मज़दूर बिगुल पढ़कर एक क्लास पूरा हो जाता है
कालेश्वर, हज़ारीबाग, झारखण्ड
मज़दूर बिगुल की तमाम सामग्री पठनीय है। संशोधनवाद के बारे में इतने बेहतरीन आज के वक्त में ज़रूरी आलेख पढ़कर बेहद खुशी हुई। आगे और ऐसे आलेख पढ़ने की आशा करूँगा। बिगुल के तमाम लेखकों कार्यकर्ताओं को मेरी ओर से जोहार है।
आज की मौजूदा परिस्थिति में बिगुल राजनीतिक रूप से सचेत करता है। बिगुल पढ़कर एक क्लास पूरा हो जाता है। मेरे गाँव के लायब्रेरी भवन का इस वर्ष निर्माण होने जा रहा है। अब अपना भवन प्रेमचंद पुस्तकालय का होगा। बिगुल का स्थायी सदस्य बन जाने का प्रयास है। मेरा गाँव कोलियरी एरिया में है। यहाँ मज़दूर आन्दोलन का दौर 1970 के दशक से देखता आ रहा हूँ। लायब्रेरी गाँवों की और आन्दोलनों की प्रतिनिधि के बतौर स्थापित होगी। आने वाली पीढ़ी के लिए एक रौशनी होगी। मैं दिखाऊँगा आपको अपना गाँव।
मैं जनसंस्कृति मंच का राष्ट्रीय पार्षद हूँ। आपका बिगुल मैं क्यों पढ़ता हूँ। दरअसल बिगुल में कभी-कभी आलोचना वामपंथियों पर जमकर होती है तो मैं गुस्साता नहीं हूँ बल्कि स्वतंत्र आलोचना आँखें खोलने लायक होती है।
सभी अपने तेवर में होते हैं। इसलिए अपनी कमियों को भूल जाते हैं। जब कोई दर्शक के जैसे इन कमियों को दिखाता है तो मज़ा आता है। महसूस होता है। आत्मालोचना के लिए प्रेरित करता है। आपलोगों में भी एक शालीनता आ जायेगी। धीरज से आगे बढ़ेंगे। व्यापक दृष्टिकोण लेकर जब आगे बढ़ेंगे तो निश्छल होकर बोलेंगे। आपकी शुरुआत स्वागतयोग्य है। कार्यशैली सचमुच अभिवादन करने लायक है।
प्रायः लेखकों में भी एक तेवर होता है। कभी-कभी अपनी विनम्रता भी खो देते हैं। बहुत उदारवादी होना तो ठीक नहीं किन्तु परिस्थिति और मजबूरी को नहीं देखना भी भूल है। भारत के माओवादियों को ही देखिये अहमता में इतने दूर चले गये कि वे समझते हैं कि हमसे क्रान्तिकारी दूसरा कोई नहीं। अब धीरे-धीरे राजनीति पीछे हो गयी और बंदूक की अहमता आगे बढ़ गई। इतना कि अपने समकक्ष वामपंथियों की ही हत्या करने लगे। साथ ही आम आदमी को तो सबसे अधिक इनके द्वारा मार खानी पड़ी। ये इस बात को भी भूल गये कि अन्तिम समय में भी माओ कहा करते थे कि हम अभी कम्युनिस्ट बन रहे हैं। इसलिए सांस्कृतिक क्रान्ति इनका सबसे विकल और सहज कल्पना के रूप में आया। मैं आपके आगे बढ़े हुए क़दम का क़ायल हूँ। कोई रास्ता तो दिखाए। बस यूँ ही कुछ नहीं कह दिया। आपकी जंग यानी संघर्ष पर सबकी नज़र है।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2015













