अडाणी की लूट उजागर करने पर स्वतन्त्र पत्रकारों को नोटिस
अब देश को बेधड़क लूट रहे धनकुबेरों का नाम लेना भी गुनाह!
आदित्य
चोर की जान पर बनी हो तो सुई की नोक भी तलवार लगती है! अडाणी के समर्थन में दिये गये कोर्ट के फ़ैसले पर यह कहावत बिल्कुल सही साबित होती है। देश में लगभग सारी मीडिया को अपनी जेब में रखने के बाद भी फ़ासीवादी भाजपा सरकार और उनके आका पूँजीपति जब लोगों से अपनी सच्चाई छिपाने में नाकामयाब साबित हो रहे हैं तो वे बचे–खुचे स्वतन्त्र पत्रकारों को डराकर या पाबन्दी लगाकर सच पर पर्दा डालने की कोशिश में लग गये हैं। इसके लिए उन्होंने लोकतन्त्र के तथाकथित तीसरे खम्भे “न्यायपालिका” का सहारा लिया है और एक फ़रमान जारी किया है कि अडाणी का नाम लेने वाले सैकड़ों वीडियो/पोस्टों को सोशल मीडिया से हटाया जाये। साथ ही उन पत्रकारों को इसके सम्बन्ध में नोटिस भी जारी किया गया है जिसके तहत वे आगे भी ऐसे कंटेंट तैयार नहीं कर सकते जिसमें अडाणी का ज़िक्र हो।
गौरतलब है कि सितम्बर 2025 में अडाणी एण्टरप्राइज़ेज़ द्वारा कई स्वतन्त्र पत्रकारों, मीडिया साइटों और यूट्यूबर/क्रिएटर्स के ख़िलाफ़ एक मानहानि का मुक़दमा दायर किया गया था। इसी मामले में रोहिणी (दिल्ली) कोर्ट की एक सिंगल–बेंच ने (एकतरफ़ा सुनवाई में) अडाणी एण्टरप्राइज़ेज़ के पक्ष में एक अन्तरिम आदेश (ex-parte) पारित किया — जिसमें कई लेख/पोस्ट/वीडियो हटाने और आगे ऐसी सामग्री प्रकाशित/प्रसारित न करने के निर्देश दिये गये। आपको बता दें कि अन्तरिम आदेश (ex-parte) वह आदेश होता है जिसे अदालत केवल एक पक्ष, याचिकाकर्ता की दलीलें सुनकर पारित करती है — दूसरे पक्ष को बुलाये या सुने बिना। ऐसा केवल तभी किया जाता है जब कोई मामला अत्यावश्यक हो तथा जिसके देरी होने से अपूरणीय क्षति हो। मतलब यह कि अडाणी की सच्चाई जनता के सामने न आये, यह देश के लिए एक अत्यावश्यक चीज़ है! इस मामले में बिना दूसरे पक्ष की बात सुने फ़ैसला सुना दिया गया। इन पत्रकारों में रवीश कुमार, अभिसार शर्मा, परंजॉय गुहा, रवि नायर, अबीर दासगुप्ता, अयास्कान्त दास, आयुष जोशी आदि जैसे बड़े नाम समेत कुल 12 नाम शामिल हैं जिनके 221 पोस्ट और वीडियो को हटाने का निर्देश कोर्ट ने दिया है।
ख़ैर, आज तो यह बिल्कुल साफ़ ही है कि लगभग सारी इलेक्ट्रॉनिक और प्रिण्ट मीडिया पर भाजपा या किसी न किसी बड़े धन्नासेठ का ही क़ब्ज़ा है। आधे से ज़्यादा सोशल मीडिया का कंटेंट भी पेड होता है। हमारे देश की मीडिया किस स्तर तक बिक चुकी है, इसका अन्दाज़ा तो इस बात से ही लगाया जा सकता है कि 2024 के विश्व प्रेस स्वतन्त्रता सूचकांक में भारत 180 देशों की सूची में 159वें नम्बर पर था। लेकिन इसके बावजूद कुछ चन्द ऐसे स्वतन्त्र पत्रकार मौजूद हैं जो एक हद तक जनता को सच्चाई से रूबरू कराने का काम कर रहे हैं। लेकिन देश को लूटने वालों, मसलन अम्बानी–अडाणी और समस्त पूँजीपति वर्ग, तथा उनकी ही नुमाइन्दगी करने वालों को ये रास कैसे आ सकता है कि जनता सच जान जाये।
आज जिस स्तर पर भाजपा खुले आम पूँजीपतियों के लिए काम कर रही है, यह किसी से शायद ही छिपा हो। ऐसे में थोड़ी-सी सच्चाई भी जनता को पता चलना सत्ता में बैठे फ़ासीवादियों को गवारा नहीं है। लोग पहले ही महँगाई, बेरोज़गारी, महँगी शिक्षा, महँगी स्वास्थ्य सेवाओं आदि जैसे मुद्दों से परेशान हैं। भाजपा और संघ की लाख कोशिशों के बावजूद हिन्दू–मुस्लिम, मन्दिर–मस्जिद, हिन्दुस्तान–पाकिस्तान जैसे नकली मुद्दे बड़ा रूप अख़्तियार नहीं कर पा रहे हैं। इसके उलट, बिहार में अडाणी को सस्ते दर पर ज़मीन देने, गडकरी के बेटे के एथेनॉल घोटाले से लेकर वोट चोरी का मामला छिपाये नहीं छिप रहा है। ऐसे में रही-सही मीडिया की आज़ादी इनके गले में हड्डी बन रही है।
आज हम जिस फ़ासीवादी दौर में जी रहे हैं, उसमें सिर्फ़ “जनतन्त्र” का खोल मात्र बचा है। इन फ़ासीवादियों ने इस जनतन्त्र की अन्तर्वस्तु को दीमक की तरह अन्दर से पूरा खोखला कर दिया है। कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया तो पिछले 10 सालों से नंगे तौर पर यह काम कर रही है, लेकिन बची–कुची कसर अब न्यायपालिका का टेकओवर करके (जो आज अब खुलकर सामने आ गया है, हालाँकि यह काम तो संघ परिवार लम्बे समय से कर रहा था) उन्होंने पूरी कर दी है। वैसे तो आम तौर पर भी पूँजीवाद के अन्तर्गत न्याय व्यवस्था बहुसंख्यक जनता के लिए अन्याय की व्यवस्था ही होती है, लेकिन हमारे देश में आज फ़ासीवादी दौर में अब यह काम जितनी नंगई और बेशर्मी के साथ अंजाम दिया जा रहा है, उसकी मिसाल शायद ही कहीं और हो। इन पूँजीपतियों के लिए अदालतें ऐसे काम कर रही हैं जैसे ये इनके प्राइवेट कोर्ट हों। इनके लिए फ़ास्ट–ट्रैक ऑर्डर आ जाते हैं, इनके लिए अन्तरिम आदेश (ex-parte) दिये जाते हैं। अम्बानी के बेटे के ख़िलाफ़ वन्तारा केस में मात्र 5 दिन में पूरी कार्यवाही हो जाती है और भारत का सर्वोच्च न्यायालय रिलायंस फ़ाउण्डेशन को क्लीन–चिट दे देता है!
‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंकों में भी हमने बताया था कि कैसे आज न्यायपालिका का फ़ासीवादीकरण हो चुका है। किसी भी पूँजीवादी देश में ‘क़ानून सबके लिए बराबर है’ या ‘न्यायपालिका की निष्पक्षता’ का चाहे जितना ढिंढोरा पीटा जाये, लेकिन न्याय के तराज़ू का पलड़ा हमेशा शासक–शोषक वर्ग के पक्ष में झुका रहता है। लेकिन अगर सत्ता पर फ़ासीवादी हुक़ूमत क़ाबिज़ हो तो न्यायपालिका का असली चेहरा साफ़–साफ़ दिखने लगता है। अडाणी–अम्बानी के पक्ष में दिये गये ये फ़ैसले इस बात को शत–प्रतिशत सही साबित करते हैं।
कुल मिलाकर बात यह है कि न्यायपालिका द्वारा स्वतन्त्र पत्रकारों के ख़िलाफ़ फ़रमान देने और उन पर लगाम कसने की यह कोशिश इस फ़ासीवादी दौर में कोई अप्रत्याशित बात नहीं है। इन स्वतन्त्र पत्रकारों की भी एक सीमा है क्योंकि इनमें से अधिकांश इसी व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर ही काम करना चाहते हैं और इसका अतिक्रमण करने के बारे में सोचते तक नहीं है, जिस वजह से ये इस सत्ता के सामने ज़्यादा देर टिक नहीं सकते। असल में तो आज हमें एक ऐसे वैकल्पिक मीडिया के ढाँचे को खड़ा करना होगा जो मज़दूर वर्गीय नज़रिये से देश और दुनिया में हो रही तमाम चीज़ों को दिखाये, जिसका एक क्रान्तिकारी चरित्र हो, जो पूँजीपतियों और धन्नासेठों के टुकड़ों पर नहीं पलता हो बल्कि आम मेहनतकश जनता द्वारा पोषित हो, और जो इस व्यवस्था की असलियत को पूर्ण रूप से खोलकर रख दे। तभी जाकर इन फ़ासिस्टों की रग–रग से लोगों को वाक़िफ़ कराया जा सकता है और असल मायनों में फ़ासीवादी राजनीति का भण्डाफोड़ किया जा सकता है।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025













