दुर्गावती वोहरा (दुर्गा भाभी ): भारत की क्रान्तिकारी विरासत में चमकता हुआ एक नाम
अंजलि
आज सत्तासीन फ़ासीवादी शक्तियों द्वारा इतिहास के विकृतिकरण को अभूतपूर्व गति से अंजाम दिया जा रहा है। एक ओर जहाँ जनता के क्रान्तिकारी नायकों की विरासत पर लगातार धूल और राख डाली जा रही है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के दौरान जिनका इतिहास माफ़ी माँगने, मुख़बिरी करने और ग़द्दारी का है, उन्हें नायक बनाने की कुत्सित कोशिश की जा रही है।
भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन के शानदार इतिहास में एक नाम दुर्गावती वोहरा का है, जिनकी विरासत को फ़ासिस्टों द्वारा जानबूझकर छिपाया जा रहा है। क्रान्तिकारी दुर्गावती वोहरा को क्रान्तिकारियों के जत्थे द्वारा दुर्गा भाभी ही बुलाया जाता था क्योंकि वे “भगवती भाई” यानी क्रान्तिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी थीं।
दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 शहज़ादपुर, इलाहाबाद में हुआ था। इनका विवाह भगवती चरण वोहरा से हुआ था, जो ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचएसआरए) के सदस्य थे। भगवतीचरण वोहरा के ज़रिये ही दुर्गावती क्रान्तिकारी कामों में सक्रिय हुई थीं। इस दौरान उन्होंने बम बनाने से लेकर बन्दूक चलाना तक सीखा।
जेल में क्रान्तिकारियों को जो कपड़े भेजे जाते थे, दुर्गा भाभी उनकी तुरपन खोलकर उनमें कोडवर्ड में सन्देश लिखकर भेजती थीं।
साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी। 10 दिसम्बर 1928 को लाहौर में क्रान्तिकारियों की एक बैठक बुलायी गयी जिसकी अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की। इसमें जयगोपाल, भगतसिंह, राजगुरु और चन्द्रशेखर आज़ाद आदि शामिल हुए थे। इन चारों क्रान्तिकारियों को लाहौर के पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या की ज़िम्मेदारी दी गयी। इस घटना में अंग्रेज़ अधिकारी साण्डर्स को मारकर लाजपत राय की मौत का बदला लिया गया।
इस घटना के बाद पूरे लाहौर में चप्पे-चप्पे पर पुलिस की नाकेबन्दी कर दी गयी थी, जिसमें भगतसिंह और राजगुरु को लाहौर से बाहर निकालने में दुर्गा भाभी ने अपनी और अपने 3 साल के बच्चे शची की जान जोखिम में डालकर मदद की थी। दुर्गा भाभी भगतसिंह की पत्नी बनकर अपने बेटे शची के साथ लाहौर से बंगाल गयी थीं जिसमें राजगुरु अर्दली के भेष में थे। इस यात्रा के लिए भगतसिंह का नाम रंजीत और दुर्गा भाभी का नाम सुजाता रखा गया था। इस यात्रा के ज़रिये ही भगत सिंह और राजगुरु को लाहौर से सफलतापूर्वक बाहर निकाला जा सका। इस रूप में अपने देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन में दुर्गावती ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
एक साक्षात्कार के दौरान दुर्गा भाभी ने कहा था कि “औरतें आँसू बहाने के लिए नहीं बनीं, अगर ज़रूरत पड़ी तो मैं फिर बन्दूक उठाऊँगी।”(नवभारत टाइम्स, 1975, स्वतन्त्रता दिवस विशेषांक)
इस बात को दुर्गा भाभी ने अपने जीवन में लागू भी किया। सन 1930 में चन्द्रशेखर आज़ाद द्वारा क्रान्तिकारी गतिविधियों के मद्देनज़र पंजाब के पूर्व गवर्नर जनरल और युनाइटेड प्रॉविन्स के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम हेली की हत्या करने के लिए दुर्गावती, विश्वनाथ वैशम्पायन और सुखदेव को बम्बई भेजा गया था। ऐन वक़्त पर हेली का कार्यक्रम बदल गया लेकिन लेमिंगटन रोड पुलिस स्टेशन के बाहर क्रान्तिकारियों के हमले में अंग्रेज़ पुलिस सार्जेंट टेलर और उसकी पत्नी को गोली लगी। दुर्गावती वहाँ से बहुत होशियारी से निकल गयीं।
दुर्गा भाभी इस बात की प्रतीक हैं कि राष्ट्रीय आन्दोलन में केवल पुरुष ही नहीं स्त्रियाँ भी बराबरी से लड़ रही थीं। वे राष्ट्रीय आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी का प्रतिनिधित्व करती हैं और यह स्थापित करती हैं कि किसी भी सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में स्त्रियों की भागीदारी अनिवार्यत: होनी चाहिए।
दुर्गा भाभी जिस संगठन से जुड़ी थीं उसका नाम था- ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’। राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रान्तिकारियों की जो धारा थी, ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ उसी धारा से जुड़ा था, जोकि 1924 में शचिन्द्रनाथ सान्याल के नेतृत्व में बना था। इस संगठन से रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खान, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगवती चरण वोहरा, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी आदि और बाद में भगतसिंह भी जुड़ते हैं। यही संगठन 1928 में भगतसिंह के नेतृत्व में तब्दील होकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ बनता है। यह संगठन इस आधार पर गठित होता है कि क्रान्तिकारी जिस तरह का समाज बनाना चाहते थे, उनका मक़सद संगठन के नाम में झलकना चाहिए। एचएसआरए के क्रान्तिकारी स्पष्ट करते हैं कि आज़ादी का मतलब केवल अंग्रेज़ों को भगाना नहीं है, बल्कि एक ऐसे समाज के निर्माण की लड़ाई है जिसमें एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति का और एक देश के द्वारा दूसरे देश का लूटा जाना असम्भव हो जाये; जहाँ पर उत्पादन, राजकाज और पूरे सामाजिक ढाँचे पर मज़दूर और मेहनतकश वर्ग का नियन्त्रण हो। दूसरी बात जो एचएसआरए की विरासत में प्रतिबिम्बित होती थी, वह थी सच्ची धर्मनिरपेक्षता, जिसके अनुसार धर्म और राज्य को कभी मिलाया नहीं जाना चाहिए। उस समय अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के ख़िलाफ़ क्रान्तिकारी लगातार संघर्ष कर रहे थे।
27 फ़रवरी 1931 को चन्द्रशेखर आज़ाद इलाहाबाद में अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो गये। इसके कुछ ही दिनों बाद, 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने फाँसी का फन्दा चूम लिया। इनके अलावा बहुत सारे क्रान्तिकारियों को आजीवन कारावास और काले पानी की सज़ा सुनायी गयी थी और ब्रिटिश हुकूमत की पूरी ताक़त क्रान्तिकारी धारा को ख़त्म करने में झोंक दी गयी। इस दबाव और एक सही वैचारिकी से लैस नेतृत्व के अभाव में क्रान्तिकारी धारा बिखर गयी।
भगवतीचरण वोहरा 1930 में ही एक बम परीक्षण के दौरान शहीद हो गये थे। वे अपने साथियोें के साथ मिलकर भगतसिंह और अन्य क्रान्तिकारियों को जेल से छुड़ाने की योजना पर काम कर रहे थे। लेकिन पति की शहादत के बाद भी दुर्गा भाभी क्रान्तिकारी कामों में बढ़-चढ़कर भागीदारी करती रहीं, हालाँकि 1931 के बाद से क्रान्तिकारी धारा के बिखरने के साथ ही दुर्गा भाभी के जीवन पर भी इसका प्रभाव पड़ा।
आज हम जिस फ़ासीवादी दौर में जी रहे हैं, हालत यह है कि बेरोज़गारी, महँगाई, महँगी शिक्षा, मुसलमानों के खिलाफ़ दमन, स्त्री-उत्पीड़न, दलित-उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। एनसीआरबी 2025 के आँकड़े के अनुसार, 2023 में एक साल के भीतर 1,32,000 नौजवानों ने आत्महत्या की है। महँगाई ने आम मेहनतकश जनता की कमर तोड़ दी है। दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के आँकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में दुर्गावती वोहरा जैसे क्रान्तिकारियों की विरासत को जानना और अधिक प्रासंगिक और ज़रूरी हो जाता है ताकि हम उनके विचारों और आदर्शों से प्रेरणा लेकर उनके सपनों के समाज के निर्माण के लिए आगे आयें।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025













