जोतिबा फुले की क्रान्तिकारी विरासत को जानो!

अंजलि

जाति विरोधी और स्त्री मुक्ति संघर्ष पर कोई भी विमर्श जोतिबा फुले के बिना सम्भव नहीं है। फुले ने अपना पूरा जीवन समाज में प्रचलित रुढ़ियों, पाखण्डों की धज्जियाँ उड़ाते हुए तर्क और विज्ञान के प्रचार-प्रसार में खपा दिया। जोतिबा ने सदियों से चली आ रही असमानता, जातिगत भेदभाव, स्त्रियों की ग़ुलामी को आँख मूँदकर स्वीकार कर लेने की बजाय इसके ख़िलाफ़ संघर्ष का रास्ता चुना। फुले ने अपने लेखन तथा संघर्ष से एक ऐसी मशाल जलायी जो आज भी हमारी राहों को रोशन कर रही है।

जोतिबा फुले और उनकी जीवनसाथी सावित्रीबाई फुले

अस्मितावादी और संशोधनवादी राजनीति के पैरोकारों द्वारा जोतिबा की विरासत को दलित मुक्ति की अस्मितावादी निम्नबुर्जुआ राजनीतिक धारा पर अपचयित करने की कोशिश होती रही है। आज कल डॉ. अम्बेडकर की दलित मुक्ति की व्यवहारवादी, सुधारवादी बुर्जुआ धारा के साथ फुले की विरासत को जोड़ने का एक नया ट्रेण्ड चलन में है जो न केवल जोतिबा फुले की विरासत के साथ अन्याय है बल्कि यह डॉ. अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत को भी न समझने का परिणाम है। फुले की विरासत सत्ताधारियों से याचिका और शोषणकारी क़ानूनी दायरे में समझौते की व्यवहारवादी विरासत नहीं है बल्कि सामाजिक बदलाव के लिए जनता के जुझारू संघर्ष की विरासत है। सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के लिए जोतिबा फुले सरकार की बाट नहीं देखते थे। उन्होंने उपलब्ध साधनों से ही अपना संघर्ष शुरू किया। अपने शुरूआती दिनों में वे अंग्रेजी राज के समर्थक रहे थे लेकिन बाद में उन्होंने अंग्रेजी राज की क्रूर सच्चाई को पहचानना और उसकी आलोचना करना शुरू कर दिया था। फुले ‘किसान का कोड़ा’ नामक अपनी रचना में लिखते हैं कि “अगर अंग्रेज अफ़सरशाही और ब्राह्मण सामन्तशाही की चमड़ी खुरच कर देखा जाय तो नीचे एक ही खून मिलेगा- यानी दोनों में कोई अन्तर नहीं है।”

जोतिबा फुले एक ऐसे समय में पैदा हुए जब हमारा देश उपनिवेशवादी और सामन्ती शोषण के जुए तले पिस रहा था। उस समय दलित व स्त्री उत्पीड़न चरमोत्कर्ष पर था। ऐसे दौर में जोतिबा फुले का पूरा जीवन जाति-उन्मूलन और स्त्रियों की शिक्षा व मुक्ति के लिए समर्पित रहा। आज हम एक फ़ासीवादी दौर में जी रहे हैं जब प्रतिक्रियावादी ताकतें पूरे समाज में हावी हैं तथा तर्क और विज्ञान की हत्या करके पाखण्ड और कूपमण्डूकताओं को स्थापित कर रही हैं। स्त्रियों और दलितों के उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। शिक्षा कुछ मुट्ठी-भर लोगों की बपौती बनती जा रही है तब जोतिबा फुले की विरासत को याद करना बहुत ज़रूरी हो जाता है

फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे के भिड़ेवाडा में एक ऐसे कठिन दौर में हुआ था जब शिक्षा के सामने जाति की दीवार खड़ी थी और महिलाओं के लिए शिक्षा हासिल करना प्रतिबन्धित था। समाज में धार्मिक कूपमण्डूकता व पाखण्ड का बोलबाला था। उस दौर में ब्राह्मणवादी ताकतों से संघर्षरत लोगों में अंग्रेजी सत्ता के प्रति आम तौर पर नरम रुख था जिसका स्पष्ट प्रभाव जोतिबा पर भी था। उनकी शिक्षा एक ईसाई मिशनरी स्कूल में हुई थी जहाँ से उन्होंने फ़्रांसीसी क्रान्ति, पुनर्जागरण, प्रबोधन के बारे में जाना और मानवतावाद, सेक्युलर विचारों, जनवाद और समानता के विचारों के बारे में जाना। अंग्रेज़ों को वह शुरू में इन विचारों और आदर्शों का वाहक मानते थे और उन्हें यह उम्मीद थी कि अंग्रेज़ी सत्ता भारत में दबे-कुचले लोगों को बराबरी देगी, विज्ञान और तर्क की शिक्षा देगी, स्त्रियों को बराबरी देगी। लेकिन अपने जीवन के उत्तरार्द्धा में उनकी ये उम्मीदें खण्डित हो चुकी थीं और वे अंग्रेज़ी शासन की विविध प्रश्नों पर आलोचना कर रहे थे। जो बात सबसे महत्वपूर्ण है और जोतिबा फुले को अन्य समाज सुधारकों से अलग भी करती है वह यह है कि जोतिबा की विचार यात्रा स्थैतिक नहीं थी, बल्कि गुज़रते वक़्त के साथ इसमें परिवर्तन होता रहा। वक़्त के साथ सामाजिक सच्चाई को समझते हुए फुले के विचार परिपक्व होते गए। ऐसे में जोतिबा फुले की विचार-यात्रा को समझना बहुत ज़रूरी है।

बेशक अपने शुरुआती दिनों में फुले अंग्रेजी शासन के प्रति काफ़ी आशावादी थे जो उनकी लेखनी ‘ग़ुलामगिरी’ में दिखती है। जहाँ वह ब्राह्मणवाद पर चोट तो करते हैं लेकिन साथ ही साथ अंग्रेजी सत्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा भी करते हैं। ग़ुलामगिरी पुस्तक की प्रस्तावना में ज्योतिबा लिखते हैं-” हमारे दयालु अंग्रेज सरकार को शुद्रादि-अतिशूद्रों ने ब्राह्मण-पण्डा-पुरोहितों से किस-किस प्रकार का ज़ुल्म सहा है और आज भी सह रहे हैं, इसके बारे में कुछ भी मालूमात नहीं है। वे लोग यदि इस सम्बन्ध में पूछताछ करके कुछ जानकारी हासिल करने की कोशिश करेंगे तो उन्हें समझ में आएगा कि हमने हिन्दुस्तान का जो-जो भी इतिहास लिखा है उससे एक बहुत बड़े, बहुत भयंकर और बहुत ही बड़े हिस्से को नज़रअन्दाज़ किया है। उन लोगों को एक बार भी शुद्रादि-अतिशूद्रों के दुःख-दर्दों की जानकारी मिल जाय तो उन लोगों को सच्चाई समझ में आएगी और बड़ी पीड़ा होगी।”  जैसा कि हमने ज़िक्र किया, फुले शुरुआत में अंग्रेज़ों को प्रबोधन, विज्ञान तर्क और जनवाद का वाहक मानते थे और उनकी ये उम्मीदें वहीं से पैदा होती थीं।

यहाँ हमें यह बात समझ लेना चाहिए कि अंग्रेज कोई दलित हितैषी नहीं थे। इसे बाद में फुले भी समझ रहे थे। औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों द्वारा यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन और सस्ती श्रमशक्ति की लूट के उपजात के तौर पर बीमार विकलांग पूँजीवादी विकास की शुरुआत हुई। इसकी वजह से भारत का कठोर जातिगत श्रम विभाजन एक हद तक सीमित तौर पर ढीला पड़ने लगा। इस प्रक्रिया में दलितों के एक अति सूक्ष्म हिस्से को भी अपने जाति आधारित पेशों से इतर पेशा चुनने का मौक़ा मिला। अंग्रेजों द्वारा अपनी सत्ता के पैरोकार पैदा करने के मक़सद से शुरू की गयी शिक्षा व्यवस्था में दलितों के एक बहुत ही छोटे हिस्से को पढ़ने का मौक़ा मिला। साथ ही साथ यह बात भी समझना ज़रूरी है कि अंग्रेजों की संस्कृति में जातिगत भेदभाव और छुआछूत का कोई रूप मौजूद ही नहीं था। इसलिए वे यहाँ भी छुआछूत जैसी चीजों को नहीं मानते थे। ब्रिटिश औपनिवेशिक सामाजिक आर्थिक संरचना के भीतर से शिक्षित मध्यवर्ग की जो पहली पीढ़ी पैदा हुई उसने यूरोपीय समाज में जनवाद के आदर्शों से प्रेरित होकर ब्राह्मणवाद और हिन्दू धर्म की बुराइयों के विरुद्ध आवाज़ उठायी और इस प्रक्रिया में अंग्रेजी सत्ता को दलित मुक्ति के साधन के तौर पर देखने की प्रवृति पैदा हुई। उस दौर के अधिकांश लोग ब्रिटिश सत्ता के प्रति इस नज़रिये से अन्त तक चिपके रहे। इसकी असली वजह यह थी कि ये लोग अर्द्धसामन्ती भूमि व्यवस्था के पोषक के तौर पर अंग्रेजी सत्ता को नहीं देख सके। लेकिन इसके इतर फुले के विचार विकसित होते रहे और फुले कालान्तर में औपनिवेशिक सत्ता के ख़िलाफ़ भी बोलना शुरू कर चुके थे। 

विचारों में परिपक्वता के साथ ही जोतिबा फुले का अंग्रेजों के प्रति आशावाद भी कम होता गया। 1882 के हण्टर आयोग में फुले ने आयोग के समक्ष भारत की शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए सुझाव के प्रस्ताव रखे। जिसमें सभी के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा और सरकारी नौकरियों में अनुपातिक आरक्षण की माँग शामिल थी। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दलित व पिछड़ों के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया, बल्कि ब्राह्मणवादी ताकतों के पक्ष में आयोग में सिफ़ारिश की गई थी। जिसके बाद फुले इस बात को लेकर आश्चर्यचकित थे कि स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारे के नारे की नुमाइन्दगी करने वाली ब्रिटिश हुकूमत की स्वाभाविक एकता तो दलितों और पिछड़ों के साथ बननी चाहिए। लेकिन अंग्रेजी सत्ता ब्राह्मणवादी ताकतों के पक्ष में बात कर रही थी। इस आयोग के आने के बाद फुले ब्रिटिश हुकूमत की आलोचना करते हैं।

ज्यों-ज्यों फुले का वैचारिक विकास होता गया, वे ब्रिटिश हुकूमत के ब्राह्मणवादी शक्तियों से गठजोड़ को और गहराई से समझने लगे और जिसको अपनी किताब ‘किसान का कोड़ा’ में खुलकर लिखते हैं। इसमें वे लिखते हैं कि ‘अंग्रेजी सत्ता में अधिकांश अधिकारी ब्राह्मण हैं और जो अधिकारी अंग्रेज हैं उनकी हड्डी भी ब्राह्मण की ही है।’

अपने विकसित होते विचारों के साथ जोतिबा ने न केवल प्रचार के स्तर पर जाति व्यवस्था और स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध रैडिकल तेवर अपनाया बल्कि पहली बार उन्होंने अछूतों और स्त्रियों की शिक्षा के लिए संस्थाएँ खड़ी करने का उद्यम किया। इस कार्य में उनका सहयोग किया उनकी जीवनसाथी सावित्रीबाई फुले ने। सबसे पहले तो जोतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ना-लिखना सिखाया, बाद में उनकी प्रेरणा से स्त्री-शिक्षा के कार्य को तमाम तरह के उत्पीड़न सहते हुए भी सावित्रीबाई फुले ने जारी रखा।

आज से 176 साल पहले भिड़ेवाडा में जोतिबा और सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला था और रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी ताकतों से कड़ी टक्कर ली थी। जब उन्होंने इस कार्य की शुरुआत की तो ब्राह्मणवादी ताकतों ने उन पर अत्याचार किया और जोतिबा को उनके पिता का घर छोड़ने के लिए बाध्य किया। तब जोतिबा फुले के संघर्ष में साथ दिया उनके मित्र उस्मान शेख़ ने। उस्मान शेख़ की बहन फ़ातिमा शेख़ ने सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर 1 जनवरी 1848 को अपने घर पर ही लड़कियों के लिए विद्यालय की शुरुआत की। इस संघर्ष के दौरान उन पर पत्थर, गोबर, मिट्टी तक फेंके गए पर सावित्रीबाई फ़ातिमा के साथ मिलकर इस संघर्ष को आगे बढ़ाती रहीं। जातिवाद व अस्मितावाद के ख़िलाफ़ संघर्ष से लेकर विधवाओं के बाल काटने से रोकने के लिए नाइयों की हड़ताल करने, बाल विवाह आदि को रोकने के लिए न केवल जोतिबा फुले खुद लड़ते रहे बल्कि इन संघर्षों में आम जनता की पहलक़दमी को भी प्रोत्साहित किये। विधवा विवाह का समर्थन, बाल-विवाह का निषेध, विधवाओं के बच्चों के पालन-पोषण जैसे अनेक कदमों से जोतिबा और सावित्रीबाई के स्त्री समानता और स्त्री स्वतन्त्रता का दृष्टिकोण परिलक्षित होता है।

स्त्री मुक्ति व जाति उन्मूलन के संघर्ष में फुले का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। जोतिबा फुले ने लिखा है कि स्त्री और पुरुष जन्म से ही स्वतन्त्र हैं इसलिए दोनों को सभी अधिकार समान रूप से भोगने का अवसर प्रदान होना चाहिए। जोतिबा फुले जाति के सवाल पर लिखते हैं कि जाति का भेदभाव एक अमानवीय प्रथा है। एक अन्य जगह लिखते हैं कि सभी मनुष्य समान हैं। जाति के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।

सामाजिक सवालों पर फुले सेठ जी (व्यापारी) व भट्ट जी (पुजारी) दोनों को दुश्मन के रूप में चिह्नित करते थे और इस रूप में जोतिबा फुले अन्य दलित सुधारकों से काफ़ी आगे सोचते हैं। फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी और उनके संगठन के संघर्षों के परिणामस्वरुप सरकार द्वारा एग्रीकल्चर एक्ट पास किया गया था। मुम्बई की पहले ट्रेड यूनियन जैसे संगठन बम्बई मिल हैंड्स एसोसिएशन का निर्माण ज्योतिबा के शिष्य और मित्र श्री नारायण मेघाजी लोखण्डे ने किया था।

आज के दौर में ज्योतिबा फुले को याद करने का मतलब है समाज में व्याप्त हर प्रकार की ग़ैरबराबरी और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ उठ खड़े होना। जनता की बढ़ती चेतना और जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों से शासक वर्ग हमेशा से खौफ़ खाता रहा है और इसलिए आम तौर पर शासक वर्ग जनता के असली नायकों को जनता के बीच सही रूप में पहुँचने से रोकने की जुगत में रहता है। अपने तमाम संस्थाओं और भोंपुओं के जरिये शासक वर्ग समाज में उनको नायक के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करता है जिनके विचार शासक वर्गों के हित का पोषण करते हैं। जब कई बार शासक वर्ग इतिहास से जिन जननायकों को मिटाने में असफल रहता है, तब उन नायकों को मूर्ति और फोटो के रूप में तो लोगों तक पहुँचने देता है लेकिन उनके विचारों को सही रूप में जनता के बीच जाने से रोकने की कोशिश करता है। जैसा कि भगतसिंह के साथ भी हुआ है और एक दूसरे सन्दर्भ में जोतिबा फुले के साथ हुआ है। आज अस्मितावादी संशोधनवादी भी जोतिबा फुले के विचारों, सपनों और विरासत को विकृत कर पूँजीवादी दायरों में कैद करना चाहते हैं। दूसरी तरफ फ़ासीवादी ताकतें इनके संघर्षों और विरासत पर धूल और राख़ डालने की कोशिश कर रही हैं।

आज देश में फ़ासीवादी ताकतें सत्तासीन हैं जो शिक्षा के बाज़ारीकरण की नीतियां इस कदर लागू कर रही हैं जिससे देश की एक बड़ी आबादी के लिए शिक्षा के दरवाजे बन्द हो रहे हैं। बेरोज़गारी, महँगाई, अशिक्षा, गरीबी और बदहाली रिकॉर्ड तोड़ रफ्तार से बढ़ रही है। दूसरी तरफ़ फ़ासीवादी ताकतें तमाम रूढ़ियों और अवैज्ञानिक व अतार्किक विचारों का पोषण कर रही हैं। पूरी शिक्षा का ही साम्प्रदायिकीकरण किया जा रहा है। पाठ्यक्रमों में ऐसे बदलाव किए जा रहे हैं जो आम छात्रों-युवाओं में तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित नहीं करेंगे। डार्विन के सिद्धान्त से लेकर पीरियाडिक टेबल का हटाया जाना, इतिहास में संघी गल्प को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना देना इस फ़ासीवादी परियोजना का एक उदाहरण है। शिक्षा के साथ ही साथ कला-साहित्य-फ़िल्म जगत पर भी फ़ासीवाद अपने एजेण्डे को साध रहा है। ‘छावा’, ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘केरल स्टोरी’ इन्ही प्रोपगेण्डा फ़िल्मों की एक बानगी है। सारे धार्मिक पर्वों का फ़ासीवादीकरण कर उन्माद का माहौल बनाया जा रहा है। आज जब संघी फ़ासीवादी, जाति प्रथा व पितृसत्ता के आधार पर व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से दलितों, स्त्रियों व अल्पसंख्यकों पर हमले तेज़ कर रहे हैं; खाने-पीने, जीवन साथी चुनने व प्रेम के अधिकार को छीनने की कोशिश कर रहे हैं; ऐसे समय में जोतिबा फुले की विरासत व संघर्ष को याद करना व जनता के बीच स्थापित करना बहुत ज़रूरी है। हमें यह समझना होगा कि स्त्री मुक्ति का रास्ता व जाति उन्मूलन का रास्ता नये सर्वहारा पुनर्जागरण-प्रबोधन और नयी सर्वहारा क्रान्ति का अभिन्न अंग है। इसलिए आज की ज़रूरत है कि नयी सर्वहारा क्रान्ति की तैयारी में बिना देर किये जुट जाया जाय यही जोतिबा फुले को सच्ची आदरांजलि होगी।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025

 

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