गन्ना किसानों के संकट के बारे में एस. प्रताप का दृष्टिकोण ग़लत है!

नीरज
(लेखक चण्डीगढ़ के एक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)

बिगुल’ के दिसम्बर 2002 अंक में ‘क्या कर रहे हैं आजकल पंजाब के कामरेड (लेखक – सुखदेव) और चीनी मिल-मालिकों की लूट से तबाह गन्ना किसान (लेखक – एस. प्रताप) शीर्षक दो लेख छपे हैं। ज़रा ग़ौर से देखें तो पता चलता है कि ये दोनों लेख एक-दूसरे के बिलकुल उलट हैं।

सुखदेव के लेख में कम्युनिस्टों द्वारा पंजाब में माल के लाभकारी मूल्य की किसानों की लड़ाई लड़ने को रूसी नरोदवाद का भारतीय संस्करण कहा गया है। दूसरी ओर, एस. प्रताप के लेख में लाभकारी मूल्यों की हिमायत की गयी है। पता नहीं, यह ग़लती से हुआ है या किसी विभ्रम में। एस. प्रताप का लेख यदि सम्पादक-मण्डल ने सोच-समझकर छापा है तो इससे तो यही नतीजा निकलता है कि किसान सवाल पर अभी ‘बिगुल’ के सम्पादक-मण्डल का दिमाग़ भी पूरी तरह से साफ़ नहीं है। यदि इस लेख से ‘बिगुल’ के सम्पादकों की सहमति है तब तो यही लगता है कि लेखक ही नहीं बल्कि सम्पादक-मण्डल भी नरोदवादी विचारों से अभी मुक्त नहीं हो सका है।

एस. प्रताप के लेख से यही ज़ाहिर होता है कि लेखक मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र से बिल्कुल ही नावाकिफ़ है। मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की कसौटी पर इस लेख को सिरे से ख़ारिज किया जा सकता है। फिलहाल इतने विस्तार में जाने के बजाय मैं लेख के बुनियादी भटकाव की ओर इंगितभर करूँगा।

लेखक ने अपने लेख में परस्पर-विरोधी बातें लिखी हैं। जैसे उनके मुताबिक़, फ़सल के लाभकारी मूल्य से मुख्य फ़ायदा  धनी किसान को होता है, तथा छोटे-मँझोले किसानों के लिए यह छलावा है। मगर फि़र भी वह “फ़सल का वाजिब मूल्य हासिल करने के लिए मिलों पर लगातार दबाव बनाने” की नसीहत देते हैं। आगे उनका कहना है कि छोटे किसानों की मुख्य माँग तो लागत मूल्य कम करने की है। लेखक से मेरा सवाल है कि क्या छोटे किसानों के लिए यह भी एक छलावा नहीं है? किसानों की लागत का एक हिस्सा तो उजरती श्रम भी होता है। क्या लेखक उसको भी कम करने के हक़ में है? क्या लागत कम होने से फसलों के मूल्य में गिरावट नहीं आयेगी? अगर लागत कम होने से फसलों के दाम नहीं गिरते तो क्या यह उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी नहीं होगी?

अगर थोड़ी देर के लिए लेखक के साथ सहमत हुआ जाये कि लागत का कम होना छोटे किसानों के हित में है, तो इसका अर्थ क्या होगा? यही कि छोटे पैमाने के माल-उत्पादन (जिसे देर-सबेर तबाह होना ही है) की उम्र थोड़ी लम्बी हो जायेगी। छोटे पैमाने के माल-उत्पादन को बचाये रखने में सर्वहारा वर्ग का क्या हित हो सकता है? क्या बड़े पैमाने की पैदावार हर तरह से छोटे पैमाने की पैदावार से बेहतर नहीं होती? क्या एक मार्क्सवादी को (छोटे पैमाने की पैदावार की निस्बत) बड़े पैमाने की पैदावार के हक़  में नहीं खड़ा होना चाहिए?

फिलहाल मेरे ख़याल से इतना ही काफ़ी है। समझदार के लिए इशारा काफ़ी होता है। उम्मीद है कि सम्पादक-मण्डल और श्री एस. प्रताप अपने-अपने अन्तरविरोध दूर कर लेंगे। अगर मेरी तरफ़ से और अधिक मदद की दरकार होगी तो सूचित कीजियेगा। अपना यह ख़त मैं लेनिन के हवाले से ख़त्म करूँगा:

“छोटे पैमाने की खेती और छोटी जोतों को पूँजीवाद के चतुर्दिक हमले से बचाकर किसान समुदाय को बचाने का प्रयास सामाजिक विकास की गति को अनुपयोगी रूप से धीमा करना होगा। इसका मतलब पूँजीवाद के अन्तर्गत भी ख़ुशहाली की भ्रान्ति से किसानों को धोखा देना होगा, इसका मतलब मेहनतकश वर्गों में फ़ूट पैदा करना और बहुमत की क़ीमत पर अल्पमत के लिए एक विशेष सुविधाप्राप्त स्थिति पैदा करना होगा (लेनिन: मज़दूर पार्टी और किसान)।”


बिगुल, जनवरी 2003

 

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