भोपाल गैस त्रासदी की पच्चीसवीं बरसी (3 दिसम्बर) पर
शान्ति काल में पूँजी के हाथों हुए सबसे बड़े हत्याकाण्ड का नाम है भोपाल
शिवार्थ
मुनाफे की हवस में भागती पूँजी की रक्तपिपासु राक्षसी की प्यास इंसानी ज़िन्दगियों को हड़पे बिना शान्त नहीं होती। पूँजीवाद का पूरा इतिहास बर्बर हत्याकाण्डों और नृशंस जनसंहारों से भरा हुआ है। मुनाफे के बँटवारे के लिए लड़े जाने वाले युद्धों के दौरान वह हिरोशिमा और नागासाकी जैसे हत्याकाण्ड रचता है और शान्ति के दिनों में भोपाल जैसे जनसंहारों को अंजाम देता है। कम से कम बीस हज़ार लोगों को मौत के घाट उतारने और करीब छह लाख लोगों को अन्धेपन से लेकर दमा जैसी बीमारियों का शिकार बनाने वाली इस घटना को दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना कहा जाता है, लेकिन वास्तव में यह दुर्घटना नहीं थी। इस हादसे ने एक बार फिर बस यही साबित किया कि पूँजीपतियों के लिए इंसानों की ज़िन्दगी मुनाफे से बढ़कर नहीं होती। एक ओर मुनाफे के लिए बेहद ज़हरीली गैसें तैयार की जाती हैं और दूसरी ओर पैसे बचाने के लिए सुरक्षा के सारे इंतज़ाम ताक पर धर दिये जाते हैं।
भोपाल में भी यही हुआ था। 2 दिसम्बर 1984 की रात को अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल की भोपाल स्थित कीटनाशक फैक्ट्री से निकली चालीस टन ज़हरीली गैसों ने हज़ारों सोये हुए लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।
दो और तीन दिसम्बर की रात करीब साढ़े ग्यारह बजे कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूरों ने एक विशाल टैंक से रिस रही गैस के कारण ऑंखों में जलन की शिकायत करनी शुरू की। करीब साढ़े बारह बजे खतरे का अलार्म बजाया गया और पानी का छिड़काव शुरू किया गया। शहर में किसी को कोई खबर नहीं थी। फैक्ट्री के चारों ओर बसी मेहनतकश लोगों की बस्तियों में दिनभर की मेहनत से थके लोग सो रहे थे। सुबह करीब तीन बजे भीषण विस्फोट के साथ टैंक फट गया और 40,000 किलो ज़हरीली गैसों के बादलों ने भोपाल शहर के 36 वार्डों को ढँक लिया। इनमें सबसे अधिक मात्रा में थी दुनिया की सबसे ज़हरीली गैसों में से एक मिथाइल आइसोसाइनेट यानी एमआईसी गैस। कुछ ही देर में सोये हुए लोग गिरते-पड़ते घरों से निकलने लगे। गैस का असर इतना तेज़ था कि चन्द पलों के भीतर ही सैकड़ों लोगों की दम घुटने से मौत हो गयी, हज़ारों अन्धे हो गये, बहुत सी महिलाओं का गर्भपात हो गया, हज़ारों लोग फेफड़े, लीवर, गुर्दे, या मस्तिष्क काम करना बन्द कर देने के कारण मर गये या अधमरे से हो गये। बच्चों, बीमारों और बूढ़ों को तो घर से निकलने तक का मौका नहीं मिला। हज़ारों लोग महीनों बाद तक तिल-तिल कर मरते रहे और करीब छह लाख लोग आज तक विकलांगता और बीमारियों से जूझ रहे हैं। यह गैस इतनी ज़हरीली थी कि पचासों वर्ग किलोमीटर के दायरे में मवेशी और पक्षी तक मर गये और ज़मीन और पानी तक में इसका ज़हर फैल गया। जो उस रात मौत से बच गये वे पच्चीस बरस बीत जाने के बाद भी आज तक तरह-तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। इस ज़हर के असर से कई-कई वर्ष बाद तक उस पूरे इलाके में पैदा होने वाले बच्चे जन्म से ही विकलांग या बीमारियों से ग्रस्त होते रहे। आज भी वहाँ की ज़मीन और पानी से इस ज़हर का असर ख़त्म नहीं हुआ है। कई अध्ययनों ने साबित किया है कि माँओं के दूध तक में यह ज़हर घुल चुका है।
पूँजी के इस हत्याकाण्ड के बाद एक आज़ाद देश की सरकारों ने अपने ही नागरिकों के साथ जो सलूक किया वह इससे कम बर्बर और अमानवीय नहीं है। पिछले पच्चीस वर्ष से भोपाल गैस पीड़ितों के साथ एक घिनौना मज़ाक जारी है। इसमें सब शामिल रहे हैं – केन्द्र और राज्य की कांग्रेस और भाजपा सरकारें, सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक पूरी न्यायपालिका और स्थानीय नौकरशाही।
आज तक इस हत्याकाण्ड के मामले में एक भी व्यक्ति को सज़ा नहीं हुई है। यूनियन कार्बाइड कम्पनी के प्रमुख वॉरेन एण्डरसन को भारत आते ही गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन छह घण्टे में ही उसकी न सिर्फ ज़मानत हो गयी बल्कि राज्य सरकार के विशेष विमान से उसे दिल्ली ले जाया गया जहाँ से वह उसी दिन अमेरिका रवाना हो गया। उसके बाद उसे भारत लाने के भारत सरकार के तमाम तथाकथित प्रयास बेकार साबित हुए। सरकार ने यूनियन कार्बाइड और अमेरिका के सामने घुटने टेकते हुए अपने देश के लाखों गैस पीड़ितों के हितों का बेशर्मी के साथ सौदा कर लिया। अमेरिकी अदालतों में यूनियन कार्बाइड बार-बार उसे ठेंगा दिखाती रही और अमेरिका का उसे पूरा समर्थन मिलता रहा।
भारत की अदालतें भी इससे कुछ कम नहीं साबित हुईं। लम्बी कानूनी नौटंकी के बाद 1989 में सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड पर कुल 47 करोड़ डॉलर का जुर्माना किया। (उस वक्त क़े मूल्य से यह रकम 713 करोड़ रुपये हुई।) शायद यह पहली बार हुआ होगा कि किसी अपराधी पर जुर्माना उसकी मर्ज़ी से किया गया। जुर्माने की यह रकम इस सरकारी ऑंकड़े पर आधारित थी कि गैस हादसे में कुल 3000 लोग मारे गये और 1,05,000 लोग घायल या बीमार हुए। सरकार के इस ऑंकड़े का कोई भी आधार नहीं है क्योंकि आज तक उस दुर्घटना से प्रभावित होने वाले लोगों की वास्तविक संख्या जानने के लिए किसी सरकार ने कोई सर्वेक्षण कराया ही नहीं। विभिन्न एजेंसियों और संगठनों के अनुमानों और गैस पीड़ितों द्वारा खुद अदालत में पेश किये गये साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि मृतकों और गैस पीड़ितों की वास्तविक संख्या क्रमश: 20,000 और 5,75,000 है। जुर्माने की इस मामूली सी रकम में से 113 करोड़ रुपये मवेशियों और मकानों को हुए नुकसान के लिए देने के बाद बचे 600 करोड़ रुपये पौने छह लाख गैस पीड़ितों में बाँटे गये जिन्हें बरसों के इंतज़ार के बाद औसतन प्रति व्यक्ति 12,410 रुपये मिले। जले पर नमक रगड़ने की इस कार्रवाई के विरोध में गैस पीड़ित जब दोबारा सुप्रीम कोर्ट के पास गये तो उन्हें राज्य सरकार के पास भेज दिया गया। राज्य सरकार के कल्याण आयुक्त ने अधिक मुआवज़ा देने का उनका दावा खारिज कर दिया। इसके बाद भी गैस पीड़ित मुआवज़े के लिए लम्बी लड़ाई लड़ते रहे। और अब हादसे की पच्चीसवीं बरसी से ठीक तीन दिन पहले 30 नवम्बर 2009 को मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने भी उनकी अपील खारिज कर दी।
देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा में बिछी जा रही सरकारों से इसके अलावा और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। भोपाल में मरने और विकलांग होने वाले लोगों का एक दोष यह भी था कि उनमें से ज्यादातर मेहनतकश और ग़रीब तबके के लोग थे। इस व्यवस्था में उनकी जान की कीमत यूँ भी कुछ नहीं होती। कुछ हज़ार ग़रीबों के लिए भला कोई पूँजीवादी सरकार अपने देशी-विदेशी आकाओं की नाराज़गी क्यों मोल लेगी। किसी विराट मल्टीनेशनल कम्पनी के अफसर को गिरफ्तार करके या उस पर मुआवज़ा ठोंककर वह देश में पूँजी निवेश का माहौल भला क्यों ख़राब करेगी? वैसे तो यूनियन कार्बाइड कम्पनी के अलावा भारत सरकार को भी गैस पीड़ितों को उचित मुआवज़ा देना चाहिए था क्योंकि इस हादसे के लिए वह भी उतनी ही ज़िम्मेदार है। लेकिन पूँजीपतियों को मन्दी से बचाने के लिए अरबों रुपये का बेलआउट पैकेज देने वाली सरकार के पास अपने ग़रीब नागरिकों की उजड़ी हुई ज़िन्दगी बहाल करने के लिए चन्द करोड़ रुपये भी नहीं हैं।
हादसे के शिकार लोगों के प्रति सरकारी उपेक्षा का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इतने सालों के दौरान आज तक उनके इलाज की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं की गयी है। ज़हरीली गैसों के असर पर आज तक न तो कोई चिकित्सकीय शोध कराया गया और न ही उसके कारण हुई बीमारियों का कोई उचित इलाज सुनिश्चित किया गया। भोपाल के विभिन्न अस्पतालों में आज भी रोज़ाना करीब 6000 गैस पीड़ित इलाज के पहुँचते हैं। ज्यादातर डॉक्टर लक्षणों के आधार पर उनका कामचलाऊ इलाज करते रहते हैं।
अब भी जारी लापरवाही का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यूनियन कार्बाइड के परिसर में 2 दिसम्बर, 1984 से आज तक 44,000 किलो लिसलिसा कचरा और 25,000 किलो अल्फा नेप्थॉल खुले में पड़ा हुआ है। कई अध्ययन बता चुके हैं कि इससे आसपास के बड़े इलाके की ज़मीन और भूजल में ज़हर घुल रहा है लेकिन सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी है। कारख़ाने के इर्द-गिर्द के इलाकों में बसी अनेक बस्तियों में आज भी पेयजल की पाइप द्वारा आपूर्ति की व्यवस्था नहीं है और लोग दूषित भूजल ही पीने के काम में लाते हैं।
भोपाल हादसे को पच्चीस बरस हो गये मगर इस बीच अनेक छोटे-छोटे भोपाल देशभर में होते रहे हैं। उद्योगीकरण की अन्धाधुन्ध दौड़ में आज भी आये दिन छोटी-बड़ी दुर्घटनाओं में मज़दूरों और आम लोगों की मौत होती रहती है, जिनमें से कुछ अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनती हैं, मगर बहुतों की तो ख़बर तक नहीं हो पाती। भोपाल हादसे की पच्चीसवीं बरसी ने एक बार फिर पूँजी के नरभक्षी चरित्र की याद दिलाने का काम किया है। हमें यह नहीं भूलना होगा कि जब तक पूँजीवाद रहेगा, भोपाल और चेर्नोबिल जैसे हादसे होते रहेंगे।
[stextbox id=”black” caption=”तथ्य गवाह हैं कि यह हादसा नहीं, मुनाफे की दौड़ में इंसानों की बलि थी…”]
अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड औद्योगिक गैसों से लेकर विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों का उत्पादन करती थी। 1954 में इसने ‘सेवन’ नामक एक रसायन का उत्पादन शुरू किया जिसको तैयार करने के दौरान एम.आई.सी. नामक एक गैस पैदा होती है। एम.आई.सी. आज तक बनायी गयी सबसे जहरीली रासायनिक गैसों में से एक है। यह वही वुफख्यात गैस है जिससे प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हज़ारों सैनिकों को चंद मिनटों के भीतर मौत की नींद सुला दिया गया था। यू.सी.सी. के वैज्ञानिकों द्वारा जब इसका परीक्षण चूहों एवं अन्य जानवरों पर किया गया तो उसके नतीजे इतने खतरनाक थे कि वंफपनी ने इस शोध को प्रकाशित ही नहीं होने दिया। वैज्ञानिकों के अनुसार सुरक्षा इंतजाम में किसी भी तरह की चूक से, इसके लीक होने की सूरत में एक अत्यंत भयंकर विस्फोट को नहीं टाला जा सकता था। इसे लीक होने से बचाने के लिए एकमात्र उपाय था कि इसे 5 डिग्री या उससे कम तापमान पर रखा जाए। लेकिन भोपाल संयंत्र में गैस टैंक का तापमान कम रखने के लिये लगाया गया रेप्रिफजरेशन प्लाण्ट जून 1984 से ही बन्द पड़ा था। टैंक का वाल्व भी काफी समय से ख़राब था।
दुर्घटना की आशंका के कारण इस तरह के उत्पादन करने वाली फैक्ट्रियाँ ज्यादातर अमीर देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में स्थापित की जाती हैं, और तैयार उत्पाद को निर्यात करा लिया जाता है। यू.सी.सी. ने भी भारत में अपना काम आज़ादी से पहले ही शुरू कर दिया था। 1966 में भारत सरकार और यू.सी.सी. के बीच हुए एक समझौते के अनुसार ‘सेवन’ रसायन के 5000 टन उत्पादन के लिए भोपाल के काल मैदान में एक फैक्ट्री लगानी थी। इस उत्पादन में से 1200 टन अमेरिका को निर्यात होना था। यू.सी.सी. ने अपने इस कार्यक्रम को सफल बनाने की जिम्मेदारी एदुआर्दो मुनोज़ नामक एक अर्जेण्टीनी इंजीनियर को सौंपी। एदुआर्दो ने तुरंत इस बात पर आपत्ति ज़ाहिर की कि 5000 टन सेविन के उत्पादन के लिए भारी मात्रा में एम.आई.सी. गैस का भण्डारण करना पड़ेगा जो अत्यंत खतरनाक साबित हो सकता था। उन्हाेंने प्रस्ताव रखा कि भण्डारण के बजाए जरूरत के मुताबिक गैस का उत्पादन किया जाए। यह थोड़ा महँगा होगा, लेकिन इससे ख़तरा कम हो जायेगा। उनका प्रस्ताव अमेरिकी औद्योगिक नीति के ख़िलाफ था, और इसलिए उन्हें यह कहकर चुप करा दिया गया कि ‘आपको फिक्र करने की जरूरत नहीं है, हमारी भोपाल इकाई बिल्वुफल चॉकलेट फैक्ट्री जैसी सुरक्षित रहेगी। एदुआर्दो ने फैक्ट्री के लिए चुनी गयी जगह पर भी आपत्ति ज़ाहिर की, क्योंकि यह रिहायशी इलाके के बीच में थी। यह अपील भी ठुकरा दी गई।
नगरनिगम योजना के मानकों के अंतर्गत भी फैक्ट्री के लिए प्रस्तावित जगह रद्द कर दी जानी चाहिए थी, लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुई। दिसंबर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गए। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा खराब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यंत दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना संभव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।
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बिगुल, दिसम्बर 2009
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