पूँजीवादी व्यवस्था में न्याय सिर्फ़ अमीरों के लिए है!
इस सर्वज्ञात तथ्य को अब सुप्रीम कोर्ट के जज साहबान भी स्वीकार कर रहे हैं

रामबाबू

कहते हैं कि यदि पैरवी अच्छी हो तो हारा हुआ मुक़दमा भी लोग जीत जाते हैं। पर यह बात अपने आपमें पूरी नहीं है। सच तो यह है कि अच्छी पैरवी के लिए पैसे खर्च करने पड़ते हैं। जो पैसा खर्च करेगा उसे ही न्याय मिलेगा। यह बात जनता तो अपने अनुभवों से जान चुकी है। किन्तु इस पूँजीवादी व्यवस्था के पोषक सुप्रीम कोर्ट के बड़े-बड़े जज तक अब इस बात को स्वीकार कर रहे हैं।

विगत दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज वी.एस. चौहान की बेंच ने न्याय प्रभावशाली व्यक्तियों ने बड़े अपराधियों द्वारा ख़रीदे जाने पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने कहा कि अमीर और बड़े अपराधी अपनी याचिकाओं को सुनने के लिए बड़े वक़ीलों के माध्यम से अपने मुक़दमे की तारीखें जल्दी-जल्दी लगवाते हैं, यदि हम इस तरह के मुक़दमों को ही सुनते रहेंगे तो ग़रीबों के मुक़दमों तक पहुँच ही नहीं सकते। जस्टिस चौहान ने ही कुछ दिन पहले अहमदाबाद का बहुचर्चित इशरतजहाँ फर्जी मुठभेड़ काण्ड के मुख्य आरोपी आईपीएस अधिकारी पीपी पाण्डेय की याचिका को खारिज करते हुए कहा था – हमें इस बात का दुख है कि न्यायालय का अधिकतर समय बड़े अपराधियों एवं बड़े वक़ीलों को सुनने में ही लग जाता है।

वैसे तो भारतीय संविधान कागज़ पर अमीर-ग़रीब सभी को बराबर न्याय का अधिकार देता है किन्तु सच तो यह है कि न्याय का तराजू पैसों वाले के हाथों में है। न्याय की प्रक्रिया ही ऐसी है कि ग़रीब तो पहले से ही टूटा हुआ न्यायालय पहुँचता है व ज़िन्दगी भर न्याय की उम्मीद में न्यायालय के चक्कर लगाते-लगाते उसकी ज़िन्दगी ही ख़त्म हो जाती है। किसी ग़रीब को न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच जाना तो अपने आपमें मुश्किल बात है। उसकी पूरी ज़िन्दगी निचली अदालतों के चक्कर काटते हुए ही ख़त्म हो जाती है। ग़रीब व्यक्ति न्court-corruption-480pxयाय की प्रक्रिया से बिल्कुल अनभिज्ञ रहता है। न्याय के नाम पर उससे ठगी भी आसान है। ग़रीब भी इस बात को अच्छी तरह से समझने लगा है कि न्याय के लिए बहुत ही मोटी रक़म चाहिए, उसका विश्वास न्यायपालिका से उठने लगा है। किन्तु क़ानून के शीर्ष पैरोकार इस पूँजीवादी व्यवस्था के लिए ग़म्भीर संकट मान रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस वी.एन. खरे मानते हैं कि विधायिका और कार्यपालिका से तो आम लोगों का विश्वास पहले ही उठ गया है। न्यायपालिका से भी विश्वास उठना अत्यन्त गम्भीर है। न्याय इतना मँहगा हो गया है कि ग़रीब उसे प्राप्त नहीं कर सकता है। आम आदमी के लिए न्याय है ही नहीं। ग़रीब निर्दोष होते हुए भी दोषी साबित कर दिया जाता है। बड़े वक़ील न कर पाने की हैसियत में वे ख़ुद को निर्दोष साबित नहीं कर पाते। पैसे वाले शातिर होते हैं वे पहले ही बड़े वक़ील का इन्तजाम करते हैं और हारी बाजी भी जीत लेते हैं।

सच तो यह है कि भारतीय जेलें बेगुनाहों से भरी पड़ी हैं। वे उस अपराध की सजा काट रहे हैं जो उन्होंने किया ही नहीं। वे वर्षों से काल कोठरी में इसलिए बन्द हैं कि वे अपनी पैरवी करने के लिए बड़ा वक़ील करने में अक्षम हैं। बड़े-बड़े हत्यारे दिन-दहाड़े हत्या करने के बावजूद साक्ष्य के अभाव में बरी हो जाते हैं, बलात्कारी छूट जाते हैं। ये अपराधी पैसे के बल पर सत्ता के साथ दुरभि सन्धि बनाते हैं, पुलिस को ख़रीद लेते हैं। पुलिस उनके पक्ष में कमजोर विवेचना करती है। इसी आधार पर उन्हें कोर्ट से जमानत मिल जाती है।

पिछले वर्ष लखनऊ के पास मोहनलाल गंज के बलसिंह खेड़ा में युवती के साथ किये गये पाशविक कृत्य एवं हत्या अपराधियों के साथ सत्ता का गँठजोड़ ताजा उदाहरण है। साक्ष्य बता रहे हैं कि उस युवती के साथ सामूहिक दरिंदगी की गई है किन्तु असली गुनहगारों को बचाने के लिए उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार की पुलिस ने इस गुनाह के पीछे सिर्फ़ एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया। अभियुक्त से पहले पुलिस का ही अधिकारिक बयान आ चुका था कि इस वारदात को एक व्यक्ति ने ही अंजाम दिया है। पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टरों ने ऐसी कमजोर रिपोर्ट दी कि वह अकेला नामजद अपराधी भी छूट जायेगा। क़ानून भी ख़रीद लिया जायेगा। असली अपराधी आजाद घूम रहे हैं। वे आजाद इसलिए हैं क्योंकि वे पैसे वाले हैं, सत्ता के साथ हैं।

जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए वे राजसत्ता सँभाल रहे हैं।

देश के पूँजीवादी समाचार पत्रों के आँकड़े ख़ुद बता रहे हैं कि आज सभी राजनीतिक दलों में कम से कम 80 प्रतिशत नेताओं पर आपराधिक मुक़दमे दर्ज हैं। किन्तु भारतीय क़ानून उन्हें अपराधी सिद्ध नहीं कर सकता। जजों को भी इन्हीं पक्ष में फैसला सुनाना मज़बूरी बन जाता है। उसूलपरस्त और ईमानदार जज भी कुछ नहीं कर पाता। जजों के ऊपर कथित प्रभावशाली लोग कैसा दबाव बनाते हैं, सुप्रीम कोर्ट में चल रहा ताजा मामला ‘सहारा प्रकरण’ की बेंच के जजों के वक्तव्यों से समझा जा सकता है। इस बेंच के एक प्रमुख जज केहर ने उच्चतम-न्यायालय की रजिस्ट्री विभाग को नोटिस लिखकर कहा कि सहारा से जुड़े किसी भी मामले की सुनवाई करने वाली बेंच के अवकाशप्राप्त दूसरे जज राधाकृष्ण ने कहा था कि सहारा केस की सुनवाई के दौरान उन्हें काफी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से दबावों का सामना करना पड़ रहा है। सहारा-प्रकरण न्याय के पूँजीवादी खेल का ज्वलन्त उदाहरण है। सहारा परिवार ने सालों से आम ग़रीबों की छोटी बचत से पूँजी का बड़ा साम्राज्य खड़ा किया, मीडिया, रीयल एस्टेट, खुदरा व्यापार, होटल व्यवसाय में भी पूँजी लगायी। मनोरंजन जगत व राजनीतिक पार्टियों के कई बड़े नेताओं के काले धन ने भी सहारा का पूँजी बाज़ार बढ़ाने में मदद की। पर सहारा की अँधेरगर्दी भरे तौर-तरीक़ों ने पूँजी के वित्तीय बाजार में अराजकता पैदा कर दी, लाखों छोटे निवेशकों के साथ की जाने वाली धोखाधड़ी और वादाखिलाफी से उपजा आक्रोश पूँजीवादी व्यवस्था के हित में नहीं था। ऐसी स्थिति में पूँजीवादी व्यवस्था ने वित्त बाज़ार की नियामक संस्था ‘सेबी’ और न्यायपालिका के जरिए हस्तक्षेप किया और सहारा को नियन्त्रित करने के लिए क़ानूनी प्रक्रिया की शुरुआत की।

सहारा प्रमुख सुब्रत राय और उसके दो निवेशकों को गिरफ्तार किया तथा ग़ैर क़ानूनी ढंग से निवेशकों से जुटाई गई 24000 करोड़ रुपये वापस करने का ठोस टाइमटेबल माँगा। सुब्रत राय आज भी तिहाड़ जेल में हैं। उसे आज विदेशों में अपनी सम्पत्ति बेचने के लिए तिहाड़ जेल का शानदार, सुसज्जित वातानुकूलित कक्ष दे दिया गया। उसके पक्ष में मुक़दमे सुनाने के लिए बड़े-बड़े जजों पर दबाव बनाया गया। देश के शीर्षस्थ वक़ीलों की टीम सहारा ग्रुप को बचाने में लगी है।

लूट की इस पूँजीवादी व्यवस्था में क़ानून का फायदा भी लुटेरों को ही मिलेगा। यदि कोई ईमानदार व्यक्ति कुछ करना भी चाहे तो लूट की इस व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं ला सकता। न्याय की यह व्यवस्था ही पैसे वालों के लिए है। ग़रीब और आम आदमी को न्याय पाने के लिए इस व्यवस्था से उम्मीद करना एक भ्रम है। उसे पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करना होगा। तभी वह न्याय की उम्मीद कर सकता है।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2015


 

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