हैदराबाद की एक मज़दूर बस्ती नन्दा नगर में मज़दूरों की ज़िन्दगी की जद्दोजहद की एक तस्वीर

मज़दूर बिगुल संवाददाता

किसी भी देश में पूँजीवादी विकास अपनी प्रकृति से ही क्षेत्रीय असमानता को बढ़ाता है। भारत के औपनिवेशिक अतीत और आज़ादी के बाद हुए पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप यहाँ भी क्षेत्रीय असमानता की खाई बेहद स्पष्ट नज़र आती है। यहाँ तमाम बड़े व मझौले उद्योग-धन्धे चन्द महानगरों की परिधि पर स्थित औद्योगिक क्षेत्रों में सिमटे हुए हैं। हैदराबाद ऐसा ही एक महानगर है जहाँ नये-पुराने मिलाकर दर्जनों औद्योगिक क्षेत्र हैं। इन औद्योगिक क्षेत्रों में स्थित कल-कारख़ानों में देश के विभिन्न हिस्सों से आए मज़दूर अपना जाँगर खटाते हैं जिसकी बदौलत यहाँ छोटे नट-बोल्ट से लेकर हवाई जहाज तक के कल पुर्जे बनाये जाते हैं। गाँवों और सापेक्षत: पिछड़े इलाक़ों में काम न होने की वजह से मज़दूर बेहतर जीवन के तलाश में हैदराबाद जैसे महानगरों की तरफ़ रुख़ करने को मजबूर होते हैं। इस प्रकार हैदराबाद के औद्योगिक क्षेत्रों में भारत के विभिन्न हिस्सों से आये मज़दूर एक छत के नीचे काम करते हैं। भाषा और संस्कृति में तमाम भिन्नताएँ होने के बावजूद इन मज़दूरों के काम व जीवन की परिस्थितियाँ उनके बीच एकजुटता का आधार पैदा करती है।

हैदराबाद के उत्तर-पश्चिम में स्थित गाजुलारामारम-जीडीमेटला–गाँधी नगर इस शहर की एक विशाल औद्योगिक पट्टी है। यहाँ की फ़ैक्ट्रियों में मशीन पार्ट्स, जूस निकालने की मशीन, जनरेटर, मशीन पम्प, चूल्हे, कृषि सम्बन्धी उपकरण, फ़ार्मा और केमिकल प्रोडक्ट, एलपीजी गैस से सम्बन्धित उपकरण, फ़र्नीचर, प्लास्टिक प्रोडक्ट जैसे इलेक्ट्रिकल बॉक्स, पंखों, प्लास्टिक की बोतलों, सैनिटाइज़र, पैकिंग प्रोडक्ट आदि की मैन्युफ़ैक्चरिंग होती है। तेलंगाना के अन्य हिस्सों व अन्य राज्यों के मज़दूर पलायन करके काम की तलाश में इन इलाकों में आते हैं। इन औद्योगिक इलाक़ों में कई मज़दूर बस्तियाँ है। नन्दा नगर, गाँधी नगर औद्योगिक क्षेत्र से सटी ऐसी ही एक मज़दूर बस्ती है। यहाँ बसे मज़दूर आस-पास के औद्योगिक इलाक़ों जैसे गाजुलारामारम–जीडीमेटला–गाँधी नगर की फ़ैक्ट्रियों में काम करते हैं। कई स्थानीय मज़दूर जी.एच.एम.सी (ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम) में सफ़ाई कर्मचारी का काम करते हैं। कुछ लोग ठेले पर फल–सब्ज़ी आदि बेचने व ऑटो चलाने का काम करते हैं। पढ़े-लिखे नौजवानों की बड़ी सख्या बेरोज़गार है और काम की तलाश में दर-दर की ठोकरें खाती है। कुछ नौजवान सेल्समैन, जी.एच.एम.सी. में क्लर्क, आस-पास के संस्थानो में हाउस-कीपिंग, चपरासी आदि के काम में लगे हैं।  

नन्दा नगर बस्ती 1967 में पब्लिक सेक्टर कम्पनी हिन्दुस्तान मशीन टूल्स (एच.एम.टी.) की हैदराबाद यूनिट की स्थापना के साथ अस्तित्व में आयी। भारत सरकार ने एच.एम.टी कम्पनी की हैदराबाद शाखा को स्थापित करने के लिए कुतुबुल्लापुर नामक इलाक़े में बसे लोगों को वहाँ से उजाड़कर बालानगर में गाँधी नगर औद्योगिक क्षेत्र के निकट नन्दा नगर जैसे इलाक़ों में ज़मीन दी। साथ ही कम्पनी ने कुछ स्थानीय लोगों को अपने यहाँ काम भी दिया। लेकिन कुतुबुल्लापुर से उजाड़े गये जिन लोगों को नन्दा नगर में ज़मीन मिली वह उनके नाम से पंजीकृत नहीं है। यानी सरकार नन्दा नगर की बसावट को अवैध घोषित करके लोगों को यहाँ से कभी भी उजाड़ सकती है। इस प्रकार यहाँ स्थानीय लोग हमेशा इस तनाव में जीते हैं कि उनकी रिहाइश पर कभी भी बुलडोज़र चल सकता है। रही बात एच.एम.टी. कम्पनी में मिले काम की तो 2016 में कम्पनी के दीवालिया घोषित होने के बाद बन्द होने पर मज़दूरों के हाथ से वह नौकरी भी चली गयी। इसलिए तमाम स्थानीय लोगों के लिए नियमित रूप से काम मिलना एक बहुत बड़ी समस्या है।

इस बस्ती में स्थानीय तेलुगूभाषी मज़दूरों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से आने वाले प्रवासी मज़दूर भी बड़ी संख्या में रहते हैं। यहाँ रहने वाले पुरुष कुशल मज़दूरों को 8 से 10 घण्टे काम के लिए औसतन 30 दिन के काम के बदले 12 से 15 हज़ार का वेतन मिलता है। जबकि स्त्री मज़दूरों को महज़ 8 से 12 हज़ार वेतन मिलता है। अकुशल मज़दूरों को इससे भी कम तनख़्वाह मिलती है। आसमान छूती महँगाई के दौर में गैस सिलिण्डर, राशन–सब्ज़ी, बच्चों की शिक्षा, दवा -इलाज का ख़र्च पूरा करना मज़दूर परिवारों के लिए बेहद मुश्किल होता है। मज़दूरों को एक छोटे से कमरे के लिए 5 से 6 हज़ार रुपये किराये के देने पड़ते हैं। इस प्रकार मज़दूरों का आधा वेतन तो किराया देने में ही निकल जाता है और बाक़ी सभी ख़र्चों के लिए शेष आधा वेतन ही बचता है। इस वजह से मज़दूरों को हर महीने आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है।

इस बस्ती में पीने का पानी तीन दिन में एक बार शाम को डेढ़ घण्टे के लिए आता है। इस वजह से यहाँ हर घर में पानी जमा करने के लिए घर के बाहर और भीतर कई बड़े-बड़े ड्रम जगह छेके रहते हैं। इस प्रकार जमा पानी मच्छरों का स्रोत बन जाता है। बरसात के मौसम में पीने का पानी बहुत गन्दा होता है और यही टाइफ़ायड, मलेरिया व डेंगू जैसी बीमारियों का सबब बन जाता है। यहाँ सरकारी चिकित्सा के नाम पर नन्दा नगर में एक सरकारी डिस्पेन्सरी चलती है । यह सुबह 9:00 बजे से दोपहार 3:30 बजे तक चलती है। यह मज़दूरों के ड्यूटी का समय होता है। यानी इस डिस्पेन्सरी से मज़दूरों को कोई ख़ास लाभ नहीं होता है। इस बस्ती के आस-पास वेंकट रामी रेड्डी नगर, भगत सिंह नगर जैसी और भी कई बस्तियाँ हैं। इतनी बड़ी आबादी के लिए पास में कोई सरकारी अस्पताल नहीं है। अगर कोई आपातकालीन स्थिति हो तो लोगों को नन्दा नगर से क़रीब 15 किलोमीटर दूर गाँधी अस्पताल नामक एक सरकारी अस्पताल जाना पड़ता है। जो छोटे-मोटे प्राइवेट अस्पताल हैं वो इतने महँगे हैं कि मज़दूर वहाँ जाने के बारे में सोच भी नहीं सकते। सरकारी चिकित्सा के अभाव के चलते नन्दा नगर व आस पास के बस्तियों में झोला छाप डॉक्टरों के कई क्लीनिक मौजूद हैं। पिछली बरसात के समय संजय नाम के मज़दूर कोअपने बेटी के टाइफ़ायड के इलाज में 17 हज़ार रुपये इन्हीं  झोला छाप डॉक्टरों के यहाँ ख़र्च करना पड़ा। ऐसे अनगिनत मामले होते हैं जहाँ मज़दूर अपने परिवार के इलाज में अपनी मेहनत की लगभग पूरी जमा पूँजी ख़र्च कर देते हैं। 

इस इलाक़े में रहने वाली मेहनतकश आबादी के बच्चों के लिए शिक्षा का बुनियादी अधिकार बेमानी है। नन्दा नगर व आस-पास के मज़दूर रिहाइश के इलाक़ों के लिए यहाँ छठी से दसवीं के छात्रों के लिए सिर्फ़ दो सरकारी स्कूल हैं। एक गाँधी नगर में और दूसरा भगतसिंह नगर में। एक प्राथमिक स्कूल नन्दा नगर में चलता है। यह सरकारी शिक्षा व्यवस्था निहायत ही नाकाफ़ी है क्योंकि यहाँ हजारों की संख्या में मज़दूर परिवार रहते हैं। इन सरकारी स्कूलों में प्रवासी मज़दूरों के बच्चों को दाख़िला मिलना मुश्किल होता है। कई प्रवासी मज़दूरों के बच्चों के पास आधार कार्ड नहीं होने के चलते सरकारी स्कूल उन्हें दाखिला देने से मना कर देते हैं। हालाँकि तेलंगाना शिक्षा आयोग के अनुसार सरकारी स्कूल किसी भी बच्चे को आधार कार्ड नहीं होने के चलते दाख़िला देने से मना नहीं कर सकते हैं। फिर भी सरकारी स्कूल नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए प्रवासी मज़दूरों के बच्चें को दाख़िला देने से मना कर देते हैं। जो प्राइवेट स्कूल चलते हैं वे मोटी फीस लेते हैं, जो प्रवासी मज़दूर नहीं दे पाते हैं। ऐसे में प्रवासी मज़दूरों के बच्चे अपना बचपन बिना स्कूली शिक्षा के दिन भर गली-मोहल्ले में घूमते हुए बिता देते हैं। इन बच्चों के लिए शिक्षा व्यवस्था के दरवाज़े बन्द है।

ऐसे माहौल में जहाँ मेहनतकश आबादी अपने बुनियादी अधिकारों के अभाव के चलते नारकीय स्थिति में रहती है, वहीं इस बस्ती में मौजूद पूँजीवादी पार्टियाँ लोगों को धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रीय व भाषायी आधार पर बाँटने का काम करती हैं। नन्दा नगर बस्ती में यहाँ की जनता द्वारा चुना गया एक बस्ती लीडर है जो कहने को तो किसी भी चुनावी पार्टी से नहीं जुड़ा है। लेकिन इस बस्ती लीडर का झुकाव पहले बी.आर.एस पार्टी की ओर था और अब भाजपा की तरफ़। 2023 में नन्दा नगर के प्राथमिक विद्यालय की ज़मीन के एक बड़े हिस्से पर अवैध रूप से क़ब्ज़ा करके एक मन्दिर बनाया गया। इस बस्ती के मज़दूरों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से भटकाने के लिए सरकारी ज़मीन पर कब्जा कर व मन्दिर निर्माण का काम इसी बस्ती लीडर के नेतृत्व में हुआ।

नन्दा नगर में हिन्दू, मुसलमान और ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों की मिश्रित आबादी रहती है। परन्तु पिछले कुछ वर्षों से साम्प्रदायिक फ़ासीवादी पार्टी भाजपा इलाक़े में अपना आधार फैलाने के लिए क़िस्म-क़िस्म की साज़िशों के ज़रिये लोगों को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाने का काम करती है। रामनवमी, हनुमान जयन्ती और गणेश चतुर्थी जैसे मौक़ों पर इलाक़े में विशालकाय मूर्तियाँ स्थापित करके कोने-कोने में बड़े-बड़े स्पीकर लगाकर लोगों में साम्प्रदायिक उन्माद की लहर पैदा की जाती है। हाल ही में, मार्च के महीने में इस इलाक़े में स्थित शिव मन्दिर में दो नशेड़ियों ने चोरी की। इस घटना के अगले दिन संघियों ने मन्दिर के बाहर न्याय के नाम पर नारेबाज़ी कर इस घटना को हिन्दू–मुस्लिम तनाव में बदल दिया। इसके बाद नन्दा नगर दो दिन के लिए पुलिस छावनी में तब्दील हो गया। हिन्दू–मुस्लिम ध्रुवीकरण को बढ़ाने के लिए मन्दिर के सीसीटीवी फुटेज से वीडियोज़ बनाकर नन्दा नगर के व्हाट्सेएप ग्रुप में शेयर किये गये। इसके साथ ही यह अफ़वाह फैलायी गयी कि मन्दिर में चप्पल पहन कर चोरी मुस्लिम ही कर सकता है। इस तरह से इस फ़ासीवादी दौर में बस्ती लीडर और यहाँ मौजूद फ़ासिस्ट ताक़तें यहाँ की जनता को बाँटने का काम कर रही है।

मेहनतकशों के जीवन की इस परेशान करने वाली तस्वीर में तभी बदलाव आ सकता है जब यहाँ के लोग एक क्रान्तिकारी पार्टी के बैनर तले एकजुट और लामबन्द हों। लेकिन फ़िलहाल ऐसी कोई पार्टी इस इलाक़े में नहीं मौजूद है। इस औद्योगिक इलाक़े में एक संशोधनवादी ट्रेड यूनियन एटक कई सालों से सक्रिय है। इस यूनियन के अधिकांश सदस्य स्थायी मज़दूर हैं। यह यूनियन गाँधी नगर औद्यगिक क्षेत्र के मज़दूरों को सिर्फ़ वेतन, बोनस-भत्ते जैसे आर्थिक माँगों की लड़ाई तक सीमित करके उनकी राजनीतिक चेतना को कुन्द करने का काम करती है। इसके अतिरिक्त यहाँ के प्रवासी मज़दूरों के बीच कोई भी यूनियन सक्रिय नहीं है। 

नन्दा नगर में पिछले साल 28 सितम्बर को शहीदेआज़म भगतसिंह के जन्मदिवस के मौक़े पर कुछ युवाओं ने लोगों की मदद से शहीद भगतसिंह पुस्तकालय व सांस्कृतिक केन्द्र की शुरुआत की। इस पुस्तकालय में छोटे से लेकर बड़े बच्चों के लिए इतिहास, भूगोल, विज्ञान, गणित और साहित्य-कला और देश-दुनिया के क्रान्तिकारियों की किताबें जुटायी गयी हैं। इसके अलावा बच्चों के खेलने के लिए खिलौने और खेलखूद के साजोसमान भी जुटाये जा रहे हैं। यहाँ नियमित रूप से बच्चों को शिक्षा में मदद की जाती है। प्रवासी मज़दूरों के जो बच्चे स्कूल जाने से वंचित रह जाते हैं वे भी इस पुस्तकालय में नियमित रूप से आते हैं। पुस्तकालय में पढ़ाई-लिखाई के अलावा बच्चों के बीच पेंटिंग, कविता-कहानी पाठ, नाटक, गीत-संगीत, फ़िल्म-शो जैसी गतिविधियाँ भी नियमित रूप से आयोजित की जाती हैं जिनमें बच्चे बढ़चढ़कर भागीदारी करते हैं। यह इस मज़दूर बस्ती में एक वैकल्पिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने का एक अनूठा प्रयास है। मज़दूरों के जो बच्चे दिनभर गली में घूमने-फिरने और मटरगश्ती करने में अपना समय बिताते थे वे अब बेसब्री से पुस्तकालय खुलने का इन्तज़ार करते हैं और अगर किसी वजह से पुस्तकालय नहीं खुलता है तो शिकायत करते हैं। इन बच्चों के माता-पिता भी पुस्तकालय खुलने के बाद से अपने बच्चों के व्यक्तित्व में आये बदलाव को देखकर ताज्जुब करते हैं। इस इलाक़े में किये गये इस छोटे-से प्रयोग से इतना स्पष्ट है कि यदि मज़दूर बस्तियों में व्यवस्थित तरीक़े से ऐसी संस्थाओं का ताना-बाना खड़ा किया जाये तो भविष्य में अहम बदलावों की नींव तैयार की जा सकती है और मेहनतकशों की ज़िन्दगी की तस्वीर बदल सकती है। 

 

 

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025


 

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