकिन इन उत्पादित मालों को कौन-सी चीज़ माल-पूँजी बनाती है? माल-पूँजी वास्तव में माल के रूप में ही मौजूद होती है। वह कौन-सी चीज़ है जो इस माल को साधारण माल से अलग माल-पूँजी का चरित्र देती है? यानी, एक ही माल का उत्पादन करने वाले साधारण माल-उत्पादक के माल और एक पूँजीवादी उत्पादक के माल में भौतिक गुणों के आधार पर तो कोई अन्तर नहीं होता। दोनों ही एक निश्चित प्रकार के उपयोग-मूल्य की नुमाइन्दगी करते हैं। दोनों को ही अपने मूल्य के वास्तवीकरण के लिए, यानी अपने मूल्य के मुद्रा-रूप ग्रहण करने के लिए बिकवाली की आवश्यकता होती है। ऐसे में, वह कौन-सी चीज़ है जो पूँजीपति के माल को माल-पूँजी का स्वरूप देती है, जबकि एक साधारण माल-उत्पादक का माल एक साधारण माल ही रहता है?

पूँजीपति का माल उसकी पूँजी का एक विशिष्ट रूप यानी माल-पूँजी इसलिए है क्योंकि वह बेशी मूल्य से लैस है। दूसरे शब्दों में, वह पूँजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया से गुज़र चुका है, जिसके दौरान उसमें उत्पादन में ख़र्च हुए उत्पादन के साधनों का मूल्य तो स्थानान्तरित हुआ है, साथ ही मज़दूरों ने अपने जीवित श्रम के ज़रिये उसमें नया मूल्य भी पैदा किया है, जो स्वयं मज़दूरों की श्रमशक्ति के कुल मूल्य से ज़्यादा है। यह माल भौतिक तौर पर किसी भी अन्य साधारण माल के समान होने के बावजूद सारभूत रूप में उनसे अलग है क्योंकि उसके मूल्य में बेशी मूल्य शामिल है और वह बेशी मूल्य के उत्पादन यानी पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़र चुका है। बेशक़ माल के रूप में वह संचरण के क्षेत्र में वही कार्य कर सकता है जो कोई भी माल करता है : यानी, ख़रीद व बिकवाली की प्रक्रिया से गुज़रकर अपने आपको मुद्रा में तब्दील कर लेना। लेकिन इसके बावजूद वह अन्य साधारण मालों से अलग है क्योंकि वह अपने आपको मुद्रा की जिस राशि में तब्दील कर रहा है, उसमें पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया में पैदा बेशी मूल्य भी शामिल है। ऐसा इसलिए है कि माल रूप में वह पहले ही इस बेशी मूल्य से उत्पादन की प्रकिया में लैस हो चुका है। अगर पूँजीवादी समाज में समस्त उत्पादन पूँजीवादी उत्पादन होता और समस्त माल वस्तुत: माल-पूँजी का रूप ग्रहण कर चुके होते तो यह प्रश्न बेहद सरल हो जाता। लेकिन वास्तव में उन्नत से उन्नत पूँजीवादी समाज में भी किसी न किसी रूप और मात्रा में साधारण माल उत्पादन जारी रहता है और मालों की एक अपेक्षाकृत छोटी मात्रा साधारण माल उत्पादकों द्वारा उत्पादित माल के तौर पर भी संचरण के क्षेत्र में प्रवेश करती है। इसलिए यह प्रश्न अहम बन जाता है कि माल-पूँजी की विशिष्टताओं को समझा जा सके। बाद में हम देखेंगे कि मूल्यों के क़ीमतों में रूपान्तरण के लिए भी यह फ़र्क करना अनिवार्य होता है। इसलिए अभी साधारण-सा या कुछ को अनावश्यक दिख रहा यह फ़र्क आगे एक महत्वपूर्ण अन्तर साबित होता है।

तीसरे चरण में पूँजी जिस काम को अंजाम दे रही होती है, या जिस प्रक्रिया से गुज़र रही होती है, उसमें और साधारण माल उत्पादन के पहले चरण में अंजाम दिये जाने वाले काम में कोई अन्तर नहीं होता है। यह काम है : C – M यानी ‘माल – मुद्रा’ रूपान्तरण। लेकिन आम तौर पर माल संचरण में होने वाली यह प्रक्रिया यहाँ वास्तव में माल-पूँजी के माल से मुद्रा-रूप ग्रहण करने की परिचायक है। यानी अपने आप में संचरण की यह प्रक्रिया यानी C – M वह कारक नहीं है जो माल को माल-पूँजी का रूप दे रही है। संचरण की यह कार्रवाई आम तौर पर माल संचरण में होती है और अपने आप में यह नहीं बताती कि माल वास्तव में माल-पूँजी का प्रतिनिधित्व करता है। मार्क्स लिखते हैं:

“वह कौन-सी चीज़ है जो समस्त माल संचरण की इस साधारण कार्रवाई को ठीक उसी समय पूँजी का प्रकार्य बना देती है? यह इस कार्रवाई में हुआ बदलाव नहीं हो सकता, न तो इसके उपयोगी चरित्र के सन्दर्भ में, क्योंकि उपयोग की वस्तु के रूप में ही माल ख़रीदार के पास जाता है, और न ही इसके मूल्य के सन्दर्भ में, क्योंकि इसकी मात्रा में कोई बदलाव नहीं आता है, बस उसके रूप में बदलाव आता है। पहले यह सूत के रूप में मौजूद था, और अब यह मुद्रा के रूप में मौजूद है। इसलिए पहले चरण M – C और अन्तिम चरण यानी C – M में एक मूलभूत अन्तर है। पहले निवेश की गयी मुद्रा मुद्रा पूँजी के रूप में काम कर रही थी क्योंकि संचरण के ही ज़रिये उसे विशिष्ट उपयोग-मूल्य रखने वाले मालों में तब्दील किया गया था। अब माल स्वयं पूँजी के रूप में केवल उसी हद तक काम कर सकता है जिस हद तक वह इस चरित्र को वास्तव में उत्पादन की प्रक्रिया से ही लेकर आता है, यानी संचरण की प्रक्रिया फिर से शुरू होने के भी पहले।” (वही, पृ. 122, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

मार्क्स के उदाहरण में, जिसका हम अब तक इस्तेमाल करते आये हैं, पूँजीपति 372 पाउण्ड पूँजी का इस्तेमाल उत्पादन के साधन ख़रीदने में करता है, 50 पाउण्ड मज़दूरों की श्रमशक्ति को ख़रीदने में लगाता है। यह M – C का चरण था, जिसमें पूँजीपति अपनी मुद्रा-पूँजी M का इस्तेमाल उत्पादन के लिए आवश्यक मालों यानी C को ख़रीदने में करता है, जिसके दो तत्व हैं : श्रमशक्ति (L) और उत्पादन के साधन (mp)। ख़रीदे जाने के बाद ये ही माल उत्पादन की प्रक्रिया में P यानी उत्पादक-पूँजी के तत्व में तब्दील हो जाते हैं। उत्पादन की प्रक्रिया में मज़दूर पहले अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करते हैं और फिर उसके ऊपर बेशी मूल्य पैदा करते हैं। बताने की आवश्यकता नहीं है कि इसी प्रक्रिया में वे उत्पादन के साधनों के मूल्य को ज़्यों का त्यों उत्पादित माल में स्थानान्तरित भी करते हैं। मार्क्स के उदाहरण में मज़दूर 78 पाउण्ड के बराबर बेशी मूल्य का उत्पादन करते हैं। यानी, कुल नया मूल्य जो जोड़ा गया वह है 128 पाउण्ड। नतीजतन, उत्पादित माल, हमारे उदाहरण में 10,000 एल.बी. सूत, का कुल मूल्य हो जाता है 500 पाउण्ड जिसमें से 372 पाउण्ड के बराबर स्थिर पूँजी और 50 पाउण्ड के बराबर परिवर्तनशील पूँजी है और उत्पादित माल में यह कुल निवेशित 8,440 एल.बी. सूत का प्रतिनिधि करती है। जबकि 78 पाउण्ड के बराबर बेशी मूल्य उत्पादित माल में 1,560 एल.बी. सूत का प्रतिनिधित्व करता है। यानी, उत्पादित माल C’ में मूल निवेशित पूँजी 422 पाउण्ड के अलावा, जो M (मुद्रा पूँजी) के और साथ ही P (उत्पादक पूँजी) के बराबर है [M और P का मूल्य बराबर ही होता है], 78 पाउण्ड के बराबर मूल्य का बेशी मूल्य भी माल के रूप में शामिल है। यानी, यह बेशी मूल्य से लदा हुआ माल है, या C’ है, जहाँ,

C’ = C + c

c यहाँ माल के रूप में बेशी मूल्य की नुमाइन्दगी करता है जबकि C माल के रूप में मूल निवेशित पूँजी के बराबर मूल्य की नुमाइन्दगी करता है। यानी, 10,000 एल.बी. सूत का मूल्य C और c के योग के बराबर है। जैसा कि आप देख सकते हैं कि यह उत्पादित माल का निरपेक्ष मूल्य यानी 500 पाउण्ड नहीं है जो C को C’ बना देता है। क्योंकि माल का मूल्य यहाँ भी उसी प्रकार निर्धारित हो रहा है, जैसे किसी भी माल का मूल्य निर्धारित होता है। यानी, उसमें लगे कुल अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष श्रम के योग से। यह इस उत्पादित माल के मूल्य का उत्पादन से पहले ख़रीदे गये और उत्पादन के दौरान ख़र्च हुए उत्पादन के तत्वों के कुल मूल्य से रिश्ता है, जो C को C’ में तब्दील करता है। यह उत्पादित माल के मूल्य का उत्पादक पूँजी के तत्वों के कुल मूल्य की तुलना में सापेक्षिक परिमाण है, जो निर्दोष और निरीह से दिख रहे मालों को माल-पूँजी में तब्दील करता है। मार्क्स लिखते हैं:

“इसमें निहित मूल्य उत्पादक पूँजी द्वारा पैदा बेशी मूल्य और मूल्य का योग है। इसका मूल्य अधिक है, यानी यह पूँजी-मूल्य P से बेशी मूल्य यानी c के अन्तर से ज़्यादा है। 10,000 एल.बी. सूत एक ऐसे पूँजी-मूल्य का वाहक है जिसमें मूल्य-संवर्धन हो चुका है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि यह पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का उत्पाद है। C’ एक मूल्य अनुपात को अभिव्यक्त करता है, यानी माल के रूप में मौजूद उत्पाद के मूल्य और उसके उत्पादन में ख़र्च हुई पूँजी के मूल्य के अनुपात को, यानी यह पूँजी-मूल्य और बेशी मूल्य के अनुपात के रूप में इसके मूल्य के संघटन को अभिव्यक्त करता है। 10,000 एल.बी. सूत केवल उत्पादक पूँजी P के रूपान्तरित रूप के तौर पर ही माल-पूँजी C’ है, और इस प्रकार एक ऐसे सम्बन्ध में अस्तित्वमान है जो पहले इस विशिष्ट पूँजीपति के परिपथ में मौजूद है, या उस पूँजीपति के लिए जिसने अपनी पूँजी से सूत का उत्पादन किया है। यानी यह एक आन्तरिक सम्बन्ध है, न कि कोई बाह्य सम्बन्ध जो 10,000 एल.बी. सूत को मूल्य के वाहक के रूप में माल-पूँजी में तब्दील कर देता है। इस सूत का पूँजीवादी जन्म-चिह्न इसके मूल्य की निरपेक्ष मात्रा में नहीं प्रकट होता है, बल्कि इसकी सापेक्षिक मात्रा में प्रकट होता है, यानी इसके मालों में तब्दील होने से पहले इसमें निहित उत्पादक पूँजी के मूल्य की तुलना में इसके मूल्य की मात्रा में प्रकट होता है।” (वही, पृ. 123, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

यह पहली बात है जिसे मुद्रा पूँजी के परिपथ के इस तीसरे चरण पर विचार करते हुए समझना अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में, यह समझना कि उत्पादित मालों की यह मात्रा किसी भी साधारण माल उत्पादक के मालों से भिन्न माल-पूँजी है क्योंकि यह पूँजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया से गुज़र कर बेशी मूल्य से लैस हो चुकी है। यह माल का निरपेक्ष मूल्य नहीं है जो उसे माल-पूँजी में तब्दील करता है, बल्कि उसका सापेक्षिक मूल्य, यानी मूल निवेशित पूँजी के मूल्य की तुलना में उसमें हुई बेशी मूल्य की बढ़ोत्तरी है जो उसे माल-पूँजी में तब्दील करता है। साथ ही, यह बिकने की प्रक्रिया भी नहीं है जो उसे माल-पूँजी में तब्दील करती है, क्योंकि वह किसी भी साधारण माल के ही समान बिकता है और मुद्रा-रूप ग्रहण करता है। माल को माल-पूँजी में तब्दील उसमें निहित बेशी मूल्य करता है।

इसके बाद हम मुद्रा-पूँजी के सर्किट के तीसरे चरण में प्रस्तुत होने वाले दूसरे प्रश्न पर आते हैं। जैसा कि हम पहले ही ज़िक्र कर चुके हैं, किसी भी माल की तरह माल के रूप में पूँजी भी वही प्रकार्य कर सकती है, जो कि माल पूरे करता है, यानी बिकना या मुद्रा-रूप ग्रहण करना। यानी किसी भी माल की तरह माल-पूँजी को भी माल संचरण के इस चरण, यानी C – M से गुज़रना ही होता है। जिस प्रकार मुद्रा के रूप में पूँजी उन्हीं कार्यों को अंजाम दे सकती है जिन्हें मुद्रा देती है, उसी प्रकार माल के रूप में भी पूँजी उन्हीं कार्यों को पूरा कर सकती है जिन्हें माल पूरा करता है। मुद्रा या माल अपने आप में पूँजी नहीं होते, बल्कि वे बेशी मूल्य के उत्पादन के साथ ही पूँजी बनते हैं। अब यह बिकवाली का प्रश्न एक ऐसा प्रश्न है, जिसका समाधान या जिसके समाधान के तत्व पूँजीपति के नियन्त्रण में नहीं होते हैं। यहाँ एक अनिश्चितता का मामला होता है। चूँकि पूँजीवादी उत्पादन प्रकृति से ही अराजक होता है जिसमें अलग-अलग पूँजीवादी उत्पादक अलग-अलग बिना किसी योजना के मालों का उत्पादन कर रहे होते हैं, इसलिए उसमें पहले ही इस बात का कोई आकलन नहीं किया जाता है कि समाज में किन-किन वस्तुओं और सेवाओं के लिए कितनी प्रभावी माँग मौजूद है। नतीजतन, हर पूँजीपति मुनाफ़े की अपेक्षाओं के आधार पर निवेश करता है और केवल बाद में ही यह जान पाता है कि उसका माल कितनी मात्रा में बिकेगा, क्या उसकी आपूर्ति प्रभावी माँग से ज़्यादा होगी, या फिर उसकी आपूर्ति कम पड़ जायेगी। मुद्रा-पूँजी के परिपथ का तीसरा चरण इसी सवाल को हल करता है।

जबतक पूँजीपति की माल-पूँजी बाज़ार में बिक कर मुद्रा-रूप ग्रहण नहीं करती है, तब तक उसकी पूँजी बाज़ार में फँसी होती है और वह अपने पुनरुत्पादन को सुचारू रूप से जारी नहीं रख सकता है। आज के युग में पुनरुत्पादन के कुछेक चक्रों में यह बात नहीं पता चलती है, क्योंकि ऋण की विकसित व्यवस्था के कारण पूँजीपति अपने मालों के पूरी तरह से बिके बिना भी उधार के बूते अपने पुनरुत्पादन को पुराने या बदले हुए स्तर पर जारी रख सकता है। लेकिन अगर सतत् ऐसा होता है और विशेष तौर पर अगर सामाजिक पैमाने पर ऐसा होता है तो फिर पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रक्रिया गम्भीर रूप से बाधित होती है। बहरहाल, अभी जब कि हम शुद्ध रूप में परिघटना का अध्ययन कर रहे हैं, तो उसे प्रभावित करने वाले बहुत-से कारकों को समीकरण में घुसाने की कोई आवश्यकता नहीं है। इससे न तो हम उन कारकों के ठीक-ठीक प्रभाव को समझ पायेंगे और न ही जिस परिघटना का हम अध्ययन कर रहे हैं, उसे उसकी शुद्धता में समझ पायेंगे। अभी लाभप्रदता की स्थितियों, ऋण व्यवस्था की स्थितियों आदि को हमारे आकलन में चर राशियों के तौर पर प्रविष्ट कराने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए अभी बस यह समझ लेना आवश्यक है कि पूँजीपति के लिए उसके मालों का बिकना यानी बेशी मूल्य से लैस हो चुकी उसकी माल-पूँजी का वापस मुद्रा-रूप ग्रहण करना केन्द्रीय महत्व रखता है और यह मुद्रा-परिपथ के तीसरे चरण का बुनियादी प्रश्न होता है।

संचरण के क्षेत्र की स्थितियाँ पूँजीपति के नियन्त्रण में नहीं होती हैं और वे ही तय करती हैं कि उसकी पूँजी किस हद तक प्रभावी सिद्ध होगी, किस हद तक व फैलेगी या सिकुड़ेगी, पुनरुत्पादन किस स्तर पर जारी होगा। इस पुस्तक के तीसरे खण्ड में हम देखेंगे कि संचरण की ये स्थितियाँ पूँजीपति वर्ग से स्वतन्त्र होती हैं, लेकिन पूँजीवादी उत्पादन से स्वतन्त्र नहीं होती हैं। बाज़ार में आपूर्ति और माँग के समीकरण स्वयं पूँजीवादी उत्पादन में संचय की दर से ही निर्धारित होती है। लेकिन अभी बस यह समझ लेना पर्याप्त है कि माल का विपणन यानी संचरण का क्षेत्र उसके नियन्त्रण में नहीं होता है।

मिसाल के तौर पर, अगर हम अपने पुराने उदाहरण का ही इस्तेमाल करें, तो यदि पूँजीपति अपनी माल-पूँजी 10,000 एल.बी. सूत में से केवल 7,440 एल.बी. ही बेच पाता है, तो उसने केवल 372 पाउण्ड प्राप्त किये, जो कि उत्पादन के साधनों पर उसके द्वारा ख़र्च स्थिर पूँजी के बराबर है। यदि उसने 8,440 एल.बी. सूत बेचने में सफलता प्राप्त की तो उसे 422 पाउण्ड प्राप्त हुए जो कि उसकी स्थिर पूँजी और मज़दूरों की श्रमशक्ति को ख़रीदने के लिए व्यय 50 पाउण्ड परिवर्तनशील पूँजी के योग के बराबर होगा; यानी अपने द्वारा निवेशित पूँजी को वापस पाने के लिए पूँजीपति को कम-से-कम 8,440 एल.बी. सूत बेचना ज़रूरी है। दूसरे शब्दों में, अपने कारख़ाने में मज़दूरों द्वारा उत्पादित बेशी मूल्य को, जो कि उसके मुनाफ़े का आधार है, किसी भी मात्रा में प्राप्त करने के लिए उसे कम-से-कम 8,440 एल.बी. से ज़्यादा माल-पूँजी को बेचना ही होगा। अगर वह समूची माल-पूँजी यानी 10,000 एल.बी. सूत बेचने में कामयाब होता है, तो वह समूचे बेशी मूल्य यानी 78 पाउण्ड को मुद्रा-रूप में प्राप्त करने में सफल होगा। अगर वह 8,400 एल.बी. से ज़्यादा सूत बेच लेता है लेकिन 10,000 एल.बी. से कम सूत बेच पाता है, तो वह बेशी मूल्य के केवल एक हिस्से को ही मुद्रा-रूप में हासिल कर पायेगा। बाकी माल को उसे मूल्य से कम क़ीमत पर बेचना पड़ सकता है और ऐसा भी हो सकता है कि वह माल बिके ही नहीं। ऐसी सूरत में वह समूचे बेशी मूल्य को मुद्रा-रूप में हासिल नहीं कर पायेगा।

ध्यान रखें कि इस स्थिति पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि पूँजीपति को मज़दूरों को 50 पाउण्ड के बजाय 64 पाउण्ड देने पर मजबूर होना पड़ता है, क्योंकि मज़दूरों ने मज़दूरी को बढ़ाने के लिए संघर्ष किया। उस सूरत में कुल नये उत्पादित मूल्य यानी 128 पाउण्ड का बँटवारा 50 पाउण्ड मज़दूरी और 78 पाउण्ड बेशी मूल्य के रूप में होने के बजाय 64 पाउण्ड मज़दूरी और 64 पाउण्ड बेशी मूल्य के रूप में होगा और बेशी मूल्य की दर 156 प्रतिशत से घटकर 100 प्रतिशत पर आ जायेगी। लेकिन माल-पूँजी का कुल मूल्य उतना ही होगा। कुल नया मूल्य भी उतना ही होगा, बस मज़दूरी और मुनाफ़े के रूप में उसका बँटवारा बदल जायेगा। मालों के कुल मूल्य में परिवर्तन तभी हो सकता है जबकि कुल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रम की मात्रा में बदलाव आये। यानी, या तो उत्पादन के साधनों पर लगने वाली पूँजी मशीनों और कच्चे माल की क़ीमतों के बढ़ने या घटने के कारण बदल जाये, या फिर कुल नया मूल्य जो मज़दूरों के जीवित श्रम द्वारा पैदा हो रहा है, वही काम के घण्टों में घटती या बढ़ती के कारण या फिर श्रम की सघनता के बढ़ने या घटने के कारण घट या बढ़ जाये। यानी, कुल मृत श्रम और कुल जीवित श्रम की मात्रा में परिवर्तन के बिना मालों के कुल मूल्य में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता है। अगर यह समान रहता है तो माल-पूँजी का कुल मूल्य उतना ही रहेगा और संचरण के क्षेत्र में इसमें कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है, चाहे नये उत्पादित मूल्य का मज़दूरों और पूँजीपतियों में विभाजन बदल ही क्यों न जाये।

अब अगर अब तक के विश्लेषण के आधार पर हम मुद्रा-पूँजी के परिपथ को विस्तारित करें तो वह इस प्रकार प्रकट होता है:

यानी, उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़रने और बेशी मूल्य से लैस होने के बाद हम माल-पूँजी को अवधारणात्मक तौर पर दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। पहला, माल-पूँजी का वह हिस्सा जो मूलत: निवेशित मुद्रा-पूँजी यानी M और साथ ही उत्पादक-पूँजी P के मूल्य के बराबर है, और मूल्य के रूप में माल-पूँजी का वह हिस्सा जो पहली बार उत्पादन की प्रक्रिया में ही अस्तित्व में आया है, यानी c, जिसका कोई समतुल्य उत्पादन की प्रक्रिया सम्पन्न होने के पहले पूँजी के मूल्य में शामिल नहीं था। नतीजतन, हमारे सामने मौजूद उत्पादित माल-पूँजी भौतिक तौर पर तो एक ही समान मालों का एक समुच्चय है और उसके किसी भी एक हिस्से को दूसरे हिस्से से भौतिक गुण या उपयोगिता की एक वस्तु के तौर पर अलग नहीं किया जा सकता है, लेकिन जब हम पूँजी-मूल्य के संचरित होने और मूल्य-संवर्धित होने के अलग-अलग चरणों का अध्ययन करते हैं, तो हम पाते हैं कि माल-पूँजी का एक हिस्सा मूल्य के तौर पर मूल निवेशित मुद्रा-पूँजी व उत्पादन में जाने वाली उत्पादक-पूँजी के मूल्य का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि दूसरा हिस्सा उत्पादन की प्रक्रिया में पैदा हुए बेशी मूल्य का प्रतिनिधित्व कर रहा है। जैसा कि ऊपर के समीकरण में हम देख सकते हैं, तीसरे चरण में एक ही प्रक्रिया के घटित होने के अन्तर्गत वास्तव में अवधारणात्मक तौर पर दो प्रक्रियाएँ घटित हो रही हैं : पहली, C – M, यानी मूल निवेशित पूँजी का वापस मुद्रा-रूप ग्रहण करना और पूँजीपति के पास वापस आना; और दूसरी, c – m, यानी बेशी मूल्य के रूप में पहली बार अस्तित्व में आये c का मुद्रा-रूप ग्रहण कर पूँजीपति के पास वापस जाना। पहली प्रक्रिया में जो C – M घटित होता हम देख रहे हैं, वह वास्तव में संचरण का दूसरा क़दम है। पहले लगायी गयी मुद्रा-पूँजी M का पहले उत्पादन के साधनों व श्रमशक्ति नामक विशिष्ट उत्पादक मालों का रूप ग्रहण करना और इस प्रकार उत्पादक-पूँजी P का स्वरूप ग्रहण करना, उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़रकर उत्पादित माल C का रूप ग्रहण करना और फिर वापस मुद्रा-रूप ग्रहण कर M के रूप में पूँजीपति के पास वापस जाना, यानी कुल मिलाकर M – C – M। लेकिन माल-रूप में बेशी मूल्य का प्रतिनिधित्व कर रहे c के लिए मुद्रा-रूप में यानी m में तब्दील होना एक पहली बार घटित हो रही प्रक्रिया है, क्योंकि माल-रूप में यह बेशी मूल्य उत्पादन के पहले से मौजूद नहीं था, बल्कि उत्पादन की प्रक्रिया में ही अस्तित्व में आया है। यह मूलत: निवेशित मुद्रा-पूँजी के मूल्य में शामिल नहीं था। इसके लिए अभी दूसरा चरण यानी m – c का घटित होना बाक़ी है, जो तभी होगा जब माल-पूँजी मुद्रा के रूप में वास्तवीकृत होने के बाद पूँजीपति की आय और संचित पूँजी में बँटेगी और संचित पूँजी वापस पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में निवेशित होगी। मार्क्स बताते हैं:

“यहाँ दो बातों पर ग़ौर किये जाने की आवश्यकता है। पहली बात, पूँजी-मूल्य का अपने मूल रूप में अन्तत: रूपान्तरित होना माल-पूँजी का एक प्रकार्य है। दूसरा, इस प्रकार्य में बेशी मूल्य के अपने मूल माल-रूप से मुद्रा-रूप में पहला औपचारिक रूपान्तरण शामिल है। मुद्रा-रूप यहाँ एक दोहरी भूमिका निभाता है; एक ओर यह मुद्रा-रूप में मूलत: निवेशित किये गये एक मूल्य का वापस लौटने वाला रूप है, यानी, मुद्रा मूल्य के उसी रूप में वापस लौटती है जिस रूप में मूल्य की उस मात्रा ने प्रक्रिया की शुरुआत की थी; दूसरी ओर, यह मूल्य की एक मात्रा के रूपान्तरित रूप की भी नुमाइन्दगी करती है जो संचरण में प्रवेश ही मूलत: माल-रूप में करता है। अगर वे माल जिनसे माल-पूँजी निर्मित हुई है अपने मूल्य पर ही बिकते हैं, जैसा कि हमने यहाँ माना है, तो C + c उतने ही मूल्य वाले M + m में रूपान्तरित हो जाती है; इसी आख़िरी रूप में, M + m (422 पाउण्ड + 78 पाउण्ड = 500 पाउण्ड) के रूप में, वास्तवीकृत माल-पूँजी अब पूँजीपति के हाथों में मौजूद होती है। पूँजी-मूल्य और बेशी मूल्य अब मुद्रा के रूप में मौजूद हैं, यानी, सार्वभौमिक समतुल्य के रूप में।” (वही, पृ. 126-27, अनुवाद हमारा)

पूँजी का परिपथ यहाँ मुद्रा-पूँजी के रूप में ही शुरू होता है और मुद्रा-पूँजी के रूप में ही एक चक्र पूरा करता है। ठीक इसीलिए इसे मुद्रा-पूँजी का परिपथ कहते हैं। इसके पूरा होने के साथ पूँजीपति के हाथ में बेशी मूल्य से संवर्धित हो चुकी पूँजी मुद्रा-रूप में मौजूद होती है और वह अपने पुनरुत्पादन की साधारण या विस्तारित पैमाने पर फिर से शुरुआत कर सकता है। उत्पादित सूत के भौतिक रूप में आप M और m का प्रतिनिधित्व करने वाले हिस्से को अलग नहीं कर सकते। सूत का एक धागा हूबहू सूत के दूसरे धागे के ही समान है। लेकिन माल-पूँजी के बिकने के साथ प्राप्त मुद्रा-पूँजी मुद्रा की कोई भी साधारण मात्रा होने के बावजूद एक मायने में अलग होती है। यहाँ पूँजीपति के लिए M और m मुद्रा की एक ही राशि में निहित होने के बावजूद एक-दूसरे के बरक्स खड़े होते हैं और पूँजीपति को साफ़ नज़र आते हैं। संचरण के फलस्वरूप M और m यानी मूल निवेशित पूँजी-मूल्य और उत्पादन में पैदा बेशी मूल्य मुद्रा-रूप में पूँजीपति के पास आते हैं या नहीं, इससे पूँजीपति के उत्पादन का पूरा भविष्य निर्धारित होता है। M के साथ m पूरी तरह से उसके हाथ में आता है या नहीं, कम-से-कम M पूरी तरह से पुन:प्राप्त होता है या नहीं, यह सब तय करता है कि पूँजीवादी पुनरुत्पादन सुगम व सुचारू रूप से जारी रहेगा या नहीं, वह साधारण या सिकुड़े हुए पैमाने पर जारी रह पायेगा या फिर विस्तारित पैमाने पर जारी हो पायेगा। अक्सर, M और m एक ही गति के साथ और एक ही समय में साथ संचरित नहीं होते। इसलिए उपरोक्त बिन्दु को समझना पूँजीवादी पुनरुत्पादन की प्रकिया को सम्पूर्णता में समझने के लिए आवश्यक है।

बिकवाली के बाद प्राप्त मुद्रा-पूँजी यानी M’ में M और m पूँजीपति की गणना में एक-दूसरे के बरक्स खड़े होते हैं। ठीक इसी रूप में M पूँजी के रूप में अपने दावे को सिद्ध करता है। पूँजी, यानी मूल्य की एक ऐसी मात्रा जो अपने आपको संवर्धित कर सकती है। यहाँ M’ में एक-दूसरे के बरक्स खड़े M और m पूँजी-सम्बन्ध को अभिव्यक्त करते हैं। M मुद्रा-रूप में मूल्य की एक ऐसी मात्रा के रूप में प्रकट होता है, जो m को जन्म देता है, या उसे पैदा करता है और इस रूप में वह पूँजी के रूप में अपने अस्तित्व को सिद्ध करता है। मार्क्स इस बात को ख़ूबसूरत शब्दों में समझाते हैं:

“इसने (यानी 422 पाउण्ड M ने) न सिर्फ़ अपने आपको क़ायम रखा है, बल्कि उस हद तक इसने अपने आपको पूँजी के रूप में वास्तवीकृत किया है, जिस हद तक इसने अपने आपको m (78 पाउण्ड) से विभेदीकृत किया है, जो कि M से M की ही बढ़ोत्तरी, उसी के फल के रूप में सम्बन्धित है, एक ऐसा इज़ाफ़ा जो स्वयं M ने ही पैदा किया है। इसने अपने आपको पूँजी के रूप में साबित कर दिया है, क्योंकि यह ऐसा मूल्य है जिसने स्वयं मूल्य पैदा किया है। M’ एक पूँजी-सम्बन्ध के रूप में मौजूद है; M अब महज़ मुद्रा के रूप में प्रकट नहीं होता, बल्कि अभिव्यक्त रूप में मुद्रा-पूँजी के रूप में अवस्थित होता है, ऐसे मूल्य के रूप में जिसने अपना मूल्य-संवर्धन कर लिया है; यानी, इस प्रकार इसमें अपने मूल्य को बढ़ाने की और अपने मूल्य से भी ज़्यादा मूल्य पैदा करने का गुण है। M पूँजी के रूप में M’ के ही एक दूसरे हिस्से से अपने सम्बन्ध के ज़रिये अवस्थित है, एक ऐसा हिस्सा जिसे स्वयं इसने ही अवस्थित किया है, जैसे कि कारण अपने प्रभाव से जुड़ा होता है, जैसे आधार से परिणाम जुड़ा होता है। इस प्रकार M’ मूल्यों के एक ऐसे योग के रूप में प्रकट होता है जो आन्तरिक तौर पर विभेदीकृत है, एक प्रकार्यात्मक (अवधारणात्मक) आत्म-विभेदीकरण से गुज़रता है, और पूँजी-सम्बन्ध को प्रकट करता है।” (वही, पृ. 128, अनुवाद और ज़ोर हमारा)

मार्क्स आगे बताते हैं कि मूल पूँजी-मूल्य और बेशी मूल्य के बीच का यह अन्तर यहाँ दो मात्राओं के पूर्णत: परिमाणात्मक अन्तर के रूप में अपने आपको पेश करता है। मूल्य के अलग-अलग हिस्सों के बीच कोई गुणात्मक अन्तर नहीं होता है। 422 पाउण्ड और 78 पाउण्ड के बीच का अन्तर महज़ दो राशियों का अन्तर ही है। जब तक मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया के गुणात्मक और सारभूत चरित्र को न समझा जाय, यह अन्तर हमारे लिये मात्र एक औपचारिक अन्तर रहता है। मुद्रा-पूँजी के परिपथ के तीसरे चरण में उत्पादन की प्रक्रिया के प्रभाव ओझल हो चुके होते हैं और हमारे सामने पहले विपणित होने को तैयार माल-पूँजी मौजूद होती है। तीसरे चरण में हम महज़ माल-पूँजी के, जो कि पहले ही उत्पादन के फलस्वरूप बेशी मूल्य से लैस हो चुकी है, मुद्रा-पूँजी में औपचारिक रूपान्तरण को ही देखते हैं। माल-पूँजी में भी C और c, यानी माल-रूप में मूल पूँजी-मूल्य और माल-रूप में बेशी मूल्य के अन्तर को महज़ एक परिमाणात्मक अन्तर के रूप में ही देखते हैं। लेकिन C + c यानी बेशी मूल्य से लैस माल-पूँजी सीधे उत्पादन की प्रक्रिया का परिणाम होती है और अभी मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया के निशानात का सुराग़ लगाया जा सकता है।

लेकिन इसके विपरीत जब M’ के रूप में मुद्रा की एक राशि पूँजीपति में फिर से पूँजी की भूमिका का निर्वाह करने के लिए मौजूद होती है, तो मूल्य-संवर्धित पूँजी के रूप में उसका अस्तित्व छिप चुका होता है। बेशी मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया में पैदा होने के सुराग़ अब ओझल होने लगते हैं। नये सिरे से मुद्रा-पूँजी का परिपथ M’ से नहीं शुरू होता, बल्कि M से ही शुरू होता है। यह बात कि परिपथ के नये चक्र में यह M पहले ही मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया से गुज़र चुकी पूँजी है, कोई मायने नहीं रखती है। जब परिपथ का नया चक्र शुरू होता है, तो 500 पाउण्ड निवेशित की जाने वाली मुद्रा-पूँजी की बस किसी भी साधारण मात्रा के ही समान होते हैं। परिपथ M’ से नहीं बल्कि M से ही शुरू होता है। केवल विश्लेषण के आधार पर ही हम M’ को M और m के योग के तौर पर देख पाते हैं, क्योंकि जब हम माल-पूँजी के विपणन की प्रक्रिया को देखते हैं तो हम पाते हैं कि मूल्य-संवर्धित पूँजी के इन दो हिस्सों के संचरण की प्रक्रिया एक साथ चलते हुए भी विभेदीकृत होती है। अगर c पूर्णत: नहीं बिक पाता तो पूँजीपति बेशी मूल्य को पूर्ण रूप से वास्तवीकृत नहीं कर पाता और इसी के आधार पर पुनरुत्पादन-सम्बन्धी उसके फ़ैसले लिये जाते हैं। अभी हम बेशी मूल्य में से पूँजीपति द्वारा अपने उपभोग के लिए आमदनी के तौर पर निकाले जाने वाले हिस्से पर विचार नहीं कर रहे हैं और आम तौर पर आमदनी के तौर पर बेशी मूल्य से पूँजीपति द्वारा निकाले जाने वाले हिस्से के आकार का निर्धारण इस बात पर निर्भर करता है कि पूँजीपति बेशी मूल्य के कितने बड़े हिस्से को पूँजी में तब्दील करने का निर्णय लेता है, यानी किस दर से पूँजी संचय करने का निर्णय करता है।

बहरहाल, इतना स्पष्ट है कि M’ का यह अतार्किक रूप जिसमें M और m के अन्तर कमोबेश ओझल से हो जाते हैं, C’ के मामले में कम प्रकट होता है क्योंकि C’ एक पूँजी-मूल्य में उत्पादन की प्रक्रिया द्वारा एक सारभूत रूपान्तरण का परिणाम होता है, यानी बेशी मूल्य के पैदा होने का परिणाम होता है और सीधे उत्पादन की प्रक्रिया से निकलता है। जबकि M’ बस C’ का एक रूप से दूसरे रूप में औपचारिक रूपान्तरण है। दोनों ही पूँजी के दो रूप हैं : एक मुद्रा के रूप में और दूसरा माल के रूप में। इन दोनों का फ़र्क केवल रूप का है, अन्तर्वस्तु का नहीं। माल-पूँजी माल होने के कारण पूँजी नहीं होती और न ही मुद्रा-पूँजी मुद्रा होने के कारण पूँजी होती है। माल या मुद्रा बेशी मूल्य के उत्पादन यानी एक सारभूत रूपान्तरण के कारण ही पूँजी बनते हैं। इस प्रकार, माल-पूँजी और मुद्रा-पूँजी, दोनों ही मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया से गुज़र चुके पूँजी-मूल्य की नुमाइन्दगी करते हैं, बस अलग-अलग रूपों में। लेकिन जब हम मुद्रा-माल (commodity-money), यानी उस माल के उत्पादन की बात करते हैं, जो स्वयं मुद्रा की भूमिका निभाता है, यानी सोना या चाँदी, तो मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया से गुज़र चुकी मुद्रा-पूँजी यानी M’ का विचारधारात्मक रूप ओझल होने लगता है क्योंकि यहाँ उत्पादित माल को मुद्रा में रूपान्तरण की कोई आवश्यकता नहीं है। उत्पादित माल स्वयं मुद्रा है। इसका सूत्र इस रूप में प्रकट होता है :

यहाँ स्वयं उत्पादित माल है एक ऐसी मात्रा में सोना जिसका मूल्य शुरू में निवेशित मुद्रा-पूँजी यानी M और उसके उत्पादक पूँजी के रूप P के मूल्य से ज़्यादा है और यह उत्पादित सोना ही स्वयं मुद्रा-माल है, यानी वह माल है जो मुद्रा की भूमिका अदा करता है।

(नोट: एल.बी. वज़न की एक इकाई है, जिसे पाउण्ड कहा जाता है, लेकिन चूँकि ब्रिटिश मुद्रा का नाम भी पाउण्ड है, इसलिए हम इसके संक्षिप्त रूप एल.बी. का ही इस्तेमाल किया है। 1 एल.बी. वज़न 0.45 किलोग्राम के बराबर होता है।)

(अगले अंक में : सम्पूर्णता में मुद्रा-पूँजी का परिपथ)

 

 

मज़दूर बिगुल, मई 2025

 

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