1975 का आपातकाल और आज का अघोषित आपातकाल
प्रसेन
25 जून को हमारे देश में इन्दिरा गाँधी सरकार द्वारा थोपे गये आपातकाल के 50 साल पूरे हो गये। आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर काँग्रेस सरकार द्वारा लगाये गए आपातकाल को ‘संविधान हत्या दिवस’, ‘लोकतन्त्र की हत्या’ करने का सबसे ज़्यादा शोर आपातकाल में माफ़ी माँगने का इतिहास रचने वाले माफ़ीवीर संघ परिवार ने मचाया। जबकि मोदी के सत्तासीन होने बाद से फ़ासिस्टों ने बिना आपातकाल लागू किये आपातकाल के दौर के काले कारनामों को गुणात्मक तौर पर मीलों पीछे छोड़ दिया है। देश के मेहनतकशों को जानना चाहिये कि 1975 में आपातकाल क्यों लगाया गया था? आपातकाल लगने के बाद क्या हुआ था? मज़दूर वर्ग को यह तो ज़रूर ही जानना चाहिए कि आपातकाल के समय संघ परिवार की क्या भूमिका थी? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह समझना है कि फ़ासीवादी भाजपा बिना आपातकाल लगाये जनविरोधी बर्बर कृत्यों को अंजाम देते हुए देश को जिस मरघट पर लाकर खड़ा कर दिया है, उसे हम किस तरह से देखें?
वास्तव में, आपातकाल की घटना को इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व में या इन्दिरा गाँधी के चुनाव को उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किये जाने और उसके बाद के राजनीतिक घटनाक्रम की तात्कालिकता में नहीं समझा जा सकता। हक़ीक़त यह है कि आज़ादी के बाद भारतीय शासक वर्ग ने पूँजीपति वर्ग के हित में जिस पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का रास्ता चुना था, उसका परिणाम 1960 के दशक तक आने लगा था। आज़ादी के शुरू के तीन दशकों के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था लाभप्रदता गतिरोध यानी मुनाफ़े की औसत दर में ठहराव और गिरावट का शिकार हो रही थी। इसके अलावा 1960 के दशक में दो युद्धों (भारत-चीन, भारत-पाकिस्तान) से राजकोषीय घाटा बहुत बढ़ गया था। 1965 में भारत में सूखा पड़ा, जिसका नतीजा खाद्य संकट के रूप में आया। 1973 में ‘लम्बी मंदी’ शुरू हो चुकी थी। भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका काफ़ी असर था। इन सारी वजहों से 1970 के दशक तक पूँजीवादी व्यवस्था का आर्थिक संकट बहुत बढ़ गया था। इस आर्थिक संकट और काँग्रेस के कुशासन और आज़ादी के समय से जनता से किये गए वायदों से मुकरने के ख़िलाफ़ असन्तोष और मोहभंग सतह पर आना शुरू हो गया था। जनता का गुस्सा उभारों-आन्दोलनों के रूप में यहाँ-वहाँ फूटते हुए 1974 तक देशव्यापी बन चुका था। बिहार जैसे राज्यों में छात्रों-युवाओं का आन्दोलन, 1974 की 22 दिनों की रेल हड़ताल, जिसमें लगभग 27 लाख कर्मचारी शामिल हुए थे। 1967 के नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के भीषण राजकीय दमन से भी जनता का गुस्सा और बढ़ा। पूँजीवादी शासक वर्ग के शासन की वैधता पर जनता की निगाहों में सवाल खड़े हो चुके थे और स्वयं पूँजीपति वर्ग के शासक धड़े की आपसी एकजुटता डावाँडोल थी। इस तरह आर्थिक संकट इस समय तक आते-आते कई अन्तरविरोधों की गाँठ के पैदा होने के कारण एक राजनीतिक संकट में तब्दील हो गया।
इस संकट ने शासक वर्गों के बीच के अन्तरविरोधों-टकरावों को भी तीखा कर दिया था। इन्दिरा गाँधी और सत्तारूढ़ काँग्रेस का बड़ा हिस्सा इसे आम तौर पर संसदीय जनतन्त्र व खासकर काँग्रेस के शासन और इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व के लिए एक खतरे के रूप में देख रहा था। जबकि जयप्रकाश नारायण और घुटे हुए बुर्जआ राजनीतिज्ञ इसे पूरी व्यवस्था के लिए चुनौती और चेतावनी के रूप में देख रहा था। इस संकट के कारण ही आनन-फ़ानन में भारत के पूँजीपति वर्ग के शासक धड़े ने इन्दिरा गाँधी की अगुवाई में एक ऐसी प्रतिक्रिया दी जो बहुत सुचिन्तित नहीं थी और जिसे समूचे शासक वर्ग यानी पूँजीपति वर्ग के हर हिस्से का पुरज़ोर समर्थन भी नहीं हासिल था। यह इस राजनीतिक संकट से निपटने का एक बहुत सुविचारित और प्रभावी रास्ता नहीं था और बाद में शासक वर्ग ने इस बात को समझा भी।
बहरहाल, आपातकाल लागू होने के बाद पूरे देश में सरकार के विरोधियों/आलोचकों का भयंकर दमन किया गया, जनता के सारे मौलिक अधिकार, यहाँ तक कि जीने का अधिकार तक छीन लिया गया। चारों तरफ़ आतंक का माहौल क़ायम किया गया था। प्रेस की स्वतन्त्रता छीन ली गयी थी। सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और हज़ारों बेगुनाह लोगों को जेलों में ठूँस दिया गया। लोगों को जेलों में यातनाएँ दी गयीं। जब एक तरफ़ आधी रात को राजनीतिक नेताओं को नज़रबन्द किया जा रहा था, वहीं आन्ध्र प्रदेश में छात्र नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर नक्सलवाद के नाम पर दमन का पाटा चलाया जा रहा था। ‘मीसा’ जैसे क़ानूनों के तहत हज़ारों लोग जेलों में बन्द थे। देश के उत्तरी भाग में झुग्गी-झोपड़ियों को ध्वस्त करने, अतिक्रमण हटाने और जबरन नसबन्दी की घटनाओं के अलावा आन्ध्रप्रदेश में मुठभेड़ों में हत्याएँ हो रही थीं।
इस चर्चा के बाद यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि इस समय संघ परिवार के शूरवीर क्या कर रहे थे? क्या वे आपातकाल के ख़िलाफ़, इन्दिरा सरकार की तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे? जी नहीं! संघ परिवार के शूरवीर घुटनों के बल इन्दिरा गाँधी से क्षमायाचना कर रहे थे। आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने 22 अगस्त 1975 को इन्दिरा गाँधी को लिखे अपने पहले पत्र में उनके 15 अगस्त के भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। ग़ौरतलब है कि इन्दिरा गाँधी ने 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस पर अपने भाषण में आपातकाल लगाने को सही ठहराया था। देवरस ने लिखा कि आरएसएस हिन्दुओं का संगठन बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन वह कभी भी उनकी सरकार के ख़िलाफ़ नहीं है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले को पलटकर इन्दिरा गाँधी के चुनाव को वैध ठहराने का फ़ैसला आने पर देवरस ने दूसरा क्षमापत्र लिखा। 10 नवम्बर 1975 को इन्दिरा गाँधी को लिखे अपने दूसरे पत्र में देवरस ने सुप्रीम कोर्ट में जीत के लिए उन्हें बधाई देते हुए शुरुआत की: “मुझे आपको बधाई देने दीजिए क्योंकि उच्चतम न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों ने आपके चुनाव की वैधता घोषित कर दी है। पत्र के अन्त में उन्होंने एक बार फिर उनसे आरएसएस पर प्रतिबन्ध हटाने के लिए कहा: “लाखों आरएसएस कार्यकर्ताओं के निःस्वार्थ प्रयासों का इस्तेमाल सरकार के विकास कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने के लिए किया जा सकता है।”
इन दोनों पत्रों को इन्दिरा गाँधी द्वारा नज़रन्दाज़ कर देने के बाद देवरस ने तीसरा पत्र लिखकर विनोबा भावे से सिफ़ारिश की कि वे इन्दिरा गाँधी को इसके लिए राजी करें। क्योंकि इन्दिरा गाँधी का विनोबा के आश्रम में जाने का कार्यक्रम था। देवरस ने भावे से विनती की कि वे आरएसएस के पक्ष में हस्तक्षेप करें और इन्दिरा गाँधी को प्रतिबन्ध हटाने के लिए राजी करें। इसके अलावा आरएसएस के बड़े नेताओं में अटल बिहारी वाजपेयी के माफ़ीनामे से बहुत से लोग परिचित हैं। यही नहीं, उत्तर प्रदेश भारतीय जनसंघ ने 25 जून, 1976 को (आपातकाल की घोषणा की पहली वर्षगाँठ पर) सरकार को पूर्ण समर्थन की घोषणा की और किसी भी सरकार विरोधी गतिविधि में भाग न लेने का भी वचन दिया। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भारतीय जनसंघ के 34 नेता कांग्रेस में शामिल हो गए। इसका नतीजा यह हुआ आरएसएस का सरकार के साथ एक समझौता हुआ और जनवरी 1977 के अन्त में आत्मसमर्पण दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने का निर्णय लिया। लेकिन चूँकि उसके पहले ही आपातकाल हटा लिया गया इसलिए आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
इन तथ्यों से स्पष्ट है कि आरएसएस जिस तरह सावरकर के माफ़ीनामे को छुपाने के लिए झूठ का अम्बार खड़ा करती है वैसे ही आपातकाल के दौरान अपने घृणित कायराना कृत्यों को छुपाने के लिए अब झूठ का पहाड़ खड़ा कर रही है। सच्चाई यह है कि जो काम आरएसएस और उनके नेताओं ने अंग्रेज़ों के समय में किया था, वही काम आरएसएस और उनके नेताओं ने आपातकाल के दौरान भी किया यानी-माफ़ीनामा और दमन में सरकार का साथ देना! वास्तव में, मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी और छात्रों-युवाओं के बीच मौजूद क्रानितकारी एक्टिविस्ट सबसे बहादुरी के साथ लड़ रहे थे, आपातकाल का विरोध कर रहे हैं, दमन-उत्पीड़न झेल रहे थे और यहाँ तक कि शहादतें भी दे रहे थे। इनमें क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट सबसे आगे थे, जो जनता के हक़ों पर हो रहे हमलों का ज़बर्दस्त प्रतिरोध कर रहे थे। दूसरी ओर, आरएसएस कायरता के साथ अपनी माँद में दुबक गयी थी और उसके नेता शर्मनाक माफ़ीनामे लिख रहे थे। आज भाजपा की मोदी-शाह सरकार और भाजपाई आपातकाल के 50 वर्षों के पूरे होने पर सियारों की तरह हुआँ रहे हैं कि आपातकाल लागू करके इन्दिरा गाँधी और कांग्रेस ने कितना ज़ुल्म किया। लेकिन ये ख़ुद उस समय माफ़ीनामों के बण्डल पर बैठकर इन्दिरा गाँधी के नाम कसीदे पढ़ रहे थे।
भारत के फ़ासिस्टों के इस झूठ को जानने के बाद इस पर बात करना बहुत ज़रूरी है कि घोषित आपातकाल की जगह पर वर्तमान समय में खासकर भाजपा के सत्तारोहण के बाद जो अघोषित आपातकाल पूरे देश में लागू है, वह किन अर्थों में 1975 के आपातकाल से कई गुना ख़तरनाक, बर्बर और जनविरोधी है।
सबसे पहला तो यह है कि बुर्जुआ संविधान द्वारा जो भी सीमित लोकतान्त्रिक अधिकार जनता को मिले थे, आरएसएस/भाजपा ने शासन-प्रशासन की मशीनरी पर आन्तरिक कब्ज़े के ज़रिये उसे जनता के लिए काफ़ी हद तक बेमानी बना चुकी है। मोदी युग में बुर्जुआ लोकतन्त्र की सभी संस्थाओं को अधिक से अधिक अप्रासंगिक बना दिया गया है। संसद में विपक्ष को पंगु बना दिया गया है। जिसमें विपक्ष की अपनी निष्क्रियता के अलावा विपक्ष के सांसदों को मनमाने ढंग से निलम्बित करने जैसे दमनात्मक क़दम भी ज़िम्मेदार है। राज्य-तन्त्र, विशेष रूप से नौकरशाही, सेना, पुलिस और निर्वाचन आयोग, ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाओं पर आरएसएस और भाजपा ने आन्तरिक कब्ज़ा कर लिया है। चुनावों में न केवल चुनाव आयोग भाजपा द्वारा नियमों की धज्जियाँ उड़ाते देखता रहता है बल्कि अपने आन्तरिक कब्ज़े के दम पर भाजपा ईवीएम मशीनों के ज़रिये धाँधली करती है। तमाम ठोस सबूतों के बावजूद न तो चुनाव आयोग इस कान देता है और न ही न्यायालय। पुलिस प्रशासन भाजपा के ख़िलाफ़ वोट देने वाले मतदाताओं को बूथ पर पहुँचने से खुलेआम रोकती है। लेकिन इस पर चुनाव आयोग, न्यायालय आँख बन्द कर लेता है। अभी एक नए फ़ासीवादी हमले के तहत बिहार विधानसभा चुनाव के कुछ ही महीने पहले आनन-फ़ानन में चुनाव आयोग ने बीते 24 जून को एक अधिसूचना जारी की जिसके अनुसार वह बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन निरीक्षण करेगी। इसके तहत अब बिहार के हर मतदाता को यह साबित करना होगा कि वे यहाँ के नागरिक हैं। ऐसे काग़ज़ दिखाने होंगे जिससे चुनाव आयोग सन्तुष्ट हो जाय अन्यथा उन्हे वोट करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। यानी भाजपा का नारा है कि इस क़वायद के ज़रिये पहले वह वोटरों को चुनेगी और फिर वोटर उसे चुनेंगे!
नौकरशाही और सेना में फ़ासीवादियों की घुसपैठ ने भी पिछले सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए हैं। हाल ही में सरकार ने प्रशासनिक सेवकों को आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने की अनुमति देकर इस काम को और आसान बना दिया है। यही नहीं, प्रशासनिक सेवाओं में हिन्दुत्ववादी नज़रिया रखने वाले लोगों की घुसपैठ सुनिश्चित कराने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में व्यवस्थित तरीक़े से धाँधली की जा रही है।
मोदी सरकार के 10 सालों में न्यायपालिका में फ़ासिस्टों की घुसपैठ अभूतपूर्व है। धर्मनिरपेक्षता, नागरिकता, नागरिक और जनवादी अधिकारों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण मुद्दों पर न्यायपालिका ने या तो सरकार के हिन्दुत्ववादी एजेंडे का पक्ष लिया है या फिर विवादग्रस्त मुद्दों से किनारा कर सरकार के लिए आसानी पैदा किया है। अयोध्या का फ़ैसला, 2015 में एनआरसी के प्रकाशन का निर्देश, 2021 में उच्चतम न्यायालय द्वारा रोहिंग्याओं के निर्वासन की अनुमति, 2022 में मोदी को गुजरात नरसंहार में मिलीभगत से दोषमुक्त करने आदि मामले ग़ौरतलब हैं। इसके अलावा, वर्तमान फ़ासीवादी शासन के तहत न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियाँ आम हो चुकी हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम को उनकी सेवानिवृत्ति के लगभग तुरन्त बाद केरल का राज्यपाल नियुक्त किया था। फासीवादियों ने न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को अयोध्या और राफेल फैसलों में उनकी भूमिका के लिये सांसद के पद से भी नवाज़ा था। अयोध्या का फैसला सुनाने वाली पीठ में शामिल दो अन्य न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति अब्दुल नज़ीर और न्यायमूर्ति अशोक भूषण को भी क्रमशः आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल और राष्ट्रीय कम्पनी विधि अधिकरण के अध्यक्ष के आकर्षक पदों से पुरस्कृत किया गया। सोहराबुद्दीन मुठभेड़ प्रकरण में अमित शाह के ख़िलाफ़ एक मामले की सुनवाई कर रहे महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.एच. लोया की रहस्यमयी मृत्यु के बारे में सभी परिचित हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि न्यायमूर्ति लोया की जगह लेने वाले एक न्यायाधीश ने अमित शाह को निर्दोष करार दे दिया और सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति लोया की मौत की आगे की जाँच करने की याचिका को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। अभी ताज़ा घटनाक्रम के तहत सुप्रीम कोर्ट ने मोदी और संघ परिवार पर कार्टून बनाने वाले कार्टूनिस्ट को फटकार लगाते हुए इसे स्वतन्त्रता के अधिकार का दुरुपयोग बताया है।
वर्तमान दौर में शिक्षा व्यवस्था में फ़ासीवादी घुसपैठ नयी ऊँचाइयों पर जा पहुँची है। अब यह केवल पाठ्यक्रमों में बदलाव और मिथकों को बढ़ावा देने तक सीमित नहीं है। नयी शिक्षा नीति-2020 भाजपा के साम्प्रदायिक एजेण्डा को ध्यान में रखकर बनायी गयी है। JNU और FTII जैसी संस्थानों पर फ़ासीवादी हमले भी अकादमिक जगत में संघियों के घुसपैठ के मद्देनज़र ही किये गये थे। आरएसएस के लोगों को सचेतन रूप से UGC, NAAC, ICHR, NCERT, NTA जैसे संस्थानों में नियुक्त किया जा रहा है। विश्वविद्यालयों में बहुत-सी जगह छात्रसंघ चुनाव बैन है। प्रगतिशील छात्र संगठनों की किसी भी तरह की गतिविधि को या तो सीधे रोक दिया जाता है या संघी प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा नियमों के जाल में उलझा दिया जाता है। विश्वविद्यालय आरएसएस/भाजपा के कार्यक्रमों का मंच बन गया है।
कला, संस्कृति का इस्तेमाल हिन्दुत्व की विचारधारा फैलाने में ज़बरदस्त तरीक़े से किया जा रहा है। हिटलर द्वारा सिनेमा को फ़ासीवादी प्रोपेगैण्डा के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल करने से प्रेरणा लेते हुए हिन्दुत्व फ़ासीवादी भी ढेर सारी प्रोपेगैण्डा फिल्म जैसे वीर सावरकर, जहाँगीर नेशनल यूनिवर्सिटी, आर्टिकल 370, सिंघम रिटर्न्स, सूर्यवंशी, कल्कि, आदि को प्रमोट कर रहे हैं जिनमें हिन्दुत्व का प्रचार और सीधे या घुमा-फिराकर मुस्लिम जनता के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक ज़हर हिन्दू आबादी में भरा जा रहा है।
विभिन्न क्षेत्रों के लोक कलाकारों और संगीतकारों को सचेतन तौर पर संघ परिवार के घृणा फैलाने वाले एजेण्डा के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। मोदी काल में सन्दीप देव, कमल आग्नेय और कवि सिंह जैसे हिन्दुत्व पॉप स्टार्स उभरे हैं जो ज़हरीला मुस्लिम-विरोधी संगीत तैयार कर रहे हैं और वे यूट्यूब व सोशल मीडिया पर बेहद लोकप्रिय भी हो रहे हैं।
आपातकाल के दौर में प्रेस की स्वतन्त्रता छीन ली गयी थी लेकिन मोदी के अघोषित आपातकाल में मुख्य धारा की मीडिया मोदी सरकार की भोंपू बन गयी है जो दिन-रात मोदी सरकार का झूठा गुणगान करने के अलावा जनता का ध्यान भटकाने के लिए साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद का ज़हर उगलता रहता है। ऐसे सभी पत्रकार जो मोदी की ज़रा सी भी आलोचना करते हैं उन्हें मुख्यधारा की मीडिया से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दिया गया है और लगतार धमकी और प्रताड़ना की वजह से वे वैकल्पिक मीडिया और यूट्यूब की शरण में जा रहे हैं। अब फ़ासिस्ट सत्ता वैकल्पिक मीडिया प्लेटफॉर्म्स को भी निशाना बना रही है क्योंकि सोशल मीडिया और यूट्यूब की सामग्री की पहुँच व्यापक हो चुकी है, गोदी मीडिया चैनलों को देखना जनता बन्द कर रही है।
फ़ासिस्ट मोदी सरकार के 10 साल ने मुस्लिम समुदाय को शैतान के रूप में पेश करना सुनिश्चित किया है और मुस्लिम-विरोधी नफरती भाषण एवं घृणा व अपराध नयी ऊँचाइयों पर जा पहुँची है। संघ परिवार ने अपनी तमाम संस्थाओं, मुख्यधारा की मीडिया, सोशल मीडिया तथा व्हाट्सऐप के ज़रिये समाज में लगातार मुस्लिम-विरोधी नफ़रती भाषण तथा डिजिटल सामग्री फैला रहा है। लव जिहाद, लैण्ड जिहाद, वोट जिहाद जैसे झूठों को इन माध्यमों के ज़रिये बार-बार अन्तहीन रूप से फैलाया जा रहा है ताकि मध्य वर्गों की सामाजिक-आर्थिक तथा पितृसत्तात्मक असुरक्षाओं का लाभ उठाते हुए इन झूठों को एक व्यापक परिघटना के रूप में स्वीकार्य बनाया जा सके और हिन्दु जनता तथा मुस्लिम जनता के बीच एक निरन्तर तनाव की स्थिति बनी रहे। मुस्लिम-विरोधी नफ़रती भाषण अब उस मुक़ाम तक जा पहुँचे है कि अब तथाकथित धर्मसंसदों में खुले आम मुस्लिम जनता का नरसंहार करने का आह्वान किया जा रहा है। मोदी के कार्यकाल में हिन्दू त्योहारों को साम्प्रदायिकता फैलाने के उपकरण के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। राम नवमी आदि त्योहारों पर जानबूझकर मुस्लिम बहुल इलाक़ों से जुलूस निकाला जाता है। जानबूझ कर उकसाने की कोशिश की जाती है। दंगा भड़कने की स्थिति में पुलिस प्रशासन मुसलमानों पर ही कार्यवाई करती है। आँकडों के मुताबिक मोदी सरकार के 2017 तक के कार्यकाल में 2920 दंगे हुए, जिसमें 389 लोगों की मौत हुई और 8890 लोग घायल हुए।
मोदी के कार्यकाल का एक अन्य पहलू सड़क की हिंसा में अभूतपूर्व बढ़ोतरी है क्योंकि फ़ासिस्ट गुण्डों को खुला हाथ दे दिया गया है। पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे तर्कवादियों की नृशंस हत्या इसके कुछ उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त नवउदारवाद और हिन्दुत्व के ज़हरीले मिश्रण से समाज में प्रतिक्रियावादी ताकतें स्वतःस्फूर्त ढंग से समाज में हिंसा को बढ़ा रही है जो गोहत्या के नाम पर मुस्लिम लोगों की मॉब लिंचिंग और दलितों, आदिवासियों तथा महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते अपराधों के रूप में सामने आ रही है। रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और ऊना घटना ने यह स्पष्ट रूप से दिखाया था कि संघ परिवार की गहरी जाति-विरोधी मानसिकता किस प्रकार की त्रासदियों को जन्म दे सकती है। उन्नाव, कठुआ, हाथरस में बलात्कार की बर्बर घटनाएँ और बृजभूषण शरण सिंह व प्रज्वल रेवन्ना व बिल्किस बानो के बलात्कारियों जैसे सीरियल यौन-उत्पीड़कों और बलात्कारियों को राजनीतिक शह देना हिन्दुत्व फ़ासिस्ट सत्ता के पितृसत्तात्मक चरित्र की साक्ष्य है। आँकडों के मुताबिक़ देश में 2010 से लेकर 2017 के बीच मॉब लिंचिंग की 63 घटनायें हुई, जिसमें 28 लोगों की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इन घटनाओं में 52 फ़ीसदी अफ़वाहों पर आधारित थीं। मॉब लिंचिंग की 63 घटनाओं में से 32 घटनाएँ गायों से सम्बन्धित थी, और अधिकतर मामलों में राज्य में बीजेपी सत्ता में थी। इन दिल दहला देने वाली 63 घटनाओं में मरने वाले 28 लोगों में से 86 फ़ीसदी यानी कि 24 मुस्लिम थे। इन घटनाओं में कुल 124 लोग ज़ख़्मी हुए। साल 2018 से 2022 के बीच अनुसूचित जाति के ख़िलाफ़ अपराध के 2,47,527 मामले दर्ज हुए। वहीं, साल 2018 से 2022 के बीच अनुसूचित जनजाति के ख़िलाफ़ अपराध के 41,236 मामले दर्ज हुए। इस दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के ख़िलाफ़ अपराध में क्रमश 34.5 प्रतिशत और 54.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इसी तरह एनसीआरबी के आँकडों के मुताबिक़ महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों की कुल संख्या 2014 के 3,37,922 से बढ़कर 2020 में 3,71,503 हो गई। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ प्रति लाख जनसंख्या पर महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध 2014 के 56.3 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 66.4 प्रतिशत हो गई।
मोदी के अघोषित आपातकाल का एक अन्य आयाम शत्रु की परिभाषा को मुस्लिम से विस्तृत कर उन सभी को शामिल करने का है, जो सरकार से सवाल उठाने की जुर्रत करते हैं। फ़ासिस्टों द्वारा एण्टी-नेशनल या अर्बन नक्सल इसी से पैदा हुई संज्ञाएँ हैं। भीमा कोरेगाँव मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ताों और जेएनयू के छात्र उमर खालिद को फ़र्जी मामलों में गिरफ़्तार करना तथा फादर स्टैन स्वामी तथा प्रो. जी.एन. साईबाबा की संस्थानिक हत्याएँ यह दिखाती है कि फ़ासिस्ट अपने आलोचकों को शान्त कराने के लिए किस हद तक जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त फ़ासिस्टों ने मोदी काल में अपने कम्युनिस्ट-विरोधी प्रचार तेज कर दिया है क्योंकि उन्होंने इतिहास से सीखा है कि केवल कम्युनिस्ट ही उनसे सुसंगत, जुझारू और प्रभावी लड़ाई लड़ सकते हैं और उन्हें हरा सकते हैं।
वास्तव में जिन फासिस्ट गुण्डा-वाहिनियों को आज हिंसा की खुली छूट देकर अल्पसंख्यक आबादी व आम जनता को आतंकित करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, उसका असली निशाना क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग है और उसे कालान्तर में उसी के विरुद्ध इस्तेमाल करने के लिए तैयार किया जा रहा है। यह बात हम मज़दूरों को बहुत अच्छी तरह से समझ लेने की ज़रूरत है। निश्चित तौर पर, आज उनके निशाने पर मुख्य तौर पर मुसलमान, प्रगतिशील बुद्धिजीवी, जनवादी अधिकार कार्यकर्ता, छात्र-युवा कार्यकर्ता मुख्य तौर पर हैं, लेकिन जैसे ही मज़दूर वर्ग प्रतिरोध के लिए संगठित होना शुरू करेगा, वैसे ही इन आतंकी गिरोहों का इस्तेमाल सबसे पहले मज़दूरों और उनका नेतृत्व करने वाले क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के विरुद्ध किया जायेगा। इसके लिए फ़ासिस्ट स्वयं वर्ग-चेतना से रहित और विमानवीकरण का शिकार हो चुके लम्पट मज़दूरों-मेहनतकशों और लम्पट टुटपुँजिया आबादी का ही इस्तेमाल करते हैं। इसका मुक़ाबला मज़दूर वर्ग अपने आपको एक सर्वहारा वर्ग के तौर पर, यानी राजनीतिक चेतना से लैस वर्ग के तौर पर संगठित करके और साथ ही व्यापक मेहनतकश जनता को संगठित करके ही कर सकता है।
अग्रेज़ों की कुख्यात दण्ड संहिता में संशोधन कर उसे और दमनकारी रूप देते हुए ‘भारतीय दण्ड संहिता’ लायी जा चुकी है। सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर फ़र्जी मुक़दमे और जेल आम बात है। यूएपीए के तहत बहुत से निर्दोष जेलों में सड़ रहे हैं। आँकडों के मुताबिक़ यूएपीए के तहत 2018 और 2020 के बीच 4,690 लोगों को गिरफ्तार किया गया, लेकिन केवल 3 प्रतिशत लोगों पर ही दोषसिद्ध हो सका। जमानत न मिल सकने के कारण बहुत बड़ी संख्या में लोग जेलों में पड़े रहते हैं। 2018 और 2020 के बीच उत्तर प्रदेश में यूएपीए के तहत दोषी ठहराए गए 1,338 व्यक्तियों में से केवल 6 प्रतिशत को ही दोषी ठहराया गया, जबकि अन्य 94 प्रतिशत में से किसी को भी जमानत नहीं मिली।
मज़दूरों की मेहनत को लूटने में पूँजीपतियों को बाधा न आये इसलिए ‘चार नये लेबर कोड’ तैयार हैं और गुजरात में इस दिशा में अमल भी शुरू कर दिया गया है। अभी हाल ही गुजरात में फैक्ट्री क़ानून में संशोधन कर अब मज़दूरों से 12 घण्टे काम करवाने की तैयारी की जा चुकी है। ऐसे क़दम कई प्रदेशों में उठाये जा चुके हैं, जिनमें से कुछ कांग्रेस-शासित राज्य भी हैं! मज़दूरों के शोषण की दर और सघनता को बढ़ाने के मामले में सारी पूँजीवादी पार्टियाँ सहमत हैं क्योंकि पूँजीपति वर्ग मन्दी से बिलबिलाया हुआ है। देश में मोदी सरकार द्वारा निजीकरण का बुलडोज़र सारे सरकारी विभागों को रौंद रहा है। रेल, बिजली, बैंक, शिक्षा, चिकित्सा विभाग तेज़ी से निजीकरण की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल में नव उदारवादी ज़ोर को इसी से समझा जा सकता है कि 1991 से अब तक कुल विनिवेश का क़रीब 72 प्रतिशत मोदी सरकार के 10 सालों में हुआ है। कर्मचारियों के हक़ की लड़ाई और आम तौर पर विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए एस्मा और शान्ति भंग की धाराओं के अलावा आन्दोलनकारियों पर फ़र्जी मुक़दमों का ज़बरदस्त इस्तेमाल किया जा रहा है।
इन घटनाओं, तथ्यों और आँकडों की रोशनी में सहज ही समझा जा सकता है कि 1975 के आपातकाल की तुलना में वर्तमान दौर का अघोषित आपातकाल कितना भयानक है! वास्तव में, इस गुणात्मक अन्तर को हम आपातकाल के दौर में और वर्तमान दौर में आर्थिक संकट और उससे पैदा होने वाले राजनीतिक संकट को हल करने वाली सत्ता के अन्तर में देख सकते हैं। इन्दिरा गाँधी के समय का आर्थिक संकट वर्तमान आर्थिक संकट जैसा नहीं था न ही इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में काँग्रेस कोई फ़ासिस्ट शक्ति थी। आपातकाल का निर्णय सत्तारूढ़ शासक वर्ग का जल्दबाज़ी और अपरिपक्वता भरा का निर्णय था जिसका समाहार बुर्जआ वर्ग ने उसके बाद ही कर लिया था। वर्तमान दौर का आर्थिक संकट दीर्घकालिक मंदी का संकट है जो 1970 के दशक में बस शुरू ही हुई थी। इससे पैदा होने वाले राजनीतिक संकट को हल करने के लिए ही आज पूँजीपति वर्ग की ज़रूरतों के अनुसार फ़ासीवादी ताकतें सत्ता में है। आज के दौर का फ़ासीवाद 20वीं सदी के शुरुआती दशकों वाला फ़ासीवाद नहीं है जिसकी पहचान आपवादिक कानूनों के ज़रिये बुर्जआ जनवाद के रूप का ही उन्मूलन किये जाने से की जा सकती हो। फ़ासीवादी राज्य-परियोजना अब किसी घटना का रूप नहीं लेती बल्कि एक सतत और निरन्तर जारी परियोजना का रूप लेती है जो कभी पूर्ण नहीं होती। इस दौर में फ़ासीवाद एक लम्बी प्रक्रिया में, राज्य-उपकरण पर आन्तरिक कब्ज़े और समाज में आणविक व्याप्ति के ज़रिये उभरता है। साम्राज्यवाद के नवउदारवादी दौर में बुर्जआ जनवाद का इस हद तक क्षरण हो चुका है कि फ़ासीवादी शक्तियाँ बिना पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल और संविधान को खत्म किये बगैर बड़े बुर्जआ वर्ग द्वारा उन्हें सौंपे कार्यभार को पूरा कर सकती हैं। इसके अलावा फ़ासीवादी ताकतों ने भी अपने ऐतिहासिक अनुभवों और साथ ही नयी राजनीतिक परिस्थिति और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का समाहार किया है। पिछले सात और विशेष तौर पर पिछले चार दशकों में फ़ासीवादी शक्तियों ने राज्य-मशीनरी और समाज में इस क़दर आन्तरिक पकड़ बनायी है कि किसी वजह सरकार से बाहर जाने की सूरत में राज्यसत्ता और समाज में फ़ासीवादियों की पकड़ बनी रहेगी और दीर्घकालिक संकट के समूचे दौर में वे बार-बार और आम तौर पर पहले से ज़्यादा आक्रामकता के साथ वापसी करते रहेंगे। इस वजह से 1975 के आपातकाल की तुलना में वर्तमान दौर का अघोषित आपातकाल जनता के लिए कई गुना यन्त्रणादायी और दीर्घकालिक है और इसीलिए फ़ासीवाद का ध्वंस भी बहुत सचेत और लम्बी तैयारी की माँग करता है। फ़ासीवाद मज़दूर वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन है और इसे ज़मींदोज़ करने के लिए आज के फ़ासीवाद की विशिष्टताओं को हमें समझना होगा और उसके अनुसार ही अपनी लड़ाई रणनीति और आम रणकौशल को तय करना होगा।
मज़दूर बिगुल, जुलाई 2025