अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) पर
बहनो! साथियो!
अपनी सुरक्षा घरों की चारदीवारियों में कैद होकर नहीं की जा सकती।
बर्बरता वहाँ भी हम पर हमला कर सकती है,
रूढ़ियाँ हमें तिल-तिलकर मारती हैं वहां
अँधेरा हमारी आत्मा के कोटरों में बसेरा बना लेता है।
हमें बाहर निकलना होगा सड़कों पर
और मर्दवादी रुग्णताओं-बर्बरताओं का मुकाबला करना होगा।
समझाओ यह बात अपनी दोस्तों और बहनों को,
अम्मा और दादी को, पिताजी और भइया को,
यदि शादीशुदा हो तो अपने पति को, मित्रों-सहपाठियों को।
गुलामी की यंत्रणा का सामना नहीं किया जा सकता
स्वयं क़ैदी बनकर।
आम नागरिकों को भी समझाना होगा
एक बेहतर समाज में बेहतर तरीके से जीने के सलीके के बारे में
और बताना होगा कि इसकी एक बुनियादी गारण्टी
और पहचान है औरत की बराबरी का दर्जा,
उसका सुरक्षित आत्मसम्मान और
उसकी अस्मिता।
बहनो! साथियो!
लोगों को समझानी होगी यह बात कि जो ग़ुलाम बनायेंगे
वे ग़ुलाम बने रहने को अभिशप्त होंगे।
घरों में औरत को ग़ुलाम बनाने वाले लोग नहीं लड़ सकते
पूँजी के ख़िलाफ़ प्रभावी लड़ाई।
पूँजी की मानवद्रोही सत्ता के ख़िलाफ़ लड़ाई
तभी ताक़तवर हो सकती है और जीत तभी हासिल हो सकती है
जब आधी आबादी बाक़ी आधी आबादी को भी बराबरी का दर्जा दे,
अपने साथ ले और सड़कों पर चल रही ज़िन्दगी की
जद्दोजहद में उसे भी अपना हमसफ़र बनाये।
बताना होगा अपने लोगों को कि
जीवन में फैली हर तबाही-बर्बादी की जड़ में
समाज और राजकाज का जो ढाँचा है,
उसी ढाँचे के मालिकों ने-शासकों ने और उनके
जरख़रीद चाकरों ने बाँटा है औरत और मर्द को असमान दर्जों में,
सदियों से बनाते रहे हैं वे ऐसे नैतिक-सामाजिक नियम और विधान
और उन्हें वक़्त की ज़रूरत के हिसाब से
शातिर और बारीक बनाते रहे हैं।
समाज, राजकाज और संस्कृति के इन ढाँचों को तोड़ने के लिए
ज़रूरत है औरत-मर्द के बीच खड़ी
असमानता की दीवारों से लगातार टकराने की,
तभी एक कामयाब लड़ाई लड़ी जा सकेगी इस मानवद्रोही व्यवस्था के ख़िलाफ़
और तभी जाकर टूटेंगी औरत की ग़ुलामी की सारी ज़ंजीरें और बेड़ियाँ।