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त्रिपुर (तमिलनाडु) के मजदूर आत्महत्या पर मजबूर

तमिलनाडु के त्रिपुर जिले में जुलाई 2009 से लेकर सितम्बर 2010 के भीतर 879 मजदूरों द्वारा आत्महत्या की घटनाएँ सामने आयी हैं। 2010 में सितम्बर तक388 मजदूरों ने आत्महत्या की जिनमें 149 स्त्री मजदूर थीं। सिर्फ जुलाई-अगस्त 2010 में 25 स्त्रियों सहित 75 मजदूरों ने अपनी जान दे दी। दिल दहला देने वाले ये आँकड़े भी अधूरे हैं। ये आँकड़े आत्महत्या करने वाले मजदूरों की महज वह संख्या बताते हैं जो काग़जों पर दर्ज हुई है। इससे भी अधिक दिल दहला देने वाली बात यह है कि इस जिले में हर रोज आत्महत्याओं की औसतन बीस कोशिशें होती हैं। राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि इस जिले में तमिलनाडु के दूसरे जिलों के मुकाबले पिछले तीन वर्षों में कहीं अधिक आत्महत्याओं की घटनाएँ हो रही हैं।

बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से भी वंचित रहते हैं प्रवासी मज़दूर

हर साल करोड़ों स्‍त्री-पुरुष गाँवों में फसल का काम ख़त्म होते ही रोज़गार की तलाश में देश के महानगरों की ओर चल पड़ते हैं। निर्माणस्थलों, ईंटभट्ठों और पत्थर की खदानों में कमरतोड़ काम करते हुए ये रेल की पटरियों के नीचे या सड़कों के किनारे, या गन्दे नालों के किनारे बोरी या पालिथीन की झुग्गियों में रहते हैं, और अक्सर आधा पेट खाकर ही गुज़ारा कर लेते हैं। ऐसे नारकीय हालात में शरीर का तमाम तरह की बीमारियों से ग्रस्त होना लाज़िमी ही है, फिर भी ये दर्द-तकलीफ की परवाह न करके काम में लगे रहते हैं। सरकारी अस्पतालों की सुविधाएँ उन्हें अक्सर मिल नहीं पातीं – ठेकेदार छुट्टी नहीं देता, अनजान शहर में अस्पताल दूर होते हैं और उनके पास राशन कार्ड आदि भी नहीं होते। निजी डाक्टर गली के ठगों की तरह उनकी जेब से आखि़री कौड़ी भी हड़प लेने की फिराक में रहते हैं। ज़्यादातर ठेकेदार इन प्रवासी मज़दूरों को पूरी मज़दूरी नहीं देते। उन्हें बस किसी तरह दो जून पेट भरने लायक मज़दूरी दी जाती है, बाकी ठेकेदार अपने पास रखे रहता है कि काम पूरा होने पर इकट्ठा देगा। लेकिन अक्सर इसमें भी काफी रकम धोखाधड़ी करके मार ली जाती है। ऐसे में अगर कोई गम्भीर रूप से बीमार हो गया – और कमरतोड़ मेहनत, कुपोषण तथा गन्दगी के कारण अक्सर ऐसा होता ही रहता है – तो शहर में रहकर इलाज करा पाना उसके बस में नहीं होता। अक्सर तो अपनी जमा-पूँजी लुटेरे डाक्टरों के हवाले करके उन्हें वापस गाँव लौटना पड़ जाता है।