आपस की बात
– जगदेव, बणी गांव, सिरसा
एक का नाम है रामलाल और एक मोहम्मद नूर।
सीमेण्ट के एक कारख़ाने में दोनों हैं मज़दूर।।
दोनों के चूल्हों की हालत बहुत ही ख़स्ता है।
परिवार बड़ा है दोनों का, घर मुश्किल से चलता है।।
एक जैसी तनख़्वाह दोनों की एक उम्र के लगते हैं।
शहर के सरकारी स्कूल में दोनों के बच्चे पढ़ते हैं।।
ना कोई अच्छी कुर्सी घर में ना चारपाई ना थाली।
30 की उम्र में 50 की लगती दोनों की घरवाली।।
घरों में पोंछा बर्तन करने रोज़ाना दोनों जाती हैं।
मुँह अँधेरे निकलती हैं, दिन ढलने पर घर आती हैं।।
पूरे कुटुम्ब के सारे के सारे धरे पड़े अरमान।
तीन ही इच्छाएँ हैं सबकी रोटी, कपड़ा और मकान।।
एक सुबह जब दोनों पहुँचे कारख़ाने में काम पर।
ख़बर मिली कटौती हुई है उनकी मेहनत के दाम पर।।
कारख़ाने का मालिक बोला, मन्दा है अब व्यापार।
तुम्हारी जो तनख़्वाह 6 थी, अब मिलेगी 5 हज़ार।।
6 में भी बड़ी मुश्किल थी, अब 5 में कैसे घर चलायेंगे।
आटा, चीनी, चावल, बच्चों की फ़ीस कैसे दे पायेंगे।।
रामलाल और नूर ने मिलकर एक बात अब ठान ली।
तनख़्वाह काटने के विरोध में सुबह दोनों ने मुट्ठी तान ली।
धीरे धीरे दोनों के साथ मज़दूर सारे लगने लगे।
“पगार कटौती मंज़ूर नहीं” बुलन्द नारे लगने लगे।।
देखते देखते दो चार दिनों में आन्दोलन खड़ा हो गया।
मालिक के लिए ये संकट अब बहुत बड़ा हो गया।
मालिक मैनेजर से बोला, ये किसने हवा चलायी।
कौन-सा क्रान्तिकारी है जो कर रहा इनकी अगुवाई।।
गर्दन झुका मैनेजर बोला, यहीं के दो मज़दूर हैं साहेब।
एक का नाम है रामलाल और एक मोहम्मद नूर है साहेब।
नाम सुनते ही मालिक की मुस्कान और बाँछे खिल गयी।
ऐसा लगा जैसे संकट से निपटने की विधि मिल गयी।।
मालिक बोला ग़ौर करने योग्य यहाँ कुछ बिन्दु हैं।
पता करो मज़दूरों में, कितने मुस्लिम कितने हिन्दू हैं।।
मैनेजर बोला मुश्किल नहीं ये तो बड़ा आसान है साहेब।
800 मज़दूर हिन्दू हैं और 200 मुसलमान हैं साहेब।।
मालिक बोला फूट डालो की नीति लागू करवा दो।
मुस्लिमों के कारण हिन्दू दिक़्क़त में हैं, ये बात फैला दो।।
अगर ये मुल्ले अपने देश पाकिस्तान चले जायें।
रातों रात हिन्दुओं की पगार चार गुना हो जाये।।
अपने को पाकिस्तानी सुन मुस्लिम भी तैश में आने लगे।
अब लाल की जगह हरे और भगवे झण्डे लहराने लगे।।
रामलाल और नूर भी अब समझा-समझा के थक गये थे।
एकता भाईचारे की मिसालें सुना-सुना के थक गये थे।।
नफ़रत की ताक़त के आगे मोहब्बत का सूरज ढल गया।
कामगारों का प्यारा आन्दोलन मज़हबी दंगे में बदल गया।
नारे लिखे थे जिस बैनर पर वो लाशों के नीचे धँस रहा था।
और चौबारे की खिड़की पर मिल-मालिक खड़ा हँस रहा था।।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन