हज़ारों मज़दूरों ने दी संसद के दरवाज़े पर पहली दस्तक
ऐतिहासिक मई दिवस से मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के नये दौर की शुरुआत
सरकार ने माँगों पर ध्यान नहीं दिया तो तीन वर्ष बाद दिल्ली में उमड़ेगा मज़दूरों का सैलाब

सम्पादकीय अग्रलेख 

पिछली 1 मई को नई दिल्ली के जन्तर-मन्तर का इलाक़ा लाल हो उठा था। दूर-दूर तक मज़दूरों के हाथों में लहराते सैकड़ों लाल झण्डों, बैनर, तख्तियों और मज़दूरों के सिरों पर बँधी लाल पट्टियों से पूरा माहौल लाल रंग के जुझारू तेवर से सरगर्म हो उठा। देश के अलग-अलग हिस्सों से उमड़े ये हज़ारों मज़दूर ऐतिहासिक मई दिवस की 125वीं वर्षगाँठ के मौक़े पर मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन 2011 क़े आह्वान पर हज़ारों मज़दूरों के हस्ताक्षरों वाला माँगपत्रक लेकर संसद के दरवाज़े पर अपनी पहली दस्तक देने आये थे।

जन्‍तर मन्‍तर पर देश के अलग-अलग हिस्‍सों से जुटे मज़दूरों की अनुशासित भीड़

जन्‍तर मन्‍तर पर देश के अलग-अलग हिस्‍सों से जुटे मज़दूरों की अनुशासित भीड़

देश के मज़दूर वर्ग की संसद में बैठने वाले तथाकथित जनप्रतिनिधियों से मज़दूरों ने माँग की कि अगर वे सही मायनों में जनप्रतिनिधि हैं तो मज़दूर वर्ग की लगभग सभी प्रमुख आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली इन जायज़ माँगों को पूरा करें, वरना गद्दी छोड़ दें। इस रैली में मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन की ओर से दीर्घकालिक देशव्यापी ‘मज़दूर सत्याग्रह’ शुरू करने की घोषणा करते हुए कहा गया कि 26सूत्री माँगपत्रक की माँगों पर सरकार ने अगर कार्रवाई नहीं की तो औद्योगिक क्षेत्रों, मज़दूर बस्तियों और गाँव-गाँव में मज़दूर पंचायतें करते हुए देश के कोने-कोने में मेहनतकशों को लामबन्द किया जायेगा और तीन वर्ष बाद लाखों की संख्या में मज़दूर दिल्ली को घेरेंगे। यह मज़दूरों के राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के लिए एक लम्बी लड़ाई की शुरुआत है।

दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों, पंजाब, गोरखपुर और छत्तीसगढ़ से आये इन हज़ारों मज़दूरों में भारी संख्या छोटे-बड़े कारख़ानों में काम करने वाले असंगठित मज़दूरों की थी। बड़ी संख्या में स्त्री मज़दूर भी दिल्ली और बाहर से आयी थीं। बाहर से आये मज़दूरों की टोलियाँ सुबह से ही लाल झण्डों और नारों की तख्तियों के साथ रेलवे तथा बस स्टेशनों से जुलूस की शक्ल में जन्तर-मन्तर पहुँचने लगी थीं और देर शाम सभा खत्म होने के बाद रात तक मज़दूरों की टोलियाँ जन्तर-मन्तर की सड़क पर जगह-जगह बैठकें कर आगे के कार्यक्रम पर चर्चा करती रहीं और मज़दूरों के जाने का सिलसिला रात 9 बजे के बाद तक चलता रहा। सुबह से देर रात तक जन्तर-मन्तर के इलाक़े में मज़दूरों के नारों, गीतों और मज़दूर अधिकारों की बातों की गूँज फैली रही। ‘अब चलो नई शुरुआत करो! मज़दूर मुक्ति की बात करो!!’ ‘मेहनतकश जन जागो, अपना हक़ लड़कर माँगो!’ ‘अन्धकार का युग बीतेगा! जो लड़ेगा, वो जीतेगा!!’ ‘मेहनतकश जब भी जागा, इतिहास ने करवट बदली है!’ ‘मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन का नारा! लड़कर लेंगे अपना हक़ सारा!’ जैसे नारे दूर-दूर तक सुनायी देते रहे।

मई दिवस 8 घण्टे काम के दिन और इंसान की तरह जीने के हक़ के लिए मज़दूरों के ऐतिहासिक संघर्ष की निशानी है। यह मज़दूरों की मुक्ति की राजनीतिक लड़ाई के इतिहास का मील का पत्थर है। मज़दूर वर्ग ने अपने लाखों शहीदों की कुर्बानी देकर और लम्बी तथा कठिन लड़ाइयाँ लड़कर बहुत से अधिकार हासिल किये और कई देशों में अपना राज भी क़ायम किया था। लेकिन 125 साल बाद आज मज़दूरों को फिर से पुरानी हालत में धकेल दिया गया है। आज खुली और नंगी पूँजीवादी लूट चल रही है। कहने के लिए देश में मज़दूरों के लिए 260 क़ानून बने हुए हैं लेकिन एक भी लागू नहीं होता। मज़दूरों की ताक़त भी आज बुरी तरह बिखरी और बँटी हुई है। उत्पादन के तौर-तरीक़ों में आये बदलावों ने मज़दूरों को और भी बिखरा दिया है। सरकारें पूँजीपतियों की खुली तरफदारी कर रही हैं। श्रम क़ानूनों का कोई मतलब नहीं रह गया है। पूँजी की लूट के साथ ही नेताशाही-नौकरशाही का भ्रष्टाचार कहर बरपा कर रहा है। पूँजीवादी जनतन्त्र नंगा हो चुका है। यह धनतन्त्र और लाठीतन्त्र है — इस बात को सभी देख रहे हैं। चुनावी पार्टियों की यूनियनों के नेता बिक चुके हैं और दलाली की कमाई पर चाँदी काट रहे हैं।

रैली स्‍थल पर पहूँचती मज़दूरों की टोलियां

रैली स्‍थल पर पहूँचती मज़दूरों की टोलियां

ऐसे में मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन ने आह्वान किया कि मेहनतकश जनता के सामने राह सिर्फ एक है। इस राजनीतिक- सामाजिक ढाँचे को ढहाकर एक नया विकल्प खड़ा करना होगा जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले लोग क़ाबिज़ होंगे, फैसले की ताक़त उनके हाथों में होगी। लेकिन यह राह ख़ुद चलकर हम तक नहीं आयेगी। हमें इस राह पर चलना होगा। गुज़रे दिनों की पस्ती-मायूसी को भूलकर एक नयी लड़ाई की तैयारी करनी होगी। पिछली हारों से सबक़ लेकर जीत का भविष्य रचना होगा। हमें भितरघातियों और नक़ली मज़दूर नेताओं से होशियार रहना होगा और रस्मी लड़ाइयों से दूर रहना होगा। मेहनतकश की मुक्ति ख़ुद मेहनतकश का काम है। भारत में गाँव और शहर के मज़दूरों की आबादी 50 करोड़ से अधिक है। अर्द्धसर्वहाराओं को मिलाकर कुल मेहनतकश आबादी 80 करोड़ के आसपास है। ये सभी अगर एक साथ आवाज़ उठा दें तो ऐसा बवण्डर उठेगा जिसमें अपने सिंहासन सहित सारे हुक्मरान उड़ जायेंगे। लेकिन न तो यह काम आसान है, न रास्ता छोटा है। एक कठिन, लम्बे रास्ते पर हमें आगे बढ़ना है। शुरुआत हमें यहाँ से करनी होगी कि जो मज़दूर इन बातों को समझते हैं, वे अपने दूसरे साथियों को पूँजीवाद की और इस लोकतन्त्र की अन्दरूनी सच्चाई बतायें, उनमें बदलाव के प्रति भरोसा पैदा करें, उन्हें आपसी एकता की ताक़त से परिचित करायें और भविष्य का रास्ता बतायें।

पिछले वर्ष के उत्तरार्द्ध में माँगपत्रक आन्दोलन के तहत शुरुआत इस लक्ष्य से की गयी कि जो श्रम क़ानून काग़ज़ों पर मौजूद हैं, उन्हें वास्तव में लागू करने के लिए सरकार पर मज़दूर शक्ति का दबाव बनायें, पूँजीवादी लोकतन्त्र जो वायदे करता है, जिन मज़दूर हितों-अधिकारों की पूँजीवादी दलों के नेता भी दुहाई देते रहते हैं उन्हें पूरा करने वाले नये श्रम क़ानून बनाने के लिए और उनके अमल की गारण्टी के लिए दबाव बनायें। इससे व्यापक मेहनतकश आबादी की जागृति और एकजुटता की शुरुआत होगी और उसकी नज़रों के सामने पूँजीवादी लोकतन्त्र की असलियत भी बेनक़ाब होगी। ‘माँगपत्रक आन्दोलन 2011’ क़ा मक़सद देश के ज़्यादा से ज़्यादा मज़दूरों को यह बताना है कि आज किन माँगों पर मज़दूर आन्दोलन नये सिरे से संगठित होगा और कहाँ से शुरुआत करके यह क़दम-ब-क़दम अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ेगा! इस नयी पहल के तहत मज़दूर अलग-अलग झण्डे-बैनर से नहीं बल्कि ‘मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन’ के एक ही साझा बैनर के तले अपनी माँगें उठा रहे हैं।

इस आन्दोलन की माँगों को गढ़ने में देश के अलग-अलग हिस्सों के कुछ स्वतन्त्र मज़दूर संगठनों, यूनियनों और मज़दूर अख़बार ने पहल की है, कुछ इलाक़ों में हुई मज़दूरों की छोटी-छोटी पंचायतों की भी इसमें भूमिका है, लेकिन यह आन्दोलन किसी यूनियन, संगठन या राजनीतिक पार्टी के बैनर तले नहीं है। इसका लक्ष्य है कि ‘मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन’ उन सबका आन्दोलन बने जिनकी माँगें इसमें उठायी गयी हैं, यानी देश के समस्त मज़दूर वर्ग का साझा आन्दोलन बने।

पिछले कुछ महीनों के दौरान मज़दूरों की टोलियों ने माँगपत्रक आन्दोलन के बारे में विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों और मज़दूरों की बस्तियों, लाजों-बेड़ों आदि में सघन प्रचार अभियान चलाया और हज़ारों मज़दूरों के हस्ताक्षर माँगपत्रक पर जुटाये। कई इलाक़ों में मज़दूरों की गोलबन्दी कमेटियों का भी गठन किया गया जिन्होंने हस्ताक्षर जुटाने से लेकर 1 मई की रैली की तैयारियों का ज़िम्मा सँभाला। कुछ इलाक़ों में ‘मज़दूर पंचायतें’ आयोजित करके भी माँगपत्रक पर खुली चर्चा की गयी। इस आन्दोलन के सारे ख़र्चे जुटाने का काम भी मज़दूरों के बीच से ही किया गया।

जन्तर-मन्तर पर मज़दूरों के जुटने का सिलसिला तो 10 बजे से ही शुरू हो गया था लेकिन सभा की शुरुआत दिन में 12.30 बजे से हुई जो शाम 5.30 बजे तक चलती रही।

May day 2011020

 

सभा का संचालन करते हुए बिगुल मज़दूर दस्ता, दिल्ली के सत्यम ने मई दिवस के ऐतिहासिक महत्‍व की चर्चा करते हुए बताया कि आज यहाँ दूर-दूर से आये मज़दूर अपने महान शहीदों को याद करेंगे और मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन को एक तूफानी जनान्दोलन बनाने का संकल्प लेंगे। उन्होंने कहा कि जिन इलाक़ों में भी मज़दूर इस आन्दोलन से जुड़ रहे हैं वहाँ के मालिकान अभी से बौखलाये हुए हैं और मज़दूरों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए तरह-तरह की तिकड़में करने में जुटे हुए थे। अधिकांश जगहों के मज़दूरों को महज़ इस रैली में आने के लिए ही काफी संघर्ष करना पड़ा है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारी लड़ाई कितनी कठिन होगी। लेकिन आज की रैली में उमड़ी मज़दूरों की भीड़ और उनका ज़बरदस्त जोशो-ख़रोश यह विश्वास पैदा कर रहे हैं कि हर बाधा को पार करके यह कारवाँ आगे बढ़ता जायेगा।

बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ता और ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान’ पत्रिका के सम्पादक अभिनव ने माँगपत्रक आन्दोलन का विस्तार से परिचय देते हुए कहा कि इसमें भारत की सरकार से यह माँग की गयी है कि उसने मज़दूर वर्ग से जो-जो वायदे किये हैं उन्हें पूरा करे, श्रम क़ानूनों को लागू करे, नये श्रम क़ानून बनाये और पुराने पड़ चुके श्रम क़ानूनों को रद्द करे। इस माँगपत्रक में 26 माँगें हैं जिनके दायरे में आज के भारत के मज़दूर वर्ग की लगभग सभी प्रमुख ज़रूरतें आ जाती हैं। इस माँगपत्रक में उसकी राजनीतिक माँगों को भी उठाया गया है। उन्होंने बताया कि माँगपत्रक में सबसे प्रमुखता के साथ न्यूनतम मज़दूरी और काम के घण्टों के सवाल को उठाया गया है। इसमें माँग की गयी है कि ख़ुद सरकार द्वारा तय मानकों के आधार पर एक नयी राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी तय की जाये और उसे समय-समय पर बढ़ाया जाये। जब तक कि यह नयी न्यूनतम मज़दूरी तय नहीं होती तब तक न्यूनतम मज़दूरी 11 हज़ार रुपये तय की जाये जो मज़दूर की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लगभग पर्याप्त होगी। भोजनावकाश समेत आठ घण्टे काम के दिन को सख्ती के साथ लागू करने की भी माँग की गयी है। अभिनव ने कहा कि श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने वाले मालिकान और श्रम विभाग के अधिकारियों पर तुरन्त और सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके लिए माँगपत्रक ने सरकारी श्रम विभाग के पूरे ढाँचे में परिवर्तन की माँग रखते हुए उसके जनवादीकरण की माँग को उठाया है।

May day 2011022टेक्स्टाइल मज़दूर यूनियन, लुधियाना के राजविन्दर ने पंजाब में उद्योगपतियों द्वारा मज़दूरों के शोषण की चर्चा करते हुए बताया कि पंजाब का पूरा औद्योगिक विकास प्रवासी मज़दूरों के सहारे खड़ा हुआ है। लेकिन वहाँ प्रवासी मज़दूरों को आर्थिक शोषण के साथ-साथ कई प्रकार से दमन-उत्पीड़न और अपमान का भी सामना करना पड़ता है। यही स्थिति देश के लगभग सभी हिस्सों में काम करने वाले करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की है। उन्होंने कहा कि मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन में अन्य माँगों के साथ-साथ प्रवासी मज़दूरों के सवाल को भी प्रमुखता के साथ उठाया गया है।

कारख़ाना मज़दूर यूनियन, लुधियाना के लखविन्दर ने कहा कि सरकार ने 1971 का ठेका मज़दूर क़ानून बनाते समय यह वायदा किया था कि ठेका मज़दूरी का उन्मूलन किया जायेगा, लेकिन इसका ठीक उल्टा हुआ है। सरकार ने अपने ही विभागों में ठेकाकरण किया है और निजी पूँजीपतियों को ठेका मज़दूरों का जमकर शोषण करने की छूट दे दी है। इसलिए माँगपत्रक आन्दोलन ने यह माँग की है कि सरकार ठेका मज़दूरी क़ानून के सभी प्रावधानों को सख्ती से लागू करे और उसमें काम के घण्टे नौ से घटाकर आठ करे। हर प्रकार के अस्थायी मज़दूरों और ठेका मज़दूरों को स्थायी किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि लुधियाना में बड़े पैमाने पर पीस रेट पर काम कराया जाता है जिसके मज़दूरों को कोई भी सुविधा हासिल नहीं होती। माँगपत्रक में यह माँग रखी गयी है कि अलग-अलग पेशों में पीस रेट को दिनभर में काम के घण्टे और उस पेशे की औसत उत्पादकता के अनुसार इस तरह से तय किया जाये जिससे वह न्यूनतम मज़दूरी के बराबर हो जाये।

छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ के अध्यक्ष का. गणेशराम चौधरी ने कहा कि मज़दूरों को अपनी लड़ाई में ग़रीब किसानों को भी साथ लेना चाहिए। उन्होंने छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में खड़े हुए जुझारू और व्यापक आधार वाले मज़दूर आन्दोलन की चर्चा करते हुए कहा कि आज के दौर में मज़दूरों पर हो रहे नये हमलों से लड़ने के लिए माँगपत्रक आन्दोलन के तहत की गयी शुरुआत बहुत महत्‍वपूर्ण है।

संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा, गोरखपुर के संयोजक तपीश मैन्दोला ने आते ही मज़दूरों से काफी देर तक ज़ोरदार नारे लगवाकर पूरे माहौल में नया जोश भर दिया। उन्होंने कहा कि मज़दूरों को कारख़ानों में अपने आर्थिक हितों के लिए लड़ने के साथ ही पूँजीवादी लूट से मुक्त नयी व्यवस्था के निर्माण की लम्बी लड़ाई के लिए भी तैयारी करनी होगी। अगर हम केवल आज के बारे में सोचेंगे तो आज हम जो कुछ लड़कर हासिल करेंगे उसे भी कल बचाकर नहीं रख पायेंगे।

गोरखपुर से ही आये टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन, गोरखपुर के प्रमोद कुमार ने कहा कि अलग-अलग कारख़ानों के मज़दूर जब अपने-अपने मालिक से लड़ते हैं तो उनकी ताक़त बँट जाती है जबकि मालिकान और प्रशासन की पूरी शक्ति उनके ख़िलाफ खड़ी हो जाती है। आज हर जगह के मज़दूरों की हालत कमोबेश एक जैसी है। उनकी माँगें भी एक जैसी हैं। ऐसे में यह ज़रूरी है कि मज़दूरों की आम माँगों को लेकर व्यापक एकता बनायी जाये और उन्हें लागू कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाया जाये। माँगपत्रक आन्दोलन का यही लक्ष्य है।

स्त्री मज़दूर संगठन, दिल्ली की कविता ने कहा कि इस देश के मेहनतकशों को तीन बड़े ऐतिहासिक विश्वासघातों का सामना करना पड़ा है। पहला विश्वासघात था 15 अगस्त 1947 की आज़ादी जो सिर्फ मुट्ठी भर ऊपरी जमातों की आज़ादी साबित हुई। मज़दूरों को इस आज़ादी से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उनके साथ दूसरा ऐतिहासिक विश्वासघात संविधान के नाम पर किया गया। कहा गया कि यह जनता का संविधान है लेकिन वास्तव में इस संविधान को सिर्फ 15 फीसदी लोगों के प्रतिनिधियों ने बनाया था और इसमें उन्हीं के हित सुरक्षित रखने का इन्तज़ाम किया गया है। इसी संविधान के तहत पिछले 60 साल से ग़रीबों के अधिकार छीने जा रहे हैं और उन्हें लूटा जा रहा है। कविता ने कहा कि मज़दूरों के साथ तीसरा बड़ा विश्वासघात किया है उन लोगों ने जो मज़दूरों के रहनुमा होने का दावा करते थे, यानी लाल झण्डे की चुनावी राजनीति करने वाली नक़ली कम्युनिस्ट पार्टियों और उनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनों के नेताओं ने। उन्होंने मज़दूरों से इन नक़ली लाल झण्डे वालों को किनारे लगाकर अपनी क्रान्तिकारी यूनियनें बनाने का आह्वान किया। कविता ने माँगपत्रक में स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों की चर्चा करते हुए कहा कि आज करोड़ों की संख्या में स्त्रियाँ मज़दूरी करने घर से बाहर निकल रही हैं। पुरुष मज़दूरों को उनसे होड़ नहीं महसूस करनी चाहिए बल्कि उन्हें अपनी लड़ाई में बराबरी का भागीदार बनाना चाहिए।

करावलनगर मज़दूर यूनियन, दिल्ली के आशीष ने कहा है कि आज देश की 93 प्रतिशत से भी अधिक मज़दूर आबादी असंगठित है जिसे कोई भी बुनियादी सुविधा नहीं मिली है और अपनी आवाज़ उठाने के लिए यूनियन के अधिकार से भी वे वंचित हैं। उन्होंने कहा कि अलग-अलग कारख़ानों में अकेले-अकेले लड़कर मज़दूर नहीं जीत सकते। उन्हें इलाक़ाई और पेशागत आधार पर एकजुट होना होगा। दिल्ली में 2009 में क़रीब 25,000 बादाम मज़दूरों के सफल आन्दोलन का ज़िक्र करते हुए कहा कि इस आन्दोलन में असंगठित मज़दूरों की इलाक़ाई और पेशागत पैमाने की एकता ही उनकी सबसे बड़ी ताक़त साबित हुई थी।

May day 2011023बिगुल मज़दूर दस्ता, उत्तर-पश्चिम दिल्ली के रूपेश कुमार ने दिल्ली के कारख़ानों में मज़दूरों के बर्बर शोषण का बयान करते हुए बताया कि देश की सरकार की नाक के नीचे सभी श्रम क़ानूनों का खुला उल्लंघन होता है। उन्होंने कहा कि ख़ुद दिल्ली सरकार के श्रम मन्त्री के ही कारख़ाने में न तो न्यूनतम मज़दूरी लागू होती है और न ही मज़दूरों को अन्य कोई सुविधा मिलती है। दिल्ली और इसके आसपास नोएडा, गाज़ियाबाद, फरीदाबाद, गुड़गाँव, बहादुरगढ़ आदि में डेढ़-दो करोड़ मज़दूर नारकीय स्थितियों में रहते और काम करते हैं। इन सभी मज़दूरों के हालात एक जैसे हैं। हमें अगले तीन वर्ष में इनमें से एक-एक मज़दूर के पास अपनी बात पहुँचाने के लिए अभी से लग जाना होगा।

दिल्ली मेट्रो कामगार यूनियन के अजय स्वामी ने कहा कि संसद में बैठे लोग इस देश की जनता के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं। मगर देश की 80 प्रतिशत मेहनतकश आबादी की माँगों पर कान देने की भी उन्हें फुरसत नहीं है। होगी भी कैसे? संसद में 300 से तो ज़्यादा करोड़पति बैठते हैं। बाकी भी करोड़पति ही होंगे, बस उन्होंने अपनी सम्पत्ति की पूरी घोषणा नहीं की है। यह माँगपत्रक देश की सरकार से माँग करता है कि वह अपने सभी वायदों को पूरा करे, जो उसने देश के मेहनतकशों से किये हैं। अगर वे ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें जनप्रतिनिधि कहलाने का और सरकार चलाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। उन्होंने श्रम विभाग के पूरे ढाँचे का विस्तार करने और एक लेबर या ब्वायलर इंस्पेक्टर की जगह इंस्पेक्टोरेट बनाने की माँग की जिसमें मालिकों, सरकार और मज़दूरों के प्रतिनिधि शामिल हों। इसी तरह सभी तरह की जाँच समितियों में भी इन तीनों के प्रतिनिधियों के साथ जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं और श्रम क़ानूनों के जानकारों को शामिल किया जाना चाहिए।

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के उपाध्यक्ष शेख अंसार ने कहा कि मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन ने उन्हें आज के दौर में मज़दूर आन्दोलन के सामने मौजूद समस्याओं और चुनौतियों का सामना करने के लिए सही नज़रिया दिया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी के नेतृत्व में हुए नये प्रयोगों के बारे में बताते हुए कहा कि आज हमें नयी समस्याओं से लड़ने के लिए नये औज़ार गढ़ने होंगे। साथ ही, अपने आन्दोलन की कमियों के बारे में भी ईमानदारी से मन्थन करना होगा और उन्हें दूर करके आगे बढ़ना होगा।

छत्तीसगढ़ से आये क्रान्तिकारी गायक फागूराम यादव ने कई जोशीले गीत सुनाकर दूर-दूर तक फैले मज़दूरों के हुजूम को नये जोशो-ख़रोश से भर दिया। वे छत्तीसगढ़ी भाषा में बोले लेकिन उनके उद्वेलित करने वाले भावों को समझने में किसी को भी कठिनाई नहीं हुई। उन्होंने मज़दूरों का आह्वान किया कि अपनी ज़िन्दगी बदलने के लिए और एक नया हिन्दुस्तान बनाने के लिए उठ खड़े हों।

बिगुल मज़दूर दस्ता से जुड़े प्रिंटिंग मज़दूर पुष्पराज ने कारख़ानों में मज़दूरों के शोषण और उत्पीड़न का बयान करते हुए कहा कि हम एकजुट होकर ही इस अन्याय से लड़ सकते हैं। बादाम मज़दूर यूनियन, करावलनगर के कपिल ने कहा कि आज मज़दूरों की समस्याओं पर कहीं कोई ध्यान नहीं दे रहा है। देश में बेरोज़गारी बढ़ रही है, महँगाई से जनता का जीना मुहाल हो गया है लेकिन सरकार सिर्फ धनपतियों की सेवा में लगी है।

गोरखपुर से आये संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के भरत ने कहा कि मज़दूरों की बढ़ती एकजुटता से गोरखपुर के कारख़ाना मालिक बौखलाये हुए हैं और हमें तरह-तरह से बरगलाकर, डरा-धमकाकर हमारी एकता को तोड़ने में लगे हैं। गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ उनके सरपरस्त बने हुए हैं। लेकिन इन लोगों की कोई चाल कामयाब नहीं होगी। गोरखपुर के सहजनवाँ स्थित गीडा औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूर दीपक पाण्डेय ने कहा कि मज़दूरों को दूसरों के भरोसे रहने के बजाय ख़ुद अपने भीतर से नेतृत्व पैदा करना होगा।

अगले तीन वर्ष में देश के करोड़ों मज़दूरों से माँगपत्रक पर हस्ताक्षर जुटाने और मज़दूरों के सैलाब के साथ दिल्ली को घेरने का संकल्प लेकर रैली का समापन हुआ। दिल्ली और पंजाब के साथियों के गाये गीत ‘बोल मजूरे हल्ला बोल… काँप उठी सरमायेदारी खुलके रहेगी इसकी पोल’ और गगनभेदी नारों के साथ सभा समाप्त हुई।

सभा समाप्त होने के काफी देर बाद तक भी भारी संख्या में मज़दूर जन्तर-मन्तर पर ही जमे रहे। दिल्ली और आसपास के मज़दूरों के जाने के बाद बाहर से आये जिन मज़दूरों को दूर-दूर की गाड़ियाँ पकड़नी थीं उन्होंने जन्तर-मन्तर की सड़क पर ही बैठकर खाना खाया जो आन्दोलन के शुभचिन्तकों तथा दिल्ली के विभिन्न इलाक़ों के मज़दूर परिवारों की ओर से लाया गया था। रात तक जन्तर-मन्तर पर जगह-जगह बैठे मज़दूरों के दल आपस में बातें करते और अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करते रहे।

आये दिन दिल्ली में होने वाली रैलियों के विपरीत इस रैली में हज़ारों की भीड़ के बावजूद लगातार एक दृढ़संकल्प और अनुशासन दिखायी देता रहा। भीषण गर्मी के बावजूद पूरी रैली के दौरान शायद ही कोई मज़दूर रैली स्थल से दूर गया हो। औरतों, बच्चों और बुज़ुर्ग मज़दूरों समेत सारे लोग लगातार मंच स्थल के चारों ओर जमे रहे और नारों तथा गीतों में उत्साह के साथ भागीदारी करते रहे।

मज़दूर बिगुल, मई-जून 2011


 

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