चीन के लुटेरे शासकों के काले कारनामे महान चीनी क्रान्ति की आभा को मन्द नहीं कर सकते
फिर उठ खड़ी होगी चीन में एक सच्ची क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी
– सत्यप्रकाश
यह लेख चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की 90वीं वर्षगाँठ पर ‘मज़दूर बिगुल’ में प्रकाशित हुआ था। चीन की नाममात्र की कम्युनिस्ट पार्टी इस महीने स्थापना की 100वीं वर्षगाँठ मनाने जा रही है मगर यह लेख लिखे जाने के बाद से उसके चरित्र में कोई बदलाव नहीं हुआ है। उसके शासन में चीन एक साम्राज्यवादी देश बनने की राह पर तेज़ी से बढ़ रहा है जिसका आधार अपने देश ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों के मेहनतकशों का शोषण है। शी ज़िनपिंग के जुमलों से कुछ लोगों को भ्रम हो गया है कि वह चीन को फिर समाजवाद की राह पर ले जाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन ऐसे लोगों को न तो ज़िनपिंग के नेतृत्व में चीनी पार्टी के पैंतरों की ठीक से जानकारी और समझ है, और न ही समाजवादी संक्रमण की कोई समझ है। आगामी अंक में हम चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 100वीं वर्षगाँठ पर एक विशेष लेख में इस पर विस्तार से लिखेंगे। इस अंक में हम पृष्ठभूमि के तौर पर इस लेख को फिर से प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ में चीन में माओ के समर्थकों और सही कम्युनिस्टों के दमन पर एक रिपोर्ट भी प्रस्तुत है। – सम्पादक
दुनिया की महानतम क्रान्तियों में से एक, चीन की नवजनवादी क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के 90 वर्ष पिछली 1 जुलाई 2011 को पूरे हो गये। यह इतिहास की एक अश्लील विडम्बना है कि पार्टी की 90वीं वर्षगाँठ का जश्न वे लोग मना रहे थे जिन्होंने पिछले 35 वर्षों के दौरान इस क्रान्ति की एक-एक उपलब्धि को धूल में मिला दिया है।
पूरी दुनिया का पूँजीवादी मीडिया चीनी क्रान्ति और उसके नेता माओ त्से-तुङ के ख़िलाफ़ अफ़वाहों, कुत्सा-प्रचारों और झूठ के अम्बार खड़े करता रहा है। मगर इस समस्त झूठे प्रचार और चीन के नये पूँजीवादी शासकों के काले कारनामों से उस महान क्रान्ति की आभा मन्द नहीं पड़ी है जिसने सदियों से लूटे और कुचले जा रहे विशाल देश की सोयी हुई जनता को एक प्रचण्ड चक्रवाती तूफ़ान की भाँति जगाकर खड़ा कर दिया था। चीन की साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी क्रान्ति ने एशिया-अमेरिका-लातिन अमेरिका के अधिकांश उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों और नव उपनिवेशों में जारी राष्ट्रीय मुक्तियुद्धों के लिए पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभायी। लोकयुद्धों की विजय ने उपनिवेशवाद के दौर को सदा के लिए इतिहास की कचरा पेटी के हवाले कर दिया और साम्राज्यवाद को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चीनी जनता ने तेज़ी से डग भरे और विकट चुनौतियों का सामना करते हुए करोड़ों-करोड़ लोगों को भूख, अभाव, बर्बर सामन्ती दासता, उत्पीड़न और पिछड़ेपन से मुक्त करने की दिशा में शानदार उपलब्धियाँ हासिल कीं। सामूहिक शक्ति और जनता की ताक़त के बल पर क्या किया जा सकता है इसकी अद्भुत मिसालें पेश करते हुए चीनी जनता ने कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में कुछ ही वर्षों में जैसी अभूतपूर्व प्रगति की उसने पश्चिम के विशेषज्ञों को दाँतों तले उँगली दबाने पर मजबूर कर दिया। एक समय ऐसा था जब पश्चिम के तमाम विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में सबसे अधिक शोध और अध्ययन चीन में हो रही अद्भुत और करिश्माई घटनाओं पर किया जा रहा था। करोड़ों-करोड़ जनता की पहलक़दमी को जगाने और उसे बदलाव की ज़बर्दस्त शक्ति में तब्दील करने का नेतृत्व कर रही थी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी।
तब से लेकर आज तक एक लम्बा समय बीत चुका है। सोवियत संघ और चीन में प्रगति, न्याय, समता और स्वतंत्रता के नये कीर्तिमान स्थापित करने वाली हमारी सदी की दोनों महानतम क्रान्तियाँ मानवता को बहुत कुछ दे चुकने के बाद पराजित हो चुकी हैं। 1976 में माओ त्से-तुङ की मृत्यु के बाद चीन में सत्ता पर क़ब्ज़ा करने वाले पूँजीवादी पथगामी “बाज़ार-समाजवाद” के नाम पर अब पूँजीवाद को मुकम्मल तौर पर बहाल कर चुके हैं। इस उल्टी लहर का असर पूरी दुनिया पर हुआ है। मेहनतकश अवाम के ख़िलाफ़ दुनिया भर के पूँजीपतियों ने अपनी पूँजी की ताक़त और आर्थिक नीतियों से तो चौतरफ़ा हमला बोला ही है, विचार और संस्कृति के स्तर पर भी वे हावी होकर लड़ रहे हैं। मेहनतकश जनता से अतीत की सर्वहारा क्रान्तियों की स्मृतियों को, समतामूलक भविष्य के स्वप्नों को और समाजवादी परियोजनाओं को छीनने की हर चन्द कोशिशें की जा रही हैं। क्रान्ति की धारा पर प्रतिक्रान्ति की धारा पूरी तरह हावी दीख रही है। लोगों को यक़ीन दिलाने की कोशिश की जा रही है कि पूँजीवाद ही मानव-इतिहास के विकास की आख़िरी मंज़िल है।
“चीनी जनता उठ खड़ी हुई है!” एक अक्टूबर, 1949 को राजधानी पेइचिङ के केन्द्र में स्थित तिएन एन मेन चौक में लहराते विशाल जनसमुद्र के समक्ष इसी उद्धोष के साथ माओ त्से-तुङ ने चीनी लोक गणराज्य की स्थापना की घोषणा की थी।
लम्बे, शौर्यपूर्ण जनयुद्ध ने दिखायी मुक्ति की राह
चीन एक शताब्दी से भी कुछ अधिक समय तक साम्राज्यवादी प्रभुत्व और बन्दरबाँट का शिकार रहा। पहले से ही मध्यकालीन सामन्ती उत्पीड़न से तबाह और टूटी हुई किसान जनता से साम्राज्यवादी ताक़तों ने ख़ून की आख़िरी बूँद तक निचोड़ लेने की कोशिश की। 1840 के दशक में ब्रिटेन ने अफ़ीम युद्ध इसलिए छेड़ा कि चीनी अफ़ीम का व्यापार जारी रखें। लाखों चीनी अफ़ीमची हो गये और ब्रिटेन के व्यापारियों-बैंकरों की थैलियाँ मोटी होती रहीं।
डॉ. सुन यात-सेन के नेतृत्व में हुई 1911 की पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति ने सामन्ती राजतंत्र का तख़्ता तो पलट दिया पर यह क्रान्ति अधूरी रही। साम्राज्यवादी षड्यंत्र ने चीन को अलग-अलग युद्ध-सरदारों के प्रभुत्व वाले कई “राज्यों” में बाँट दिया। चीन के किसान बर्बर सामन्ती उत्पीड़न के शिकार थे। शहरी व्यापारिक और औद्योगिक अर्थव्यवस्था नौकरशाह-दलाल पूँजीपतियों के माध्यम से सीधे साम्राज्यवाद के मातहत थी।
मई, 1919 का महीना चीन के इतिहास का एक नया प्रस्थान बिन्दु सिद्ध हुआ। चीन के छात्रों-युवाओं की भारी आबादी चीन पर विदेशी प्रभुत्व – विशेषकर जापानी प्रभुत्व – का विरोध करने के लिए उठ खड़ी हुई। ‘4 मई आन्दोलन’ नाम से प्रसिद्ध इस आन्दोलन ने ठहरे हुए चीनी समाज में उथल-पुथल पैदा कर दी। क्रान्तिकारी जनवादी विचारों से प्रभावित छात्रों के बीच से आगे बढ़कर कई युवाओं ने बाद में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी क्रान्ति में अग्रणी एवं नेतृत्वकारी भूमिका निभायी।
4 मई आन्दोलन के आसपास ही चीनी क्रान्ति के भावी नेता, युवा माओ त्से-तुङ पहली बार मार्क्सवाद के सम्पर्क में आये। जुलाई, 1919 में उन्होंने हुनान से एक पत्रिका निकालनी शुरू की और 1920 की गर्मियों में क्रान्तिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने एक सांस्कृतिक अध्ययन सोसायटी संगठित की। 1920 की शरद में उन्होंने च्याङशा में कम्युनिस्ट ग्रुप क़ायम किये।
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना और क्रान्तिकारी संघर्ष का विकास
1 जुलाई, 1921 को शंघाई शहर में चेन तू जिउ और ली ता चाओ के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। हालाँकि पार्टी के गठन की औपचारिक घोषणा दक्षिणी झील में एक बड़ी नाव पर हुई क्योंकि चीनी और फ़्रांसीसी जासूसों के कारण बैठक का स्थान बदलना पड़ गया था। इससे कुछ वर्ष पहले से ही चीन में कम्युनिस्ट अध्ययन मण्डल और उनके आपसी तालमेल का अनौपचारिक नेटवर्क काम करने लगा था। 1 जुलाई को हुई स्थापना कांग्रेस में विभिन्न कम्युनिस्ट समूहों के 53 प्रतिनिधि तथा कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के दो प्रतिनिधि शामिल थे। माओ त्से-तुङ हुनान कम्युनिस्ट ग्रुप के दो प्रतिनिधियों में से एक की हैसियत से इसमें मौजूद थे। इस कांग्रेस में सभी कम्युनिस्ट ग्रुपों ने अपने अलग-अलग नामों को ख़त्म कर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी नाम से काम करने का निर्णय किया और आम सहमति से क्रान्ति का कार्यक्रम तय किया।
शुरुआती कुछ वर्षों के दौरान चीनी समाज की प्रकृति और चीनी क्रान्ति के विशिष्ट स्वरूप के बारे में ग़लत धारणाओं के चलते चीनी कम्युनिस्टों को एक के बाद एक कई हारों का सामना करना पड़ा। क्रान्तिकारी सेनाएँ प्रतिक्रियावादी सेनाओं से घिर गयीं और उनका अन्त क़रीब लगने लगा। इस कठिन स्थिति से क्रान्ति को उबारकर आगे बढ़ाने में माओ ने नेतृत्वकारी भूमिका निभायी। उस समय से लेकर 1949 में जनवादी क्रान्ति सम्पन्न होने तक, और फिर आगे समाजवादी निर्माण एवं क्रान्ति के कठिन वर्ग संघर्ष और अनूठे प्रयोगों भरे दौर में, 1976 तक, मृत्युपर्यन्त माओ ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और जनता को नेतृत्व दिया। यही नहीं, चीन की जनवादी क्रान्ति और फिर समाजवादी क्रान्ति के दौर के प्रयोगों – विशेषकर 1966-76 की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के विश्वव्यापी ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए माओ त्से-तुङ को मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन के बाद अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के पाँचवे शिक्षक और नेता का दर्जा दिया गया।
माओ त्से-तुङ ने पहली बार यह स्थापना दी कि चीन जैसे बहुसंख्यक किसान आबादी वाले अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक देश में किसान क्रान्ति की मुख्य ताक़त होंगे। सर्वहारा वर्ग की भूमिका यहाँ नेतृत्वकारी होगी। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी, लाल सेना और संयुक्त मोर्चा को नवजनवादी क्रान्ति के तीन चमत्कारी हथियारों की संज्ञा दी। रूसी क्रान्ति के सशस्त्र आम बग़ावत के रास्ते से अलग माओ ने दीर्घकालिक लोकयुद्ध के क्रान्ति मार्ग का राजनीतिक एवं सैनिक सिद्धान्त कठिन क्रान्तिकारी संघर्षों के दौरान विकसित किया। उन्होंने बताया कि चीनी क्रान्ति देहातों में लाल आधारों का निर्माण करके, शहरों को घेरकर और इस प्रकार अन्तत: पूरे देश में राजनीतिक सत्ता जीतकर ही विजयी हो सकती है। अपनी इस प्रस्थापना को उन्होंने व्यवहार में भी सिद्ध कर दिखाया।
भूमि क्रान्ति के कठिनतम दौर में प्रतिक्रान्तिकारी सेना की भारी शक्ति से बचने के लिए लाल सेना ने उस ऐतिहासिक ‘लम्बे अभियान’ की शुरुआत की, जिसकी अतुलनीय शौर्य-गाथा पर दुनिया दंग रह गयी। अक्टूबर, 1934 में शुरू हुए इस महा अभियान के दौरान लाल सेना ने प्रतिदिन शत्रुओं से लोहा लेते हुए 6,000 मील की यात्रा 12 प्रान्तों, 18 पहाड़ों और 24 नदियों को पार करते हुए 13 महीनों में पूरी की। 1,60,000 लोगों में से सिर्फ़ 8,000 लोग ही शान्सी पहुँचने तक बचे रहे। पर यह अकूत क़ुर्बानी रंग लायी। ‘लम्बे अभियान’ ने क्रान्ति के अग्निमुखी बीज पूरे देश के किसानों में बो दिये। माओ की भविष्यवाणी को चरितार्थ करती हुई करोड़ों किसान जनता एक प्रचण्ड, अदम्य तूफ़ान की तरह उठ खड़ी हुई। जापानी साम्राज्यवादियों को धूल चटाने के साथ ही अमेरिकी साम्राज्यवाद समर्थित च्याङ काइ शेक की फ़ौजों को हराकर 1 अक्टूबर, 1949 को (ताइवान, हाङकाङ और मकाओ को छोड़कर) पूरे चीन को लाल कर देने का सपना साकार हो गया।
समाजवादी निर्माण के शानदार प्रयोग
चीन लोक गणराज्य की स्थापना के बाद माओ ने कहा था, “देशव्यापी स्तर पर जीत हासिल करना दस हज़ार ली लम्बे अभियान का पहला क़दम मात्र है। चीनी क्रान्ति महान है, लेकिन क्रान्ति के बाद का रास्ता तथा कार्य अधिक महान एवं अधिक कठिन है।”
इन शब्दों में क्रान्ति का स्वागत करते हुए माओ ने एक बेहद पिछड़े देश को समाजवाद के प्रकाश स्तम्भ और विश्व क्रान्ति के आधार-क्षेत्र में रूपान्तरित कर देने के लिए चीनी के सर्वहारा वर्ग और व्यापक जनता को तैयार किया। लोक युद्ध के लम्बे वर्षों और आधार क्षेत्रों में व्यवस्था-संचालन के अनुभवों ने इस नयी यात्रा में काफ़ी मदद की। मानव इतिहास में सबसे बड़े पैमाने पर भूमि के पुनर्वितरण और विदेशी तथा दलाल पूँजीपतियों के कारख़ानों एवं पूँजी के राष्ट्रीकरण के साथ-साथ स्त्रियों को पूरी समानता देने सहित सामाजिक जीवन में भी अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए।
नवजनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने के साथ ही माओ त्से-तुङ के नेतृत्व में चीन की पार्टी और जनता समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने में एक ऐसी आत्मनिर्भर समाजवादी अर्थव्यवस्था के निर्माण में जुट गयी जो विश्व साम्राज्यवादी बाज़ार की दमघोंटू और विकलांग बना देने वाली जकड़बन्दी से मुक्त हो। जल्दी ही दुनिया ने यह चमत्कार भी घटित होते देखा। पचास के दशक में चीन की मेहनतकश आबादी के श्रम को एक विराट शक्ति के रूप में सृजनशील और उत्पादक बनाकर अकाल, भुखमरी, बीमारियों, अशिक्षा और पिछड़ेपन के लिए प्रसिद्ध देश का कायापलट कर दिया गया। दस वर्षों के भीतर बेरोज़गारी का ख़ात्मा हो गया। गाँवों से लेकर शहरों तक स्त्रियों की भारी आबादी चूल्हे-चौखट से बाहर आकर कम्यूनों में सामाजिक उत्पादन से लेकर प्रबन्धन एवं राजनीति तक के कामों में शिरकत करने लगी। स्वास्थ्य और शिक्षा की सेवाएँ सर्वसुलभ हो गयीं। वेश्यावृत्ति, नशाख़ोरी, जुआ, बाल मज़दूरी, भुखमरी आदि का नामोनिशान तक मिट गया। तूफ़ानी नदियों को बाँधकर विनाशकारी बाढ़ों को समाप्त कर दिया गया और नहरों का जाल बिछाकर सिंचाई सुविधाओं का तेज़ विस्तार किया गया। उत्पादन-टीमों, ब्रिगेडों और कम्यूनों ने दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में भी उपजाऊ सीढ़ीदार खेत बना डाले और सभी तरह की ऊसर-बंजर धरती को अन्नपूर्णा बना दिया गया। सड़कों-रेलमार्गों-पुलों का अभूतपूर्व गति से विकास हुआ। 1960 तक चीन बिजली और लोहा सहित तमाम बुनियादी और ढाँचागत उद्योगों का अपना ताना-बाना खड़ा कर चुका था।
भितरघातियों-पूँजीवादी पथगामियों के ख़िलाफ़ संघर्ष और भविष्य की राह की खोज
लेकिन पार्टी के भीतर घुसे भितरघातियों ने शोषण और ग़ैर-बराबरी को जड़ से मिटा देने की इस यात्रा को बीच में ही रोक देने और चीनी समाज को पूँजीवादी राह पर आगे बढ़ाने की साज़िशें शुरू कर दीं। माओ त्से-तुङ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर और चीनी समाज में ऐसे भितरघातियों के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ दिया गया और व्यापक जनसाधारण को उसमें भागीदार बनाया गया।
अपने देश और अपनी पार्टी के भीतर ऐसे पूँजीवादी पथगामियों से संघर्ष करने के साथ ही माओ ने सोवियत संघ में समाजवाद की पराजय और ख्रुश्चेव के नेतृत्व में नयी पूँजीवादी सत्ता की स्थापना का भी गहन विश्लेषण किया और इसे समझने के बाद उन्होंने रूसी पार्टी के ख़िलाफ़ ‘महान बहस’ चलाकर विश्व सर्वहारा क्रान्ति के प्रति अपने अन्तरराष्ट्रीयतावादी दायित्वों का तो निर्वाह किया ही, अपने देश में भी समाजवादी क्रान्ति को आगे बढ़ाने के बारे में वे ऐतिहासिक महत्व वाले नतीजों की दिशा में आगे बढ़ चले। इसी का नतीजा थी – 1966 में शुरू हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति जो न केवल चीनी क्रान्ति की यात्रा का बल्कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति की यात्रा का अब तक का अग्रतम मील का पत्थर है।
सांस्कृतिक क्रान्ति ने समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष को जारी रखने की आम दिशा और उसके मार्ग की जो आम रूपरेखा प्रस्तुत की वह पूरी दुनिया के सभी देशों के लिए तबतक प्रासंगिक रहेगी जबतक कि मानवता कम्युनिज़्म की मंज़िल में प्रविष्ट नहीं हो जाती।
सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान इस बात को और अधिक ठोस रूप में स्पष्ट किया गया कि समाजवादी समाज में वर्ग मौजूद रहते हैं और वर्ग-संघर्ष लगातार जटिल और विकट रूप में जारी रहता है। बुर्जुआ वर्ग को धीरे-धीरे आगे बढ़कर फिर से सत्ता हथिया लेने से रोकने के लिए उसपर चौतरफ़ा अधिनायकत्व लागू करना होगा और उसके ख़िलाफ़ क्रान्ति को सतत् जारी रखना होगा। इन तूफ़ानी संघर्षों के दौरान व्यापक जनता सर्वहारा क्रान्तिकारियों की अगुवाई में आगे बढ़कर पार्टी और राज्य के भीतर पनपे बुर्जुआ हेडक्वार्टरों को नष्ट करती रहेगी और आगे के उन्नत स्तर के संघर्ष व समाजवादी निर्माण के लिए पार्टी व राज्य को तैयार करती रहेगी। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के भौतिक अधिकार के समूल नाश के लिए बुर्जुआ अधिकारों, भौतिक प्रोत्साहन (लालच देकर काम कराना) और हर तरह की असमानता को कम करते जाना तथा माल-उत्पादन को क्रमश: समाप्त करते जाने के साथ ही माओ ने शिक्षा, संस्कृति, साहित्य, कला, सामाजिक आचार-व्यवहार-संस्था-संस्कार आदि अधिरचना (ऊपरी ढाँचा) के सभी अंगों के सतत् क्रान्तिकारीकरण को अपरिहार्य बताया।
चीन में 1966 से 1976 तक जारी सांस्कृतिक क्रान्ति ने न केवल चीन में समाजवाद के विकास को ऊँची छलांगें दीं, बल्कि पूरी दुनिया के सर्वहारा क्रान्तिकारियों को संशोधनवाद और साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए नयी प्रेरणा, नयी युयुत्सा (लड़ने की चाहत), नयी ऊर्जा और नयी दिशा देने का काम किया।
1949 की नवजनवादी क्रान्ति के बाद चीन में समाजवादी क्रान्ति की यात्रा 27 वर्षों तक जारी रही। 1976 में, सांस्कृतिक क्रान्ति के दस वर्षों के युगान्तरकारी प्रयोग के बावजूद, माओ की मृत्यु के बाद वहाँ सर्वहारा क्रान्तिकारी पराजित हो गये और सत्तासीन पूँजीवादी पथगामियों ने समाजवाद की समस्त प्रगति को आधार बनाकर पूँजीवादी विकास को तेज़ गति से आगे बढ़ाया। प्रति व्यक्ति औसत आय, सकल घरेलू उत्पाद, औद्योगिक विकास-दर, पूँजी-निवेश आदि बुर्जुआ मानदण्डों से आज भी चीनी अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे अधिक तेज़ गति से विकसित हो रही है, पर व्यापक मेहनतकश जनता के लिए यह विकास नहीं, विनाश है।
पिछले 35 वर्षों के भीतर चीन में धनी-ग़रीब के बीच की खाई अभूतपूर्व गति से बढ़ी है। बेरोज़गारों की संख्या कई करोड़ हो चुकी है। कम्यूनों को तोड़ दिया गया है। निजी स्वामित्व की अनेक रूपों में बहाली जारी है। विदेशी पूँजी और कचरा संस्कृति के लिए देश के दरवाज़ों को एकदम खोल दिया गया है और चीनी जनता के श्रम से मुनाफ़ा निचोड़कर पश्चिम अपने संकट का बोझ हल्का कर रहा है। आज के चीन में तमाम पुरानी सामाजिक बुराइयाँ वापस लौट आयी हैं, जैसे वेश्यावृत्ति, भीख माँगना, घूसख़ोरी, चोरी, तरह-तरह के भ्रष्टाचार और नारी-विरोधी अपराध। स्त्रियों को आर्थिक-सामाजिक गतिविधियों से अलग करके फिर घर की चारदीवारी में क़ैद किया जा रहा है या उनसे बहुत कम तनख़्वाह में काम कराये जा रहे हैं। ग्रामीण इलाक़ों में कन्या-शिशुओं और भ्रूणों की हत्या बड़े पैमाने पर की जा रही हैं।
चीन में क्रान्ति की इस हार से चीनी जनता और पूरी दुनिया के सर्वहारा वर्ग को एक भारी धक्का तो लगा, पर यह इतिहास का अन्त नहीं है। अक्सर ऐसा होता रहा है कि रास्ता खोजने वाली महान क्रान्तियाँ हारती रही हैं और आगे की मुकम्मिल विजयी क्रान्तियों के लिए आधार तैयार करती रही हैं।
माओ ने कहा था कि चीन में पूँजीवादी राह के राही अगर सत्ता पर क़ब्ज़ा करने में कामयाब भी हो गये तो वे चैन से नहीं बैठ पायेंगे। चीन में मज़दूरों और ग़रीब किसानों के लगातार तेज़ और व्यापक होते संघर्ष इस बात का संकेत दे रहे हैं कि चीन के नये लुटेरे शासकों के चैन के दिन अब लद चुके हैं। वह दिन बहुत दूर नहीं जब चीन में फिर से एक सच्ची क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी उठ खड़ी होगी जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए पूँजीवाद को उखाड़ फेंककर कम्युनिज़्म की ओर एक नये लम्बे अभियान में चीनी जनता का नेतृत्व करेगी।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2021
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन