वज़ीरपुर के गरम रोला मज़दूरों का ऐतिहासिक आन्दोलन
मज़दूरों ने जान लिया है! हक़ लेना है ठान लिया है!

बिगुल संवाददाता, दिल्ली

दिल्ली के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में इस्पात उद्योग के गरम रोला मज़दूरों ने 6 जून से एक शानदार लड़ाई लड़नी शुरू की है। गरम रोला के मज़दूरों ने पिछले वर्ष भी ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में एक लड़ाई लड़ी थी और अपनी हड़ताल चलायी थी, जिसके बारे में हमने ‘मज़दूर बिगुल’ में रपट भी छापी थी। उस लड़ाई में अन्त में मालिकों ने पुलिस और गुण्डों के सहयोग से एक समझौता करवाया था, जिसमें उन्होंने 1500 रुपये की वेतन बढ़ोतरी का वायदा किया था और साथ ही हर वर्ष 1000 रुपये की वेतन बढ़ोतरी देने का भी वायदा किया था। लेकिन कुछ समय बाद ही उन्होंने या तो वेतन बढ़ोतरी की ही नहीं या फिर केवल 1000 रुपये की वेतन बढ़ोतरी की। इसके बाद 2014 के अप्रैल में एक वर्ष पूरा होते ही ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में मज़दूरों ने सभी मालिकों को एक नोटिस भेजते हुए पिछले वर्ष के वायदे की याद दिलायी और 1000 रुपये की वेतन बढ़ोतरी की माँग की। जब जून की शुरुआत तक भी मालिकों ने यह माँग नहीं मानी तो मज़दूरों ने 6 जून को हड़ताल की शुरुआत की।

आन्दोलन का संक्षिप्त घटनाक्रम

Wazirpur strike day_7.14_11हड़ताल की शुरुआत करते हुए मज़दूरों ने मालिकों के समक्ष 1500 रुपये के वेतन बढ़ोतरी की माँग रखी थी। साथ ही ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में मज़दूरों के एक प्रतिनिधि मण्डल ने 11 जून को श्रम आयुक्त, दिल्ली से मुलाक़ात की। श्रम आयुक्त ने उसी दिन क्षेत्रीय उप श्रमायुक्त, नीमड़ी कालोनी को यह पूरा मसला हल करने हेतु सन्दर्भित कर दिया। 11 जून को ही उप श्रमायुक्त ने सभी मालिकों को इस विषय में नोटिस भेजा और वार्ता के लिए बुलाया। पहली दो तारीख़ों पर मालिक उपस्थित ही नहीं हुए। इसके बाद 19 जून को ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के दबाव में श्रम विभाग ने औचक निरीक्षण पर लेबर इंस्पेक्टरों को इलाके में भेजा जिसमें पता चला कि कोई भी मालिक श्रम क़ानूनों का पालन नहीं कर रहा है। इसके बाद कारख़ाना अधिनियम और औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत सभी मालिकों के चालान काटे गये। इसके बाद मालिकों पर आन्दोलन का दबाव भी बढ़ाया गया। अब तक सभी गरम रोला कारख़ानों में काम पूरी तरह से बन्द हो चुका था। दूसरी तरफ़, क़ानूनी कार्रवाई भी मालिकों के लिए सिरदर्द का विषय बन चुकी थी। इसी बीच मज़दूरों ने पूरे इलाके में दो विशाल रैलियाँ भी निकालीं जिसमें 2000 से ज़्यादा मज़दूरों ने शिरकत की। मज़दूरों ने आर्थिक समस्या से लड़ने के लिए 19 जून से ही सामुदायिक रसोई की शुरुआत भी की और अपने हड़ताल-स्थल राजा पार्क में इस रसोई को चलाना शुरू कर दिया। मालिकों का एक हथियार इस क़दम से फिलहाली तौर पर बेकार हो गया, जिससे कि वे आमतौर पर मज़दूर संघर्षों को तोड़ने का प्रयास करते हैं। इससे मालिकों पर दबाव और भी बढ़ता गया।

मज़दूरों के बीच बात रखते गरम रोला मज़दूर एकता समिति के सनी

मज़दूरों के बीच बात रखते गरम रोला मज़दूर एकता समिति के सनी

इस दबाव के चलते 27 जून को मालिकों ने श्रम विभाग के तत्वावधान में और उप श्रमायुक्त की मौजूदगी में ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के प्रतिनिधि मण्डल से समझौता किया, जिसमें उसने आठ घण्टे के कार्यदिवस, डबल शिफ्ट में काम, और न्यूनतम मज़दूरी से भुगतान का वायदा किया। लेकिन अगले ही दिन मालिक इस समझौते को लागू करने में आनाकानी करने लगे। नतीजतन, 28 जून को एक कारख़ाने के भीतर उप श्रमायुक्त की मौजूदगी में एक और वार्ता हुई जो आठ घण्टे तक चली और मालिकों को अन्त में फिर से समझौता लागू करने की बात माननी पड़ी। 29 जून से मालिकों को कुछ कारख़ानों में समझौता लागू करना पड़ा, लेकिन ज़्यादातर कारख़ानों में मालिकों ने गुण्डों और पुलिस को बुलवाया और कारख़ानों के दरवाज़ों पर ताला लगा दिया। इसके जवाब में मज़दूरों ने हरेक कारख़ाना गेट को घेर लिया और उन पर ताला लगाना शुरू कर दिया। इसके साथ ही ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ ने कारख़ाना गेट क़ब्ज़ा करने का नारा दिया। 29 जून के इस क़दम के साथ ही ‘मज़दूर सत्याग्रह’ की शुरुआत हुई, जिसमें मज़दूरों ने श्रम विभाग को चेतावनी दी कि यदि समझौते को लागू कराने के लिए श्रम विभाग ने उचित क़दम नहीं उठाये तो फिर श्रम विभाग का घेराव किया जायेगा। अगले तीन दिनों तक कारख़ाना गेटों पर क़ब्ज़े जारी रहे और कुछ और मालिकों ने समझौते को लागू करना शुरू किया। लेकिन मालिकों के बीच कुछ स्थानीय गुण्डा तत्व भी हैं, जिन्होंने समझौते पर अमल करने से साफ़ तौर पर इंकार किया। 3 जुलाई को एक कारख़ाने के मालिक ने समझौता लागू करवाने के बहाने मज़दूरों को कारख़ाने के भीतर बुलाया और फिर गुण्डों के द्वारा मारपीट करवाकर और धमकाकर उन्हें बन्धक बनाकर काम करवाना शुरू करवा दिया। इस पर सैकड़ों मज़दूरों ने कारख़ाना गेट का घेराव कर दिया। पुलिस की लाख कोशिशों और कुछ साथियों को गिरफ्तार करने के प्रयासों के बाद भी इस घेराव को भंग नहीं कर पायी। मज़दूरों के दबाव में श्रम विभाग के भी कुछ अधिकारियों को भी वहाँ आना पड़ा। लेकिन जब इन अधिकारियों ने सन्तोषजनक कार्रवाई नहीं की तो करीब हज़ार मज़दूरों का हुजूम मार्च करते हुए उप श्रमायुक्त कार्यालय की ओर बढ़ा। उप श्रमायुक्त कार्यालय पर मज़दूरों का धरना शुरू हुआ, जिसके बाद उप श्रमायुक्त ने स्वयं आकर मामले का समाधान करने का वायदा किया और साथ ही मालिकों को एक ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी किया, जिसमें कि उनसे समझौते को लागू न करने का कारण 7 जुलाई तक बताने के लिए कहा गया। इसके बाद अगले दिन से मज़दूरों ने राजा पार्क में मज़दूर सत्याग्रह के तहत क्रमिक भूख हड़ताल की शुरुआत भी कर दी। इस भूख हड़ताल के कारण जिन कारख़ानों के मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय भूमिका नहीं निभा रहे थे, वे भी आन्दोलन स्थल पर आने लगे और हर रोज़ राजा पार्क में विशाल सभाएँ चलने लगीं और सामुदायिक रसोई भी साथ में जारी रहती थी। 7 जुलाई को मज़दूरों के सत्याग्रह का असर हुआ और मालिकों ने श्रम विभाग में फिर से लिखित में वायदा किया कि वे समझौते को लागू करेंगे।

Wazirpur strike day_7.14_059 और 10 जुलाई को 23 में से 19 गरम रोला कारख़ानों में समझौते को मज़दूरों ने अपनी एकजुटता से लागू करवाया। इसके लिए पिछले दिन ही मज़दूरों की कारख़ाना समितियाँ बनायी गयी थीं और हर कारख़ाने के तीन मज़दूर प्रधान नियुक्त किये गये थे, जोकि इस बात को सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदार थे कि कारख़ाने 6 बजे बन्द हो जायें और मालिकों द्वारा गुण्डों या पुलिस को बुलवाने के बावजूद मज़दूर एकजुट होकर 6 बजे शाम को कारख़ानों को बन्द कर दें। इस क़दम का असर अगले दो दिनों में साफ़ नज़र आया। इन दो दिनों में समझौते के अधिकांश कारख़ानों में लागू होने के बाद कुछ मालिकों ने फिर से समझौते का उल्लंघन करना शुरू कर दिया और मज़दूरों को अपनी शुरुआती माँग यानी कि 1500 रुपये की बढ़ोतरी की माँग पर राजी होने के लिए बाध्य करने का प्रयास करने लगे। लेकिन मज़दूर भी अड़ गये, जिसके जवाब में कुछ छोटे मालिकों ने कारख़ानों को बन्द कर दिया। 12 जुलाई को श्रम विभाग में ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ की क़ानूनी सलाहकार शिवानी ने मालिकों द्वारा समझौते पर खुले उल्लंघन पर आपत्ति दर्ज करायी और माँग की कि यदि श्रम विभाग अगले एक सप्ताह तक दोनों समय एक लेबर इंस्पेक्टर और एक फैक्टरी इंस्पेक्टर को इलाके में सुबह 9 बजे से 10 बजे तक और शाम को 6 बजे से 7 बजे तक नहीं भेजेगा और सही समय पर मज़दूरों को कारख़ानों के अन्दर कराने और सही समय पर बाहर कराने को सुनिश्चित नहीं करेगा तो फिर मज़दूरों के पास श्रम विभाग के मुख्य कार्यालय का घेराव करके भूख हड़ताल करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा। इसके जवाब में श्रम विभाग के संयुक्त श्रमायुक्त वी-एस. आर्या ने दोनों समय पर लेबर इंस्पेक्टर और फैक्टरी इंस्पेक्टर को भेजने की माँग को स्वीकार किया और 13 जुलाई से रोज़ ये निरीक्षक इलाके में जाने लगे। लेकिन ये इंस्पेक्टर किसी भी दिन समय पर नहीं पहुँचते थे, जिससे कि मज़दूरों की एण्ट्री के समय को सुनिश्चित नहीं किया जा सका था। दो कारख़ानों के मालिकों ने लेबर इंस्पेक्टर और फैक्टरी इंस्पेक्टर को लिखित में यह बयान दिया कि वे समझौते को लागू नहीं कर सकते और इसकी बजाय वे कारख़ाने को ही बन्द कर देंगे। इस बयान को दर्ज करने के बाद इन निरीक्षकों ने उप श्रमायुक्त से माँग की कि वहाँ एक इंस्पेक्टिंग अफ़सर को भेजा जाये जोकि इन दोनों कारख़ाना मालिकों को क्लोज़र नोटिस दे। लेकिन उप श्रमायुक्त से लेकर संयुक्त श्रमायुक्त ने अभी तक कोई क्लोज़र नोटिस इन मालिकों को नहीं भिजवाया है। इस बीच कई कारख़ानों के मालिकों ने कहीं पर गुण्डों के दबाव से तो कहीं मज़दूरों के बीच आ रही श्रान्ति का इस्तेमाल करते हुए मज़दूरों के सामने उनकी पुरानी माँग यानी कि 1500 रुपये वेतन बढ़ोतरी को स्वीकार किया और कई कारख़ानों में पिछले माह का भुगतान भी इस वेतन बढ़ोतरी के साथ कर दिया। इसके चलते कुछ कारख़ानों के मज़दूरों ने समझौते को लागू करने की माँग पर संघर्ष को जारी रखते हुए 1500 वेतन बढ़ोतरी पर काम शुरू कर दिया।

15 जुलाई तक 23 में से 9 कारख़ानों में समझौते का पालन हो रहा है या सभी मज़दूरों ने हिसाब लेकर कारख़ाना बन्दी करवा दी है। दो कारख़ानों में मज़दूरों ने अपना पूरा हिसाब लेकर बन्दी करवा दी है, जबकि 7 में समझौता लागू किया जा रहा है। अन्य कारख़ानों में मज़दूर आर्थिक समस्या, गुण्डों के दबाव और मालिकों द्वारा आरम्भिक माँग को माने जाने और एरियर समेत पिछले महीने के भुगतान किये जाने के प्रभाव में 1500 वेतन बढ़ोतरी पर फिलहाल काम शुरू कर दिया है। लेकिन इन कारख़ानों के मज़दूर भी लगातार समिति के सम्पर्क में बने हुए हैं और अपने-अपने कारख़ाने के भीतर समझौते को लागू करवाने के लिए संघर्ष जारी रखे हुए हैं और इस पक्ष में राय बना रहे हैं। मज़दूरों की आमसभा रोज़ राजा पार्क में जारी है और वहाँ पर आन्दोलन के आर्थिक संकट को हल करने, थकने या टूटने वाले मज़दूरों को फिर से आन्दोलन में लाने की समस्याओं का हल निकाला जा रहा है। 15 जुलाई को ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ की क़ानूनी सलाहकार और लीडिंग कोर की सदस्य शिवानी ने फिर से श्रम आयुक्त जीतेन्द्र नारायण और अतिरिक्त श्रम आयुक्त राजेन्द्र धर से मुलाक़ात की और श्रम विभाग की असन्तोषजनक कार्रवाई पर आपत्ति जतायी और समझौते का उल्लंघन करने वाले मालिकों पर त्वरित और सख़्त कार्रवाई की माँग की। श्रम विभाग ने समझौते का उल्लंघन करने वाले मालिकों पर त्वरित कार्रवाई का वायदा किया है।

अब तक के आन्दोलन के अनुभव बहुत ही वैविध्यपूर्ण रहे हैं और इसकी कई अहम उपलब्धियाँ रही हैं। लेकिन साथ ही आन्दोलन को अपनी कुछ कमियों-कमज़ोरियों से भी निपटना होगा, जिससे कि इसे सफलता के मुकाम तक पहुँचाया जा सके।

सामुदायिक रसोई का प्रयोग

Wazirpur strike day_7.14_12आन्दोलन की सबसे प्रमुख उपलब्धियों में से एक था सामुदायिक रसोई का चलाया जाना। यह पूरे विश्व के मज़दूर आन्दोलन की एक ऐसी परम्परा है, जिसे पिछले लम्बे समय से मज़दूर आन्दोलनों में भुला-सा दिया गया है। इस आन्दोलन में शिरकत करने वाले मज़दूर असंगठित मज़दूरों की सबसे निचली और सबसे कम मज़दूरी पाने वाली श्रेणी से आते हैं। इनके लिए एक-डेढ़ महीने तक संघर्ष में टिके रहना एक बड़ी चुनौती होती है, क्योंकि दो हफ्तों में ही आमतौर पर इनकी जमा-बचत समाप्त हो जाती है। इसी कमज़ोरी को आमतौर पर मालिक इन मज़दूरों के आन्दोलनों के विरुद्ध इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन इस बार मालिक भूख के अपने इस हथियार का इस्तेमाल नहीं कर पाये। मज़दूरों ने अपनी सामुदायिक रसोई चलायी और भूख के कारक को निष्क्रिय कर दिया। इसके लिए मज़दूरों की टोलियों ने पूरे मज़दूर इलाकों में ठण्डा रोला, प्रेसिंग और अन्य पेशों के मज़दूरों से अनाज, तेल और आर्थिक सहयोग के रूप में मदद जुटायी और इसके बूते पर सामुदायिक रसोई चलायी। इसी दौरान न सिर्फ़ देशभर से बल्कि दुनियाभर से जनवादी, प्रगतिशील और वामपन्थी संगठनों और साथ ही स्वतन्त्र यूनियनों ने भी संघर्ष को आर्थिक सहायता भेजी, जिसके बूते पर आन्दोलन के तमाम ख़र्चों को वहन करने में पर्याप्त मदद मिली।

मज़दूर पाठशाला

मज़दूरों के बीच बात रखते गरम रोला मज़दूर एकता समिति की शिवानी

मज़दूरों के बीच बात रखते गरम रोला मज़दूर एकता समिति की शिवानी

पूरी हड़ताल के दौरान मज़दूरों ने न सिर्फ हर दिन मालिकों, पुलिस, श्रम विभाग, गुंडों और नेताओं-मंत्रियों के चरित्र को समझा व इनके खिलाफ अपनी रणनीति बनायी बल्कि हड़ताल के मंच का प्रयोग मज़दूर वर्ग को संघर्षों के गौरवशाली इतिहास से परिचित कराने के लिए भी किया गया। पेरिस कम्यून की कहानी, अक्टूबर क्रान्ति, स्त्री मज़दूरों की भूमिका से लेकर छत्तीसगढ़ के मज़दूर आन्दोलन व ट्रेड यूनियन के जनवादी तरीकों पर समय-समय पर बिगुल मज़दूर दस्ता, नौजवान भारत सभा, स्त्री मज़दूर संगठन के कार्यकर्ताओं ने बात रखी। हड़ताल के प्रत्येक दिन मंच का संचालन कर रहे बाबूराम व सनी ने गरम रोला मज़दूर एकता समिति के सदस्यों व बिगुल मज़दूर दस्ता के सदस्यों को आन्दोलन व मज़दूर वर्ग के इतिहास पर बात रखने के लिए आमंत्रित किया। मज़दूर बिगुल अखबार के  लेखों और इसमें छपी मज़दूरों की चिट्ठियों का सामूहिक पाठ भी होता रहा। वैसे तो हर हड़ताल मज़दूरों के लिए संघर्ष की एक पाठशाला होती है, लेकिन इसके साथ ही लगातर तीन सप्ताह तक इस मज़दूर पाठशाला ने मज़दूरों को राजनीतिक तौर पर सचेत करने का काम किया। संघर्ष के दौरान मज़दूरों की वर्गीय चेतना को उन्नत करने और उन्हें पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई बताते हुए समाजवाद के बारे में शिक्षित करने की बेहतर स्थितियाँ होती हैं और गरम रोला मज़दूर एकता समिति के नेतृत्व ने इस बात का खास ध्यान रखा।

‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ के दलालों और ग़द्दारों को मज़दूरों ने खदेड़ा

आन्दोलन की एक इतनी ही बड़ी उपलब्धि यह थी कि इस आन्दोलन में मज़दूरों ने तमाम दलालों और ग़द्दारों को मार भगाया या फिर उनके लिए दरवाज़े पहले ही बन्द कर दिये। आन्दोलन की शुरुआत में ही मंच से ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्वकारी निकाय के साथियों रघुराज, सनी और शिवानी ने बार-बार यह घोषणा कर दी थी कि इस आन्दोलन के दरवाज़े स्वयंसेवी संगठनों, चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों, फ़ण्डिंग एजेंसियों आदि के लिए बन्द हैं। बाद में इस विषय में एक सभा में मज़दूरों ने मिलकर एक प्रस्ताव भी पास किया। आन्दोलन के दौरान ही अपने आपको क्रान्तिकारी संगठन बताने वाले एक संगठन ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ ने गरम रोला मज़दूर आन्दोलन को अपनी दलाली और ग़द्दारी से बार-बार तोड़ने का प्रयास किया। यह संगठन पिछले वर्ष भी गरम रोला मज़दूरों के बीच आया था। पिछले वर्ष की हड़ताल के बाद इस संगठन के लोग ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के प्रमुख सदस्यों पर दबाव डालने लगे कि वे यूनियन दफ्तर पर ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ का बोर्ड लगायें, यूनियन के प्रमुख साथी उनके संगठन की सदस्यता लें और वे ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्वकारी निकाय से इजाज़त लिये बग़ैर उनके नाम का इस्तेमाल अपने तमाम पर्चों आदि पर करने लगे। इस पर पहले ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के लोगों ने सख़्त आपत्ति की। जब ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ ने ये हरक़तें बन्द नहीं कीं, तो फिर ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ ने आधिकारिक तौर पर उनसे रिश्ते तोड़ लिये। इसके बाद पहले तो ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ ने ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ पर ही क़ब्ज़ा जमाने की कोशिश की जिसमें कि वह नाकाम रहा। इसके बाद, उनका एक कार्यकर्ता मुन्ना प्रसाद ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के दफ्तर से तमाम क़ानूनी काग़ज़ात चोरी करके भाग गया। इसके बाद, गरम रोला मज़दूरों ने इनसे पूरी तरह दूरी बना ली। जब ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ ने 29 जनवरी को गरम रोला मज़दूरों का तत्कालीन मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल के समक्ष प्रदर्शन के लिए आह्नान किया तो अचानक ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ ने भी उसी दिन एक अलग प्रदर्शन का कॉल दिया। इसके जवाब में गरम रोला मज़दूरों ने इंमके के प्रदर्शन का बहिष्कार किया और मुन्ना प्रसाद को इलाके से भगा दिया। इसके बाद सीधे इंमके के लोग 6 जून को शुरू हुई हड़ताल में पहुँचे। इस पर समिति ने उन्हें आन्दोलन में समर्थन देने की आज्ञा देने का फैसला किया। लेकिन जल्द ही इंमके के लोगों ने अपनी पुरानी सांगठनिक संकीर्णता दिखाते हुए हर क़ानूनी मज़दूर प्रतिनिधि मण्डल में ज़बरन घुसने और क़ानूनी कार्रवाई को गड़बड़ाने का प्रयास शुरू कर दिया। इसके जवाब में 13 जून को इंमके के लोगों को स्पष्ट कर दिया गया कि वे अब किसी भी प्रतिनिधि मण्डल का हिस्सा नहीं होंगे और न ही उन्हें मंच पर बोलने का अवसर दिया जायेगा_ साथ ही, मुन्ना प्रसाद को चेतावनी दी गयी कि वह दो दिनों के भीतर समिति के चोरी किये गये क़ानूनी काग़ज़ातों को वापस कर दे। मुन्ना प्रसाद ने कुछ ही काग़ज़ात वापस किये। इसके बाद, एक प्रकार से इंमके के दो-चार आने वाले कार्यकर्ताओं का आन्दोलन में एक अनकहा बहिष्कार शुरू हो गया। इसके साथ ही इंमके के लोगों ने आन्दोलन के नेतृत्व के बारे में कुत्साप्रचार और आन्दोलन को कमज़ोर करने की कार्रवाइयाँ शुरू कर दीं। पहले 16 जून को इंमके का एक कार्यकर्ता इंस्पेक्शन पर आये लेबर इंस्पेक्टर की गाड़ी में घूमता हुआ पाया गया। इसके बाद, 19 जून को श्रम विभाग में चल रही एक वार्ता के दौरान इंमके के इसी कार्यकर्ता हरीश का लेबर इंस्पेक्टर के पास फ़ोन आया और वह वार्ता के बारे में जानने का प्रयास करने लगा। ग़ौरतलब है कि मालिकों के भी कुछ गुर्गे लेबर इंस्पेक्टरों के पास फ़ोन करके यही पता करने का प्रयास कर रहे थे कि उनके चालान तो नहीं कट रहे, या उन पर कोई सख़्त कार्रवाई तो नहीं हो रही है। लेबर इंस्पेक्टर के पास हरीश के फ़ोन आने को मज़दूरों ने देखा और लेबर इंस्पेक्टर को स्पष्ट कर दिया कि आगे से आन्दोलन के किसी भी मसले पर वह इंमके के हरीश या किसी अन्य सदस्य से कोई बात नहीं करेगा।

मज़दूरों के बीच बात रखते गरम रोला मज़दूर एकता समिति के रघुराज

मज़दूरों के बीच बात रखते गरम रोला मज़दूर एकता समिति के रघुराज

इसके बाद, 20 जून की सुबह मज़दूरों ने इंमके के लोगों से जवाबतलब किया और कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं मिलने पर इंमके के 5-6 कार्यकर्ताओं को धक्के मारकर राजा पार्क से बाहर खदेड़ दिया।  20 जून के बाद से ही इंमके खुले तौर पर आन्दोलन के नेतृत्व को “धन्धेबाज़” और आन्दोलन को “शर्मनाक समझौते का इन्तज़ार करता हुआ” बताकर आन्दोलन और संघर्षरत मज़दूरों के ख़िलाफ़ कुत्साप्रचार करता रहा और आन्दोलन को कमज़ोर करने की कोशिश करता रहा। इसके बाद 29 जून को जब मज़दूर कारख़ाना गेटों को जाम करके बैठे थे, तो इंमके के ये दलाल एक कारख़ाने के गेट पर पहुँचे और मज़दूरों से मालिकों की शर्तों को मानने की बात समझाने लगे। इसके जवाब में मज़दूर भड़क गये और करीब 100 मज़दूरों ने उन्हें दौड़ा लिया। वे गिरते-पड़ते भागे और पुलिसवालों के पास पहुँच गये। उन्होंने ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के दो लोगों के ख़िलाफ़, जो मज़दूरों के साथ मौजूद थे, और साथ ही समिति के नेतृत्वकारी मज़दूर साथी अम्बिका और एक अन्य मज़दूर साथी मनोज के ख़िलाफ़ पुलिस में रपट लिखा दी। पुलिस ने इन चार साथियों के साथ ही इंमके के दलालों को भी हिरासत में ले लिया। इसके बाद, शाम तक इंमके के लोग यह कोशिश करते रहे कि किसी तरह से आन्दोलनरत साथियों पर पुलिस केस दर्ज हो जाये, लेकिन ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के वकीलों और क़ानूनी सलाहकारों के प्रयास के चलते पुलिस यह केस नहीं दर्ज कर सकी और शाम को दोनों पक्षों को रिहा कर दिया। आन्दोलन को तोड़ने के इस घिनौने प्रयास के बाद इंमके के लोग कभी वज़ीरपुर इलाके में नहीं आये, क्योंकि उन्हें अपने सम्भावित हश्र का पता था। लेकिन वे इण्टरनेट पर, फ़ोन के ज़रिये आन्दोलन और आन्दोलन के नेतृत्वकारी साथियों के ख़िलाफ़ घिनौनी कुत्साप्रचार की मुहिम जारी रखे हुए हैं। इसके अलावा एक कारख़ाने डी-3 के दो दलालों रामभुवन और शेरसिंह के साथ मिलकर इन्होंने उस कारख़ाने में आन्दोलन को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया और मज़दूरों को हताश करने और तोड़ने की पुरज़ोर कोशिश की। इन निकृष्ट हरक़तों के कारण मज़दूरों ने अपनी आमसभा में निर्णय पास किया कि वज़ीरपुर मज़दूर इलाके में इंमके का पूर्ण बहिष्कार किया जायेगा और उन्हें किसी भी राजनीतिक गतिविधि या आन्दोलन में नहीं घुसने दिया जायेगा। मज़दूरों ने इस आन्दोलन से इंमके जैसे दलाल संगठन को बाहर करके भी अपने आन्दोलन को मज़बूत किया। (‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ की वज़ीरपुर आन्दोलन में दलाली पर इसी अंक में एक अन्य विस्तृत लेख भी देखें-सं-)

पुलिस हस्तक्षेप बेअसर!

समिति के नेताओं को गिरफ्तार करने पर मज़दूरों ने पुलिस चौकी का घेराव करके उन्हें छुड़ा लिया।

समिति के नेताओं को गिरफ्तार करने पर मज़दूरों ने पुलिस चौकी का घेराव करके उन्हें छुड़ा लिया।

आन्दोलन की एक अन्य बड़ी उपलब्धि थी पुलिस हस्तक्षेप को पूर्णतः बेअसर कर देना। आन्दोलन के दौरान दो-दो बार यूनियन के सदस्यों या नेतृत्वकारी साथियों को पुलिस ने हिरासत में लिया। लेकिन इससे पहले कि कोई प्राथमिकी दर्ज हो पाती या कोई केस शुरू हो पाता, मज़दूरों ने पुलिस चौकी का घेराव करके अपने साथियों को जनबल के बूते छुड़ा लिया। पिछले वर्ष के आन्दोलन में यह नहीं हो सका था, जिससे आन्दोलन को कुछ नुक़सान भी उठाना पड़ा था, लेकिन इस बार मज़दूरों का जुझारूपन और राजनीतिक चेतना का स्तर पहले के मुकाबले उन्नत हो चुका था और सही नेतृत्व और सही राजनीतिक विचार की मौजूदगी के बूते ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ ने अपने गिरफ्तार साथियों को दो-दो बार पुलिस की गिरफ्त से छुड़ा लिया। इसके अलावा भी पुलिस ने कई बार नेतृत्वकारी साथियों को हिरासत में लेने की नाकाम कोशिश की। रघुराज और शिवानी को पुलिस ने बार-बार गिरफ्तार करने के कोशिश की, लेकिन इसमें नाकाम रही। एक दिन एक मज़दूर साथी की गिरफ्तारी के बाद सैकड़ों मज़दूर पुलिस की वैन के सामने लेट गये और उसे जाने नहीं दिया। अन्ततः पुलिस को मज़दूर साथी को तुरन्त ही छोड़ना पड़ा। मालिकों ने नेतृत्व के चार साथियों – शिवानी, रघुराज, नवीन और फिरोज़ के ख़िलाफ़ अदालत से यह निषेधाज्ञा भी ली कि वे कारख़ानों के 100मीटर की दूरी में नहीं जायेंगे। लेकिन इस निषेधाज्ञा के बावजूद कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और नेतृत्व के ये साथी पहले की तरह आन्दोलन को नेतृत्व देते रहे।

‘कारख़ाना गेट क़ब्ज़ा करो’ अभियान

कारखाना गेट पर मज़दूर

कारखाना गेट पर मज़दूर

एक अन्य बड़ी उपलब्धि थी कारख़ाना गेटों को क़ब्ज़ा करने का आन्दोलन। यह प्रयोग भी दुनियाभर के मज़दूर आन्दोलनों की एक समृद्ध विरासत है, जिसकी लम्बे समय से कोई मिसाल नहीं मिल रही थी। वज़ीरपुर के गरम रोला मज़दूरों ने दो दिनों तक कारख़ाना गेटों पर ताला मारकर उस पर क़ब्ज़ा जमाया और पुलिस के ताला तोड़ने के बाद भी बार-बार कारख़ाना गेटों पर ताले लटकाये। इस क़दम से मालिकों में भय की लहर दौड़ गयी थी और कुछ ही दिनों में कई मालिकों ने कम-से-कम फ़ौरी तौर पर समझौते को लागू करने पर रज़ामन्दी दे दी थी। कारख़ाना गेटों पर क़ब्ज़ा करने के प्रयोग के दौरान मज़दूरों के बीच राजनीतिक शिक्षण अभियान भी चलाया गया और उन्हें बताया गया कि कारख़ाना अधिनियम में भी मालिकों को कारख़ाने का ‘क़ब्ज़ाकर्ता’ बताया गया है। अगर यह ‘क़ब्ज़ाकर्ता’ क़ानूनों का पालन करते हुए कारख़ाना नहीं चला सकता है तो फिर क़ब्ज़ा मज़दूरों को सौंप दिया जाना चाहिए या फिर सरकार को कारख़ाने को अधिग्रहीत करके चलाना चाहिए। अगर सरकार ऐसा नहीं करती तो यह मज़दूरों का नैतिक अधिकार बनता है कि वे कारख़ाने पर क़ब्ज़ा कर लें और उत्पादन से एक हिस्सा लाभांश के तौर पर मालिकाना अधिकार रखने वाले व्यक्ति को दें। साथ ही, यह लाभांश भी स्थायी रूप से नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि जिस आरम्भिक पूँजी से मालिक ने कारख़ाना लगाया, उससे अधिक लाभांश होते ही मालिक को उसकी आरम्भिक पूँजी प्राप्त हो जायेगी। उसके बाद मज़दूरों को कारख़ाना अपने क़ब्ज़े में रखना चाहिए और उसे अपने सामूहिक मालिकाने के तहत रखना चाहिए, क्योंकि उत्पादन करने वाले के तौर पर मालिकाने पर भी उन्हीं का हक़ बनता है। यह राजनीतिक शिक्षण केवल एक आन्दोलन के लिए महत्व नहीं रखता है, बल्कि मज़दूर वर्ग को आगे के अपने ऐतिहासिक कार्यभार से अवगत कराने के मद्देनज़र भी अहम है।

पेशापारीय और इलाक़ाई मज़दूर वर्ग एकजुटता और श्रम विभाग को कार्रवाई पर बाध्य करना

अपने अगुआ साथियों को गिरफ्तार करने से रोकने के लिए पुलिस की गाड़ी के आगे लेटे मज़दूर

अपने अगुआ साथियों को गिरफ्तार करने से रोकने के लिए पुलिस की गाड़ी के आगे लेटे मज़दूर

आन्दोलन के दौरान मज़दूरों ने अन्य पेशों के मज़दूरों को भी अपने साथ लिया और आगे ठण्डा रोला और प्रेसिंग के मज़दूरों के मुद्दों को लेकर भी संघर्ष करने का संकल्प लिया। वास्तव में, यह रपट लिखे जाने तक ठण्डा रोला मज़दूरों की अलग समिति के निर्माण की प्रक्रिया में दो मीटिंगें हो चुकी हैं और 16 जुलाई को अगली मीटिंग रखी गयी है, जिसमें माँगें और संघर्ष शुरू करने का समय निर्धारित होगा। इसके अलावा, मज़दूरों ने इस आन्दोलन के दौरान सोये पड़े रहने वाले श्रम विभाग को भी जागने और सक्रिय होकर कार्रवाई करने पर मजबूर कर दिया। वास्तव में, इसके बावजूद इस पूरे मसले में जो विलम्ब हो रहा है, उसका असल कारण यह है कि भारत में श्रम क़ानून और उनके कार्यान्वयन की पूरी मशीनरी इस कदर लचर है कि कहीं पर अगर ज़बर्दस्त मज़दूर आन्दोलन के कारण श्रम विभाग कुछ कार्रवाई करने भी लगे तो भी वह क़ानून के दायरे में रहते हुए मालिकों पर कोई सख़्त या त्वरित कार्रवाई नहीं कर पाता है। मिसाल के तौर पर, अगर कारख़ाना अधिनियम के तहत न्यूनतम मज़दूरी और कार्यदिवस के क़ानून के पालन न करने पर किसी मालिक का चालान कटता है तो उसमें 2 लाख रुपये का जुर्माना या/और छह माह की कैद का प्रावधान है, लेकिन इसका मुकदमे में फैसला होने में महीनों लग जाते हैं_ अगर औद्योगिक विवाद क़ानून के तहत मालिक किसी क़ानूनी समझौते का उल्लंघन करता है तो उसके ऊपर धारा 29 के तहत मुकदमा चलता है, लेकिन इसमें सज़ा भी कुछ हज़ार रुपये के जुर्माने की है और उसका फैसला होने में भी समय लगता है। अगर कोई लेबर इंस्पेक्टर किसी कारख़ाने का इंस्पेक्शन करना चाहे तो वह सीधे नहीं कर सकता है, उसके पहले उसे पूरी लाल फीताशाही से गुज़रना पड़ता है, और उसके बाद भी यह आज्ञा उसे मिल जायेगी इसकी कोई गारण्टी नहीं है। अगर श्रम विभाग को किसी कारख़ाने में सभी श्रम क़ानूनों के उल्लंघन का स्पष्ट प्रमाण भी मिल जाये तो उसके पास कारख़ाना सील करने का अधिकार नहीं है, यह अधिकार केवल अदालत के पास है! अदालत में ऐसे सभी मसलों पर फैसला आने में कभी महीनों तो कभी वर्षों लग जाते हैं। इनकी तुलना अगर सम्पत्ति से जुड़े क़ानूनों से करें तो हम पाते हैं कि उनमें “अपराध” करने वाले पर तुरन्त कार्रवाई करने का प्रावधान है। मिसाल के तौर पर, अगर मज़दूर किसी कारख़ाने पर क़ब्ज़ा कर लें तो ट्रेस्पासिंग विरोधी क़ानून के तहत उन्हें तुरन्त हिरासत में लिया जा सकता है और उन पर तत्काल मुकदमा चलाया जा सकता है_ अगर निजी सम्पत्ति पर किसी भी प्रकार का अतिक्रमण हो तो अतिक्रमण करने वाले पर तुरन्त कार्रवाई का प्रावधान है। लेकिन अगर कोई मालिक रोज़ाना श्रम क़ानूनों को अपने पैरों तले रौंदता हो तो उसके लिए पूरी क़ानूनी कार्रवाई को ऐसा भारी-भरकम, लम्बा और अनिश्चयपूर्ण बनाया गया है कि आमतौर पर तो एक ग़रीब मज़दूर उस पूरी कार्रवाई को फॉलो कर ही नहीं पाता, और अगर कर भी ले तो फैसला उसके पोतों के ज़माने में आता है या फिर आता ही नहीं है!

वज़ीपुर मज़दूर आन्दोलन के दौरान गरम रोला मज़दूरों ने राज्यसत्ता के इस पूरे चरित्र को भी एक हद तक समझा है। चाहे वह श्रम विभाग हो, पुलिस हो, या अदालतें हों, मज़दूर यह समझ रहे हैं कि पूरी राज्यसत्ता की वास्तविक पक्षधरता क्या है, उसका वर्ग चरित्र क्या है और मज़दूर आन्दोलन केवल क़ानूनी सीमाओं के भीतर रहते हुए ज़्यादा कुछ हासिल नहीं कर सकता है। आन्दोलन के पूरे होने पर हम एक और विस्तृत रपट ‘मज़दूर बिगुल’ में पेश करेंगे और आन्दोलन की सकारात्मक और नकारात्मक शिक्षाओं पर विस्तार से अपनी बात रखेंगे। अभी आन्दोलन जारी है और हम उम्मीद करते हैं कि यह आन्दोलन अपने मुकाम तक पहुँचेगा।

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लेनिन

हरेक हड़ताल पूँजीपतियों को याद दिलाती है कि वे नहीं, वरन मज़दूर, वे मज़दूर वास्तविक स्वामी हैं, जो अधिकाधिक ऊँचे स्वर में अपने अधिकारों की घोषणा कर रहे हैं। हरेक हड़ताल मज़दूरों को याद दिलाती है कि उनकी स्थिति असहाय नहीं है, कि वे अकेले नहीं हैं। ज़रा देखें कि हड़तालों का स्वयं हड़तालियों पर तथा किसी पड़ोस की या नज़दीक की फैक्टरियों में या एक ही उद्योग की फैक्टरियों में काम करने वाले मज़दूरों, दोनों पर कितना ज़बरदस्त प्रभाव पड़ता है। सामान्य, शान्तिपूर्ण समय में मज़दूर बड़बड़ाहट किये बिना अपना काम करता है, मालिक की बात का प्रतिवाद नहीं करता, अपनी हालत पर बहस नहीं करता। हड़तालों के समय वह अपनी माँगें ऊँची आवाज़ में पेश करता है, वह मालिकों को उनके सारे दुर्व्यवहारों की याद दिलाता है, वह अपने अधिकारों का दावा करता है, वह केवल अपने और अपनी मज़दूरी के बारे में नहीं सोचता, वरन अपने सारे साथियों के बारे में सोचता है, जिन्होंने उसके साथ-साथ औज़ार नीचे रख दिये हैं और जो तकलीफ़ों की परवाह किये बिना मज़दूरों के ध्येय के लिए उठ खड़े हुए हैं। मेहनतकश जनों के लिए प्रत्येक हड़ताल का अर्थ है बहुत सारी तकलीफ़ें, भयंकर तकलीफ़ें, जिनकी तुलना केवल युद्ध द्वारा प्रस्तुत विपदाओं से की जा सकती है – भूखे परिवार, मज़दूरी से हाथ धो बैठना, अक्सर गिरफ्तारियाँ, शहरों से भगा दिया जाना, जहाँ उनके घरबार होते हैं तथा वे रोज़गार पर लगे होते हैं। इन तमाम तकलीफ़ों के बावजूद मज़दूर उनसे घृणा करते हैं, जो अपने साथियों को छोड़कर भाग जाते हैं तथा मालिकों के साथ सौदेबाज़ी करते हैं। हड़तालों द्वारा प्रस्तुत इन सारी तकलीफ़ों के बावजूद पड़ोस की फैक्टरियों के मज़दूर उस समय नया साहस प्राप्त करते हैं, जब वे देखते हैं कि उनके साथी संघर्ष में जुट गये हैं।

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मज़दूर बिगुल, जुलाई 2014

 


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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