Category Archives: पाठकों के पत्र

पाठक अनुज लुगुन का पत्र

मैं नियमित रूप से ‘मज़दूर बिगुल’ पढ़ता हूँ। यह पत्रिका हर अंक में वर्तमान समाज और सत्ता के वास्तविक चरित्र को प्रतिबद्धता के साथ प्रस्तुत करती है। आज जब मुख्यधारा की मीडिया पर धनपशुओं का कब्ज़ा हो ऐसे समय में आम जनता की आवाज का कुचला जाना आम बात है। ‘बिगुल’ ऐसे जनविरोधी तंत्र के प्रतिपक्ष में खड़े होकर जनहित की लड़ाई में शामिल है , यह हमारे लिए उम्मीद की बात है।

अन्धकार को दूर भगाओ, मज़दूर मुक्ति की मशाल जगाओ

वे जानते हैं कि अगर हम अपने अधिकारों के लिए एकजुट होना शुरू हो जायें तो जिन आलीशान महलों में वे रह रहे हैं, उनकी दीवारें सिर्फ़ हमारे नारों और क़दमों के शोर से ही काँपना शुरू कर देंगी। इसीलिए वे लगातार हमसे कहते रहते है़ कि अपने अधिकारो को जानने और उनके लिए संघर्ष करने से कुछ हासिल नहीं होगा, मज़दूरों का काम तो बस इतना है कि वो मालिकों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ाते रहने के लिए दिन-रात खटते रहे। लेकिन यह तो हमें तय करना है कि क्या हम यूँ ही लगातार मालिकों की गुलामी करते रहेंगे? या फिर खु़द की और अपनी आने वाली पीढ़ि‍यों की आज़ादी के लिए लड़ने की तैयारी में जुट जायेंगे?

नव वर्ष को समर्पित कविता – बलकार सिंह

लोगों से सुना है,
कल फिर नव वर्ष आना है।
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।
फिर तुम्हारी भूखी नज़रों ने
मेरे जिस्म को खाना है।
रोटी के दो टुकड़ों लिए
हाथ फैलाना है।
भूख दु:ख लाचारी ने
उसी तरह सताना है।
वर्ष तो वही पुराना है,
कल फिर मैं और मेरी माँ ने
लकड़ियाँ बीनने जाना है।

बिगुल के लिए कविता – जगविन्द्र सिंह, कैथल

हम तो बस इसी बहाने निकले हैं
धरती की गोद में बैठकर आसमाँ को झुकाने निकले हैं
जुल्मतों के दौर से, इन्साँ को बचाने निकले हैं
विज्ञान की ज्वाला जलाकर, अँधेरा मिटाने निकले हैं
हम इंसान है, इंसानों को इंसान बनाने निकले हैं

जयपुर से एक पाठक का पत्र

सभी रपटें तल-स्पर्शी हैं, मार्क्सवादी सोच को बेबाकी से उजागर करती हैं| संपूर्ण अख़बार पठनीय है, ज़रूरी लगता है| पत्रकारिता के इस गंभीर-कर्म में जुटे संपादक-मंडल के सभी साथियों, सभी लेखन-सहयोगियों, वितरण और व्यवस्था में लगे साथियों का सम्मिलित प्रयास प्रशंसनीय है|

बिगुल के तीन पाठकों के पत्र

आज सुबह ही डाक में ‘बिगुल’ का अंक गलत पते पर सही हाथों में लिया। डाकिये की इस गलती पर उसे धन्यवाद है। हम यहाँ गुना में मज़दूरों में काम करते हैं। हम सीपीआई से मोहभंग हुए लोग हैं। सदस्य तो बने हुए हैं पर सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें? सदस्यता छोड़ने से गुना जैसे सामन्ती समाज में संघर्ष का झण्डा थामे अपेक्षाकृत बेहतर संगठन के बारे में गलत संदेश जाता है। कृपया मार्गदर्शन करें।

मजदूर और मालिक में दस अन्तर

मजदूर की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वह अंगूर की तरह सूखकर किशमिश बन जाता है । मालिक की उम्र बढ़ती है तो वह सुअर की तरह चर्बीदार होकर बेडौल हो जाता है तथा लकड़बग्घे की तरह फैक्ट्री से घर और घर से फैक्ट्री दौड़ते-दौड़ते नीरस हो जाता है ।