मोदी राज में मज़दूरों के ऊपर बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार
मोदी राज में मज़दूरों के ऊपर बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार – लालचन्द्र 2014 में अच्छे दिन के नारे के साथ भाजपा सत्ता में आयी और प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद…
मोदी राज में मज़दूरों के ऊपर बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार – लालचन्द्र 2014 में अच्छे दिन के नारे के साथ भाजपा सत्ता में आयी और प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद…
हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्स ने एक बार कहा था कि यदि किसी झूठ को सौ बार दोहराओ तो वह सच बन जाता है। यही सारी दुनिया के फासिस्टों के प्रचार का मूलमंत्र है। आज मोदी की इस बात के लिए बड़ी तारीफ़ की जाती है कि वह मीडिया का कुशल इस्तेमाल करने में बहुत माहिर है। लेकिन यह तो तमाम फासिस्टों की ख़ूबी होती है। मोदी को ‘’विकास पुरुष’’ के बतौर पेश करने में लगे मीडिया को कभी यह नहीं दिखायी पड़ता कि गुजरात में मोदी के तीन बार के शासन में मज़दूरों और ग़रीबों की क्या हालत हुई। मेहनतकशों को ऐसे झूठे प्रचारों से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। उन्हें यह समझ लेना होगा कि तेज़ विकास की राह पर देश को सरपट दौड़ाने के तमाम दावों का मतलब होता है मज़दूरों की लूट-खसोट में और बढ़ोत्तरी। ऐसे ‘विकास’ के रथ के पहिए हमेशा ही मेहनतकशों और ग़रीबों के ख़ून से लथपथ होते हैं। लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है कि हर फासिस्ट तानाशाह को धूल में मिलाने का काम भी मज़दूर वर्ग की लौह मुट्ठी ने ही किया है!
मोदी सरकार तेल की अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में घटती-बढ़ती क़ीमतों से इतर हमें बेइन्तहा लूट रहे हैं और इस लूट को वैध क़रार देने के लिए मोदी का गोदी मीडिया, भाजपा का आईटी सेल और संघी जमकर झूठ का कीचड़ फैला रहे हैं। परन्तु सच यह है कि संघी सरकार कॉरपोरेट घरानों के तलवे चाट रही है और देश को लूट और बर्बाद कर इन्हें आबाद कर रही है। इस लूटतन्त्र और झूठतन्त्र से सत्यापित करने के प्रयास को हमें बेनकाब करते रहना होगा।
मेहनतकश जनता की मज़दूरी में लगातार आ रही गिरावट के कारण उसकी खरीदने की शक्ति कम होती जा रही है। दिहाड़ी पर काम करने वाली लगभग 50 करोड़ आबादी आज से 10 साल पहले जितना कमाती थी आज भी बमुश्किल उतना ही कमा पाती है जबकि कीमतें दोगुनी-तीन गुनी हो चुकी हैं। इससे ज़्यादा मानवद्रोही बात और क्या हो सकती है कि जिस देश में आज भी करोड़ों बच्चे रोज़ रात को भूखे सोते हैं वहाँ 35 से 40 प्रतिशत अनाज गोदामों और रखरखाव की कमी के कारण सड़ जाता है। एक्सप्रेस-वे, अत्याधुनिक हवाईअड्डों, स्टेडियमों आदि पर लाखों करोड़ रुपये खर्च करने वाली सरकारें आज तक इतने गोदाम नहीं बनवा सकीं कि लोगों का पेट भरने के लिए अनाज को सड़ने से बचाया जा सके।
कृषि पैदावार की तमाम फसलें आज सट्टा और वायदा कारोबारियों के कब्ज़े में पूरी तरह आ चुकी हैं। आमतौर पर सट्टा कारोबारी सबसे पहले फसलों की पैदावार की स्थितियों पर नज़र रखते हैं यानी किस फसल के खराब होने की संभावना है या कौन सी फसल की पैदावार कम हो सकती है। एक बार ऐसी फसल की पहचान होने पर सट्टा कारोबारी कार्टेल का गठन करते हैं और पहचान की गयी फसल के पहले से संचित भंडारों के साथ ही साथ नई फसल को भी खरीद लेते हैं।
16 मई को सत्ता में आने के ठीक पहले अपने ख़र्चीले चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का नारा था, “बहुत हुई महँगाई की मार–अबकी बार मोदी सरकार!” उस नारे का क्या हुआ? दुनिया भर में तेल की कीमतों में आयी भारी गिरावट के बावजूद पहले तो मोदी सरकार ने उस अनुपात में तेल की कीमतों में कमी नहीं की; और जो थोड़ी-बहुत कमी की थी अब उससे कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी कर दी है। नतीजतन, हर बुनियादी ज़रूरत की चीज़ महँगी हो गयी है। आम ग़रीब आदमी के लिए दो वक़्त का खाना जुटाना भी मुश्किल हो रहा है। मोदी सरकार का नारा था कि देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर दिया जायेगा! लेकिन मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही भ्रष्टाचार के अब तक के कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया! ऐसे तमाम टूटे हुए वायदों की लम्बी सूची तैयार की जा सकती है जो अब चुटकुलों में तब्दील हो चुके हैं और लोग उस पर हँस रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के मुँह से “मित्रों…” निकलते ही बच्चों की भी हंसी निकल जाती है। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि ऐसे धोखेबाज़, भ्रष्ट मदारियों को देश की जनता ने किस प्रकार चुन लिया?
किसी को भी यह लग सकता है कि जनता को पेट्रोलियम उत्पाद सस्ते देने के कारण हुए नुक़सान की पूर्ति के लिए सरकार की तरफ़ से सब्सिडी देना किसी भी तरह से ग़लत नहीं है। लेकिन वास्तव में “घाटा पूर्ति” शब्द जनता को भरमाने का एक शब्द-जाल है। होता यह है कि हर कम्पनी अपने पिछले कारोबार के चक्र के आधार पर मुनाफ़ों का एक लक्ष्य तय करती है और एक चक्र पूरा होने पर जब हिसाब किया जाता है तो जिस चीज़ को वह “नुक़सान” कहते हैं उसका मतलब यह नहीं होता कि उस कम्पनी ने अपने उत्पाद उनकी लागत से कम पर बेचे हैं, बल्कि इसका मतलब यह होता है कि कम्पनी को मुनाफ़ा तो हुआ है लेकिन उतना नहीं जितना वह कमाना चाहती थी और इस पहले से तय लाभ और असली लाभ के बीच के फ़र्क़ को वह “घाटे” का नाम देती है। मिसाल के तौर पर एक कम्पनी 100 करोड़ रुपये निवेश करके 500 करोड़ कमाने का लक्ष्य रखती है, चक्र पूरा होने के बाद उसकी कुल आमदनी 400 करोड़ बनती है तो यह नहीं कहा जाता कि कम्पनी को 300 करोड़ का मुनाफ़ा हुआ बल्कि यह कहा जाता है कि कम्पनी को 100 करोड़ का घाटा पड़ा। यही कुछ तेल कम्पनियों के मामलों में होता है। पहले तो यह तेल कम्पनियाँ जनता की अच्छी तरह से खाल उधेड़कर मोटे मुनाफ़े बटोरती हैं और बाद में सरकार आम जनता से टैक्स के रूप में वसूले पैसे इन कम्पनियों को “घाटा पूर्ति” के नाम पर लुटा देती है। फिर इस भारी ‘सब्सिडी’ की दुहाई देकर तेल और गैस की कीमतें बढ़ाने का खेल शुरू हो जाता है।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लफ्फ़ाज़ियाँ उनके तमाम भाषणों, टी.वी. पर विज्ञापनों व अख़बारों में विज्ञापनों के ज़रिये आम आबादी को ज़बरदस्ती सुननी या देखनी ही पड़ती हैं, जिसमें मोदी सरकार ग़रीबों को समर्पित प्रधानमन्त्री जन-धन योजना, मेक इन इण्डिया, जापान के 2 लाख 10 हज़ार करोड़ के निवेश से भारत में रोज़गार का सृजन होगा, 2019 तक स्वच्छ भारत अभियान से स्वच्छ भारत का निर्माण होगा आदि-आदि। मीडिया और अख़बारों में ऐसे नारों से और जुमलों से पूरी मज़दूर आबादी भ्रमित होती है कि भइया, मोदी सरकार तो ग़रीबों और मज़दूरों की सरकार है। मगर जब वास्तविकता में महँगाई से पाला पड़ता है तो इस सरकार के खि़लाफ़ गुस्सा भी यकायक फूट पड़ता है।
हमें एक ऐसी ताकत बनानी होगी कि लूटेरे हमें जात-धर्म के नाम पर बाँट ही ना पाये। इसी तरह जब पल्लेदार के साथ कोई समस्या हो तो सेल्स मैन उनके साथ आये। जब भी किसी मज़दूर के साथ कोई भी परेशानी हो तो हम सबकी नींद हराम हो जाये। हमें जागना ही होगा-अपने हक़ के लिए, अपने अधिकार के लिए। हमारा धर्म है कि हम मेहनतकशों की जारी लूट के खिलाफ़ एकजुट होकर लड़े। दोस्तों, मेहनतकश साथियों हमारे लिए कोई लड़ने नहीं आने वाला चाहे वो ‘आम आदमी पार्टी’ हो अन्ना हजारे या नरेन्द्र मोदी। दोस्तो हम मज़दूरों को ही अब अपने कदम बढ़ाने होंगे।
मोदी सरकार का असली एजेंडा दो महीने में ही खुलकर सामने आ गया है। 2014-15 के रेल बजट, केन्द्रीय बजट और श्रम क़ानूनों में प्रस्तावित बदलावों तथा सरकार के अब तक के फैसलों से यह साफ़ है कि आने वाले दिनों में नीतियों की दिशा क्या रहने वाली है। मज़दूर बिगुल के पिछले अंक में हमने टिप्पणी की थी – “लुटेरे थैलीशाहों के लिए ‘अच्छे दिन’, मेहनतकश जनता के लिए ‘कड़े कदम’।” लगता है, इस बात को मोदी सरकार अक्षरशः सही साबित करने में जुट गयी है।