कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (ग्यारहवीं किस्त)
प्रस्तावना के उल्लिखित ”लोकतन्त्रात्मक गणराज्य” के ढोल की पोल
आलोक रंजन
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अब हम प्रस्तावना में उल्लिखित ”लोकतन्त्रात्मक गणराज्य” या ”जनवादी गणराज्य” (डेमोक्रेटिव रिपब्लिक) शब्दावली की असलियत की पड़ताल करें।
कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य और विख्यात विधिवेत्ता शरत चन्द्र बोस ने ‘इण्डियन लॉ रिव्यू’ के जनवरी 1950 के अंक में (संविधान पारित होने के कुछ सप्ताह पहले ही) यह टिप्पणी की थी कि संविधान की प्रस्तावना ही धोखाधड़ी के साथ तैयार की गयी है।
पिछले साठ वर्षों के बीच ”लोकतन्त्रात्मक गणराज्य” या ”जनवादी गणराज्य” का जो अमली रूप सामने आया है उसने जनता के साथ हुई धोखाधड़ी को एकदम नंगा कर दिया है। इस बात का प्राय: बहुत अधिक डंका पीटा जाता है कि भारत का बहुदलीय संसदीय जनवाद साठ वर्षों से सुचारु रूप से चल रहा है। बेशक शासक वर्गों की इस हुनरमन्दी को मानना पड़ेगा कि साठ वर्षों से यह धोखाधड़ी जारी है! मगर सच यह भी है कि असलियत जनता से छुपी नहीं रह गयी है। यदि जनवाद का यह वीभत्स प्रहसन जारी है तो इसके पीछे बुनियादी कारण है राज्यसत्ता का दमन तन्त्र, शासक वर्गों द्वारा चतुराईपूर्वक अपने सामाजिक आधारों का विस्तार तथा जनता के जाति-धर्म के आधारों पर बाँटने के कुचक्रों की सफलता। लेकिन इससे भी बड़ा बुनियादी कारण है, इस व्यवस्था के किसी व्यावहारिक क्रान्तिकारी विकल्प का संगठित न हो पाना।
बहुदलीय संसदीय जनवाद का मतलब सिर्फ इतना ही रहा है कि हर पाँच वर्षों बाद जनता ठप्पा मारकर सिर्फ यह चुनाव करे कि शासक वर्ग की कौन सी पार्टी अगले पाँच वर्षों तक उसपर शासन करे। सरकारें चाहे जिस पार्टी की हों, वे शासक वर्गों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती रही हैं। जो सरकार योग्यतापूर्वक इस काम को नहीं कर पाती, उस सरकार को गिरते देर नहीं लगती। चुनाव पूँजीपति घरानों की थैलियों के बिना कोई लड़ ही नहीं सकता। संसद की भूमिका केवल बहसबाज़ी के अड्डे की होती है। नीतियों को लागू करने का असली काम नौकरशाही करती है। मन्त्रिमण्डल बस पूँजीपतियों के इशारे पर नीतियाँ बनाता है। जनता के हर सम्भावित प्रतिरोध को कुचलने के लिए पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना का एक दैत्याकार तन्त्र है। दमनकारी राज्य मशीनरी को सहारा देने के लिए गैरजनवादी, निरंकुश सामाजिक संस्थाओं का तानाबाना है और जनवाद के विभ्रम को तरह-तरह से बनाये रखने के लिए तथा शासक वर्ग की नीतियों को लोकलुभावन मुखौटा पहनाने के लिए बुर्जुआ मीडिया का सर्वव्यापी पहुँच वाली एक शक्तिशाली संरचना है।
26 जनवरी 1950 को जब संविधान पारित हुआ तो आम लोगों के एक बड़े हिस्से को भारतीय जनवादी गणराज्य के बारे में, थोड़ी बहुत शंकाओं के बावजूद काफी उम्मीदें थीं। लोगों को इन्तजार था कि दो सौ वर्षों की ग़ुलामी से निचुड़ा हुआ देश जब थोड़ा सम्हलकर अपनी उत्पादक शक्तियों का विकास करेगा तो प्रगति का फल आम लोगों को भी मिलेगा। एक से दो दशक का समय बीतते-बीतते भारतीय जनवादी गणराज्य का असली चेहरा सामने आ चुका था। बाद में दशकों का कालखण्ड उसके ज़्यादा से ज़्यादा वीभत्स और ज़्यादा से ज़्यादा विकृत होते जाने का समय था।
आइये, इस जनवादी गणराज्य की असलियत की सिलसिलेवार पड़ताल की जाये। इसे बनाने वाली संविधान सभा के चुनाव की गैरजनवादी प्रक्रिया की पहले चर्चा की जा चुकी है। इसकी भी चर्चा की जा चुकी है कि इसकी 395 में से 250 धाराएँ 1935 के ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट’ से ज्यों की त्यों ले ली गयीं थी। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों की चर्चा आगे जब हम विस्तार से करेंगे तो देखेंगे कि किस तरह संविधान में ऊँचे आदर्शों और लुभावने वायदों (सबको आजीविका, समान काम के लिए समान वेतन, समान सामाजिक अवसर आदि) लन्तरानी खूब हाँकी है, पर इन्हें लागू करने की कोई क़ानूनी बाध्यता सरकार के लिए नहीं हैं। अब इतने वर्षों बाद राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों को भारतीय जीवन की विद्रूप सच्चाइयों के बरक्स रखकर कोई पढ़े तो वे एक भोड़े-भद्दे मज़ाक से अधिक कुछ भी नहीं लगते।
जिस देश में जनवादी गणराज्य का संविधान लागू होने के छ: दशकों से भी अधिक समय बाद 80 करोड़ लोग अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी न कर पाते हैं, आधी से अधिक आबादी कुपोषण ग्रस्त हो, 40 करोड़ लोग रात को भूखे सोते हो, 9 हजार बच्चे प्रतिदिन भूख और कुपोषण से मरते हो, 18 करोड़ लोग बेघर हो और 18 करोड़ झुग्गी-झोंपड़ियों में रहते हों, उस देश में जनवाद के उच्चादर्श खोखले झुनझने से अधिक कुछ भी नहीं हैं। जो लोग दिन रात हाड़ गलाकर भी जीने की बुनियादी ज़रूरतें तक पूरी नहीं कर पाते, उनके लिए जनवादी अधिकारों का व्यवहारत: कोई मतलब नहीं रह जाता। राष्ट्रीय विकास के लम्बे-चौड़े दावों के बीच आम जनता की ज़िन्दगी की बेरहम हक़ीकत यह है कि भारत में 63 फीसदी बच्चे प्राय: भूखे पेट सोते हैं, 60 फीसदी बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं, 60 फीसदी बच्चे (और 74 फीसदी नवजात) रक्ताल्पता के शिकार हैं, 50 फीसदी बच्चे का बज़न न्यूनतम सीमा से कम है, 23 फीसदी बच्चे जन्म से कमज़ोर होते हैं। देश की 75 फीसदी माँओं को पोषणयुक्त भोजन नहीं मिलता, प्रसव के दौरान 1 लाख में से 450 स्त्रियों की मौत हो जाती है और गर्भवती एवं सद्य:प्रसूता स्त्रियों के मामने में 99 फीसदी मौतें गरीबी, भूख और बीमारी के चलते होती हैं। यह जनवादी गणराज्य यदि छ: दशकों से अधिक समय बाद भी 40 फीसदी आबादी को न्यूनतम सुविधायुक्त आवास, 80 फीसदी परिवारों को सुरक्षित पीने का पानी और 42 प्रतिशत परिवारों को बिजली नहीं मुहैया करा सका है, तो फिर जनता के लिए जनवाद का कोई विशेष मतलब नहीं रह जाता।
जिस समाज में असमानता की खाई विकास की तेज़ रफ़्तार के साथ लगातार बढ़ती चली गयी हो, वहाँ जनवाद के आदर्श खोखले झुनझुने की आवाज़ जैसे लगने लगते हैं। आज़ादी के 64 वर्षों बाद की सच्चाई यह है कि देश ऊपर की 3 फीसदी और नीचे की 40 फीसदी आबादी की आमदनी के बीच का अन्तर साठ गुना हो चुका है। ऊपर की 10 फीसदी आबादी के पास कुल परिसम्पत्ति का 85 फीसदी इकट्ठा हो गया है। जबकि नीचे की 60 फीसदी आबादी के पास महज़ दो फीसदी है। आबादी का 0.01 फीसदी ऐसा है जिसकी आमदनी पूरे देश की औसत आमदनी से दो सौ गुना अधिक है। कुल 1 अरब 21 करोड़ में से बमुश्किल तमाम 15 करोड़ आबादी ही उन धनी और खुशहाल लोगों की है जिनके लिए तमाम अत्याधुनिक सुविधाओं, सेवाओं और मँहगी एवं विलासितापूर्ण उपभोक्ता सामग्रियाँ का विशाल बाज़ार है। इनमें से भी 10 लाख लोग ऐसे हैं जिनकी मासिक आय 50 लाख रुपये से अधिक हैं। दुनिया में सबसे तेज़ी से अरबपतियों और करोड़पतियों की संख्या भारत में बढ़ रही है। अरबपतियों की कुछ दौलत को लिहाज से अमेरिका के बाद दूसरा स्थान भारत का है, लेकिन बेघरों, कुपोषितों, भूखों अनपढ़ों, बेरोज़गारों और दवा-इलाज की बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित लोगों की तादाद के लिहाज से भी वह दुनिया में पहले नम्बर पर है। चीन के बाद भारत अर्थव्यवस्था की विकास दर के हिसाब से दूसरे स्थान पर है, पर मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से भी, यह दुनिया के सबसे ग़रीब देशों के साथ सबसे निचले पायदान पर खड़ा है।
आधी सदी से भी अधिक समय के दौरान इस जनवाद ने जनता को क्या दिया है, इसकी तस्वीर के कुछ छूटे हुए पहलुओं की हम आगे भी चर्चा करेंगे। इसके पहले ज़रा गणराज्य के उसूलों के अमली रूप पर भी एक सरसरी निगाह डाल ली जाये। अपने आदर्श रूप में जनवादी गणराज्य का अर्थ है, जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की नीति निर्मात्री और कार्यकारी सत्ता के माध्यम से जनता का सम्प्रभु होना, उस सत्ता का जनसामान्य के हित में काम करना और जन सामान्य के प्रति जवाबदेह देना। जनवादी गणराज्य के इस आदर्श रूप को तो दुनिया के किसी भी बुर्जुआ वर्ग ने लागू नहीं किया, लेकिन भारत में इसका अमली रूप अत्यन्त घृणित पाखण्डपूर्ण है। पहली बात तो यह कि विधायिका और कार्यपालिका का कार्यविभाजन करके जनप्रतिनिधियों की जनता के प्रति जवाबदेही को हर बुर्जुआ जनवाद की तरह भारत में भी औपचारिक बना दिया गया है। बहुदलीय प्रणाली में बहुमत पाने वाला दल सरकार बनाकर बुर्जुआ वर्ग की मैनेजिंग कमेटी की भूमिका निभाता है और रोज़मर्रे का शासन-प्रशासन दिल्ली से लेकर ब्लॉक स्तर तक नौकरशाही सम्हालती है जिसकी जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। तथाकथित जनप्रतिनिधिगण संसद में सोने और हंगामा करने तथा सिफारिश दलाली एवं कमीशनखोरी करके सम्पत्ति बनाने का काम करते हैं। बुर्जुआ जनवादी गणराज्य का तीसरा खम्भा न्यायपालिका है, जिसकी चर्चा आगे करेंगे। उसके पहले यह देख लें कि चुनाव की प्रक्रिया क्या वास्तव में जनप्रतिनिधित्व की वास्तविक जनवादी प्रणाली है?
संसद और विधानसभाओं का क्षेत्र जितना बड़ा होता है और चुनाव-प्रचार की प्रक्रिया जितनी खर्चीली होती है, उसमें एक सामान्य नागरिक थैलीशाहों के अरबों-खरबों रुपये की मदद से चलने वाली किसी पार्टी का उम्मीदवार बने बिना प्रभावी ढंग से चुनाव नहीं लड़ सकता। चुनाव लड़ने का शौक पूरा करके ज़मानत ज़ब्त कराने वाले किसी उम्मीदवार को भी लाखों से लेकर करोड़ों तक खर्च करने पड़ते हैं। एक आकलन के मुताबिक, चुनाव में भागीदारी का प्रति उम्मीदवार औसत खर्च 8 करोड़ रुपये और बड़ी पार्टियों का प्रति उम्मीदवार औसत खर्च 30 करोड़ रुपये बैठता है (अमित भादुड़ी, ई.पी.डब्ल्यू, 20-26 नवम्बर 2010) वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में सरकारी तन्त्र का कुल घोषित प्रत्यक्ष खर्च 13 अरब रुपये था। यदि अब तक के सभी लोकसभा और विधानसभा चुनावों के सिर्फ सरकारी खर्चे को ही जोड़ दिया जाये तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बहुतदलीय संसदीय जनवादी प्रणाली देश की बहुसंख्यक आम शोषित-वंचित आबादी पर कितना कमरतोड़ बोझ डालती है।
और बात सिर्फ चुनाव की ही नहीं है। ”दुनिया का सबसे बड़ा जनवादी गणराज्य” आम लोगों पर कितना भारी पड़ता है, इसका अनुमान महज कुछ तथ्यों और आँकड़ों से लगाया जा सकता है। जिस देश में तक़रीबन 84.5 करोड़ आबादी 20 रुपये रोज़ाना से कम पर और उसमें से 27 करोड़ आबादी 11 रुपये रोज़ाना पर गुजर करती हो, उस देश में सांसद की मासिक तनख्वाह 50,000 रुपये है। उसे 45,000 रुपये मासिक निर्वाचन क्षेत्र भत्ता मिलता है। संसद सत्रों के दौरान हर सांसद को 2000 रुपये रोज़ टी.ए.डी.ए. मिलता है। आवास, बिजली, फोन, हवाई यात्रा, प्रथम श्रेणी रेल यात्रा, सब्सिडाइज्ड़ संसद कैण्टीन आदि सुविधाओं की कोई गिनती नहीं है। कुल 534 संसद सदस्यों पर सालाना 3 अरब 20 करोड़ 40 लाख रुपये खर्च होते हैं। हर पूर्व सांसद को 20,000 रुपये मासिक पेंशन मिलती है। 5 करोड़ रुपये सालाना की सांसद निधि अपने निर्वाचन क्षेत्रों में विकास कार्यों के लिए हर सांसद को मिलती है जो वस्तुत: 70 प्रतिशत ”भ्रष्टाचार निधि” होती है जिसमें स्थानीय नौकरशाही का भी हिस्सा होता है। संसद के सत्रों पर प्रतिदिन 3.6 करोड़ रुपये ख़र्च होता हैं। आधी जनता भरपेट भोजन नहीं कर पाती, पर उनके प्रतिनिधि जो सांसद हैं, उनमें से 70 फीसदी करोड़पति है। कैबिनेट मन्त्रियों को आवास-यात्रा आदि सुविधाओं और भत्तों के अतिरिक्त 65,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। 2006-09 के बीच केन्द्रीय मन्त्रियों ने देश के भीतर बाहर अपनी यात्राओं पर 300 करोड़ रुपये खर्च किये।
यह जनवाद कितना मँहगा और परजीवी है और यह जनता पर कितना भारी है, इसे उजागर करने वाले कुछ और तथ्यों पर निगाह डालें। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल और सम्बद्ध विभागों का कुछ खर्च 2008-09 में 1 खरब 75 अरब डालर यानी लगभग 87 खरब 50 अरब रुपये के आसपास था। योजना और वार्षिक बजट के अतिरिक्त गैरयोजनागत खर्च 2008-09 में 5 करोड़ डालर यानी करीब 2 अरब 50 करोड़ रुपये था। सभी राज्यों के मन्त्रियों, विधायकों और नौकरशाही का सालाना खर्च यदि एक साथ जोड़ दें तो यह उपरोक्त राशि के दस गुने से भी अधिक हो जायेगा। केन्द्र और राज्य के मन्त्रियों, जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों की सुरक्षा व्यवस्था पर ही सालाना खरबों रुपये ख़र्च होते हैं। करोड़ों बेघरों के इस देश का राष्ट्रपति 340 कमरों के भव्य महल राष्ट्रपति भवन में रहता है जो दुनिया के सभी राष्ट्राधयक्षों के आवासों (व्हाइट हाउस और बकिंघम पैलेस से भी) बड़ा है। 2007 में इसके रखरखाव की लागत सालाना 100 करोड़ रुपये आँकी गयी थी। 2009-10 में सिर्फ इसके बिजली का बिल ही 6.67 करोड़ रुपये था। इस समय राष्ट्रपति को 1 लाख रुपये, उपराष्ट्रपति को 80,000 रुपये और राज्यपालों को 75,000 रुपये मासिक वेतन अन्य अनगिनत सुविधाओं और भत्तों के अतिरिक्त मिलता है।
इस दैत्याकार और बेहद खर्चीले नेताशाही और नौकरशाही के तन्त्र का 90 फीसदी से भी अधिक बोझ वह गरीब जनता उठाती है। जिसे जीने की बुनियादी सुविधाएँ तक नसीब नहीं। टैक्सों से होने वाली सरकारी खजाने की आमद का 90 फीसदी से भी अधिक हिस्सा आम लोग परोक्ष करों के रूप में देते हैं। इस फीसदी से भी कम हिस्सा पूँजीपतियों और सम्पत्तिशाली वर्गों द्वारा दिये जाने वाले टैक्सों का होता है। तुर्रा यह कि उन टैक्सों का भी बड़ा हिस्सा वे नहीं देते। सरकार भी उन्हें ‘टैक्स हॉलिडे’ और ‘टैक्स ब्रेक’ के रूप में तथा समय-समय पर विशेष टैक्स छूटों के रूप में सालाना खरबों रुपये की छूट देती है। बैंकों से पूँजीपति कर्ज़ लेकर पूँजी-निवेश करते हैं। और सालाना खरबों रुपये का ऐसा कर्ज नहीं लौटाते और कानूनी झोल और वित्तीय घपले के सहारे बेदाग बच निकलते है। इन सबके अतिरिक्त सरकार उन्हें तरह-तरह की सब्सिडी देती है और कारखाने लगाने या खनिज निकालने के लिए कौड़ियों के मोल ज़मीनें देती है।
अब ज़रा इस ”महान जनवादी गणराज्य” की क़ानून-व्यवस्था और न्यायपालिका की स्थिति को देखें। पहली बात यह कि इस देश का संविधान जनता को जो अत्यन्त सीमित जनवादी अधिकार देता है, वक्त पड़ने पर उसे हड़प लेने के सारे इन्तज़ाम भी संविधान के भीतर ही मौजूद हैं। संविधान से छन-रिसकर जो सीमित जनवादी अधिकार नीचे आते हैं, उनका बड़ा हिस्सा क़ानून-व्यवस्था के मकड़जाल में अटक जाता है और वहाँ से जनवादी अधिकार के कुछ क़तरे यदि निकल भी पाते हैं। तो दफ्तरों के अफसरों-बाबुओं और थानों के दारोग़ाओं की फाइलों और जेबों में अटके रह जाते हैं। क़ानून तो औपनिवेशिक हैं ही, उन्हें लागू करने वाले तन्त्र का ढाँचा भी मूलत: औपनिवेशिक ही है। भारत की निचली अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लम्बित पड़े हैं। देश की जेलों में 70 फीसदी से अधिक विचाराधीन कैदी हैं जिनमें से अधिकांश अपने ऊपर लगे अभियोग के तहत मिलने वाली अधिकतम सज़ा से अधिक समय जेलों में काट चुके हैं। बजट का एक फीसदी से भी कम न्यायिक तंत्र पर खर्च होता है। विधि आयोग बरसों से ढाँचागत सुविधाएँ बढ़ाने और जजों की संख्या कम से कम पाँच गुनी बढ़ाने के लिए कह रहा है। निचले स्तर की अदालतों में उतना ही भ्रष्टाचार व्याप्त है, जितना पुलिस थानों में। अब भ्रष्टाचार का दीमक शीर्ष स्तरों तक पैठ चुका है। वकील शान्तिभूषण-प्रशान्तभूषण ने उच्चतम न्यायालय के अबतक के कई मुख्य न्यायाधीशों को भ्रष्ट बताया है। उच्च न्यायालयों के कई न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। उच्चतम और उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्तियों और तरक्कियों में पूँजीपति घरानों के हितों से प्रेरित और सरकार की अनुकूलता से प्रेरित राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप आम बात है। न्यायपालिका न तो राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त है, न ही वर्गीय पूर्वाग्रह से।
श्रम क़ानूनों का स्वरूप जटिल है। 165 श्रम क़ानून पुराने पड़ चुके हैं। उच्चतम न्यायालय भी स्वीकार कर चुका है कि श्रम न्यायालयों और समूची न्यायपालिका से श्रमिकों को न्याय नहीं मिलता। श्रम न्यायालय और ट्रिब्युनल मामलों को लटकाकर मालिकों का हित साधते हैं। श्रम विभाग मालिकों के एजेण्ट की भूमिका निभाता है। देश की 93 फीसदी कामगार आबादी अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती है; इसमें से 58 फीसदी कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र में काम करने वाली ग्रामीण मज़दूर आबादी है। अनौपचारिक क्षेत्र के इन मज़दूरों को किसी भी किस्म की रोज़गार सुरक्षा या सामाजिक सुरक्षा नहीं हासिल है। काम के घण्टे, ओवरटाइम, न्यूनतम मज़दूरी, छुट्टी, मेडिकल, दुर्घटना की स्थिति में मुआवज़ा, कार्यस्थल पर सुविधाओं तथा ठेका मज़दूरों में मुआवज़ा मज़दूरों, प्रवासी मज़दूरों और स्त्री मज़दूरों से सम्बन्धित जो श्रम क़ानून काग़जों पर मौजूद भी हैं, वे वास्तव में शायद ही कहीं अंशत: भी लागू होते हों। मज़दूरों के लिए जनवाद कामतलब शब्दश: मात्र यही रह गया है कि शासक वर्गों की इस या उस पार्टी को वोट देकर अपने ऊपर शासन करने का अधिकार सौंप दे।
‘भारतीय पुलिस देश की सर्वाधिक संगठित गुण्डा फोर्स है’ — यह बात जस्टिस ए.एन. मुल्ला ने काफी पहले कही थी। आज भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। तमाम आयोगों की सुधार विषयक सिफारिशों को दीमक चाट रहे हैं। मानवाधिकार आयोग दन्त-नखहीन है। थानों में टॉर्चर, हिरासत में मौतें, फर्जी मुठभेड़े, फर्जी अभियोग लगाकर नकली गवाह खड़ा करके मुकदमे क़ायम करना आम पुलिसिया दस्तूर है। आम नागरिकों को पुलिस सड़कों पर ठगों-बटमारों की तरह लूटती है और गुण्डों की तरह पीटती है। भारतीय जेले पुराणों में वर्णित नर्क की जीती-जागती मिसालें हैं। वे आज भी अंग्रेजों के ही ज़माने के ढंग-ढर्रे पर चलती हैं। दरअसल ”महान भारतीय लोकतन्त्र” के महातमाशे को चलाने रहने के लिए सत्ताधारियों को जेल-पुलिस-थाने की ऐसी ही निरंकुश दमनकारी मशीनरी की ज़रूरत है।
औपनिवेशिक काले क़ानूनों के अलावा आज़ादी के बाद बने काले क़ानूनों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जिन्हें जनता के जनवादी अधिकारों को कुचलने के लिए मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया जाता है। ‘मीसा’, डी.आइ.आर., एन.एस.ए., टाडा, पोटा आदि ऐसे ही काले क़ानून थे। एक क़ानून जब बहुत बदनाम हो जाता है तो उसकी जगह लेने दूसरा क़ानून आ जाता है। एन.एस.ए. (राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून) और गैर क़ानूनी गतिविधि निरोधक क़ानून (यू.ए.पी.ए.) अभी भी लागू हैं। अंग्रेजों के समय के जिस कुख्यात राजद्रोह के क़ानून के तहत तिलक और गाँधी को सज़ा सुनाई गयी थी और जिसे नेहरू ने भी ‘बर्बर’ कहा था, वह आज भी लागू है और उसी के तहत विनायक सेन और कई अन्य लोगों पर मुकदमे चलाये जा रह हैं। ‘सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) क़ानून’ ब्रिटिश सत्ता के एक अध्यादेश की तर्ज़ पर बनाया गया क़ानून है, जिसके लागू होने पर किसी भी इलाके में वस्तुत: सैनिक शासन जैसी स्थिति हो जाती है और आम जनता के जनवादी अधिकार बेमानी हो जाते हैं। उत्तर-पूर्व के राज्यों में 1958 से और जम्मू-काश्मीर में 1990 से यह क़ानून लागू है। मज़दूरों की हड़तालों को कुचलने के लिए सरकार के तरकश में ‘आवश्यक सेवा क़ानून’ (एस्मा) का विषबुझा तीर मौजूद रहता है।
केन्द्र के अतिरिक्त अधिकांश राज्य सरकारों के पास जनता की संगठित आवाज़ को कुचलने के लिए तरह-तरह के काले कानून मौजूद हैं। इनमें ‘छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून’, ‘पंजाब सार्वजनिक एवं निजी सम्पत्ति को क्षति निरोधक क़ानून 2010’, ‘पंजाब स्पेशल सिक्योरिटी ग्रुप क़ानून 2010’ और ‘मकोका’ आदि महज कुछ उदाहरण हैं। जाहिर है कि शोषण और अत्याचार के विरुद्ध उठने वाले हर सम्भावित जनज्वार को कुचल डालने के लिए शासक वर्ग चाक-चौबन्द है। बुर्जुआ काले क़ानून हुकूमत के हर काले कारनामे को जायज़ ठहराने के लिए तैयार किये गये हैं।
(अगले अंक में जारी)
मज़दूर बिगुल, जूलाई 2011